जाति और राजनीति | भारत में जाति और राजनीति | Bharat Me Jati Aur Rajniti
जाति और राजनीति | भारत में जाति और राजनीति
जाति और राजनीति
राजनीतिक भारतीय समाज में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना भारतीय राजनीति की एक अद्भूत विशेषता है।
भारत में राजनीति आधुनिकीकरण के प्रारंभ होने के पश्चात् यह धारणा विकसित हुई कि पश्चिमी ढंग की राजनीतिक संस्थाएं और लोकतंत्रात्मक मूल्यों को अपनाने के फलस्वरूप परम्परागत संस्था- जातिवाद का अंत हो जायेगा, किंतु स्वाधीनता के बाद की भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव अनवरत रूप से बढ़ता गया।
जहां सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में जाति की शक्ति घटी है वहां राजनीतिक और प्रशासन पर इसके बढ़ते हुए प्रभाव को राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों प्रशासनाधिकारियों और केंद्र एवं राज्य सरकारों ने स्वीकार किया है।
कतिपय विद्वानों की यह मान्यता है कि लोकतांत्रिक एवं प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना के बाद जाति व्यवस्था का भारत में लोप हो जाना चाहिए। अन्य कुछ विद्वानों की धारणा थी कि जाति व्यवस्था परम्परागत शक्ति के रूप में कार्य करती है तथा राजनीतिक विकास एवं आधुनिकीकरण के मार्ग में बाधक है। लेकिन वस्तुतः ये मान्यताएं सही नहीं है।
इस संबंध में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रथम, कोई भी सामाजिक तंत्र कभी भी पूर्णतया समाप्त नहीं हो सकता, अतः यह प्रश्न करना कि क्या भारत में जाति का लोप हो रहा है, अर्थ-शून्य है। द्वितीय, जाति व्यवस्था आधुनिकरण और सामाजिक परिवर्तन में रूकावट नहीं डालती बल्कि इसको बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। स्थानीय और राज्य स्तर की राजनीति में जातीय संघ और समुदाय निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने में उसी प्रकार की भूमिका अदा करते है जिस प्रकार पश्चिमी देशों मे दबाव गुट ( Pressure Groups) हमारे राजनीतिज्ञ एक अजीब असंमजस की स्थिति में हैं। जहां एक ओर वे जातिगत भेदभाव मिटाने की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर जाति के आधार पर वोट बटोरने की कला में निपुणता हासिल करना चाहते है।
जाति का परम्परागत अर्थ एवं रूप
जाति प्रथा किसी न किसी रूप में संसार के हर कोने में पायी जाती है, पर एक गंभीर सामाजिक कुरीति के रूप में यह हिंदू समाज की ही विशेषता है। वैसे इस्लाम और ईसाई समाज भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यह एक अति प्राचीन व्यवस्था रही है। इसका अभिप्राय पेशे के आधार पर समाज को कई वर्गों में बांट देना है। सामान्यतया यह माना जाता है कि जाति प्रथा की उत्पत्ति वैदिक काल में हुई। ब्राह्मण धार्मिक और वैदिक कार्यों का संपादन करते थे। क्षत्रियों का कार्य देश की रक्षा करना और शासन प्रबंध करना था। वैश्य कृषि और वाणिज्य संभालते थे तथा शूद्रों को अन्य तीन वर्णों की चाकरी करनी पड़ती थी। शुरू-शुरू में जाति प्रथा के बंधन कठोर न थे और वह जन्म पर नहीं, अपितु कर्म पर आधारित थे। बाद में जाति प्रथा में कठोरता आती गयी, वह पूरी तरह जन्म पर आधारित हो गयी तथा एक जाति से दूसरी जाति में अंतःक्रिया असंभव हो गयी। अपने मौलिक रूप में दूसरी जाति प्रथा उपयोगी थी। चूंकि वह श्रम विभाजन के सिद्धांत पर आधारित थी, अतः उसने आर्थिक क्षेत्र में निपुणता के तत्व का समावेश किया। एक जाति का पेशा उसी जाति में होता था बेटा बाप से अपना पुश्तैनी पेशा सीखता था और प्रायः उसी को अपनी आजीविका के साधन के रूप में अपना लेता था इस प्रथा ने एक जाति और बिरादरी के लोगों में भाई-चारे की भावना को बढ़ाया। एक जाति के लोग एक-दूसरे से भलीभांति परिचित होते थे तथा एक दूसरे के सुख-दुख में काम आते थे।
जाति व्यवस्था की छ: विशेषताएं
प्रो. घुरिये (Ghurye) ने
जाति व्यवस्था की छ: विशेषताएं बतलायी है, जो इस प्रकार है
(i) भारत में जाति ऐसे समुदाय हैं जिनका अपना विकसित जीवन है और इसकी सदस्यता जन्म से ही निश्चित होती है।
(ii) भारत का प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक स्थिति जानता है और जातियों के पदसोपान में ब्राह्मण सबसे ऊपर माना जाता है।
