मगध साम्राज्य का उत्थान | मगध साम्राज्य का उदय | Magadh Samrajya Ka Uday
मगध साम्राज्य का उत्थान | मगध साम्राज्य का उदय
- छठी शताब्दी ई.पू. के प्रारंभ में मगध दक्षिणी बिहार में पटना तथा गया के निकटवर्ती क्षेत्रों में स्थित था। इसके उत्तर तथा पश्चिम में क्रमश: सोन तथा गंगा नदियां थीं। पूर्व में यह छोटा नागपुर के पठार तक फैला हुआ था। इसके पूर्व की ओर चम्पा नदी बहती थी जो इसे अंग से अलग करती थी। इसकी राजधानी राजगृह पांच पहाड़ियों से घिरा अभेद्य शहर था। पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास राजधानी पाटलिपुत्र से स्थानांतरित कर दी गई।
- साम्राज्यवाद की भावना का विकास वैदिककाल में होता हुआ देखते हैं, परन्तु विस्तारवादी नीति का विकास बौद्धकाल में अधिक तीव्र गति से हुआ। मगध महाजनपद ने इस दृष्टि से न केवल साम्राज्य का ही विस्तार किया बल्कि भारत को एकता के सूत्र में बांधने का सर्वप्रथम सफल प्रयास किया। इस सन्दर्भ में प्रश्न उठाया जा सकता है कि मगध की विस्तारवादी नीति की सफलता के क्या कारण हैं, जिनके परिणामस्वरूप इतना विशाल साम्राज्य स्थापित किया जा सका।
- ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध साहित्य से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आर्य पश्चिम से पूर्व की ओर अग्रसर हुए। पूर्वी भारत के अधिकांश जनपदों में आर्य प्रजाति के लोग शासन करते थे किन्तु इस क्षेत्र में आर्येत्तर लोगों की संख्या अधिक थी अर्थात् थोड़े से आर्य बहुसंख्यक प्रागार्यों पर शासन करते थे। अतएव आर्य जाति पर लागू होने वाले सामाजिक प्रतिबन्धों से वे मुक्त थे। यहां के निवासी वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणीय अनुष्ठान के अनुयायी नहीं थे। इसके विपरीत, इस क्षेत्र में बौद्ध मत का काफी प्रभाव था। बुद्ध को ज्ञान इसी क्षेत्र में प्राप्त हुआ था। राय चौधरी ने लिखा है कि मगध राष्ट्र की एक मुख्य विशेषता यह थी कि वहां के लोगों के व्यवहार में एक प्रकार का लचीलापन था। यह गुण सरस्वती व दृषद्वती के तटवर्ती प्रदेशों के लोगों में नहीं था।
- ऋग्वेद में मगध के आर्यावर्त की सीमा से बाहर स्थित होने का उल्लेख मिलता है। पुराणों में अंग, मगध, बंग आदि की यात्रा से लौटने पर पुनः संस्कार करके शुद्ध होने का उल्लेख आया है। स्पष्ट है कि मगध आदि पूर्वी क्षेत्र में वैदिक धर्म एवं परंपराओं को यथावत् स्वीकार नहीं किया था।
- ऐतरेय ब्राह्मण से प्राप्त सूचना के आधार पर नीलकंठ शास्त्री ने लिखा है " प्राची दिशा में प्राच्यों के जो भी राजा हैं, साम्राज्य के लिए उनका अभिषेक होता है, अभिषेक के अनन्तर उन्हें सम्राट कहते हैं।" अनेक महत्त्वाकांक्षी सम्राट भी इसी क्षेत्र में हुए थे। राय चौधरी ने उल्लेख किया है कि जिस राष्ट्र में बड़े-बड़े लड़ाकुओं और योद्धाओं ने जन्म लिया, जिस राष्ट्र में जरासंध, अजातशत्रु, महापद्म तथा कलिंग