आर्थिक राष्ट्रवादी इतिहास लेखन | दादाभाई नौरोजी एवं आर्थिक दोहन का सिद्धांत |Economic nationalist historiography
आर्थिक राष्ट्रवादी इतिहास लेखन
दादाभाई नौरोजी एवं आर्थिक दोहन का सिद्धांत
राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की तीसरी प्रवृत्ति आर्थिक राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की थी.
स्वतंत्रता पूर्व आधुनिक भारत के इतिहास लेखन की यही सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति भी
थी. हलांकि साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था की समालोचना करने वाले राष्ट्रवादी
इतिहासकार न होकर राजनीतिक नेता एवं अर्थशास्त्री थे. इस परम्परा मे दो नाम
सर्वोपरि हैं - दादाभाई नौरोजी एवं आर. सी. दत्त - जिन्होंने साम्राज्यवादी
अर्थव्यवस्था की गहन पड़ताल की थी. इनके अतिरिक्त महादेव गोविन्द रानाडे, दिनशा वाचा एवं जी. एस. अय्यर आदि ने
भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आर्थिक प्रभावों के शोषणकारी पहलुओं को उजागर किया था.
आगे हम नौरोजी एवं दत्त के लेखनों की विस्तार से चर्चा करेंगे. हम देखेंगे कि ये
कुछेक पहले राष्ट्रवादी थे जिन्होंने औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की पोल खोली. बाद के
राष्ट्रवादी प्रचार में इन अध्ययनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही.
दादाभाई नौरोजी एवं आर्थिक दोहन का सिद्धांत
- दादाभाई नौरोजी को भारतीय इतिहास में ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया के नाम से जाना जाता है. वे भारतीय राष्ट्रवाद के उन पुरोधाओं में से थे जिन्होंने राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी. 1886 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गये. इससे पूर्व ही 1867 में कांग्रेस के पूर्वगामी संगठन के रूप में उन्होंने लन्दन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की थी. एसोसिएशन के माध्यम से उन्होंने लन्दन में भारतीयों के पक्ष मे समर्थन जुटाने का प्रयास किया था.
- दादाभाई नौरोजी पारसी समाज सुधार के कार्यों से भी जुड़े थे. इसके लिये 1851 में उन्होंने रहनुमाई मजदायसन सभा की स्थापना की थी और रफ्त गोफ्तार नामक पत्र निकाला था. उदारवादी विचारधारा से प्रभावित नौरोजी ने 1892 में लिबरल पार्टी के टिकट पर ब्रिटिश पॉर्लियामेण्ट का चुनाव लड़ा एवं एम.पी. (मेम्बर ओफ पॉर्लियामेण्ट) बन गये. 1906 मे दादाभाई नौरोजी ने पुन: कांग्रेस की कमान उस वक़्त संभाली जब कांग्रेस के भीतर नरमपंथी और गरमपंथी गुट संभावित टकराव की ओर बढ़ रहे थे. नौरोजी का व्यक्तित्व इस वैचारिक टकराव को एक वर्ष तक टालने मे सफल रहा. फिर भी, दादाभाई नौरोजी की राजनीतिक गतिविधियों की सबसे बड़ी उपलब्धि औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का आर्थिक विश्लेषण था.
- दादाभाई नौरोजी को हम उनके सर्वविदित लेखन दी पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया (1876) से पहचानते हैं. इस ग्रंथ मे उन्होंने न केवल भारतीय गरीबी की चर्चा की बल्कि इसके लिये अंग्रेज़ो की आर्थिक नीतियों को भी जिम्मेदार ठहराया. ब्रिटिश आर्थिक नीतियों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने का यह किसी भारतीय का पहला प्रयास था. इससे पूर्व ही 1870 में दादाभाई नौरोजी नें लन्दन में सोसाईटी ऑफ ऑर्ट्स की एक सभा में दी वांट्स एंड मीन्स ऑफ इंडिया शीर्षक से एक पत्र पड़ा. इसमें उन्होंने बताया था कि वर्तमान भारत अपनी आवश्यता के अनुपात मे उत्पादन करने में सक्षम नही है. फिर 1873 में दादाभाई नौरोजी ने भारतीय वित्त की एक कमेटी को भारतीय गरीबी के कारणों पर कुछ तर्क दिये. कमेटी ने इन तर्कों को स्वीकार तो कर लिया परंतु प्रकाशित नही किया. नौरोजी के यही लेख अंतत: पावर्टी में प्रकाशित हुए. नौरोजी ने आरम्भ से ही भारतीय गरीबी को अपने लेखों का मुख्य विषय बनाया. पावर्टी मे ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय जनता को अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने भर भी नही मिल रहा है.
