गांधीजी का ध्यान भारतीय समाज की उन बुराइयों की तरफ गया, जिनके कारण सम्पूर्ण समाज की जड़े खोखली हो चुकी थी। यद्यपि भारतीय समाज और संस्कृति की गणना विश्व के महानतम संस्कृतियों से की जाती थी। लेकिन स्वस्थ परम्पराओं के स्थान पर सामाजिक बुराइयाँ हावी हो गयी थी। समाज को संगठित एवं व्यवस्थित रूप प्रदान करने के लिए वैदिक एवं आर्यों के काल में अनेक व्यवस्थाएं और परम्पराऐं स्थापित हो गई थी।
20वीं सदी का पूर्वाद्ध भारतीय समाज के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण था। क्योंकि महात्मा गांधी ने समाज की बुराईयों से मुक्त करने का बीड़ा उठाया। यद्यपि गांधीजी से पूर्व अनेक समाज सुधारक हुए जिन्होनें इस दिशा में सार्थक पहल भी की। लेकिन गांधीजी के प्रयास यथार्थ पर आधारित होने के कारण उनके विचारों का सकारात्मक प्रभाव पड़ा। उस समय समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था और कथित तौर पर अपने आपको उच्च जाति का दावा करने वाले लोग निम्न जातियों के लोगों के साथ अस्पृश्यता, शोषण, अन्याय व अत्याचार जैसे अमानवीय व्यवहार कर रहे थे। जिससे समाज विखण्डित नजर आ रहा था। अतः गांधीजी ने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए समाज सुधार पर बल दिया और कहा कि जब तक समाज में एकता का अभाव रहेगा, तब तक हम गुलामी की जंजीरों से मुक्त नहीं हो सकते।
गांधीजी के प्रमुख सामाजिक विचार निम्नलिखित है-
1 अस्पृश्यता का निवारण
गांधीजी ने भारतीय समाज में व्याप्त छुआछूत या अस्पृश्यता का विरोध किया और ये कहा कि इससे समाज पतन की ओर अग्रसर हो रहा है मानवीय समाज का गम्भीर दोष है। इससे सम्पूर्ण समाज कलंकित हो रहा है। उन्होने कहा कि यह एक ऐसा रोग है जो समस्त समाज को नष्ट कर देगा। वे अछूतों को आर्थिक व राजनीतिक अधिकार दिलाने के पक्ष में थे। उनके द्वारा इस बात पर बल दिया गया कि अछूतों को हिन्दू मंदिरों, कुओं तथा सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश दिया जाये ताकि उनमें आत्म-सम्मान एवं आत्म गौरव की भावना विकसित हो सके। गांधीजी ने सर्वप्रथम अछूतों के लिए 'हरिजन' शब्द का प्रयोग किया तथा उनके सुधार हेतु व्यापक योजना प्रस्तुत की तथा गांधीजी के विचारों को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान में अस्पृश्यता निवारण अनु. 17 में उल्लेख किया गया है।
2 वर्ण व्यवस्था का समर्थन
वर्ण व्यवस्था को भारतीय समाज का आधार माना जाता है, लेकिन वर्ण व्यवस्था जो कर्म व धर्म पर आधारित हुआ करती थी, वह कार्यों पर आधारित हो गई। जिसके परिणाम स्वरूप समाज में जाति बंधन हावी हो गए और समाज खण्डित नजर आने लगा। प्राचीन काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र बनाने के पीछे उद्देश्य माज का सफल संचालन करना था। लेकिन दोषपूर्ण व्यवस्था के चलते वर्ण व्यवस्था प्रदूषित हो गई। अतः गांधीजी ने सामाजिक विचारों में वर्ण व्यवस्था के औचित्य को स्वीकार किया।
3 नारी सुधार
नारी को अर्द्धांगिनी माना जाता है। प्राचीन भारतीय समाज और हिन्दू धर्म की मान्यताओं में नारी का महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था। लेकिन बदलती हुई परिस्थितियों के कारण नारी की स्थिति नाजुक होती गई। अतः 19वीं, 20वीं शताब्दी में अनेक समाज सुधारक आगे आए। जिनमें राजा राम मोहन राय तथा बाद में गांधीजी का नाम प्रमुख है। उनका कहना था कि नारी किसी भी दृष्टि से पुरुषों से हीन नहीं होती। उसके प्रति अन्याय व अपमान नहीं होना चाहिए।
उनका कथन था कि यदि सत्य, अंहिसा, सहिष्णुता, नैतिकता आदि जीवन के सर्वोच्च गुणों की दृष्टि से विचार किया जाए तो नारी पुरुषों से श्रेष्ठ हैं गांधीजी ने पर्दा प्रथा, बाल विवाह, बहुपत्नी विवाह, बेमेल विवाह, दहेज प्रथा आदि का विरोध किया। लेकिन गांधीजी महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता के समर्थक नहीं थे। उनका कहना था कि वह केवल अपने पारिवारिक दायित्व का पालन करें। घर से बाहर निकलकर आर्थिक गतिविधियों में भाग न लें।
4 बुनियादी शिक्षा
गांधी जी का कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के शरीर, आत्मा और मस्तिष्क का समन्वित विकास करना है। लेकिन इस दृष्टि से भारत में अंग्रेजों के द्वारा प्रचलित शिक्षा उचित नहीं थी। उनका कहना था कि यह शिक्षा पद्धति हमारे युवाओं में शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक उन्नति नहीं कर सकती।
गांधी जी ने शिक्षा के क्षेत्र मे सुधार लाने के लिए व्यापक योजना प्रस्तुत की, जो इस प्रकार है-
शिक्षा के अन्तर्गत विद्यार्थियों को कोई न कोई दस्तकारी सिखाई जाए, ताकि उनके आत्मनिर्भरता की भावा का विकास हो ।
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए।
अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा ।
शिक्षा का स्तर व्यक्तियों के चारित्रिक निर्माण करने वाला होना चाहिए।
गांधीजी ने इसी सपने को साकार करने के लिए 2002 में 86वाँ संविधान संशोधन शिक्षा का मौलिक अधिकार बनाया गया।
5 अहिंसा पर आधारित समाज
गांधीजी के सामाजिक विचारों में उनके समाज की बुनियाद अहिंसा पर टिकी हुई है। इसलिए वे अपने आदर्श राज्यों को अहिंसात्मक समाज कहकर पुकारते हैं। उनका मानना था कि सभी समस्याओं की जड़ मनुष्य की हिंसात्मक प्रवृत्ति है। अतः समाज में हिंसा के किसी भी रूप को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए ।
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