विजय करने वाले चण्डाशोक और संभवतः समुद्रगुप्त जैसे महान योद्धा पैदा हुए उसी राष्ट्र के राजाओं ने प्रतिबोधिपुत्र वर्द्धमान महावीर तथा गौतमबुद्ध के उपदेशों को स्वीकार किया तथा समूचे भारत में अपना साम्राज्य फैलाने के साथ-साथ विश्वधर्म का प्रचार भी किया। कहा गया है कि उस क्षेत्र के लोगों की विशेषता थी कि वह अपने सम्राटों के लिए सब कुछ करने को तत्पर रहते थे। एक राजा द्वारा शूद्रा को रानी बनाया जाना भी इसी क्षेत्र में संभव था। यवनों को राजपद दिये जाने का विचार भी इसी प्रदेश के शासकों द्वारा किया जा सकता था। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सामरिक स्थिति, प्राकृतिक स्रोतों की उपलब्धि महत्त्वपूर्ण नहीं होती बल्कि प्रबल इच्छा शक्ति से ही साम्राज्य निर्माण हो सकता है, जो मगध के पास थी। साथ ही समन्वय की असीम क्षमता अनेक जातियों का सम्मिश्रण, जैन एवं बौद्ध धर्मों के साथ ही संघ भेद परम्परावादी प्रवृत्ति के अभाव के द्योतक हैं। एक शूद्र का शासक बनना इस क्षेत्र के लोगों की उत्कट इच्छा शक्ति का प्रतीक है।
- मगध के अमात्य एवं मंत्री भी विशेष योग्यता वाले रहे हैं। बिम्बिसार के वस्सकार (वर्षकार) एवं अजातशत्रु के सुनीथ, चन्द्रगुप्त के कौटिल्य आदि अमात्यों को कूटनीतिक महारथ हासिल थी। राय चौधरी का कथन है कि मगध के राजदरबार में गिरव्रज के शासकों के पास तथा पाटलिपुत्र में भी ऐसे वफादार लोग थे, जो देश भर में अपनी इच्छा के अनुकूल जनमत तैयार कर सकते थे।
- मगध के चारों ओर सुरक्षा के पर्याप्त साधन उपलब्ध थे अर्थात् सामरिक दृष्टि से मगध की स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी। मगध की राजधानी राजगृह चारों ओर पहाड़ियों से सुरक्षित थी। महाभारत में विवरण मिलता है कि यह पांच पहाड़ियों वैहार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि तथा चैत्यक से घिरा होने के कारण अगम्य दुर्ग के समान था (पुरं दुराधर्ष) समन्ततः) । मगध की भारत के मध्य की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण थी। इसकी नई राजधानी पाटलिपुत्र गंगा एवं सोन नदियों के संगम पर स्थित होने के कारण जलमार्ग का महत्त्वपूर्ण केन्द्र भी बन गयी थी। प्राचीन काल में हाथी सेना के विशेष अंग मान जाते थे, अंग के मगध में सम्मिलित किये जाने से मगध को वहां के हाथी बड़ी संख्या में उपलब्ध होने लगे। गज सेना के बल पर शक्तिशाली दुर्ग भी ध्वस्त किये जा सकते थे।
- मगध के आस-पास (दक्षिणी बिहार) में पाई जाने वाली संभव था। इस क्षेत्र के विस्तृत जंगलों को साफ किये जाने से अनेक नवीन उद्योग धन्धों का विकास संभव हो सका। गंगा के मैदानों में बड़ी मात्रा में उत्पादित खाद्यन्नों में मगध शासकों के लिए विशाल सेना रखना ही संभव नहीं हुआ बल्कि मगध के लोगों की सम्पन्नता में भी वृद्धि हुई एवं राजकोष में अधिक भू-राजस्व जमा होने लगा जो भारत के अन्य प्रदेशों की तुलना में इसके लिए लाभप्रद स्थिति को इंगित करता है। गंगा, गंडक तथा सोन नदी के व्यापारिक मार्गों पर इसके नियंत्रण के कारण भी इसे पर्याप्त राजस्व प्राप्त होता था।
