गांधी जी के राज्य सम्बन्धी विचार | गांधीजी के राजनीतिक विचार | Gandhi Ji Ke Rajnitik Vichar
गांधी जी के राज्य सम्बन्धी विचार
गांधीजी का यह विचार यथार्थ एवं व्यहारिकता पर आधारित है वे रामराज्य का सपना संजोये हुए थे। इसलिए उन्होंने दो प्रकार के आदर्श राज्य की बात कही।
- पूर्ण आदर्श राज्य- जो राज्य विहिन व्यवस्था पर आधारित थे ।
- अर्द्ध आदर्श राज्य- जो अहिंसात्मक समाज व्यवस्था पर आधारित थे ।
➠ गांधीजी का मानना था कि जब नागरिकों में अपने कर्त्तव्यों और दायित्वों का उचित बोध हो जाएगा तो राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होगी। गांधीजी का यह विचार मार्क्सवाद से प्रेरित लगता है और प्लेटों के आदर्श राज्य की बू आती है लेकिन व्यावहारिकता को आधार मानकर गांधीजी पूर्ण आदर्श अवस्था को स्वीकार नहीं करते है। उनका कहना था कि समाज में कुछ ऐसे असामाजिक तत्व होते हैं जो व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने से नहीं चूकते। अतः राज्य के पास बाध्यकारी शक्तियाँ होनी चाहिए। गांधीजी का आदर्श राज्य लोकतांत्रिक मूल्यों एवं सत्ता के विकेन्द्रीकरण की अवधारणा के साथ जुड़ा हुआ है। इसका प्रमुख उद्देश्य शासन में जनता की अधिक से अधिक भागीदारी सुनिश्चित करना
➠ गांधीजी को रामराज्य जनहित एवं कल्याण पर आधारित राम राज्य को स्पष्ट निर्देश दिये गये हैं कि वह इस क्षेत्र में प्रतिबद्ध रहें। ताकि राज्य का उद्देश्य पूर्ण हो सके और राज्य जन इच्छाओं और आंकाक्षाओं पर खरा उतर सकें।
➠ महात्मा गांधी ने अपने राजनीतिक विचारों में आदर्श राज्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार प्रस्तुत किये हैं। वे एक रामराज्य की कल्पना करते हैं। उनका मानना है कि राज्य का अस्तित्व जनहित के लिए है तो उसे इस उद्देश्य पर खरा उतरना चाहिए।
गांधीजी के आदर्श राज्य के दो रूप देखने को मिलते हैं।
➠ प्रथम पूर्ण आदर्श राज्य, जो राज्य विहिन समाज की कल्पना करता है, उनके इस विचार में मार्क्सवाद की छाया स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
➠ द्वितीय, अर्द्ध आदर्श राज्य को अहिंसात्मक समाज व्यवस्था पर आधारित है। उनका यह विचार यथार्थ व व्यवहार पर आधारित है। क्योंकि समाज में कुछ ऐसे असामाजिक तत्व होते है जो व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने के पीछे नहीं रहते। अतः परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राज्य के अस्तित्व को स्वीकार किया और राज्य को लोककल्याण पर बल देने को निर्देश दिये।
➠ गांधीजी का आदर्श राज्य लोकतांत्रिक मूल्यों एवं विकेन्द्रीकरण की अवधारणा पर आधारित है। उनका कहना था कि लोकतंत्र शासन का सर्वोच्च रूप होता है। लेकिन विकेन्द्रीकरण के बिना इसकी सफलता संदिग्ध है। जब तक शासन में स्थानीय लोगों की अधिक से अधिक सहभागिता सुनिश्चित नहीं होगी, तब तक आदर्श राज्य का सपना साकार नहीं हो सकता।
भारतीय संविधान में गांधीजी के राज्य संबंधी विचार
➠ गांधीजी के राज्य संबंधी विचारों को भारतीय संविधान एवं राजनीतिक व्यवस्था में सम्मानजनक स्थान दिया गया है। जैसे अनु. 17 अस्पृश्यता निवारण, अनु. 12 से 35 मौलिक अधिकार, अनु. 29 धर्म निरपेक्ष समाज, अनु. 36 से 51 लोक कल्याणकारी स्वरूप, अनु. 42 लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण आदि। इनके अलावा आर्थिक असमानता दूर करने का प्रयास, पुलिस प्रबंध में सुधार, शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के प्रयास 73 व 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायत राज व स्थानीय निकाय को सुदृढ़ बनाना आदि ।
