महाजनपदों के बारे में विस्तृत जानकारी | सोलह महाजनपद विस्तृत जानकारी | 16 महाजनपद का इतिहास | Mahajn Pad GK in Hindi
महाजनपदों के बारे में विस्तृत जानकारी
वैदिक काल में समस्त भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था किन्तु इस काल तक राजतंत्र अधिक प्रभावी हो गये थे। अब राज्यों में अपनी सीमाओं के विस्तार तथा अपनी शक्ति में अभिवृद्धि के लिए परस्पर संघर्ष होना स्वाभाविक था। इस प्रक्रिया में सार्वभौम सम्राट का आदर्श मगध शासकों ने स्थापित किया, जैसा कि रायचौधरी ने लिखा है-इस प्रकार कूटनीति और ताकत के बल पर बिम्बिसार ने अंग राज्य तथा काशी के एक भाग को मगध में मिला लिया था। फिर तो मगध निरन्तर विस्तार की ओर बढ़ता गया और तब तक बढ़ता गया जब तक कि महान अशोक ने कलिंग के बाद अपनी तलवार रख नहीं दी। मगध साम्राज्य के विषय में चर्चा करने से पूर्व भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति की समीक्षा करना आवश्यक है, जिससे यहां के राजनीतिक वातावरण का एक मोटा चित्र बन सके। जैन एवं बौद्ध साहित्य में 16 महाजनपदों का विवेचन मिलता है जिनमें मगध महाजनपद भी एक था। इसके अतिरिक्त वज्जि एवं मल्ल गणराज्यों को भी महाजनपदों में सम्मिलित किया गया है। इन गणराज्यों में गणतंत्रात्मक शासन पद्धति का प्रचलन था।
16 महाजनपद का उदय
- महाजनपद इस काल से पूर्व भी प्रमुख राज्यों का विवरण वैदिक साहित्य में मिलता है गंधार, केकय, मद्र, वश उशीनर, मत्स्य, कुरू, पञ्चाल, काशी एवं कोशल इनके पूर्व में मगध एवं अंग तथा दक्षिण में आन्ध्र पुलिन्द, मतिल आदि का उल्लेख आया है जिनकी चर्चा हमने पूर्व में की है। किन्तु इस युग में गन्धार से लेकर बंगाल की सीमा तक संपूर्ण उत्तरी भारत के सोलह महाजनपदों में विभक्त होने की जानकारी भगवती सूत्र एवं अंगुत्तर निकाय आदि से मिलती है।
- अंगुत्तर निकाय में सोलह महाजनपदों का उल्लेख इस प्रकार आया है अंग, काशी, कोशल, वत्स, अवन्ति, चेदि, कुरू, पंचाल, मत्स्य, शूरसेन, गंधार, काम्बोज, अश्मक, वज्जि एवं मल्ल (गणराज्य) और मगध |
सोलह महाजनपद विस्तृत जानकारी
अंग महाजनपद
- यह जनपद मगध से पूर्व में एवं राजमहल पहाड़ियों के पश्चिम में स्थित था। इसमें दक्षिण बिहार के भागलपुर एवं मुंगेर जिले सम्मिलित थे। संभवत: इसका विस्तार उत्तर की ओर कोसी नदी तक था और पूर्णिया जिले के कुछ भाग भी इसमें जुड़ गये थे। भागलपुर के समीप चम्पा (चांदन) इसकी राजधानी थी। मगध एवं अंग के मध्य चंपा नदी बहती थी उसी के किनारे चंपा नगर स्थित था। बौद्धकालीन छ: बड़े नगरों में चंपा नगर की गणना की जाती है। यह अपने व्यापार एवं वाणिज्य के लिए विख्यात था एवं व्यापारियों के यहां से सुदूर पूर्व गंगा पार करके जाने की जानकारी मिलती है। प्रारंभ में अंग एक शक्तिशाली जनपद था। विधुर पण्डित जातक के अनुसार राजगृह शुरू में अंग राज्य का ही एक नगर था। कालान्तर में इसका पड़ोसी राज्य मगध के साथ संघर्ष हुआ जिससे इसकी स्थिति कमजोर हो गई। बुद्ध के समय अंग एवं मगध में संघर्ष की स्थिति बनी रहती थी. यहाँ के राजा ब्रह्मदत्त ने एक बार युद्ध में मगध को परास्त कर दिया था। किन्तु बाद में उसे मगध से पराजित होना पड़ा एवं ब्रह्मदत्त मारा गया और बुद्ध के समय में ही अंग को मगध में विलीन कर लिया गया। भागलपुर के निकट चम्पा के उत्खनन से उत्तरी काले पॉलिश युक्त (एन.वी.पी.डब्ल्यू.) मृद्भाण्ड बड़ी तादाद में मिले हैं। उत्खनन करने वाले विद्वानों ने इसके कालक्रम के चरण स्पष्ट रूप से नहीं बताएं हैं। यहां एक मिट्टी का परकोटा है। पहले एवं दूसरे चरण में चार-चार कमरे हैं और इस चरण में मिट्टी के बने चम्मच, लटकन तथा फलक भी पाये गये हैं।
