यूरोपीय इतिहास लेखन | यूरोपीय इतिहास-लेखन में कैम्ब्रिज स्कूल | European Historiography
यूरोपीय इतिहास लेखनयूरोपीय इतिहास-लेखन में कैम्ब्रिज स्कूल
यूरोपीय इतिहास लेखन
- यूरोपीय इतिहास लेखन की साम्राज्यवादी विचारधारा से मुक्त नही था. स्मिथ ने भारत के राजनीतिक इतिहास पर ज़रुरत से ज्यादा बल दिया था. उसने साम्राज्यों एवं शासकों का इतिहास लिखने पर ही ध्यान दिया.
- मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त तथा गुप्त साम्राज्य की तो स्मिथ ने कुछ प्रशंसा की, परंतु इन शासकों को 'निरंकुश' एवं 'सर्वसत्तावादी' माना. स्मिथ ने 'प्राच्य - निरंकुशता' को ही साम्राज्यों के पतन का मूल कारण माना.
- स्मिथ ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा कि प्रत्येक साम्राज्य के पतन के पश्चात भारत सदैव अराजकता के एक लम्बे युग में प्रवेश कर गया. अत: भारत मे शांति एवं समृद्धि के लिये ब्रिटिश शासन जैसी 'उदार निरंकुश' व्यवस्था का बना रहना आवश्यक था.
- स्मिथ का मानना था कि यदि भारत से ब्रिटिश शासन हटा लिया गया तो देश पुन: राजनीतिक अराजकता एवं अशांति के दौर में पहुँच जायेगा. हमें यह भलीभाँति ध्यान रखना चाहिये कि स्मिथ का काल भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उत्कर्ष का काल था.
- 1885 में कांग्रेस की स्थापना तथा 1905 के स्वदेशी आन्दोलन ने स्मिथ के विचारों को गहरे से प्रभावित किया था. भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति आलोचनात्मक रवैया संपूर्ण बीसवीं शताब्दी के यूरोपीय इतिहास लेखन की मुख्य पहचान बन गया.
- अल्फ्रेड लायल ने अपनी रचना दी राईज़ एंड एक्सपेंशन ऑफ ब्रिटिश डोमिनियन इन इंडिया में भारत में ब्रिटिश शासन के आरम्भ का कारण भारतीयों में राष्ट्रीयता के अभाव को माना. दूसरी ओर, उन्होंने प्राचीन एवं मध्यकालीन भारतीय इतिहास मे हुए विद्रोहों की तीखी निन्दा की भारत में ब्रिटिश शासन की उपस्थिति को उचित ठहराने के लिये जॉन सील ने एक्सपेंशन ऑफ इंग्लैंड मे यह साबित करने का प्रयास किया कि भारत पर अंग्रेज़ों की विजय पूर्वनियोजित न होकर आकस्मिक थी. ये अध्ययन राष्ट्रवादियों की आलोचनाओं को गलत सिद्ध करने हेतू लिखे जा रहे थे.
- राष्ट्रवादियों द्वारा प्रस्तुत आर्थिक दोहन के सिद्धांत को अनुचित साबित करने के लिये वेरा एन्सटे नामक महिला इतिहासकार ने दी इकानामिक डेवलपमेंट इन इंडिया (1929) लिखी. जिसमें ब्रिटिशकाल में भारतीय धन सम्पदा के दोहन के राष्ट्रवादी तर्कों को काटा गया था. कालांतर में इस विषय पर भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकारों और साम्राज्यवादी इतिहासकारों के मध्य लम्बी बहस चली.
यूरोपीय इतिहास-लेखन में कैम्ब्रिज स्कूल
- आधुनिक भारत पर साम्राज्यवादी इतिहास लेखन का विकसित रूप कैम्ब्रिज स्कूल के रूप मे सामने आया. कैम्ब्रिज स्कूल के वास्तविक अध्ययन तो स्वतंत्र भारत में ही सामने आये, परंतु इसके बीज ब्रिटिश साम्राज्यवादी पत्रकार एवं लेखक वेलेंटाइन शिरॉल तथा अमेरिकी विद्वान ब्रूस टी. मैकुली के अध्ययनों में अभिव्यक्त हो चुके थे. इन तथा दूसरे आरम्भिक साम्राज्यवादी लेखकों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त नवीन अवसरों के लिये अंग्रेज़ी शिक्षा प्राप्त उच्च वर्ग के संघर्ष बताया था.