- नौरोजी ने उदार अंग्रेज़ों को चेताया कि गरीबी के समाधान पर ही ब्रिटेन के भारत पर असली उपकार को तय होना है. इसप्रकार उन्होने ब्रिटिश शासन की इस अवधारणा पर कि ब्रिटेन का भारत में शासन एक कल्याणकारी राज है- सवालिया निशान लगा दिया. ब्रिटिश शासन को लेकर आरम्भ में तो नौरोजी का यह विचार था कि अंग्रेज़ों को भारत की वास्तविक दशा का ज्ञान नही है, और यदि उन्हें इस बारे में बताया जाये तो औपनिवेशिक शासन की नीतियाँ बदलेंगी. परंतु जैसे-जैसे उनकी ये आशाएँ कमज़ोर होती गयीं ब्रिटिश शासन की उनकी आलोचना भी तीखी होती चली गयी. 1895 में दादाभाई नौरोजी कहा कि भारत भूख से मर रहा है. वहीं 1900 तक वे भारतीयों तुलना अमेरिकी गुलाम से करते हुए अमेरिकी गुलाम की दशा को एक भारतीय से बेहतर बता रहे थे. दादाभाई नौरोजी ने भारत की गरीबी को उत्पादन की कमी से जोड़ा जबकि इसी समय अंग्रेज़ लेखक इसे विशाल जनसंख्या से जोड़ रहे थे. लार्ड कर्जन ने 1888 में एक सरकारी सभा में भारतीय गरीबी के लिये सघन जनसंख्या और जनसंख्या की तेज़ वृद्धि दर को दोषी ठहराया. जनसंख्या की वृद्धि एवं गरीबी का यह सम्बन्ध मालथस के अध्ययन पर आधारित था. दादाभाई नौरोजी ने इसके विपरीत तर्क दिया कि अधिकतर पश्चिमी यूरोपीय देश भारत से कही सघन बसे हैं फिर भी उन्होंने आर्थिक समृद्धि प्राप्त की है, जनसंख्या की वृद्धि एवं गरीबी के अंतर्सम्बन्द्ध को भी नौरोजी ने नकार दिया. उन्होंने तर्क दिया कि इंग्लैण्ड सहित पश्चिमी यूरोप के देशों की जनसंख्या भारत के मुकाबले कहीं तेजी से बढ़ी है तथापि उनकी भौतिक समृद्धि में वृद्धि हुई है. निष्कर्षत: नौरोजी ने न्यून उत्पादन को भारत की गरीबी का मुख्य कारण माना.
- इसप्रकार दादाभाई नौरोजी के विचार से तेज़ पूँजीवादी उत्पादन एवं औद्योगीकरण ही भारत की गरीबी दूर करने का एकमात्र समाधान हो सकता था. नौरोजी और उनके काल के दूसरे आर्थिक राष्ट्रवादियों ने गरीबी को उत्पादन के अनुचित बंटवारे से जोड़कर नहीं देखा. अत: गरीबी के एक महत्वपूर्ण कारण के रूप में वर्गीय शोषण की प्रवृत्ति को वे नहीं पहचान सके. फिर भी औपनिवेशिक शोषण को पहचान कर राष्ट्रवाद के उदभव एवं विकास में उन्होने अमूल्य योगदान दिया. इसमे सबसे महत्वपूर्ण था सम्पत्ति के दोहन का सिद्धांत.
- सम्पत्ति के दोहन का सिद्धांत संभवत: दादाभाई नौरोजी के आर्थिक विश्लेषणों की सबसे बड़ी उपलब्द्धि थी. भारत की गरीबी के सबसे महत्वपूर्ण कारण के रूप में उन्होंने भारतीय सम्पत्ति के इंग्लैण्ड पलायन को दोषी माना. सम्पत्ति के दोहन का अर्थ था भारत की राष्ट्रीय सम्पत्ति अथवा सलाना उत्पादन का इंग्लैण्ड को निर्यात, जिसके बदले में भारत को कोई भी भौतिक लाभ नहीं मिल रहा था.