काशी महाजनपद
- वर्तमान उत्तर प्रदेश के दक्षिण पूर्व में स्थित काशी की राजधानी वाराणसी (बनारस) थी जो वरुणा एवं असी (गंगा एवं गोमती) नदियों का संगम स्थल है। इस काल में यह नगर व्यापार, शिल्प एवं शिक्षा के लिए विख्यात था। काशी को सूती कपड़ों एवं घोड़ों के व्यापार का भी प्रमुख केन्द्र कहा गया। यहां की भूमि के अत्यधिक उपजाऊ होने के उल्लेख मिलते हैं। संभव जातक में विवरण मिलता है कि इस नगर का क्षेत्रफल 12 योजन (36 मील) था। इसे भारत के प्रमुख नगरों में से एक कहा गया है। महावग्ग में काशी राज्य की शक्ति और समृद्धि का विवेचन मिलता है। जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन काशी के राजा कहे गये हैं।'दशरथ जातक' में दशरथ, राम आदि को अयोध्या के स्थान पर काशी का राजा बताया गया है। बुद्ध ने भी अपना प्रथम उपदेश बनारस के निकट सारनाथ में दिया था। काशी के प्रतापी राजा ब्रह्मदत्त के काल में यह एक प्रमुख राज्य बन गया था। महावग्ग से ज्ञात होता है कि ब्रह्मदत्त आदि राजाओं ने कोशल को अपने अधीन कर लिया था। कोशल के साथ संघर्ष में काशी द्वारा बड़ी सेना के साथ आक्रमण किये जाने का उल्लेख ब्रहाचत जातक में मिलता है। परन्तु अन्त में काशी की पराजय हुई।
- गोदावरी के तट पर बसी अस्सक की राजधानी पोतालि को अस्सक जातक में काशी राज्य की नगरी कहा गया है। संभवत: अस्सक शासक ने अल्पकाल के लिए काशी की अधीनता स्वीकार की होगी। सोननंद जातक से ज्ञात होता है कि काशी शासक मनोज ने कोशल, मगध एवं राज्य के राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। यहाँ के राजाओं को महावग्ग में सब राजाओं में अग्रज एवं समृद्धशाली कहा गया है।
- पुराविदों की मान्यता है कि बनारस के रूप में पहचाने गये राजघाट से छठी शताब्दी ईसा पूर्व में शहरीकरण के कोई विशिष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं। एक प्रमुख नगर के रूप में इसका उदय 450 ईसा पूर्व के लगभग हुआ होगा। कहा गया है कि बौद्ध भिक्षुओं के गेरूए वस्त्र (काशय) बनाए जाने के कारण इसे काशी कहा जाने लगा।
कोशल महाजनपद
- युद्ध के समय कोशल उत्तरी भारत में महत्त्वपूर्ण राज्य था। इसकी उत्तरी सीमा पर नेपाल, दक्षिण में गंगा नदी, पूर्व में इलाहाबाद और शाक्य राज्य को इसके पूर्व में बताया गया। राय चौधरी ने कोशल का सीमांकन इस प्रकार किया है कोशल राज्य के पश्चिम में गोमती, दक्षिण में सर्पिका (सई नदी), पूर्व में विदेह से कोशल को अलग करने वाली सदानीरा तथा उत्तर में नेपाल की पहाड़ियाँ थीं। 1969-70 में अयोध्या में किये गये उत्खनन से जानकारी मिली है कि यह क्षेत्र उत्तरी काली पॉलिशदार मृद्भाण्ड के समय आबाद हुआ।
- मज्झिम निकाय में कोशल नरेश का कथन मिलता है कि 'वह भी कोशल का है तथा भगवान बुद्ध भी कोशल के हैं।' रामायण तथा पुराणों से विदित होता है कि कोशल के पूर्ववर्ती राजा इक्ष्वाकु (इच्छ्वाकु) वंशीय थे। इक्ष्वाकु के ही वंशज कुशीनारा, मिथिला तथा वैशाली में राज्य करते थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कोशल का उदय कई छोटी-छोटी इकाइयों के सामंजस्य से हुआ। संभवतः छठी शताब्दी ईसा पूर्व के शुरू में यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे शासकों में बंटा हुआ था जो अलग-अलग कस्बों में शासन करते थे। रामायण काल में कोशल की राजधानी अयोध्या थी। विनय में दिगहु का एक कथानक मिलता है काशी नरेश ब्रह्मदत्त ने कोशल पर आक्रमण किया उस समय 'दिति श्रावस्ती का