➠ गांधीजी धर्म और राजनीति के अटूट रिश्तों पर विचार रखते हुए मानते है धर्म और राजनीति एक सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन राजनीतिक स्वार्थ के लिए धर्म का प्रयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि इससे समाज विघटन को प्रोत्साहन मिलेगा।
गांधीजी के आदर्श राज्य संबंधी विचारइस प्रकार है
1 शासन का लोकतांत्रिक स्वरूप
- महात्मा गांधी के आदर्श राजय का प्रथम आधार लोकतंत्र पर आधारित संस्था है, क्योंकि लोकतंत्र में निहित होने के कारण सरकार तानाशाह नहीं बन सकती और जनहितों की अनदेखी नहीं कर सकती। अतः आदर्श राज्य लोकतांत्रिक मान्यताओं एवं मूल्यों पर आधारित होना चाहिए।
2 सत्ता का विकेन्द्रीकरण
- केवल लोकतंत्र की स्थापना करने से सरकार का स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। इसके लिए सत्ता के विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता होती हैं, ताकि लोकतांत्रिक की संस्थाओं का जाल गांव-गांव और ढाणी-ढाणी फैलाया जा सके और लोकतंत्र में स्थानीय लोगों की भागीदारी अधिक से अधिक सुनिश्चित की जा सके। इसीलिए महात्मा गांधी ने लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के औचित्य को स्वीकार किया।
- गांधीजी ने इन्हीं सपनों को साकार करने के लिए 1957 में बलवन्त राय मेहता समिति का गठन किया गया। इसी की सिफारिश के आधार पर 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर में पंचायती राज संस्थाओं का श्रीगणेश किया गया। इस संस्थाओं को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। इसी कड़ी में 73 व 74 वां संविधान संशोधन किया गया तथा पंचायती राजसंस्थाओं को प्रभावी बनाने के उद्देश्य से 2004 में केन्द्रीय पंचायती राज मंत्रालय की स्थापना की गई।
3 आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण
गांधीजी ने राजनीतिक विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ आर्थिक विकेन्द्रीकरण पर भी बल दिया हैं उनका कहना था कि आर्थिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता या समानता अधूरी है।
- अतः समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता को दूर करना होगा। इसके लिए ट्रस्टशिप के सिद्धान्त का अनुसरण करने की आवश्यकता पर बल दिया। वे कहते थे कि मैं मशीनों का विरोधी नहीं हूँ, लेकिन इनके नाम पर बेराजगारी को नहीं बढ़ाया जाये। भारत की आर्थिक बदहाली से मुक्ति दिलाने के लिए एकमात्र तरीका है गांवों को आत्मनिर्भर बनाना । इसके लिए घरेलू एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देना होगा। स्वदेशी के प्रति जागृति लानी होगी।
- गांधीजी उद्योगों में श्रमिकों को भागीदारी बढ़ाना चाहते थे। गांधीजी के इसी सपने को साकार करने के लिए 42वे संविधान संशोधन के द्वारा अनु. 43 (क) जोड़ा गया।
4 अहिंसात्मक समाज