- दादाभाई नौरोजी ने 1867 से ही इस सवाल को उठाना आरम्भ कर दिया था जब उन्होंने लन्दन में स्थापित ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की एक सभा में अपना पत्र ‘इंग्लैण्ड्स डेब्ट टू इंडिया' पड़ा था. इस पत्र में नौरोजी ने कहा कि भारतीय राजस्व का लगभग एक-चौथाई हिस्सा उस देश से इंग्लैण्ड को स्थानांतरित हो जाता है. उन्होंने अंग्रेज़ों को सलाह दी कि भारत में उत्पादन को बढ़ाना चाहिये ताकि वह देश ब्रिटिश शासन और दोहन के भार को सह सके तथा गरीब न हो. 1876 में पावर्टी के लेखन तक दादाभाई नौरोजी ने 'दोहन सिद्धांत' को पूर्ण विकसित कर लिया था.
- अब नौरोजी ने दोहन सिद्धांत के प्रचार में भी कोई कसर नही छोड़ी. अखबारों, भाषणों, अधिकारियों से पत्र-व्यवहार, विभिन्न कमीशनों एवं कमेटियों के समक्ष तथ्य प्रस्तुत करना आदि सभी नरमपंथी तरीकों को दादाभाई नौरोजी ने दोहन सिद्धांत के प्रचार का माध्यम बनाया. उन्होंने इसे भारत में ब्रिटिश शासन का मूलभूत पाप बताया. साधारण: राष्ट्रवादी आर्थिक विश्लेषकों ने आयात-निर्यात के अंतर को सम्पत्ति के दोहन के रूप में देखा था. दादाभाई नौरोजी ने तर्क दिया कि भारतीय निर्यात की कीमत निर्यात बन्दरगाह पर तय की जा रही है, जिससे निर्यात का वास्तविक मूल्य कम हो जाता है और भारत को निर्यात का लाभ नही मिल रहा है. आर्थिक राष्ट्रवादियों के अनुसार दोहन में अंग्रेज़ प्रशासकों (नागरिक एवं सैनिक) के वेतन, अंग्रेज़ डॉक्टरों, वकीलों एवं दूसरे कर्मचारियों की आय एवं लाभ, इंग्लैण्ड में रह रहे अंग्रेज़ अधिकारियों की पेंशन एवं भत्ते आदि को शामिल किया जा सकता था.
- दादाभाई नौरोजी ने भी अक्सर भारतीय प्रशासन में आवश्यकता से अधिक अंग्रेज़ों के रोज़गार मे होने को दोहन का मुख्य बिन्दू बताया. इसके अतिरिक्त दादाभाई नौरोजी ने घरेलू खर्ची (होम चार्जेज़) को भी दोहन का एक माध्यम बताया. भारत सरकार के वे खर्चे जो इंग्लैण्ड में भारत सचिव के द्वारा किये जाते थे होम चार्जेज़ कहलाते थे. इसमें भारतीय ऋण पर ब्याज, रेलवे के विकास में लगाये जा रहे धन पर गारंटीशुदा लाभ, भारत भेजी जाने वाली सैन्य सामग्री की कीमत, इंग्लैण्ड मे देय दूसरे नागरिक एवं सैनिक खर्चे, लन्दन स्थित इंडिया ऑफिस के खर्चे तथा भारत सरकार के यूरोपीय अधिकारियों की पेंशन एवं भत्ते आदि सम्मिलित थे दूसरे राष्ट्रवादियों ने निजी विदेशी पूँजी निवेश पर लाभ को भी दोहन से जोड़ा. ये पूँजी सबसे अधिक रेलवे के विकास में लग रही थी, जिसमें निवेश पर लाभ की गारंटी भारत सरकार ने दे रखी थी. संक्षेप में कहा जाये तो दादाभाई नौरोजी के विश्लेषण एवं प्रचार ने भारतीय राष्ट्रवाद के प्रारम्भिक चरण में आर्थिक दोहन को राष्ट्रवादी प्रचार का मुख्य हथियार बना दिया था. शीघ्र ही दूसरे राष्ट्रवादियों ने भी इसे मुद्दा बनाया. महादेव गोविन्द रानाडे ने 1872 मे पूना की एक सभा मे भाषण दे पूँजी एवं संसाधनों के दोहन की घोर निन्दा की तथा तर्क दिया कि भारत की राष्ट्रीय आय का एक तिहाई से अधिक ब्रिटिश द्वारा ले जाया जा रहा है. 1873 में भोलानाथ चन्द्र ने कहा कि पहले तो कम्पनी भारतीय राजस्व का केवल एक हिस्सा ही ले जा रही थी, परंतु अब हज़ारों तरीकों से भारतीय धन लूटा जा रहा है.