राजा था। ब्रह्मदत्त ने संपूर्ण राज्य जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया परन्तु दिग्ति के पुत्र ने पुनः अपने राज्य को जीत लिया था। कोशल राजा बंक, दब्बसेन तथा कंस द्वारा काशी पर आक्रमण किये जाने की जानकारी मिलती है। राजोवदान जातक में एक रोचक आख्यान आया है जिसमें पहले दो राजाओं के संघर्ष को बताया गया तथा अनेक कथानकों के साथ वाराणसी के राजा की विशेषताओं का उल्लेख किया गया। इस काल में काशी के अतिरिक्त किसी अन्य राजा अथवा जाति के साथ कोशल के संघर्ष का उल्लेख नहीं मिलता। संभवत: इसके उत्तर में स्थित जातियों (छोटे-छोटे राज्यों) का विलीनीकरण क्रमिक रूप से हुआ। परन्तु इसके संबंध काशी से अच्छे नहीं थे अतः दोनों जनपदों में संघर्ष प्रारंभ हो गया। इसका परिणाम कोशल के पक्ष में गया और अन्त में कंस ने काशी पर अधिकार कर लिया। प्रसेनजित ने पिता महाकोशल के समय काशी को कोशल जनपद का अधीनस्थ राज्य कहा है। छठी शताब्दी के अन्तिम वर्षों में महाकोशल एवं प्रसेनजित का काशी पर कब्जा हुआ होगा। काशी एवं कोशल की लड़ाई बुद्ध जन्म के बाद की घटना थी। रीजडेविड्स की मान्यता थी कि इस संघर्ष में चार राजा क्रमशः युद्धरत रहे एवं यह संघर्ष सौ वर्ष तक चला। काशी के कोशल में मिला ये जाने से तीन बड़े शहरों- अयोध्या, साकेत एवं श्रावस्ती को अपने नियंत्रण में लेकर कोशल एक संपन्न राज्य हो गया। बौद्ध धर्म धम्मपद की अट्ठकथा के अनुसार प्रसेनदि (प्रसेनजित) कोशल का राजा था जिसकी शिक्षा तक्षशिला में हुई थी। इसे 'महालि' का सहपाठी कहा गया जो दान के लिए बहुत प्रसिद्ध था। प्रसेनजित बुद्ध का समकालीन था तथा इक्ष्वाकु वंश की अन्य शाखा से संबद्ध था। इस तथ्य की पुष्टि स्वयं प्रसेनजित के इस अभिकथन से होती है कि 'भगवान बुद्ध भी अस्सी के हैं तथा मैं भी अस्सी वर्ष का हूँ।' मेदलुम्प नामक स्थान पर बुद्ध एवं राजा के मध्य विचार-विमर्श का उल्लेख मिलता है। कोशल नरेश की बहिन 'सुमन' ने बौद्ध होने की इच्छा व्यक्त की थी किन्तु वह ऐसा नहीं कर सकी, संयुक्त निकाय से ऐसी जानकारी मिलती है। मध्य प्रदेश में स्थित भरहुत स्तूप में एक बुद्ध मूर्ति पर उत्कीर्ण लेख से भी प्रसेनजित एवं बुद्ध की समकालीनता प्रमाणित होती है। सेतव्या (साकेत) तथा उत्कट ( श्रावस्ती या सालवती) कोशल राजा ने ब्राह्मणों को दान में प्रदान की थी। महाकोशल ने मगध के सम्राट बिम्बिसार को विवाह में अपनी पुत्री कोशलदेवी को देते समय काशी का गाँव उसके शृंगार प्रसाधन के व्यय हेतु दिया था। संयुक्त निकाय में दो युद्धों का विवेचन मिलता है प्रथम के अनुसार मगध शासक अजातशत्रु ने काशी राज्य में प्रसेनदि पर आक्रमण किया एवं वह श्रावस्ती (श्रावत्थि) में शरण लेने को बाध्य हुआ। दूसरे युद्ध में प्रसेनदि ने अजातशत्रु को परास्त कर बन्दी बना लिया था तथा कुछ समय बाद मुक्त भी कर दिया और अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह उसके साथ (अजातशत्रु) किया।
- प्रसेनजित बहुपत्नीक था, एक बार उसने एक मालाकार के मुखिया की पुत्री मल्लिका को देखा एवं उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो गया। यद्यपि वह वृद्ध हो चुका था तथापि उसने 16 वर्ष की कन्या के साथ विवाह कर लिया। उसके विवाह के संबंध में एक दूसरी घटना का भी उल्लेख मिलता है। वह कपिलवस्तु के शाक्यों के साथ विवाह संबंध स्थापित करना चाहता था परन्तु शाक्य इससे सहमत नहीं थे किन्तु भय के कारण अस्वीकार न कर सके। अतः धोखे से एक दासी वासवरवत्तिया के साथ प्रसेनजित का विवाह करवा दिया। इसी से प्रसेनजित को विड्डभ (विरूद्धक) नामक पुत्र प्राप्त हुआ। तिब्बती जनश्रुति के अनुसार विरूद्धक की माता का नाम मल्लिका था जो शाक्यों की दासी थी ।