हर्यक वंश Haryak Vansh
- इस वंश का संस्थापक बिम्बिसार था। कुछ विद्वानों की शुरू में यह धारणा थी कि बिम्बिसार शिशुनागवंशीय शासक था। इस तथ्य का आधार पुराणों का यह कथन है कि प्रद्योत वंश ने मगध पर शासन किया एवं प्रद्योत वंश का नाश करके शिशुनाग शासक बना और बिम्बिसार को उसी वंश का शासक माना गया। लेकिन अब यह निश्चित हो गया है कि शिशुनाग वंश के राजाओं ने बिम्बिसार के पतन के बाद शासन किया और शिशुनाग बिम्बिसार का पूर्वज नहीं था।
- बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि चण्ड प्रद्योत महासेन ने अवन्ति पर शासन किया था मगध पर नहीं। पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार प्रद्योत के बाद भी अवन्ति में पालक, आर्यक, अवन्तिवर्द्धन एवं विशाखयूप राजा हुए अर्थात् बिम्बिसार के पश्चात् भी अवन्ति में प्रद्योत वंश का शासन रहा। शिशुनाग को बिम्बिसार से पूर्ववर्ती स्वीकार किये जाने पर उसके द्वारा अवन्ति के प्रद्योत वंश का नाश किस तरह संभव था।
- दूसरी ओर महापरिनिर्वाणसुत्त से ज्ञात होता है कि वज्जिसंघ को परास्त कर बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने वैशाली पर अधिकार किया था। महालंकारवत्थु से जानकारी मिलती है कि शिशुनाग ने राजगृह को छोड़कर वैशाली को राजधानी बनाया था। शिशुनाग निश्चित रूप से अजातशत्रु के बाद हुआ। महालंकारवत्थु में यह भी विवरण मिलता है कि शिशुनाग द्वारा राजगृह का परित्याग करने के बाद उसकी उत्तरोत्तर अवनति होती गई, जबकि बिम्बिसार एवं अजातशत्रु के समय राजगृह अपनी समृद्धि की पराकाष्ठा पर था। अतः शिशुनाग को बिम्बिसार का पूर्ववर्ती शासक नहीं कहा जा सकता। शिशुनाग के पुत्र कालाशोक (काकवर्ण) ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र को बनाया था। उसे बिम्बिसार का पूर्व शासक नहीं माना जा सकता क्योंकि उस समय पाटलिपुत्र का अस्तित्व नहीं था। पाटलिपुत्र को बिम्बिसार के पश्चात् उसके वंशज उदायिन ने बसाया था।
- बिम्बिसार को अश्वघोष ने हर्यक कुल का बताया है। डी. आर. भण्डारकर की मान्यता है कि बिम्बिसार के मगध पर अधिकार किये जाने से पूर्व मगध पर वज्जियों का अधिकार था एवं बिम्बिसार वज्जियों का सेनापति था। उसने वज्जियों को परास्त कर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया तथा एक नवीन राजवंश की स्थापना की। किन्तु यह तथ्य अधिक समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योंकि महावंश में कहा गया है कि बिम्बिसार के पिता ने स्वयं 15 वर्ष की आयु में मगध नरेश के रूप में अभिशिक्त किया। प्रारंभ में कुछ विद्वानों ने उसके पिता को हेमजित, क्षेमजित, क्षेत्रोजा, भट्टिय, भाटिये नाम दिये थे परन्तु राय चौधरी ने इन्हें काल्पनिक माना है।