आर. सी. दत्त एवं आर्थिक राष्ट्रवादी इतिहास लेखन
- दादाभाई नौरोजी के अतिरिक्त दूसरे महत्वपूर्ण आर्थिक राष्ट्रवादी रोमेश चन्द्र दत्त थे, जिन्होंने औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का अलोचनात्मक अध्ययन किया था. भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी दत्त संस्कृत के भी विद्वान थे. उन्होंने संस्कृत के साहित्यिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया एवं तीन खण्डों में ए हिस्ट्री ऑफ सिविलाइज़ेशन इन एंशिएंट इंडिया नामक पुस्तक लिखी. इस ग्रंथ में दत्त ने प्राचीन सामाजिक संस्थाओं को समझने का प्रयास किया था तथा वैदिक जीवन के सांसारिक पक्ष पर प्रकाश डाला था. इसप्रकार वैज्ञानिक ढंग से एवं उपलब्ध स्रोत सामग्री का प्रयोग कर इतिहास लिखने का यह आर. सी. दत्त का पहला प्रयास था. परंतु दो खण्डों में प्रकाशित इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया आर. सी. दत्त का सबसे उत्कृष्ट लेखन कार्य साबित हुआ. इसकी स्रोत सामग्री मुख्यत: सरकारी रिपोर्ट एवं संसदीय पत्र थे. इसप्रकार दत्त ने अपना लेखन मूलत: अंग्रेज़ अधिकारियों के लेखों एवं सरकारी आंकड़ों के आधार पर ही किया था. फिर भी, ब्रिटिशकाल की अर्थव्यवस्था लिखने का यह पहला सफल प्रयास था. इससे पहले न तो किसी ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का इतिहास लिखा था, और न ही भारतीय गरीबी के ऐतिहासिक कारण जानने का प्रयास किया गया था.
- 1901-02 के मध्य लिखी गई इस पुस्तक में औपनिवेशिक भारत की अर्थव्यवस्था के लगभग सभी पक्षों - कृषि, उद्योग, वाणिज्य - को छूने का प्रयास किया गया था. फिर भी दत्त के अध्ययन का मुख्य केन्द्र ब्रिटिश भू-राजस्व थीं. उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में लगातार पड़ने वाले भीषण अकालों ने गरीबी, भुखमरी और उत्पादन के सवाल को अहम बना दिया था. अकालों के अध्ययन के लिये बनाए गये कमीशनों ने अकालों के लिये सूखे को जिम्मेदार ठहराया. इसप्रकार ब्रिटिश प्रशासन कृषि उत्पादन एवं अकालों को भारतीय मानसून पर निर्भर मानता था. दत्त ने अपने अध्ययन के जरिये दिखाया कि अकालों के लिये ब्रिटिश नीतियाँ ही अधिक जिम्मेदार हैं.