- प्रसेनजित को सलाह देने के लिए राज्य में एक मन्त्रिपरिषद् थी। इसमें 500 सदस्य थे। मज्झिम निकाय में एक मंत्री का नाम श्रीवठ (श्री वृद्ध) आया है। उवसगदसाओ ने एक अन्य मंत्री मृगधर का जिक्र किया है, अन्यत्र दीर्घकारायण का नाम भी मिलता है। विरूद्धक ने एक बार मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों को प्रलोभन एवं छल से अपनी ओर मिलाकर प्रसेनजित को पदच्युत कर दिया था एवं स्वयं राजा बन बैठा। निराश्रित प्रसेनजित अपने दामाद अजातशत्रु के राज्य में शरण लेने के लिए रवाना हुआ। परन्तु गृह सीमा पर ही उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद विरूद्धक ने शाक्यों से बदला लेने का निश्चय किया, उसके प्रधानमंत्री अम्बरीश ने कूटनीति से काम लेते हुए शाक्यों को अपनी द्वेषहीनता का विश्वास दिलाया और दुर्ग-द्वारों को खुलवा दिया। सुरक्षा द्वार के खुलने पर विरूद्धक की सेनाओं ने आक्रमण कर दिया, उसकी विजय हुई। युद्ध में लगभग 7700 शाक्य मारे गये। इस प्रकार शाक्यों की स्वायत सत्ता समाप्त हो गई। किन्तु वह स्वयं जब वापस लौट रहा था, अचरावति नदी को पार करते हुए बाढ़ में सेना सहित बह गया।
वत्स महाजनपद
- वत्स (वच्छ) की राजधानी इलाहाबाद के समीप यमुना के तट पर कौशाम्बी (आधुनिक कोसम) थी। कौशाम्बी को उज्जैन से 400 मील दूर तथा बनारस से 230 मील दूर बताया गया है। सुत्तनिपात में उज्जैन से विदिशा होते हुए कौशाम्बी तक एक मार्ग जाने का उल्लेख मिलता है। वत्स को गंगा के दक्षिण में स्थित कहा गया है। इलाहाबाद के निकट यमुना के तट पर आधुनिक कोसम को कौशाम्बी के रूप में जाना जाता है। यहां से कुषाण युग के अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त अशोक के प्रसिद्ध अभिलेख पर समुद्रगुप्त के विजय अभियान का वर्णन अंकित है।
- बुद्ध के समय यहाँ उदयन राज्य करता था जिसे पौरव वंशी माना गया है। उसके पिता का नाम परन्तप ( शतानीक ) था, उसके एक पुत्र का नाम बोधी कुमार मिलता है। संभवतः गद्दी पर आसीन होने से पूर्व ही इसकी मृत्यु हो गई थी। उदयन अवन्ति शासक प्रद्योत मगध नरेश बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के समकालीन था। नाटककार भास ने अपने नाटकों द्वारा वत्स नरेश उदयन को अमर बना दिया। भास रचित स्वप्नवासवदत्ता से विदित होता है कि उदयन और प्रद्योत के बीच वैमनस्यता थी, परन्तु वासवदत्ता के साथ विवाह हो जाने के पश्चात् मित्रता हो गई। इस नाटक का संपूर्ण कथानक उदयन तथा अवन्ति राजकुमारी वासवदत्ता के बीच प्रेम संबंध पर आधारित है। इस विवाह संबंध के पश्चात् उदयन के कुशल मंत्री यौगन्धरायण ने अपने स्वामी का विवाह मगधराज दर्शन की पुत्री पद्मावती के साथ भी करवा दिया। अट्टकथा में उदयन के तीन रानियों का उल्लेख मिलता है। उसके काल में पाली में उद्देनवत्थु एवं संस्कृत में मकन्दिका अवदान लिखे गये हैं। अवन्ति के राजा प्रद्योत के साथ उसकी शत्रुता के विषय में अनेक मनोरंजक कथानक मिलते हैं। किन्तु वासवदत्ता एवं उदयन के प्रणय प्रसंग की चर्चा विशेष उल्लेखनीय है ।
- ओल्डेनवर्ग ने ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित 'वंशस' को वंश या वत्स बताया है। परन्तु यह समीकरण सन्दिग्ध प्रतीत होता है। पुराणों में वत्स राजा का वर्णन मिलता है। महाभारत के किसी चेदी राजा द्वारा कौशाम्बी नगर की स्थापना का उल्लेख आया है। गंगा की भयानक बाढ़ से जब हस्तिनापुर नष्ट हो गया था तो जनमेजय के प्रपौत्र विचक्षु ने कोशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया। कौशाम्बी नगर व्यापारिक मार्गों के संगम पर बसा हुआ था।
