भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका | Bharat Ki Rajniti Me Jati Ki Bhumkia
भारतीय राजनीति में 'जाति' की भूमिका
प्रो. वी.के.एन. मेनन का यह निष्कर्ष है कि स्वतंत्रता के बाद भारत के राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले की अपेक्षा बढ़ा है।"
मॉरिस जोन्स भी लिखते हैं कि जाति के लिए राजनीति
का महत्व और राजनीति के लिए जाति का महत्व पहले की तुलना में बढ़ गया है।
भारतीय राजनीति में 'जाति' की भूमिका का उल्लेख
(1) निर्णय प्रक्रिया में जाति की प्रभावक भूमिका भारत में जातियां संगठित होकर राजनीतिक और प्रशासनिक निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं।
उदाहरणार्थ, संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान रखे गए हैं जिनके कारण ये जातियां संगठित होकर सरकार पर दबाव डालती हैं कि इन सुविधाओं को और अधिक वर्षों के लिए बढ़ा दिया जाए। अन्य जातियां चाहती है कि आरक्षण समाप्त किया जाए अथवा इसका आधार सामाजिक आर्थिक स्थिति हो अथवा उन्हें भी आरक्षित सूची में शामिल किया जाए ताकि वे इसके लाभ से वंचित न रह जाए।
(2) राजनीतिक दलों में जातिगत आधार पर निर्णय भारत में सभी राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन करते समय जातिगत आधार पर निर्णय लेते है। प्रत्येक दल किसी भी चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशी मनोनीत करते समय जातिगत गणित का अवश्य विश्लेषण करते है।
(3) जातिगत आधार पर मतदान
व्यवहार भारत में चुनाव अभियान में जातिवाद को साधन के रूप में अपनाया जाता है। और
प्रत्याशी जिस निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव लड़ रहा है उस निर्वाचन क्षेत्र में
जातिवाद की भावना को प्रायः उकसाया जाता है ताकि संबंधित प्रत्याशी की जाति के
मतदाताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त कर सकें।
(4) मंत्रिमण्डलों के निर्माण में जातिगत प्रतिनिधित्व राजनीतिक जीवन में जातीयता का सिद्धांत इतना गहरा धंस गया है कि राज्यों के मंत्रिमण्डलों में प्रत्येक प्रमुख जाति का मंत्री होना चाहिए। यह सिद्धांत प्रांतों की राजधानियों से ग्राम पंचायतों तक स्वीकृत हो गया है।
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