तृतीय ऑग्ल मैसूर यूद्व (1970-92 ) | 3rd Aangl Maysoor Yudh
तृतीय ऑग्ल मैसूर युद्ध (1970-92 )
तृतीय ऑग्ल मैसूर यूद्व (1970-92 )
- मंगलौर की संधि अंग्रेजो के लिए बहुत अपमानजनक थी । यह संधि टीपू की कूटनीतिक सफलता थी । इस संधि ने उसकी शक्ति तथा प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था। अतः तृतीय कर्नाटक युद्ध के बीज इस संधि में ही छुपे इस संधि ने टीपू को जो प्रतिष्ठा प्रदान की उसकी वजट से वो अधिक आक्रमक हो गया।
- टीपू ने फ्रांसीसियों की मदद से निजाम को दबाने मराठों की शक्ति को नष्ट करने तथा अंग्रेजो को दक्षिण भारत से निकालने की पूर्ति के लिए उसने जो अभियान चलाया उसमे उसकी पहली जीत नारमुण्ड की हुई नरमुण्ड जीतने के पश्चात उसने कित्तूर भी जीत लिया 1786 में उसने कुस्तुनतुनिया के लिए एक दल भेजा जिसका उद्देश्य तुर्की मे फैक्ट्री स्थापित करना था तथा मैसूर को गट्टी पर अपने पद की स्वीकृति खलीफा से करवानी थी ।
- इसके अतिरिक्त इस दल के माध्यम से अंग्रेजो के विरूद्व तुर्की के सुल्तान की सहायता प्राप्त करने की भी योजना थी । दिसम्बर 1789 को टीपू ने ट्रावन्कोर पर आक्रमण कर दिया कार्नवालिस का विचार था कि टीपू से युद्ध अनिवार्य है। कार्नवालिस टीपू की बढ़ती हुई शक्ति तथा फ्रांसीसियों से उसकी मित्रता से भयभीत था।
- अतः कार्नवालिस भी युद्ध का बहाना तलाश कर रहा था टीपू ने जब टबनकोर पर आक्रमण किया तब अंग्रेजो ने तुरंत अपनी सेना ट्रवनकोर की सहायता के लिए भेज दी । ट्रवनकोर का राजा अंग्रेजो का मित्र था कार्नवालिस ने मैसुर पर आक्रमण कर दिया ।
- 1790 तक अंग्रेज पूरे मालावार क्षेत्र पर अधिकार कर चुके थे। युद्ध के शुरूआती दौर में अंग्रेजो मैसूर पर अधिकार नहीं कर सके थे। अतः इस अभियान का नेतृत्व कार्नवालिस ने स्वंय किया ।
- कार्नवालिस ने सबसे पहले बंगलौर का किला जिता तथा बाद में उसकी मरम्मत कराकर सेरिंगपट्टम को ओर बढ़ा जो मैसूर राज्य की राजधानी थी। निजाम के दस हजार सैनिको ने भी कार्नवालिस की मदद की। परन्तु अंग्रेजो को सफलता प्राप्त नही हुई तथा वाध्य होकर उन्हें वापस बंगलौर जाना पड़ा।
- दूसरी ओर अब मराठे भी अंग्रेजो से जा मिले। इसका मुख्य उददेश्य तुंगभद्रा तथा कृष्णा नही के बीच के क्षेत्र का वापस लेना था। मराठों के विरूद्व एक सैनिक अभियान के दौरान टीपू ने उफनती हुई तुंगभद्रा को टोकरीनुमा नावों और लकड़ी के लट्टो से निर्मित बेड़ो में बैठकर पार करके विस्मयकारी कौशल का परिचय दिया और निजाम- मराठो सैन्य दल को पराजित किया ।
- कार्नवालिस, सिरंगपट्टम के अपने विफल आक्रमण के बाद जब बंगलौर पहुंचा तब टीपू का एक दूत समझौते के लिए मिला । परन्तु कुछ कारणों से वार्ता नहीं हो पाई । कार्नवालिस युद्ध ने को आग्र बढ़ाते हुए मराठों को उत्तर पश्चिम के क्षेत्रों अधिकार करने के लिए भेजा। निजाम की सेना उत्तर पूर्व की ओर बढ़ी। अब अंग्रेजो ने कोयम्बटूर पर अपना - अधिकार कर लिया। युद्ध की नियती अपने विपरीत जाते हुए देख टीपू ने फिर से समझौते की पेशकश की इस संधि को संरिंगपट्टम की संधि कहा गया।
सेरिंगपट्टम की संधि की प्रमुख शर्ते
- टीपू को लगभग आधा राज्य त्याग देना पड़ा जिसे ब्रिटिश निजाम तथा मराठों के बीच बॉट दिया गया।
- हैदर के काल से चले आ रहे युद्व बन्दियों को उसे छोड़ना पड़ा। टीपू को युद्ध हर्जाने के रूप मे 30 लाख रूपया देना पड़ा । यही नही उसे बन्धक के रूप में अपने दो पुत्रों मुइनुद्दीन तथा अब्दुल खालिक को अंग्रेजो को सौंपना पड़ा ।
- एक पक्ष ने कार्नवालिस की इस बात पर आलोचना की, कि टीपू को असने तब जीवन दान दिया जब उसका दुर्भाग्य अपनी पराकाष्ठा पर था। लेकिन कार्नवालिस ने अपने इस कदम को सही ठहराया और उसने कहा कि टीपू की समस्त शक्ति को समाप्त कर दिया गया है।
- उसने बताया कि यह कम्पनी की नीति भी नही थी कि सुरखा की नीति के बाहर राज्य छीना जाए।
- इसके अलावा टीपू को पद से हटाने तथा बंदी हिन्दू राजा को पुनः पद प्रदान करने से कठिनाईयाँ बढ़ती क्योंकि हिन्दू राजा बगैर अंग्रेजो की सहायता के शासन नही कर सकता था ।
- बात जो भी रही हो यह साफ है कि संरिंगपट्टम की संधि ने मैसूर को एक शक्ति के रूप मे हमेशा के लिए समाप्त कर दिया । वैसे टीपू सुल्तान अब भी अपनी असफलता मानने को तैयार नही था ।
- उसने जनता से अधिक से अधिक धन बटोरकर संधि की रकम अदा करने की कोशिश की । लेकिन यह चीज स्पष्ट थी कि अब वही इतना अधिक शक्तिशाली नही रह गया था कि मराठो, निजाम या अंग्रेजो की नींद खराब कर सके।
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