- 1960 के दशक में जॉन गैलाघर एवं उनके छात्र अनिल सील के अध्ययनों में कैम्ब्रिज स्कूल की आधारशिला रखी. गैलाघर के पर्यवेक्षण में अनिल सील द्वारा किया गया शोध अध्ययन इमरजेंस ऑफ इंडियन नेशनलिज़्म (1968) के नाम से प्रकाशित हुआ. सील ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को अभिजात वर्गों की आपसी प्रतिस्पर्धा एवं संघर्ष के रूप में दिखाने की चेष्टा की. अनिल सील द्वारा किया गया किया गया।
- राष्ट्रीय आन्दोलन का यह विश्लेषण कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों के लिये दिशानिर्देशक सा बन गया. कैम्ब्रिज स्कूल इतिहास लेखन की परम्परा का विधिवत शुभारम्भ जॉन गैलाघर, अनिल सील एवं गार्डन जॉनसन द्वारा 1973 में संयुक्त रूप से संपादित लोकॅलिटी, प्रॉविंस एंड नेशन: एसेज़ आन इंडियन पॉलिटिक्स 1870-1940 से हुआ. इस ग्रंथ ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के संबन्ध में कुछेक एकदम नयी अवधारणाओं को जन्म दिया. एक, इसमें राष्ट्रीय आन्दोलन को स्थानीय एवं गुटीय राजनीति के छद्म वाह्य आवरण की भाँति देखा गया था. वास्तविक राजनीतिक संघर्ष स्थानीय स्तर पर नये संविधानिक सुधारों से उत्पन्न अवसरों को लेकर हो रहे थे. दूसरे, राष्ट्रीय तथा स्थानीय नेताओं के आपसी संबन्धों की व्याख्या सोपानवत आश्रयदाता आश्रित (पैट्रन-क्लॉइंट) संबधों के रूप में की गयी थी. इस विश्लेषण के अनुसार अखिल भारतीय संगठन से जुड़ाव नेताओं ने अपनी स्थानीय राजनीति चमकाने के लिये किया. तीसरी महत्वपूर्ण अवधारणा के ज़रिये राष्ट्रीय राजनीतिक संघर्ष के उदभव को ब्रिटिश शासन के बढ़ते केन्द्रीकरण का परिणाम माना गया. इस ग्रंथ ने कैम्ब्रिज स्कूल के साम्राज्यवादी इतिहास लेखन का जो आधार तैयार किया वह शीघ्र ही एक परम्परा की भाँति विकसित हो गया. अनिल सील की शोधछात्र ज्यूडिथ ब्रॉउन ने गाँधीजी पर किये गये अपने अध्ययन (गॉधी'ज़ राइज़ टू पॉवर, 1972) में उनके राजनीतिक उत्कर्ष को ब्रिटिश राज से मोल-तोल कर सकने की उनकी क्षमता से जोड़कर देखा. इस अवधारणा के तहत नेहरू, पटेल, मालवीय तथा आज़ाद को स्थानीय या अपने धर्मों के बिचोलियों की भाँति प्रस्तुत किया गया. यह विश्लेषण आश्रयदाता आश्रित की अवधारणा की ही पुष्टि करता था.
- कैम्ब्रिज स्कूल के इतिहासकारों ने स्थानीय अध्ययनों की बकायदा एक श्रृंखला ही आरम्भ कर दी. अनिल सील के ही एक अन्य प्रतिभाशाली शोधछात्र गार्डन जॉनसन ने बॉम्बे प्रांत के कांग्रेस संगठन पर किये गये अध्ययन (प्रोविंशियल पॉलिटिक्स एंड इंडियन नेशनलिज़्म: बॉम्बे एंड दी इंडियन नेशनल कांग्रेस 1890 1905) में नरमपंथ और गरमपंथ के वैचारिक संघर्ष को फिरोज़शाह मेहता एवं बाल गंगाधर तिलक के व्यक्तिगत संघर्ष में ढूढा. जॉनसन ने कैम्ब्रिज इतिहासकारों के शोधों को प्रकाशित करने के उद्देश्य से मॉडर्न एशियन स्टडीज़ नामक जर्नल भी संपादित किया. स्थानीय अध्ययनों में क्रिस्टोफर ए. बेली का इलाहाबाद पर किया गया अध्ययन (दी लोकल रूट्स ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स: इलाहाबाद 1880-1920 ) भी कम महत्वपूर्ण नहीं था.
