मार्क्सवादी इतिहास लेखन | Marxist historiography या Historical materialist historiography
मार्क्सवादी इतिहास लेखन | Marxist historiography या Historical materialist Historiography
मार्क्सवादी इतिहास लेखन
- बीसवीं शताब्दी में इतिहास लेखन पर जिस विचारधारा का सर्वाधिक असर पड़ा उसे मार्क्सवाद के नाम से जाना जाता है. 19सवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने अपने साथी ऐंजेल के साथ मिलकर समाजवादी विचारों को एक नई धार दी. पुराने मानववादी और समाजवादी विचारों से पृथक करने के लिये इन नवीन विचारों को साम्यवाद कहा गया.
- कार्ल मार्क्स ने संसार के इतिहास का विश्लेषण करते हुए बताया कि सम्पूर्ण इतिहास वास्तव में अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण एवं गरीबों द्वारा इस शोषण के विरोध का इतिहास है.
- मार्क्स ने यह विचार व्यक्त किया कि ऐतिहासिक परिवर्तनों का एक प्रमुख कारण अमीरों-गरीबों के ये संघर्ष ही रहे हैं.
- मार्क्सवाद के अनुसार राजनीतिक, समाजिक, सांस्कृतिक एवं अन्य दूसरे परिवर्तनों का मूल कारण आर्थिक परिवर्तन होते हैं. इस मत के अनुसार किसी दौर में आर्थिक परिवर्तन उस दौर में उत्पादन के तरीको पर निर्भर करते हैं.
- इस विचारधारा से प्रभावित विश्व के अनेक इतिहासकारों ने यूरोप मे सामंतवाद के पतन तथा पूंजीवाद के उदय पर इतिहास लेखन किया तथा इसके कारणों की व्याख्या की.
- पूंजीवाद का विश्लेषण करते हुए, सोवियत क्रांति के नायक लेनिन ने उपनिवेशवाद को पूंजीवादी विकास की ही एक अवस्था बताया.
- मार्क्सवादियों द्वारा उपनिवेशवाद की आलोचना ने भारतीय राष्ट्रवादियों को आकृष्ट किया. 1930 के दशक में भारत में तेज़ी से मार्क्सवादी विचारधारा का प्रसार हो रहा था.
मार्क्सवादी विचारों भारतीय इतिहासकारों पर प्रभाव
- मार्क्सवादी विचारों का असर 20वीं शताब्दी के मध्य भारतीय इतिहासकारों पर भी पड़ा. 1940 ईसवी मे रजनी पॉमदत्त की प्रसिद्ध रचना इंडिया टुडे प्रकाशित हुई. दत्त ने भारत में औपनिवेशिक शासन को तीन अवस्थाओं में बांटकर देखा. पहली अवस्था प्लासी की सफलता से 19सवीं शताब्दी के आरम्भ तक थी, जिसे दत्त ने वाणिज्यिक पूंजीवाद कहा. इस दौर मे कम्पनी ने भारतीय व्यापार पर नियंत्रण करके अपने लाभ को बढ़ाया तथा भारतीय उत्पादकों का शोषण किया. कम्पनी तथा उसके कर्मचारियों द्वारा भारतीय धन की लूट भी इस काल की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता थी. यह लूट इस दौर में ब्रिटेन के औद्योगीकरण में सहायक हुई. उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था का आरम्भ ब्रिटेन में औद्योगीकरण के पश्चात हुआ, अत: इसे औद्योगिक पूंजीवाद का दौर कहा जाता है, दत्त के अनुसार इस काल में भारतीय बाज़ारों को ब्रिटेन मे उत्पादित माल से पाट दिया गया. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उपनिवेशवाद के तीसरे चरण का आरम्भ हुआ जिसे दत्त ने वित्तीय पूंजीवाद कहा. इस काल मे भारत में बड़े पैमाने पर ब्रिटिश पूंजी का निवेश किया गया. दत्त के अनुसार 20वी सदी मे पूंजीवादी निवेश एवं इनसे प्राप्त लाभ औपनिवेशिक शोषण का सबसे प्रमुख चरित्र था.
- रजनी पॉमदत्त ने अपनी पुस्तक मे उपनिवेशवाद के अलावा राष्ट्रवाद पर भी विस्तार से चर्चा की थी. 1857 के विद्रोह को दत्त ने 'पुराने पुरातनपंथी और सामंती शक्तियों एवं सत्ताच्युत राजाओं का संघर्ष' बताया. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दत्त ने मध्यवर्गीय भारतीयों की संस्था बताया जिसे अंग्रेज़ों ने ब्रिटिश विरोधी भावना को कमजोर करने के लिये बनाया था.
- गाँधीवादी कांग्रेस को दत्त ने उभरते भारतीय बुर्जुआजी के संगठन के रूप मे देखा. महात्मा गाँधी को दत्त ने भारतीय पूंजीपतियों का प्रतिनिधि कहा. उन्होंने तर्क दिया कि जब-जब राष्ट्रीय आन्दोलन जनआन्दोलन मे तबदील होने लगता था, गाँधी आन्दोलन वापस ले लेते थे. दत्त के इन विश्लेषणों को कालांतर में स्वयं मार्क्सवादी) इतिहासकारो ने चुनौती दी. फिर भी मार्क्सवादी इतिहास लेखन मे दत्त के विचारों का कुछ कुछ प्रभाव बना रहा.