- प्रियदर्शिका और कथा सरित्सागर में उदयन की दिग्विजय का विवरण मिलता है। पूर्व में उसने वंग और कलिंग को, दक्षिण में चोल राज्य और कोल राज्य तक के प्रदेश को जीता। पश्चिमी भारत में मलेच्छों, तुरूष्कों, पारसीकों और हूणों को पराजित किया, परन्तु इस वर्णन को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता। सुसमारगिरी भग्ग जनपद ( मिर्जापुर) उदयन के अधीन होने की जानकारी मिलती है।
- एक बार उसने शराब के नशे में बौद्ध भिक्षु पिण्डोल भारद्वाज के शरीर से एक टोकरी भर कर पीली चीटियाँ बन्धवा दी थीं। किन्तु आगे जाकर पिण्डोल भारद्वाज से ही उसने बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण की।
अवन्ति महाजनपद
- पश्चिमी भारत में स्थित अवन्ति छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सबसे शक्तिशाली महाजनपदों में से एक था। वर्तमान मालवा प्रदेश को अविन्त राज्य की संज्ञा दी जाती थी। प्रधानतः इसके दो भाग थे उत्तरी एवं दक्षिणी अवन्ति, जिसकी क्रमशः उज्जैनी एवं महिष्मति राजधानी थी। दोनों 50 योजन (400 मील) दूरी पर स्थित कही गई हैं। महिष्मति (मान्घता द्वीप) नर्मदा तट पर स्थित थी। इन नगरों को धर्म और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण केन्द्र कहा जाता है। प्राचीन काल में हैहय तथा इससे पूर्व इक्ष्वाकु वंश राज्य करता था। महाभारत में अवन्ति एवं महिष्मति को दो राज्य कहा है। महात्मा बुद्ध के समय यहाँ प्रद्योत (पज्जोत) नामक राजा राज्य करता था। महावग्ग में उसे चण्ड के नाम से संबोधित किया है जबकि भास ने महासेन के नाम से अवन्ति एवं वत्स दोनों में वैमनस्य था। वत्सराज उदयन ने अवन्ति नरेश प्रद्योत की कन्या वासवदत्ता का अपहरण कर विवाह किया था। किन्तु दोनों की शत्रुता धीरे-धीरे समाप्त हो गई।
- मज्झिम निकाय से विदित होता है कि प्रद्योत के आक्रमण के भय से अजातशत्रु ने राजगृह को दुर्गीकृत करवाया। मथुरा के शूरसेन राज्य के राजा को बुद्ध के समय 'अवन्ति पुतो' कहा है। संभवत: यहाँ का शासक अवन्ति का राजकुमार रहा होगा। ललित विस्तार में बुद्ध के समकालीन शासक को सुबाहु कहा है। अवन्ति उस समय बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ के कुछ उत्साही धर्म प्रचारकों के नाम मिलते हैं- अभयकुमार, ईसीदासी, असीदत्त, धम्मपाल एवं सोना कुट्टिन आदि। सोना कुट्टिन को भाषण कला में प्रवीण माना गया है। धर्मप्रचारक श्रावस्ती, तक्षशिला, अवन्ति आदि में संचरण करते थे। अवन्ति के कई छोटे-बड़े कस्बों का जिक्र आया है। बौद्ध तथा जैन साहित्य में अवन्ति राज्य के कुररधर, मक्करकर, सुदर्शनपुर आदि अन्य नगरों का उल्लेख मिलता है। पुराणों से विदित होता है कि अवन्ति तथा विदर्भ की स्थापना यदुवंशियों ने की। कृषि के लिए उपजाऊ भूमि होने तथा दक्षिण के व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने के फलस्वरूप यदुओं ने यहां एक केन्द्रीकृत राज्य की स्थापना कर ली थी। ऐतरेय ब्राह्मण में भी सात्वतों तथा भोजों को दक्षिण में फैली हुई यदुवंश की शाखा कहा गया। हैहयवंश की पांच प्रमुख शाखायें थी -वीतिहोत्र, भोज, अवन्ति, कुण्डीकेर तथा तालजंघ। चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व में अवन्ति मगध साम्राज्य का अंग हो गया था। अवन्ति शासक चण्ड प्रद्योत ने बुद्ध के शिष्य महाकच्छायन के प्रभाव से बौद्ध धर्म को स्वीकार किया था। प्रद्योत ने महात्मा बुद्ध को भी अवन्ति आमन्त्रित किया था परन्तु वे नहीं आ सके तथा महाकच्छायन सहित सात प्रमुख शिष्यों को भेजा।