- मगध के पड़ोसी राज्य अवन्ति, कोशल, वत्स, वज्जि (गणराज्य) आदि थे, बिम्बिसार ने इनके साथ मैत्री संबंध बनाये रखने का प्रयास किया। उसने अनेक राज्यों से वैवाहिक संबंध स्थापित किये। उसकी पटरानी कोशलदेवी कोशल नरेश महाकोशल की पुत्री एवं प्रसेनजित की बहिन थी। इस वैवाहिक संबंध से कोशल मगध का मित्र ही नहीं बना बल्कि उसे एक लाख कार्षापण की वार्षिक आय का काशी जनपद का एक ग्राम भी प्राप्त हुआ। उसने लिच्छवि राजा (मुख्या) चेटक की सातवीं पुत्री चेलना से भी विवाह किया। इस तरह वज्जियों से मैत्री संबंध स्थापित हो गये।
- उसकी तीसरी रानी खेमा पंजाब क्षेत्र में स्थित मद्र (शाकल) राजा की पुत्री थी। जैन ग्रन्थों में एक अन्य रानी वैदेही का उल्लेख मिलता है, क्योंकि बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु को 'विदेहीपुतो' कहा गया है। महावग्ग से ज्ञात होता है उसके 500 रानियां थीं। राय चौधरी ने लिखा है उसने मद्र, कोशल तथा वैशाली से वैवाहिक संबंध कायम भी किये । बिम्बिसार की यह नीति बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी। उसके द्वारा उपर्युक्त सैन्य शक्ति प्रधान राज्य बिम्बिसार से सन्तुष्ट ही नहीं रहे, वरन् उन्होंने मगध को पश्चिम तथा उत्तर की ओर फैलने में भी मदद की।
- बिम्बिसार ने शक्तिशाली राष्ट्रों से संघर्ष करना उचित नहीं समझा बल्कि उनसे कूटनीतिक संबंध स्थापित किये। स्मरणीय है कि चण्डप्रद्योत बिम्बिसार का समकालीन नरेश था। विनयपिटक से जानकारी मिलती है कि एक समय प्रद्योत को पाण्डुरोग (पीलिया) हो गया था, बिम्बिसार ने उसकी चिकित्सा हेतु अपने वैद्य जीवक को भेजा, इस प्रकार अवन्ति मगध का मित्र राज्य बन गया। तत्कालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि गांधार शासक पुष्करसारिन ने अवन्ति पर आक्रमण किया, इस संघर्ष में पुष्करसारिन ने बिम्बिसार का सहयोग मांगा था, परन्तु बिम्बिसार ने अवन्ति के विरुद्ध सहयोग करके एक शक्तिशाली मित्र राज्य को शत्रु बनाना उचित नहीं समझा। उसने तक्षशिला (गंधार) के मित्र नरेश का अनुरोध स्वीकार नहीं किया।
- बिम्बिसार साम्राज्य विस्तार का समर्थक था। सबसे पहले उसने अंग राज्य पर आक्रमण किया। महावग्ग एवं शोणदण्डसुत्त हमें जानकारी देता है कि अंग को जीतने के लिए बिम्बिसार ने कूटनीति का सहारा लिया। युद्ध में अंग नरेश ब्रह्मदत्त मारा गया और अंग को मगध में मिला लिया गया। सुमंगल विलासिनी में अंग को मगध का अलग प्रान्त कहा गया है तथा वह मगध युवराज अजातशत्रु द्वारा शासित था 'चम्पायाम कुणिकोराजा' बौद्ध ग्रन्थों से जानकारी मिलती है कि चम्पानगर के ब्राह्मण वर्ग को अपने पक्ष में करने की दृष्टि से चम्पा (चम्पानगर) की आय ब्राह्मण शोणदण्ड को समर्पित कर दी थी। संभवतः नये विजित प्रदेश में स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से ऐसा करना आवश्यक था।