- बेली ने 19वीं शताब्दी के मध्य से इलाहाबाद में राजनीतिक रूप से शक्तिशाली हुए स्थानीय वाणिज्यिक तत्वों की चर्चा की, जिसने कालान्तर में शहर में विक्सित हो रही राष्ट्रीय राजनीति से आश्रयदाता-आश्रित वाले संबन्ध बना लिये थे. फिर भी, बेली पूरी तरह कैम्ब्रिज स्कूल की स्थापनाओं से सहमत नहीं थे और कालांतर में उन्होंने पुराने उदार साम्राज्यवादी दायरे में ही इतिहास लेखन को प्राथमिकता दी. बल्कि, बेली ने कुछ हद तक कैम्ब्रिज स्कूल से इतर उदार साम्राज्यवादी इतिहास लेखन की परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया. दक्षिण भारत पर स्थानीय अध्ययन डेविड ए. वॉशब्रुक एवं क्रिस्टोफर जे. बेकर द्वारा किये गये. वॉशब्रुक ने 1870 से 1920 तथा बेर 1920 से 1937 के मध्य दक्षिण भारत की स्थानीय राजनीति का अध्ययन किया. फ्रांसिस रॉबिंसन ने संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की मुस्लिम राजनीति की व्याख्या स्थानीय एवं गुटीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में की. कुल मिलाकर कैम्ब्रिज स्कूल के साम्राज्यवादी इतिहास - लेखन ने राष्ट्रीय राजनीति एवं राष्ट्रीय आन्दोलन की अनदेखी ही की. इन इतिहासकारों ने साम्राज्यवाद एवं राष्ट्रवाद के आर्थिक अंतर्विरोधों को नज़रअन्दाज़ कर दिया. उन्होंनें राष्ट्रवाद के उदय के लिये साम्राज्यवाद द्वारा आर्थिक शोषण के भारतीय राष्ट्रवादियों के तर्कों को नहीं माना. उनके अनुसार राष्ट्रवाद भारतीयों के आपसी सत्ता संघर्ष का परिणाम था, जो मूलत: धर्म, जाति, वर्ग एवं गुट के आधार पर संगठित थे.
- कैम्ब्रिज इतिहासकारों के इन दृष्टिकोणों की आलोचना भारतीय मार्क्सवादी एवं उदारवादी दोनो विचारधारा के इतिहासकारों ने की है तथा इन इतिहासकारों पर ब्रिटिश इतिहासकार लेविस नैमियर का दृष्टिकोण अपनाने का आरोप लगाया है. नैमियर नें ब्रिटिश संसद का इतिहास लिखते हुए सत्ता-संघर्षों की व्याख्या वैचारिक के स्थान पर व्यक्तिगत तथा गुटीय राजनीति में की थी. अपनी तमाम अवधारणात्मक कमियों के बावजूद कैम्ब्रिज इतिहासकारों ने क्षेत्रीय अभिलेखागारों में दफ़न ऐतिहासिक सामग्री को प्रकाश में लाने के अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम दिया. वैसे तो 1980 तक कैम्ब्रिज स्कूल के साम्राज्यवादी इतिहास-लेखन का अंत हो चुका था, परंतु इसकी कुछ अवधारणाओं को लगभग इसी समय सबअल्टर्न के नाम से आरम्भ हुए एक नये इतिहास लेखन ने आत्मसात कर लिया. हांलाकि, सबअल्टर्न अध्ययन एकदम भिन्न प्रकार का इतिहास लेखन था तथा इसका कैम्ब्रिज इतिहास लेखन से कोई प्रत्यक्ष संबन्ध नही था.
your post is very useful and informative. thanks.. visit link and avail govt services e sathi
ReplyDelete