- प्रद्योत के बाद मगध सम्राट शिशुनाग ने अवन्ति को परास्त कर अपने राज्य में मिला लिया था। जिसकी चर्चा आगे की गई है। अवन्ति राज्य का पर्याप्त आर्थिक महत्त्व था क्योंकि अनेक व्यापारिक मार्ग इस प्रदेश से गुजरते थे। उज्जैन से उत्तरी काली पॉलिशदार मृद्भाण्ड अवशेष, मृण्यमूर्तियां, मातृदेवी की मूर्तियां, कीमती पत्थर एवं लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं। शुगकालीन मृणमूर्तियां तथा तांबे के ढलवां सिक्के भी मिले हैं।
चेदि महाजनपद
- यमुना नदी के किनारे आधुनिक बुन्देलखण्ड तथा उसके आस-पास के प्रदेश में फैला हुआ था। इसकी राजधानी शक्तिमति थी। जातकों में 'सोत्यवती नगरी' का उल्लेख मिलता है, जिसका समीकरण शक्तिमति के साथ किया जाता है जो संभवत: उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित थी। ऋग्वेद में चेदि राज्य का उल्लेख हुआ है। महाभारत में शिशुपाल को चेदि राजा कहा गया। इसके शासन काल में यह राज्य उत्कर्ष पर था किन्तु उसकी मृत्यु के बाद इसका पतन प्रारंभ हो गया। इस वंश की एक शाखा कलिंग में भी राज्य करती थी। महाभारत में विवरण आया है कि चेदि चम्बल के पार मत्स्य बनारस के काशियों तथा सोन नदी की घाटी में करूषों के निकट सम्पर्क में थे। उड़ीसा (कलिंग) में चंदि वंश का शासक खारवेल था। संभवत: चेदि वंश के किसी राजकुमार ने यहाँ इस वंश को प्रस्थापित किया होगा।
कुरू महाजनपद
- वर्तमान दिल्ली तथा मेरठ के समीपवर्ती प्रदेश कुरू राज्य में सम्मिलित थे। इसकी राजधानी यमुना के तट पर इन्द्रप्रस्थ थी। इन्द्रप्रस्थ के अतिरिक्त हस्तिनापुर एवं इशुकर को भी कुरूओं की राजधानी कहा गया। इनमें से प्रत्येक का अपना शासक था। हमें कुरूओं के विषय में सर्वाधिक जानकारी महाभारत में मिलती है, इसमें दी गई कौरवों एवं पाण्डवों के बीच उत्तराधिकार युद्ध की गाथा से सभी परिचित हैं। वत्स प्रदेश में जिस राजतंत्र की स्थापना हुई थी वह संभवतः कुरू की ही एक शाखा थी। पौराणिक ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि हस्तिनापुर के बाढ़ से नष्ट हो जाने पर राजवंश के कुछ लोग वत्स राज्य में विस्थापित हुए। हस्तिनापुर के उत्खननों से बाढ़ की पुष्टि होती है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड वाले स्थल के रूप में हस्तिनापुर प्रसिद्ध रहा है। यहां किये गये उत्खनन से सात उपकालों में पकी ईंटों के बने मकान मिले हैं। ई.पू. दूसरी शताब्दी के मथुरा के शासकों के सिक्के मिले हैं। महमूत सोमजातक के अनुसार इस राज्य में तीन सौ संघ थे। पाली ग्रंथों से ज्ञात होता है कि यहाँ के शासक युधिष्ठला गोत्र के थे। जैन ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र में कुरू नरेश को इक्ष्वाकुवंशीय कहा है। जातक कथाओं में सुत, सोम, कौख, धनंजय आदि कुरूदेश के राजा माने गये प्रारंभ में कुरू प्रदेश शक्तिशाली राजतंत्र था किन्तु बाद में यहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई। अर्थशास्त्र में कुरू राज्य को गणराज्यों में सम्मिलित किया है।
पांचाल महाजनपद