- धम्मपद की अट्ठकथा तथा बुद्धचर्या में उल्लेख मिलता है कि बिम्बिसार का राज्य 300 योजन तक विस्तृत था जिसे अजातशत्रु ने 200 योजन और बढ़ाया। विनयपिटक तथा महावग्ग से ज्ञात होता है कि उसके राज्य में 80,000 नगर या ग्राम थे। कहा गया है कि बिम्बिसार ने 80,000 गांवों के गामिनियों की एक सभा आयोजित की थी। हो सकता है कि यह संख्या अतिरंजित हो, किन्तु इससे यह पता चलता है कि बिम्बिसार के प्रशासन में गांव संगठन की एक महत्त्वपूर्ण इकाई के रूप में उभर आए थे। गामिनी गांवों के मुखिया तथा प्रतिनिधि थे। मगध की प्राचीन राजधानी गिरिव्रज (कुशाग्रपुर) जो नगर के उत्तर में स्थित थी, वज्जिसंघ के आक्रमणों से असुरक्षित थी। वज्जि आक्रमण के समय आग लगने से यहां बहुत हानि हुई थी, ह्वेनसांग ने इसका उल्लेख किया था। अतः गिरिव्रज के उत्तर पूर्व में 'राजगृह' नामक नवीन राजधानी बसाई गयी। बिम्बिसार के वास्तुकार महागोविन्द ने इसकी योजना बनाई थी। यद्यपि फाह्यान ने नवीन राजधानी की स्थापना का श्रेय अजातशत्रु को दिया है।
- बिम्बिसार कुशल प्रशासक था। उसने अयोग्य अमात्यों को सेवा से निष्कासित कर दिया तथा योग्य लोगों को पुरस्कृत किया। वस्सकार तथा सुनीथ जैसे अमात्यों को उच्च पद प्रदान किया। प्रशासनिक कार्यों में सहयोग हेतु अनेक पदाधिकारियों को नियुक्त किया उपराजा, सब्बत्थक, वोहारिकमहामत्त सेनानायक महामत्त, माण्डलिक ग्राम भोजक आदि। अपने बड़े पुत्र दर्शक को 'उपराजा' नियुक्त किया, जिसकी सहायता से वह प्रशासन संचालित करता था।'सब्बत्थक' सामान्य कार्य देखता था। उसे प्रमुख मंत्री कहा जा सकता है। 'वोहारिक महामत्त' साम्राज्य के न्याय संबंधी कार्य करता था।
- विनयपिटक से ज्ञात होता है कि उस युग में अपराधियों को कठोर दण्ड दिया जाता था। कारावास के अतिरिक्त कोड़े लगाने, लोहे से जलाने, जिह्वा काटने पसलियां तोड़ने, अंगच्छेन एवं मृत्युदण्ड आदि का प्रावधान था। 'सेनानायक महामत्त' का बिम्बिसार जैसे साम्राज्यवादी सम्राट के लिए अत्यधिक महत्त्व था। उसकी सेना का संचालन किसी अनुभवी एवं विश्वस्त व्यक्ति द्वारा ही किया जाता होगा। सेनापति सैन्य विस्तार में भी सहयोग करता रहा होगा।
- 'ग्रामभोजक' संभवतः ग्रामीण क्षेत्रों से भू-राजस्व संग्रह करते थे। महावग्ग से जानकारी मिलती है कि राज्य सभा में समस्त ग्रामों के प्रतिनिधियों को स्थान दिया जाता था। संभवत: उपज का 1/10 भाग भू-राजस्व के रूप में लिया जाता था।
- बिम्बिसार का साम्राज्य उत्तर में गंगा के उत्तरी भाग, दक्षिण में छोटा नागपुर, पूर्व में अंग तथा पश्चिम में सोन नदी तक विस्तृत था। उसके साम्राज्य में पश्चिमी बंगाल का पश्चिमी क्षेत्र, दक्षिणी बिहार, उड़ीसा का उत्तरी भाग एवं मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग सम्मिलित थे। महात्मा बुद्ध एवं बिम्बिसार के सम्पर्क का विवरण बौद्ध साहित्य में आया है। संन्यास लेने से पूर्व बुद्ध बिम्बिसार के सम्पर्क में आये थे। उसने इन्हें अपना सेनापति बनाने तथा विपुल धन सम्पत्ति देने की बात कही थी किन्तु बुद्ध ने अस्वीकार कर दिया था। यह घटना बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति से सात वर्ष पूर्व की थी।