(iii) जतियों के आधार पर खाना-पान और सामाजिक आदान-प्रदान के प्रतिबंध लगे रहते है।
(iv) गांवों तथा शहरों में जाति के आधार पर पृथकता की भावना बनी रहती है।
(v) कुछ
जातियां कतिपय विशेष प्रकार के व्यवसायों को अपना पुश्तैनी अधिकार समझती है। (vi) जातियों
की परिधि में ही वैवाहिक आदान-प्रदान होता है और जातियां कई उप-जातियों में विभक्त
होती हैं उप-जातियों में भी वैवाहिक सीमाएं है।
जाति का राजनीति रूप रजनी कोठारी का दृष्टिकोण
प्रो. रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक कास्ट इन इण्डियन पॉलिटिक्स' (Caste in Indian Politics ) में भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का विस्तृत विश्लेषण किया है। उनका मत है कि अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या भारत में जाति प्रथा खत्म हो रही है? इस प्रश्न के पीछे यह धारणा है कि मानों जाति और राजनीति परस्पर विरोधी संस्थाएं हैं। ज्यादा सही सवाल यह होगा कि जाति प्रथा पर राजनीति का क्या प्रभाव पड़ रहा है और जाति-पांति वाले सामज में राजनीति क्या रूप ले रही है? जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे न तो राजनीति के स्वरूप को ठीक समझ पाये हैं और न जाति के स्वरूप को भारत की जनता जातियों के आधार पर संगठित हैं अतः न चाहते हुए भी राजनीति को जाति संस्था का उपयोग करना ही पड़ेगा अतः राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है रजनी कोठारी के शब्दों में, जाति को अपने दायरे में खींचकर राजनीति उसे अपने काम में लेने का प्रयत्न करती है। दूसरी ओर राजनीति द्वारा जाति या बिरादरी को देश की राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेने का मौका मिलता है। राजनीतिक नेता सत्ता प्राप्त करे के लिए जातिय संगठनों का उपयोग करते है और जातियों के रूप में उनको बना-बनाया संगठन मिल जाता है जिससे राजनीतिक संगठन में आसानी होती है।
जाति व्यवस्था और राजनीति में अंतःक्रिया के
संदर्भ में प्रो. रजनी कोठारी ने जाति प्रथा के तीन रूप प्रस्तुत किया है।
(i) लैकिक रूप (The secular aspect)
(ii) एकीकरण का रूप (The integration aspect);
(iii) चैतन्य
रूप (The aspect of consciousness)
(i). जाति व्यवस्था का लौकिक
रूप रजनी कोठारी ने जाति व्यवस्था के लौकिक रूप को व्यापक
दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया है। जाति व्यवस्था की कुछ बातों पर सबका ध्यान
गया है जैसे जाति के अंदर विवाह, छुआछूत
और रीति-रिवाजों के द्वारा जाति की पृथक् इकाई को कायम रखने का प्रयत्न, लेकिन इस बात की ओर बहुत ही
कम लोगों का ध्यान गया है कि जातियों में अपनी प्रतिद्वन्द्विता एवं गुटबंदी रहती
है, प्रत्येक जाति प्रतिष्ठा और
सत्ता की प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहती है जाति व्यवस्था के इस लौकिक पक्ष के दो
रूप थे- एक शासकीय रूप यानी जाति की और गांव की पंचायत और चौधराहट दूसरा रूप
राजनीतिक था यानी जाति की आंतरिक गुटबंदी और अन्य जातियों से गठजोड़ और
प्रतिद्वन्द्विता पहले इन जातियों का संबंध या गांव की पंचायत और राजा या जमींदार
से रहता था। अब जातीय पंचायत के स्थान पर विधान सभाएं और संसद है तथा राजा के
स्थान पर राष्ट्रीय सरकार है।
(ii). जाति व्यवस्था का एकीकरण का रूप
जाति का दूसरा रूप एकीकरण है अर्थात् व्यक्ति को समाज
से बाधने का है। जाति प्रथा जन्म के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति का समाज में स्थान
नियत कर देती है। जाति के आधार पर ही उस व्यक्ति का व्यवसाय और आर्थिक भूमिका
निश्चित हो जाती है। चाहे जितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो, उसको अपनी जाति से लगाव पैदा
हो जाता है, जाति
के प्रति उसकी निष्ठा बढ़ने लगती है। यही निष्ठा आगे चलकर बड़ी निष्ठाओं अर्थात्
लोकतंत्र और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति भी विकसित हो जाती है। इस प्रकार जातियां
जोड़ने वाली कड़ियां बन जाती है। लोकतंत्र के अंदर विभिन्न समूहों में शक्ति के
लिए प्रतिद्वन्द्विता होती है और विभिन्न जातियों में आपस में मिल-जुलकर गठजोड़