- उत्तर वैदिक काल से ही पांचाल राज्य दो भागों में विभक्त था- उत्तर पांचाल जिसकी राजधानी अहिच्छत्र थी तथा काम्पिल्य दक्षिण पांचाल की राजधानी कही गई है। समस्त रूहेलखण्ड एवं गंगा-यमुना के पूर्वी भाग अर्थात् आधुनिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश इसी जनपद के अर्न्तगत थे। हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में चंबल नदी, पूर्व में कोशल एवं पश्चिम में कुरू जनपद इसकी सीमायें निर्धारित करते थे। महाभारत में इसका उल्लेख मिलता है। द्रौपदी पांचाल नरेश द्रुपद की पुत्री थी, उसे पांचाली भी कहा जाता था। प्रसिद्ध कन्नौज नगर इसी जनपद में स्थित था । अहिच्छत्रा 300 ई.पू. में एक बड़ी आबादी के रूप में विकसित था, जहां निर्माण के लिए कच्ची ईंटों का उपयोग किया गया। यहां से मित्र उपाधि वाले अनेक राजाओं के सिक्के मिले हैं। पांचाल एक राजतंत्र था किन्तु संभवतः कौटिल्य के समय तक यहाँ भी गणराज्य की स्थापना हो गई थी। ब्रह्मदत्त राज्य का प्रतापी शासक था। महाउमग्ग जातक, उत्तराध्ययन सूत्र, स्वप्नवासवदत्ता में इसका उल्लेख मिलता है। उसे (ब्रह्मदत्त को ) उत्तराध्ययन सूत्र में पृथ्वी का महान राजा कहा गया, इसी ग्रंथ में काम्पिल्य के राजा संजय द्वारा राज्य त्याग कर जैन धर्म स्वीकार किये जाने का विवेचन आया है।
मत्स्य महाजनपद
- इस जनपद में आधुनिक जयपुर, भरतपुर तथा अलवर क्षेत्र सम्मिलित थे। कनिघम ने इसकी राजधानी विराट (आधुनिक बैराठ) होने का उल्लेख किया है। संभवत: विराट नामक संस्थापक राजा के नाम से इसकी राजधानी विराट नगर के नाम से प्रसिद्ध हुई साहित्यिक ग्रंथों से अपर मत्स्य, वीर मत्स्य आदि के विवरण मिलते हैं, संभवत: ये मूल राज्य की प्रशाखायें रही होंगी। महाभारत में राजा 'सहज' का वर्णन आया है जिसे चेदि तथा मत्स्य का शासक कहा गया। यह क्षेत्र पशुपालन के लिए उपयुक्त था। महाभारत में जिक्र आया है कि कौरवों ने विराट पर आक्रमण किया एवं मवेशियों को हांक कर ले गए। स्पष्ट है स्थायी कृषि पर आधारित शक्तियों से मत्स्य मुकाबला न कर सके। बौद्ध साहित्य में इस राज्य का उल्लेख नहीं मिलता, ऐसा प्रतीत होता है कि मत्स्य इस काल में चेदि का अधीनस्थ राज्य हो गया था। बाद में इसे मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। अशोक के विख्यात प्रज्ञापन (आदेश पत्र) वैराट (जिला जयपुर) में पाए गए हैं।
शूरसेन महाजनपद
- कुरू जनपद में दक्षिण एवं चेदि के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में स्थित था। इसकी राजधानी मथुरा थी, यहां पूर्व में यदुवंशी (यादव), अन्धक एवं वृष्णियों का गणराज्य था। महाभारत काल में मथुरा एक महत्त्वपूर्ण नगर था, श्री कृष्ण का जन्म यादव वंश में हुआ। शूरसेन नरेश 'अवन्ति' महात्मा बुद्ध का अनुयायी था, उसने अपने राज्य में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करवाया। इसे बुद्ध का समकालीन बताया जाता है। अवन्ति पुत्र के नाम से प्रतीत होता है कि मथुरा एवं अवन्ति के मध्य वैवाहिक संबंध थे। पाणिनी ने अन्धक तथा वृष्णजन का निवास स्थान मथुरा कहा है। मथुरा विख्यात प्राचीन भारतीय व्यापार मार्ग उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ के मध्य स्थित था। इसका कारण यह था कि मथुरा स्थायी कृषि वाले गंगा के मैदानों एवं चरागाहों, जो मालवा के पठार तक पहुंचते थे, के अन्तर्वती क्षेत्रों के मध्य स्थित था। इसीलिए मथुरा का महत्त्व बढ़ गया था। मथुरा में 1954-55 में खुदाई करवाई गई, यहां से उत्तरी काली पॉलिशदार मृद्भाण्ड वाले चरण में ईंट की इमारतें भी देखी गई। इसके बाद के चरण में कीमती पत्थरों के विभिन्न प्रकार के मनके और तांबे के सिक्के पाये गये हैं। यहां से कुषाण कालीन सिक्के भी मिले हैं।
गान्धार महाजनपद