- गांधीजी अपने आदर्श राज्य को अहिंसात्मक समाज के रूप में स्वीकार करते हैं। गांधीजी के इस आदर्श राज्य में राज्य का अस्तित्व रहेगा। राज्य के पास कुछ बाध्यकारी शक्तियाँ होंगी। जैसे पुलिस, सेना, जेल, न्यायालय आदि। जिसके माध्यम से वह मनुष्य की असंवैधानिक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगायेगा, फिर भी राज्य इस दृष्टि से अहिंसात्मक होगा, जिसमें सत्ता का प्रयोग जनता के उत्पीड़न व अत्याचार के लिए नहीं, वरन् कल्याण व हित के लिए होगा।
5 नागरिक अधिकारों पर आधारित
- अधिकारों का संबंध व्यक्ति के सर्वागिण विकास के साथ जुड़ा हुआ होता हैं इसलिए मनुष्य हमेशा से ही अधिकार प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहा हैं। गांधीजी अपने आदर्श राज्य को नागरिक अधिकारों पर आधारित बनाना चाहते थे। उननके इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान के भाग 3 अनु. 12 से 35 में इनका उल्लेख किया गया है।
6 निजी सम्पत्ति का अस्तित्व
- गांधीजी आर्थिक विकेन्द्रीकरण की बात करते हैं, जिसमें ट्रस्टशिप के सिद्धान्त के माध्यम से आर्थिक असमानता दूर करने के समर्थक है, लेकिन वे कार्लमार्क्स की भांति सम्पत्ति के अस्तित्व को नहीं नकारते हैं। उनका कहना था कि व्यक्ति के पास सम्पत्ति इतनी होनी चाहिए, जिससे उनकी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। सम्पत्ति संकलन करने की प्रवृत्ति अनेक बुराईयों को जन्म देती है।
7 श्रम की अनिवार्यता
महात्मा गांधी ने अपने आदर्श राज्य के संबंध में यह बताया है कि राज्य में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए श्रम करना जरूरी होगा ताकि वे स्वयं अपना भरण पोषण भली-भांति कर सके। साथ में सजा की आत्मनिर्भरता की दिशा में अग्रसर हो सके। वे मानसिक श्रम के साथ-साथ शारीरिक श्रम पर अधिक बल देते थे और कहा करते थे कि जो व्यक्ति केवल मानसिक श्रम करते हैं, उन्हें प्रतिदिन कुछ समय शारीरिक श्रम के लिए निकलना चाहिए। इसका परिणाम यह होगा कि समाज में काम से दिल चुराने की प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकेगा।
8 वर्ण व्यवस्था:
- गांधीजी के अनुसार वर्ण व्यवस्था हमारी सभ्यता की पहचान है, जिसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था का सफल संचालन करना है। इसका आधार धर्म होना चाहिए, कार्य नहीं, लेकिन दोषपूर्ण व्यवस्थाओं के कारण वर्ण व्यवस्था पर जातीय बन्धन हावी हो गये है, जिसके कारण समाज में अनेक प्रकार की बुराइयों को बल मिला है। सभ्य कहलाने वाला समाज असभ्यता का प्रतीक बनकर रह गया है। अतः आदर्श राज्य में पूर्ण व्यवस्था पर बल दिया जाना चाहिए।
9 अस्पृश्यता का अन्तर
- वर्ण व्यवस्था का आधार कार्य हो जाने के कारण भारतीय समाज में जातिवाद का घिनौना खेल शुरू हो गया था। सम्पूर्ण समाज खण्डित नजर आ रहा था। शुद्र वर्ण के लोगों के साथ छुआ-छूत जैसी अमानवीय प्रवृत्तियां पनपती जा रही थी। जिसके परिणामस्वरूप समाज का एक बड़ा वर्ग अभाव भरी जिंदगी व्यतीत कर रहा था।
- अत: गांधीजी ने अपने आदर्श राज्य में छुआछूत निषेध की घोषणा की और इसके संबंध में अनेक लेख अपने समाचार पत्र "हरिजन" में प्रकाशित किये। इन्हीं विचारों को आधार मानकर भारतीय संविधान के अनु. 17 में अस्पृश्यता निवारण की विधिवत् घोषणा की गई इसके अलावा अस्पृश्यता से ग्रस्त लोगों के लिए गांधीजी ने हरिजन शब्द का प्रयोग किया।
10 धर्म निरपेक्ष समाज