बनाने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है ताकि वे सत्ता का लाभ प्राप्त कर सकें ।
(ii). जाति व्यवस्था का चैतन्य रूप
जाति प्रथा का तीसरा रूप चेतना बोध है। कुछ जातियां अपने को उच्च समझती है और इस कारण समाज में उनकी विशेष प्रतिष्ठा होती है। इस कारण कुछ निम्न समझी जाने वाली जातियां भी अपने को उनके साथ जोड़ने की चेष्टा करती है। क्षत्रिय वर्ग के साथ जो प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है, उसके कारण देश के विभिन्न भागों में अनेक जातियों ने इस वर्ण का दावा किया है। कुछ जातियों ने इसी प्रकार ब्राह्मण पद का भी दावा किया है। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप जाति विशेष की स्थिति भी बदलती है। प्रो. रजनी कोठारी ने जाति के राजनीतिकरण की चर्चा करते हुए कहा है, "इससे पुराना समाज नयी राजनीतिक व्यवस्था के करीब आया है।
इस प्रक्रिया को
उन्होंने तीन चरणों में बांटा है।
a) शक्ति और प्रभाव की
प्रतिस्पर्द्धा ऊँची जातियों तक सीमित रही भारत का पुराना समाज जब नयी व्यवस्था के
सम्पर्क में आने लगा तो सबसे पहले शक्ति और प्रभाव की स्पर्धा समाज की प्रतिष्ठा
और जमी हुई जातियों तक सीमित रही।
b) जाति के अंदर की प्रतिस्पर्द्धां गुटबंदी इस चरण में भिन्न जातियों की
प्रतिस्पर्द्धा के साथ-साथ जाति के अंदर भी प्रतिस्पर्द्धां गुट बन जाते है।
प्रतिद्वंद्वी नेताओं के पीछे गुट बन जाते है।
c) जाति के बंधन ढीले पड़ना और राजनीति को व्यापक आधार मिलना- रजनी कोठारी के अनुसार तीसरे चरण में एक ओर राजनीतिक मूल्यों की प्रधानता हुई और जाति-पांति से लगाव कम हुआ, वहां दूसरी ओर शिक्षा, नये शिल्प और शहरीकरण के कारण, समाज में परिवर्तन आया। भौतिक उन्नति की नयी धारणाओं का जोर बढ़ा।
राजनीति में जाति संबंधी निष्कर्ष
प्रो. रजनी कोठारी का राजनीति में जाति संबंधी निष्कर्ष इस प्रकार है
(1) आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेने के कारण पहले तो जाति प्रथा का पृथकक्ता की प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ा. बाद में जाति भावना का सामंजस्य हुआ और इसने राजनीतिक संगठन में सहायता दी।
(2) आधुनिक राजनीति में भाग लेने से लोगों की दृष्टि में परिवर्तन हुआ और उनको यह समझ में आ गया कि आज के युग में केवल जाति और सम्प्रदाय से काम नहीं चल सकता।
(3) जहां जाति बड़ी होती है वहां भी उसमें एकता नहीं रहती, उसमें उप-जातियो के भेद होते हैं और छोटी जातियां तो अपने बल पर चुनाव भी नहीं जीत सकती हैं। यदि कोई प्रत्याशी अपनी ही जाति का पक्ष लेता है तो दूसरी जातियां उसके खिलाफ हो जाती है इसलिए चुनाव की राजनीति में अनेक जातियों का गुट बनाना पड़ता है।
(4) राजनीति में आने के कारण जाति की भावना ढीली पड़ जाती है और अनेक नयी निष्ठाओं का उदय होता है।
(5) आजकल राजनीति में जातिवाद और सम्प्रदायवाद का जोर बढ़ने की शिकायत की जाती है। ऐसा समझा जाता है कि शिक्षा प्रसार, शहरों के विस्तार और औद्योगीकरण के कारण सम्प्रदाय और जाति के बंधन जो ढीले पड़ रहे थे, वे चुनाव की राजनीति के कारण फिर से जोर पकड़ रहे है और इससे देश में फूट बढ़ेगी जिससे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का ढांचा खतरे में पड़ जाएगा, किंतु प्रो. कोठारी का मानना है कि वास्तव मे जाति और राजनीति के मिश्रण से दूसरे ही परिणाम निकलते हैं। इससे राजनीति का जातिकरण होने के बजाय, जाति का राजनीतिकरण हो जाता है। राजनीति ने जाति को लीक से हटाकर नया संदर्भ दे दिया है, जिससे उसका पुराना रूप बदल रहा है।
(6) आधुनिकतावादी नेता जाति-पांति पर भले ही नाक सिकोड़े, परंतु इसके द्वारा राजनीतिक शक्ति उन वर्गों या समूहों के हाथ में पहुंच सकी, जो अब तक उससे वंचित थे।
(7) जाति के आधार पर संघ और संगठन बनते हैं, जैसे कायस्थ सभा क्षत्रिय संघ आदि सब मिलाकर जातीय संगठनों ने भारत में राजनीति में वही भाग लिया है जो पश्चिमी देशों में विभिन्न हितों व वर्गों के संगठनों ने।
(8) जातियों और सम्प्रदायों के राजनीति में भाग लेने के फलस्वरूप सामूहिक या राष्ट्रीय भावना का उदय हुआ है और उनकी पृथक्ता कम होकर उनका राजनीतिक एकीकरण हुआ है।
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