- भारत के पश्चिमोत्तर भाग (जिसे उत्तरापथ भी कहा जाता है) में गांधार जनपद स्थित था। यह आधुनिक अफगानिस्तान के पूर्व, पश्चिम पंजाब का अधिकांश क्षेत्र, आधुनिक पेशावर तथा रावलपिंडी तक विस्तृत था। एक जातक में कश्मीर भी इसमें सम्मिलित किया गया। बौद्ध साहित्य में इसकी राजधानी तक्षशिला कही गई। यह नगर उस काल में विद्या एवं व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र था। दूर-दूर से विद्यार्थी यहां विद्याध्ययन करने आते थे। जातकों से विदित होता है कि देश के विभिन्न स्थानों से छात्र वहां जाकर आचार्यों के सान्निध्य में रहकर शिल्प का ज्ञान प्राप्त करते थे। पाटलिपुत्र निवासी जीवक ने तक्षशिला में जाकर अध्ययन किया जो कालान्तर में आयुर्वेद का महान विद्वान बना। वह महात्मा बुद्ध का समकालीन था। कोशल नरेश प्रसेनजित मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त, महान राजनीतिज्ञ कौटिल्य ख्यातिलब्ध वैद्य जीवक, वैयाकरण पाणिनी और पंतजलि यहाँ से शिक्षा ग्रहण करके अपने-अपने क्षेत्र में विख्यात हुए थे।
- ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गांधार में पुष्कर सारिन राज्य करता था। इसका अवन्ति शासक चण्ड प्रद्योत से संघर्ष हुआ एवं उसे युद्ध में परास्त किया। मगध के साथ उसके अच्छे संबंध थे, मगध में उसने अपना राजदूत भी भेजा था। आधुनिक तक्षशिला के उत्खनन से ज्ञात होता है कि 1000 ई.पू. में यह क्षेत्र आबाद हो चुका था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक आते-आते तक्षशिला एक विकसित नगर का स्वरूप ग्रहण कर चुका था। उत्खनन से प्राप्त सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि पाँचवीं सदी ई.पू. से ईसवी सन की पाँचवी शताब्दी तक यह शहर अस्तित्व में रहा। दस्तकारी उद्योगों का इस नगर के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा। प्रथम तक्षशिला की पहचान भीर टीले की जाती है। पाँचवीं सदी ई.पू. में अनियमित तरीके से बस्ती बसाई गई। मौर्य शासनकाल तक यहां लोग रहते थे। दूसरी तक्षशिला को बैक्ट्रिया के यूनानियों ने भीर टीले के उत्तर में बसाया। इसे शतरंज पद्धति पर विकसित किया गया। कुषाण काल में इसके तीसरे भाग में लोग बसने लगे थे।
काम्बोज महाजनपद
- काम्बोज उत्तरापथ में ही स्थित आधुनिक राजोरी एवं हजारा जिलों में प्राचीन काम्बोज राज्य सीमित था। कुछ विद्वानों के अनुसार यह जनपद गांधार के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में विस्तृत था एवं गांधार के समीपवर्ती पामीर तथा बादख्शां इसमें सम्मिलित थे। इसकी राजधानी हाटक अथवा राजपुर कही गई है। बौद्ध ग्रंथों में गांधार-काम्बोज का नामोल्लेख साथ-साथ हुआ है। कौटिल्य से पूर्व राजतंत्र था परन्तु मौर्यकाल तक यहाँ संघ राज्य की स्थापना हो गई थी। अर्थशास्त्र में काम्बोज को 'वर्ल्सशास्त्र पजीविन' अर्थात् कृषकों, चरागाहों, व्यापारियों तथा योद्धाओं का संगठन कहा गया है।
अश्मक महाजनपद
- गोदावरी नदी के तट पर स्थित 'पोतन' या 'पोटली' अश्मक की राजधानी कही गई है। पुराणों से ज्ञात होता है कि इस राज्य के शासक इक्ष्वाकु वंश के थे। अश्मक एवं मूलक प्रदेशों को पड़ोसी राज्य माना गया है। किसी समय यह काशी जनपद के अधीन थी। अश्मक नरेश प्रवर अरुण एवं उसके मंत्री नन्दिसेन का उल्लेख चुल्लकलिंग जातक में मिलता है जिसने कलिंग पर विजय प्राप्त कर अपने अधीन कर लिया था। दीर्घनिकाय के महागोविंदसुत्त में विवरण मिलता है कि रेणु नामक सम्राट के ब्राह्मण पुरोहित महागोविन्द ने अपने साम्राज्य को सात अलग-अलग भागों में विभक्त किया जिसमें अश्मक भी एक था। प्राग् बौद्ध काल में इसका अवन्ति के साथ संघर्ष हुआ और इसे अवन्ति राज्य में मिला लिया गया।
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