- यद्यपि महात्मा गांधी धर्म और राजनीति के अटूट संबंध को स्वीकार करते थे। लेकिन भारत जैसे विविधता वाले राज्य में धर्म प्रधान राज्य संभव नहीं था। अतः इसलिए उन्होंने धर्म निरपेक्ष राज्य के औचित्य को स्वीकार किया। जिसका अभिप्राय एक ऐसे राज्य से है, जिसका कोई विशेष धर्म नहीं होगा और न ही धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव किया जायेगा। आदर्श राज्य के इस विचार को स्वतंत्र भारत ने स्वीकार किया है और इसके संबंध में अनेक प्रावधान संविधान में किये गये हैं।
11 गौ-वध निषेध
- गांधीजी के धार्मिक व आर्थिक दोनों ही महत्व से परिचित थे। उनका कहना था कि गाय के पालन-पोषण के आधार पर एक व्यक्ति अपने परिवार की जीविका संचालित कर सकता है। इसके अलावा हिन्दू धर्म व संस्कृति में भी गाय को पवित्र माना गया है। अतः आदर्श राज्य में गौ-वध पर पूर्ण प्रतिबंध होगा।
12 मद्य निषेध
- मद्य सेवन से व्यक्ति का चारित्रिक व नैतिक पतन होता है। अतः आदर्श राज्यमें मद्य निषेध नीति का अनुसरण किया जायेगा।
13 निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा
- गांधीजी के अनुसार व्यक्ति में नैतिक व चारित्रिक गुणों का विकास करने के लिए शिक्षा का होना बहुत जरूरी हैं लेकिन इस समय भारतीय समाज में अशिक्षा व अज्ञानत व्यापत थी। अतः गांधीजी यह मानते थे कि उनके आदर्श राज्य में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क होगी, ताकि समाज का कोई भी नागरिक शिक्षा से वंचित न रह सके।
- गांधीजी के इसी विचार को ध्यान में रखते हुए राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है तथा 86वाँ संविधान संशोधन कर शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया है।
14 पुलिस व सेना संबंधी विचार
- गांधीजी अपने आदर्श राज्य में पुलिस के औचित्य को स्वीकार करते है लेकिन सेना नहीं। उनके अनुसार समाज में व्याप्त असामाजिक तत्वों पर नियंत्रण करने के लिए पुलिस का होना अनिवार्य हैं लेकिन पुलिस का आधार अहिंसा होगा। वे जनता के सेवक के रूप में तत्परता के साथ दायित्व निर्वाह करेंगे। सेना के संबंध में जब विश्व में स्थायी शांति कायम हो जायेगी तब सेना का कोई महत्व नहीं रहेगा। लेकिन फिर भी आवश्यकता के लिए शांति सेना स्थापित की जा सकती है।
15 पंचायत पर आधारित न्याय व्यवस्था
- पंचायतों को और अधिक सशक्त बनाने के लिए गांधीजी अपने आदर्श राज्य में न्याय संबंधी अधिकार पंचायतों को देने पर बल देते हैं, ताकि लोगों को सस्ता व शीघ्र न्याय सुलभ हो सके।
16 लोक कल्याणकारी राज्य
17 राजनीति के आध्यात्मिकरण पर बल
- महात्मा गांधी गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। इसलिए उन्होंने गोखले के इस विचार को स्वीकार करते हुए साध्य (लक्ष्य) को प्राप्त करने के लिए साधनों की पवित्रता पर बल दिया। उनका मानना था कि ऐसा होने से जो परिणाम हमें प्राप्त होंगे उनकी अनुभूति भी अच्छी होगी तथा हमारी भावी पीढ़ी को इसका लाभ मिलेगा।
गांधीजी का आदर्श राज्य संबंधी विचार का निष्कर्ष
इस प्रकार गांधीजी का आदर्श राज्य संबंधी विचार कोरी कल्पनाओं पर आधारित न होकर यथार्थ व वास्तविकता पर आधारित है। जिन्हें आधार मानकर निश्चित तौर पर प्रत्येक राज्य विकास और उन्नति के नवीन सोपान तय कर सकता है और ऐसा राज्य भी अपने उद्देश्य पर खरा उतर सकता है। गांधीजी के इन विचारों को भारतीय संविधान में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया गया है।
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