द्धितीय कर्नाटक युद्ध 1749-1754 | गाडेहू संधि |दूसरे कर्नाटक युद्ध के परिणाम | 2nd Karnatak War In Hindi
द्धितीय कर्नाटक युद्ध 1749-1754
- प्रथम कर्नाटक युद्ध की सन्धि ने केवल युद्ध विराम की तरह कार्य किया और वह भी बहुत अल्प समय के लिए। यह युद्ध भारतीय राजनैतिक इतिहास की दृष्टि से जल-विभाजक माना जा सकता है। इस युद्ध के कारण दोनों कम्पनियों द्वारा भारतीय उत्तराधिकार की लड़ाई में हस्तक्षेप था।
- इस युद्ध ने भारतीय शक्तियों की निर्बलता का यूरोपीय शक्तियों पर उनकी निर्भरता को सिद्ध कर दिया। ऐसा पहली बार देखा गया कि भारतीय उत्तराधिकार के संघर्ष में यूरोपीय शक्तियों ने सीधा हस्तक्षेप किया।
- निःसदेह रुप से इसने यूरोपियन कम्पनियों को राजनैतिक सत्ता स्थापित करने में सहायता पहुंचाई। इस प्रकार की पहली पहल अंग्रेजों द्वारा हुई, जब उन्होंने तंजौर के शासक प्रताप सिंह के विरुद्ध शाहजी का साथ दिया।
- अंग्रेजी तथा शाहजी की सेनाओं ने देवकोराई पर अधिकार कर लिया, इससे बाध्य होकर प्रताप सिंह अंग्रेजों पर मजबूर हुआ। स
- न्धि के अनुसार प्रताप सिंह ने अंग्रेजों के देवकोटाई एवं उसके आस-पास का क्षेत्र देने को तैयार हो गया, जिसकी वार्षिक आय 36,000 रुपए थी। इस आय ने अंग्रेजों की सैनिक शक्ति को संगठित करने एवं उसे मजबूत करने में निःसंदेह रूप से सहायता पहुंचाई।
- अंग्रेजों की इस पहल ने फ्रासीसियों के लिए भी भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने का द्वार खोल दिया।
- फ्रांसीसियों को जल्द ही ऐसा अवसर प्राप्त हुआ, जब निजाममुल्क की मृत्यु के बाद हैदराबाद में उत्तराधिकार की लड़ाई तेज हो गई। नासिरगंज जो निजाममुल्क का पुत्र था, जब गद्दी पर बैठा तो उसके विरुद्ध निजाममुल्क के पौत्र मुजफ्फरजंग ने इस आधार पर उत्तराधिकार का दावा पेश किया कि मुगल सम्राट ने उसे ही दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया था।
- इसी प्रकार की हलचल कर्नाटक में भी चल रही थी। चंदा साहब, जो मराठों की कैद में था कर्नाटक का नबाब बनना चाहता था।
- कर्नाटक की तत्कालीन स्थिति में फ्रांसीसियों को आकर्षित किया। मुजफ्फरजंग और चंदा साहब एक दूसरे के सम्पर्क में आए तथा गठबंधन का निर्माण किया। दोनों ने फ्रांसीसियों से सहायता की याचना की। डुप्ले ऐसी ही किसी परिस्थिति की तलाश में था, उसने तुरन्त मराठों को धन देकर चंदा साहब को आजाद करा लिया। इन तीनों की मिली जुली 38400 की संयुक्त सेना ने अम्बुर नामक स्थान पर कर्नाटक नबाब अनवरुद्दीन को पराजित किया।
- 1749 में लड़े इस युद्ध में अनवरुद्दीन मारा गया। अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली ने भाग कर त्रिचनापल्ली में शरण ली और वहीं से कर्नाटक की गद्दी प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा। उधर चंदा साहब ने कर्नाटक के अधिकांश भाग पर अपना अधिकार कर लिया तथा इनाम के तौर पर डूप्ले को पांडिचेरी के पास 30 गांच की जागीर प्रदान की ।
- एक अन्य घटनाक्रम में नासिरगंज ने अनवरुद्दीन के पुत्र, जो उस समय त्रिचनापल्ली में शरण लिए हुए था, को कर्नाटक का नबाब घोषित कर दिया।
- नासिरगंज तथा मुहम्मद अली अंग्रेजों से सहायता की याचना की। हैदराबाद तथा कर्नाटक में फ्रांसीसियों के बढ़ते प्रभाव ने अंग्रेजों को चिंता में डाल दिया। दक्षिण की राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अंग्रेजों ने नासिरगंज तथा मुहम्मद अली का साथ देने का निश्चय किया।
- परस्पर विरोधी हित ने दोनों कम्पनियों के बीच युद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया। डुप्ले की सलाह के बावजूद भी चंदा साहब ने त्रिचनापल्ली पर आक्रमण न कर के तंजौर पर आक्रमण किया।
- नासिरजंग ने अंग्रेजों की सहायता से कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। इससे विवश होकर चंदा साहब को पांडिचेरी जाना पड़ा।
- जिंजी नदी के तट पर दोनों पक्षों में युद्ध हुआ, जिसमें चंदा साहब तथा फ्रांसीसियों की हार हुई। दूसरी तरफ फ्रांसीसियों की सहायता के बावजूद मुजफ्फर जंग को नासिरजंग के सामने हार का मुंह देखना पड़ा तथा मुजफ्फरजंग ने आत्मसमर्पण कर दिया।
