तीसरा कर्नाटक युद्ध- 1758-63 | Karnatak Ka 3rd War in Hindi
तीसरा कर्नाटक युद्ध- 1758-63
- 1756 में यूरोप में शुरु होने वाला सप्तवर्षीय युद्ध तीसरे कर्नाटक युद्ध का तात्कालीक कारण बना।
- तात्कालीक कारण हम इस कारण से इसे कह रहे हैं, क्योंकि युद्ध के लिए जमीन तो पहले से तैयार थी। यूरोपीय शक्तियों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण व्यापार कर एकाधिकार प्राप्त करना था और यह तभी सम्भव हो समता था, जब कोई एक शक्ति अन्य शक्तियों को पराजित कर न केवल अपने राजनैतिक बल्कि व्यापारिक प्रभुसत्ता को भी स्थापित करें।
- अतः इस व्यापारिक एकाधिकार के युद्ध ने शेष बची दोनों कम्पनियों के बीच अन्तिम निर्णय की लड़ाई को अवश्यम्भावी बना दिया था।
- 1756 में यूरोप में शुरू हुए सप्तवर्षीय युद्ध ने फ्रांसीसी तथा अंग्रेजी कम्पनी के बीच भारत में तनाव को बढ़ा दिया था।
- कर्नाटक युद्ध के ठीक एक वर्ष 1757 में प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की विजय ने क्लाईव को साम्राज्य निर्माता के रूप में स्थापित कर दिया था।
- प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने न केवल बंगाल का आर्थिक शोषण कर अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाया, बल्कि चन्द्रनगर से फ्रांसीसी फैक्ट्री समाप्त कर फ्रांसीसियों की डगमगाती आर्थिक स्थिति को और भी कमजोर कर दिया।
- उधर फ्रांसीसी भी अंग्रेजों को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए प्रतिबद्ध थें। अपनी इस प्रतिबद्धता को अमलीजामा पहनाने के लिए 1758 में लाली को भारत भेजा गया। उसे यह स्पष्ट निर्देश देकर भेजा गया कि वह भारत में अंगेजी व्यापार को समाप्त करने के लिए तटीय प्रदेशों में स्थिति अंगेजी बस्तियों पर आक्रमण करें। निर्देशन का पालन करते हुए लाली ने फोर्ट सेंट डेविड पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया।
- इसके बाद लैली मद्रास पर आक्रमण करना चाह रहा था, जो कि रणनीतिक रूप से बहुत हद तक सही भी था, परन्तु कमजोर आर्थिक स्थिति एवं आन्तरिक मतभेद के कारण लाली ऐसा न कर सका। अब लाली ने धन प्राप्त करने के लिए तंजौर पर आक्रमण किया। जब तंजौर पर घेरा डाला गया तो वहाँ के राजा ने लाली को 5 लाख रुपए देने की पेशकस की, परन्तु लाली इससे सन्तुष्ट न हुआ और उसने 10 लाख की मॉग की लाली की इस मॉग ने परिस्थिति को फ्रांसीसियों के प्रतिकूल बना दिया।
- फ्रांसीसियों द्वारा अधिक समय तक तंजौर की घेराबंदी ने अंग्रेजों को मद्रास में अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर प्रदान कर दिया। अन्त में लाली ने जब मजबूर होकर तन्जौर की घेराबन्दी हटाई, उस समय उसे कुछ भी नहीं मिला।
- अब लाली ने मद्रास पर आक्रमण करने का विचार किया। इसी बीच फ्रांसीसी डी० एचे को अंग्रेजी सेना के हाथों पराजय का मुंह देखना पड़ा। इसके परिणामस्वरुप वह अपने जहाजों को लेकर मारीशस भाग गया। इस प्रतिकूल स्थिति में भी लाली ने मद्रास का घेरा डाला।
- फ्रांसीसी शक्ति को संगठित करने के लिए उसने हैदराबाद से बुसी को भी मद्रास आने का आदेश दिया। बुसी का हैदराबाद छोड़ना न केवल हैदराबाद में बल्कि पूरे दक्षिण भारत में फ्रांसीसी प्रभाव के लिए हानिकारक हो सकता था, इसलिए बुसी ने लाली को समझाने की कोशिश की कि कहीं ऐसा न हो कि मद्रास पर अधिकार करने की इच्छा के कारण न केवल मद्रास, बल्कि हैदराबाद भी हम गवा दें। पर लाली अपनी बात पर डटा रहा और र मजबूर होकर बुसी को कानफलॉ के नेतृत्व में 500 फ्रांसीसी सेना की एक छोटी सी टुकड़ी छोड़कर मद्रास जाना पड़ा।
- लाली की इस भूल का परिणाम शीघ्र ही सामने आया, जब अंग्रेजों ने बुसी की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए मछल्लीपट्टनम पर अधिकार कर लिया। भयभीत होकर निजाम सलावतजंग ने अंग्रेजों से सन्धि कर ली, इस प्रकार हैदराबाद से भी फ्रांसीसियों का प्रभाव समाप्त हो गया।
- उधर मद्रास का घेराव भी फ्रांसीसियों के लिए सन्तोषजनक नहीं था, क्योंकि बूसी और लाली दोनों के बीच रणनीति को लेकर एक मत दिखाई नहीं दे रहा था। उस बदलती हुई परिस्थिति ने लाली को मद्रास से अपना घेरा उठाने के लिए विवश किया।
- कुछ समय तक छिटपुट घटनाएं चलती रही और अन्त में 1760 ई0 में आयरकूट के हाथों अपमानजनक एवं निर्णायक पराजय हुई। वांडीवाश के इस युद्ध ने न केवल फ्रांसीसियों के राजनैतिक सत्ता स्थापित करने के मंसूबे को समाप्त कर दिया, बल्कि एक व्यापारिक कम्पनी के रुप में भी इनकी लगभग समाप्ति हो गई।
- 1760 में ही जिंजी पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 1761 में अंग्रेजों ने पांडिचेरी पर भी कब्जा कर लिया। बुसी वांडिवाश के युद्ध के समय ही बंदी बना लिया गया था। लाली को भी बंदी बनाकर यूरोप भेज दिया गया और फिर उसे फ्रांस की सरकार को सौंप दिया गया। अतंतः 1763 की पेरिस की सन्धि ने फ्रांसीसी महत्वाकांक्षा को पूरी तरह समाप्त कर दिया।
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