जाति और राजनीति में अंतःक्रिया | जाति के राजनीतिकरण की विशेषताएं | Bharat Me Jaati Ka Rajniti Karan
जाति और राजनीति में अंतःक्रिया
जाति के राजनीतिकरण की विशेषताएं
भारत में जाति और राजनीति में किस प्रकार का संबंध है?
भारत में जाति और राजनीति में किस प्रकार का संबंध है? इस संबंध में चार प्रकार से विचार प्रस्तुत किए जाते रहे है
भारत में जाति और राजनीति संबंध का प्रथम विचार
- सर्वप्रथम, यह कहा जाता है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था का संगठन जाति की संरचना के आधार पर हुआ है और राजनीति केवल सामाजिक संबंधों की अभिव्यक्ति मात्र है। सामाजिक संगठन राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप निर्धारित करता है।
भारत में जाति और राजनीति संबंध का दूसरा विचार
- द्वितीय, राजनीति के प्रभाव के फलस्वरूप जाति नया रूप धारण कर रही है। लोकतांत्रिक राजनीति के अंतर्गत राजनीति की प्रक्रिया प्रचलित जातीय संरचनाओं के इस प्रकार प्रयोग में लाती है जिससे संबद्ध पक्ष अपने लिए समर्थन जुटा सकें तथा अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना सकें। जिस समाज में जाति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण संगठन माना जाता है उसमे यह अत्यंत स्वभाविक है कि राजनीति इस संगठन के माध्यम से अपने आपको संगठित करने का प्रयास करें। इस प्रकार यह कहा जा सकता है जिसे हम राजनीति में जातिवाद के नाम से पुकारते है वह वास्तव में जाति का राजनीतिकरण है।
भारत में जाति और राजनीति संबंध का तीसरा विचार
भारत मे राजनीति 'जाति' के इर्द-गिर्द घूमती है। जाति प्रमुखतम राजनीतिक दल है। यदि मनुष्य राजनीति की दुनिया में ऊंचा उठना चाहता है तो उसे अपने साथ ही अपनी जाति को लेकर चलना होगा। भारत में राजनीतिज्ञ जातीय समुदायों को इसलिए संगठित करते है। ताकि उनके समर्थन से उन्हें सत्ता तक पहुंचने में सहायता मिल सके।
भारत में जाति और राजनीति संबंध का चतुर्थ विचार
- जातियां संगठित होकर प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में भाग लेती है और इस प्रकार जातिगत भारतीय समाज में जातियां ही राजनीतिक शक्तियाँ बन गयी है।
जाति के राजनीतिकरण की विशेषताएं
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका की उभरती विशेषताएं निम्न प्रकार है
(1) जाति व्यक्ति को बांधने वाली कड़ी है। जातीय संघों और जातीय पंचायतों ने जातिगत राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को बढ़ाया है। जाति-पाति को समाप्त करने वाले आंदोलन अंततोगत्वा नयी जातियों के रूप में मुखरित हुए, जैसे लिंगायत, कबीरपंथी और सिक्ख आंदोलन स्वयं नयी जातियां बन गयी।
(2) शिक्षा, शहरीकरण, औद्योगिकरण और आधुनिकरण से जातियां समाप्त नहीं हुई, अपितु उनमें एकीकरण की प्रवृत्ति को बल मिला और उनको राजनीतिक भूमिका मिली।
(3) राजनीति में प्रभु जाति (Dominant caste) की भूमिका का विश्लेषण किया जा सकता है। यदि किसी राज्य विशेष में किसी जाति की प्रधानता होती है तो राज्य राजनीति में जाति एक प्रभावक तत्व बन जाती है।
(4) उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही जातिगत समुदायों का झुकाव राजनीति की ओर हो गया था। जबकि ब्रिटिश शासन ने भारत में एक मजबूत प्रशासनिक व्यवस्था की नींव डाली थी। सबसे पहले इनका ध्यान जनगणना कार्यालय की ओर गया जहां जातीय समुदायों ने सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्ति के ध्येय से अपने संगठन का नामकरण कराना आवश्यक समझा। बाद में अपनी जाति के लोगों के हितों के संरक्षण के लिए जातीय संघों ने प्रस्ताव पारित किए और शासन को अपनी मांगों के लिए प्रभावित करना प्रारंभ किया। यहां तक कि कुछ जातियों ने शैक्षणिक सुविधा, शिक्षण संस्थाओं में जातिगत आरक्षण और सरकारी नौकरीयों में आरक्षण की मांग की।
(5) निर्वाचनों के दिनों में जातिगत समुदाय प्रस्ताव पारित करके राजनीतिक नेताओं और दलों का अपने जातिगत की घोषणा करके अपने हितों को मुखरित करते है।
(6) जाति की भूमिका राष्ट्रीय स्तर की राजनीति पर उतनी नहीं है जितनी स्थानीय और राज्य राजनीति पर है।
(7) जाति और राजनीति के संबंध
स्थैतिक न होकर गतिशील है।
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