- इन पराजयों ने भी डुप्ले का हौसला नहीं तोड़ा और शीघ्र ही स्वंय को संग्रहित कर उसने मछलीपट्टम और जिंजी पर अधिकार कर लिया।
- 1750 में फ्रांसीसी सेना ने नासिरजंग पर आक्रमण पर उसकी हत्या कर दी। डुप्ले ने हैदराबाद में मुजफ्फरजंग को तथा कर्नाटक में चंदा साहब को नबाब की गद्दी पर बैठाया। इस सहायता के बदले मुजफ्फरजंग ने डुप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण की सम्पूर्ण भूमि की सूबेदारी तथा कर्नाटक में अपने सिक्के चलाने का अधिकार दिया।
- अब मुहम्मद अली डुप्ले से साथ करना चाहता था, लेकिन यह अंग्रेजों को मंजूर नहीं था, क्योंकि इस सन्धि का मतलब था दक्षिण में अंग्रेजों की एक व्यापारिक कम्पनी के रुप में समाप्ति अंग्रेजों ने मुहम्मद अली को कर्नाटक का नबाब बनाने का लालच दिया, इसी बीच रणनीतिक युद्ध में क्लाइव प्रकट होता है।
- क्लाइव ने अर्काट पर आक्रमण कर उसे अपने नियंत्रण में ले लिया। अर्काट को पुनः विजित करने के लिए चंदा साहब ने अपने पुत्र के नेतृत्व में अपनी आधी सेना भेज दी, जिसका परिणाम यह हुआ कि त्रिचनापल्ली में उसकी स्थिति कमजोर हो गई।
- इसी बीच 1751 में मुजफ्फरजंग की मृत्यु हो गई। अपनी कमजोर स्थिति को देखते हुए चंदा साहब ने त्रिचनापल्ली से अपना घेरा उठा लिया। उधर क्लाइव बहादुरी से अर्काट की रक्षा करता रहा।
- 1752 में लारेंस के विरुद्ध लड़े गए एक युद्ध में चंदा साहब की पराजय हुई। शरण लेने के लिए वह तंजौर पहुंचा जहाँ उसकी हत्या कर दी गई। क्लार्ड की इस रणनीति ने युद्ध का चेहरा ही बदल दिया।
- मुजफ्फरजंग तथा चंदा साहब की मृत्यु ने डुप्ले की स्थिति को कमजोर कर दिया। इससे पहले कि वह अपनी खोई प्रतिष्ठा को पुनः पा सके, फ्रांसीसी सरकार ने उसे वापस बुला लिया।
गाडेहू संधि
- डुप्ले के उत्तराधिकारियों के रुप में गाडेहू भारत आया, उसने अंग्रेजों के साथ संधि करना उचित समझा। इस सन्धि का विरोध करते हुए डुप्ले ने कहा, "देश के नाश तथा जाति से अपमान कर हस्ताक्षर किए गए ”।
- फ्रांसीसियों के अधिकार में जो कुछ आया था, उसे खो देना पड़ा। मैलसन का भी यह मानना था कि यह फ्रांसीसियों के लिए एक अपमानजनक सन्धि थी। मिल ने इस सन्धि को कुछ इस प्रकार से व्यक्त किया है। “अंग्रेजों ने इस सन्धि द्वारा वह सब कुछ प्राप्त कर लिया जिसके लिए वह युद्ध कर रहे थे। तथा फ्रांसीसियों ने वह सब कुछ छोड़ दिया जो वे अब तक प्राप्त कर चुके थे।" वहीं दूसरी ओर आधुनिक शोध ने गाडेहू को इस ऐतिहासिक पाप के लिए जिम्मेदार होने के कलंक से बचाने की कोशिश की है।
- आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि यदि गाडेहू सन्धि नहीं करता तो न केवल राजनैतिक, बल्कि व्यापारिक शक्ति के रुप में भी फ्रांसीसियों का नाम भारत से हमेशा के लिए मिट जाता सन्धि द्वारा फ्रांसीसी हितों की रक्षा इस प्रकार हुई कि अंग्रेजों को प्राप्त भूमि की वार्षिक आय एक लाख रुपए थी, जबकि वहीं दूसरी ओर फ्रांसीसियों के पास 3 लाख वार्षिक आय की भूमि अभी भी मौजूद थी।
- राबर्टस के अनुसार “इस सन्धि को किसी भी प्रकार से फ्रांसीसियों के लिए अपमानजनक मानना भूल है। गाडेहू की मुख्य जिम्मेदारी यह थी कि इस विपरीत परिस्थिति में फ्रांसीसियों के लिए जो बचा सके बचा लें और वहीं उसने किया भी।“
दूसरे कर्नाटक युद्ध के परिणाम
- दूसरे कर्नाटक युद्ध ने अंग्रेजों को दक्षिण भारतीय राजनीति के निर्माता के रुप में स्थापित किया।
- देशी राजाओं की उन पर निर्भरता बढ़ी।
- इस युद्ध के दौरान डुप्ले को फ्रांसीसी सरकार द्वारा वापस बुलाने की घटना ने अंग्रेजों के लिए सत्ता स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
- इस युद्ध के बाद हालांकि फ्रांसीसी एक शक्ति के रुप में पूरी तरह समाप्त नहीं हुए, परन्तु निःसदेह ही उनकी शक्ति इतनी अधिक कमजोर हो गई कि वे अपने पतन की ओर तेजी से बढ़ने लगे।
- सुन्दरलाल के अनुसार “त्रिचनापल्ली वह चट्टान मानी जाती है, जिससे टकराकर इस देश के अन्दर डुप्ले और फ्रांसीसियों की समस्त आंकाक्षाएं चूर-चूर हो गई। “
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