- 1900 में लार्ड कर्ज़न को लिखे अपने पत्रों में दत्त ने ब्रिटिश सरकार की भू-राजस्व नीतियों को अकाल का मुख्य कारण बताया. बाद में इकॉनामिक हिस्ट्री में दत्त ने अधिक विस्तार से औपनिवेशिक भू-राजस्व नीतियों का अध्ययन किया. पहले से ही राष्ट्रवादी नेताओं ने राजस्व के निर्धारण एवं उच्च दर को भारतीय कृषि की खराब दशा के लिये जिम्मेदार बताया था. दत्त ने भी माना कि भू-राजस्व नीतियों, जिसमें भूराजस्व की उच्च दरें शामिल हैं, के ही कारण कृषि दशा की दुर्गति हुई है, साथ ही यही भारतीय गरीबी का मुख्य कारण है. उच्च दर के कारण किसान लगातार अनाजों के स्थान पर गैर-खाद्य नगदी फसलें बोने के लिये बाध्य हो रहे थे. दत्त ने तर्क दिया कि चूंकि भारतीय जनसंख्या का एक बड़ा भाग कृषि पर निर्भर है अत: कृषि की दशा में लगातार गिरावट से साल दर साल अनाज की कमी होती गयी है. उन्होंने अनाज के उत्पादन में गिरावट को अकालों का मुख्य कारण भी बताया.
- इसप्रकार आर. सी. दत्त ने मानसून के स्थान पर ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियों को लगातार पड़ रहे अकालों के लिये जिम्मेदार ठहराया. अंग्रेज़ प्रशासकों की आलोचना करते हुए दत्त ने कहा कि जब तक भीषण गरीबी के वास्तविक कारणों को सामने नही लाया जाता तब तक सुधारकारी उपायों का सुझाव नहीं दिया जा सकता तथा आर्थिक प्रगति की बाधाओं को भी दूर नही किया जा सकता है. औपनिवेशिक भू-राजस्व नीतियों के अलावा आर. सी. दत्त ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग के पतन को भी ब्रिटिश नीतियों का दुष्परिणाम बताया. उन्होंने पतन की ऐतिहासिक प्रक्रिया का अध्ययन करते सदियों से भारत के औद्योगिक उत्पादन (हस्तशिल्प उत्पादन) का एशिया और यूरोप मे बड़ा हुए बताया कि बाजार था और ये उत्पादन अनेक देशों को भेजे जाते थे. यही नही बल्कि कताई, बुनाई एवं दूसरे हस्तशिल्पों में हज़ारों भारतीयों को रोज़गार भी मिलता था. दत्त ने दावा किया कि ब्रिटिश शासन की स्थापना के पश्चात भारत ने धीरे-धीरे न केवल विदेशी बाजार खो दिये बल्कि देश के आंतरिक बाजार भी उसके हाँथ से निकल गये. उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि वर्तमान भारत एक बड़े स्तर पर अब विदेशी उत्पादों का आयात कर रहा है.
- आर. सी. दत्त ने इस प्रक्रिया की आलोचना करते हुए इसे 'ब्रिटिश भारत के इतिहास का सबसे दुःखद अध्याय' बताया क्योंकि इससे भारत की समृद्धि मे कमी ही नही आई बल्कि अनेक लोगों के जीवन का साधन ही नष्ट हो गया. राष्ट्रवादी आर्थिक विश्लेषकों ने यह भी तर्क दिया कि इस प्रक्रिया ने अतत: कृषि पर जनसंख्या के बोझ को बढ़ा दिया क्योंकि हस्तशिल्प के विनाश से बेरोज़गार लोगों के पास और कोई चारा नही था. आर. सी. दत्त ने दावा किया कि भारत में ब्रिटेन ने भारतीय परम्परागत उद्योग के पतन की कीमत पर ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादन को बढ़ावा दिया है, और ऐसा ब्रिटिश व्यापारियों एवं उद्योगपतियों के दबाव में किया जा रहा है. आर. सी. दत्त ने बताया कि भारतीय अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश उद्योगों का गुलाम बनाने के लिये भारत को कच्चा माल का उत्पादक एवं ब्रिटिश उद्योग के बाजार की भाँति विकसित किया जा रहा है. इसप्रकार दत्त ने परम्परागत भारतीय हस्तशिल्प के पतन को ब्रिटिश आर्थिक नीतियों से जोड़कर देखा. कालांतर मे यह भारतीय राष्ट्रवादियों एवं अंग्रेज़ों के मध्य बहस का एक प्रमुख मुद्दा बन गया. यही नही बल्कि स्वतंत्रता के पश्चात औपनिवेशिक विचारधारा के इतिहासकारों एवं भारतीय (मुख्यत: मार्क्सवादी) इतिहासकारों के मध्य आधुनिक भारत के इतिहास लेखन में भारतीय उद्योगों का विनाश ही सबसे बहस का विषय रहा है.
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