- महात्मा बुद्ध का कुछ वर्षों बाद पुन: मगध में आगमन हुआ तो बिम्बिसार ने उन्हें वेणवन में ठहराया था। अपने वैद्य जीवक को उनकी सेवा में नियुक्त करने की जानकारी भी मिलती है। ललितविस्तर में विवरण मिलता है कि उसने बौद्ध भिक्षुओं से तरपण्य शुल्क (नाव पार करवाने का) न लिये जाने का आदेश प्रसारित किया था। दूसरी और जैन ग्रंथ उत्तराध्ययनसूत्र से ज्ञात होता है कि वह अपने पुत्रों, रानियों एवं दास दासियों सहित जैन महावीर के चैत्य में जाता था एवं उपदेश सुनता था।
- महावंश में बिम्बिसार द्वार 52 वर्ष शासन करने का विवेचन मिलता है। जबकि पुराणों में उसका कार्यकाल 28 वर्ष का कहा गया है तथा उसके पुत्र द्वारा 24 वर्ष शासन करने का उल्लेख मिलता है। पुराणों में अजातशत्रु द्वारा 32 वर्ष तथा उदायिन का 16 वर्ष शासन करने का विवरण आया है। महात्मा बुद्ध का निर्वाण सिंहली विवरणों के अनुसार 544 ईसा पूर्व में हुआ। चीनी डॉटेड रिकॉर्ड से ज्ञात होता है कि बुद्ध निर्वाण 487 ईसा पूर्व (कुछ विद्वानों के अनुसार 483 ईसा पूर्व) में हुआ। सैंहल विवरण से ज्ञात तिथि की यूनानी विवरण से ज्ञात तिथि से पुष्टि नहीं होती अतः चीनी डॉटेड रिकॉर्ड को ठीक माना जा सकता है। तत्कालीन साहित्य में जानकारी मिलती है कि बुद्ध निर्वाण अजातशत्रु के शासन काल के 8वें वर्ष में हुआ। इस प्रकार 52 वर्ष बिम्बिसार का कार्यकाल (दर्शक के 24 वर्ष को सम्मिलित करते हुए) एवं अजातशत्रु के 8 वर्ष का कार्यकाल (52+ 8 = 60 वर्ष) अर्थात् बुद्ध निर्वाण के 60 वर्ष पूर्व बिम्बिसार का राज्यारोहण हुआ। बुद्ध निर्वाण (चीनी डॉटेड रिकॉर्ड के आधार पर 487 ई.पू.) बिम्बिसार तथा अजातशत्रु की शासन अवधि के 60 वर्ष के आधार पर कहा जा सकता है कि (487 + 60 ) 547 या 546 ई. पू. में बिम्बिसार का राज्यारोहण हुआ। राय चौधरी ने बिम्बिसार का राज्याभिषेक 545-544 ईसा पूर्व स्वीकार किया है।
- जीवन के अन्तिम वर्षों में बिम्बिसार को बहुत अधिक कष्ट सहन करने पड़े। कहा जाता है कि लगभग 15 वर्ष उसे कैद रखा गया। वह (बिम्बिसार) चम्पा के उपराजा एवं पुत्र अजातशत्रु के षड्यंत्र का शिकार हुआ, उसने अपने पिता को मरवा दिया था। विनयपिटक आदि बौद्ध ग्रंथों से विवरण मिलता है कि साले देवदत्त के उकसाये जाने से उसने ऐसी कार्यवाही की थी। बाद में महात्मा बुद्ध के समक्ष उसने अपने इस अपराध को स्वीकार किया। राय चौधरी ने भी लिखा है कि इतिहास जिसे अजातशत्रु, कूणिक तथा अशोकचन्द आदि अनेक नामों से जनता है, उस कृतघ्न पुत्र के संबंध में कहा जाता है कि उसने अपने पिता को मौत के घाट उतारा।
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