- कालांतर में भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास लेखन की मार्क्सवादी परम्परा में दो इतिहासकार अत्यंत महत्वपूर्ण रहे हैं – बिपन चन्द्र तथा सुमित सरकार, हलांकि, दोनों इतिहासकारों भारतीय राष्ट्रवाद के उदभव, विकास एवं सीमितता की व्याख्या के लिये मार्क्सवादी विश्लेषण पद्यति का सहारा लिया है, फिर भी दोनों के इतिहास में अंतर स्पष्ट दिखाई देते हैं. ये अंतर घटनाओं के तार्किक विश्लेषण तक ही सीमित नहीं हैं अपितु वैचारिक स्तर पर भी हैं ।
- जहाँ बिपन चन्द्र राष्ट्रवादी मार्क्सवाद के अधिक निकट हैं, जो 1930 के दशक के राष्ट्रवादियों (यथा जवाहरलाल नेहरू) की विचारधारा थी, वहीं सुमित सरकार ने शास्त्रीय मार्क्सवाद से अधि नज़दीकी दिखलाई है.
- बिपन चन्द्र के इतिहास लेखन का आरम्भ 1966 मे प्रकाशित उनकी पुस्तक दी राइज़ एंड ग्रोथ ऑफ इकानामिक नेशनलिज़्म इन इंडिया से हुआ. इस पुस्तक मे बिपन चन्द्र ने भारत मे राष्ट्रवाद के विकास में आरम्भिक आर्थिक बुद्धिजीवियों के विचारों को महत्वपूर्ण माना.
- हालांकि, बिपन चन्द्र ने माना कि इन आर्थिक विचारकों की सोच मूलत: पूंजीवादी थी. परंतु, इस बात से उन्होंने असहमति जताई कि इन विचारकों ने किसी भाँति औद्योगिक पूंजीवादी हितों को संरक्षित किया. इन विचारकों ने पूंजीवाद का समर्थन इस कारण किया कि उनकी समझ से यही भारत के पुनर्विकास का एकमात्र मार्ग था. इसप्रकार चन्द्र ने दत्त की भारतीय राष्ट्रवाद के उदय की विवेचना को त्याग दिया.
- कालांतर में अपनी एक अन्य पुस्तक में बिपन चन्द्र ने कांग्रेस की स्थापना के 'सुरक्षा वाल्व' सिद्धांत को भी चुनौती दी. उन्होंने कांग्रेस की स्थापना को राष्ट्रवाद की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में देखा.
- महात्मा गाँधी द्वारा बार-बार आन्दोलन को वापस लेने की व्याख्या बिपन चन्द्र ने एक विशिष्ट संघर्ष विराम संघर्ष की रणनीति के रूप में की. उनका मत है कि राष्ट्रीय आन्दोलन एक क्रांतिकारी आन्दोलन न होकर लम्बा जनआन्दोलन था जो नैतिक, राजनीतिक एवं वैचारिक स्तर पर लड़ा गया. उनके मतानुसार अंहिसा की विचारधारा इस औपनिवेशिक वर्चस्व को तोड़ने में सहायक थी कि भारत में ब्रिटिश शासन भारतीयों का शुभचिंतक है. फिर भी, बिपन चन्द्र ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को बुर्जुआ लोकतांत्रिक आन्दोलन ही माना. उनका विचार था कि गरीब किसान एवं कमज़ोर मजदूर बड़े पैमाने पर आन्दोलन के भीतर नही लाए जा सके. इस कमज़ोरी के कारण राष्ट्रीय आन्दोलन के बुर्जुआ चरित्र को कभी चुनौती नही दी जा सकी.
- सुमित सरकार ने चन्द्र के विपरीत राष्ट्रीय आन्दोलन पर भारतीय बुर्जुआजी के नियंत्रण पर बल दिया है. अपनी पुस्तक दी स्वदेशी मूवमेण्ट इन बंगाल, 1903-1908 में उन्होंने कहा कि बंगाल मे स्वदेशी आन्दोलन के नेता भले ही सीधे-सीधे वाणिज्य एवं उद्योग से सम्बन्धित नही थे परंतु, वे इन वर्गों के वैचारिक प्रतिनिधि थे. अत: उनके अनुसार बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन का मुख्य लक्ष्य भारतीय बुर्जुआजी के हितों की रक्षा करना था.
- अपने एक लेख मे सरकार ने दिखाया कि सविनय अवज्ञा आन्दोलन के आरम्भ तथा गाँधि-इरविन समझौते मे भारतीय पूंजीपति शक्तियों का हाथ था. सरकार ने तर्क दिया कि भले ही गाँधी पूंजीपति शक्तियों के पुतले नहीं थे उनका नेतृत्व पूंजीवादी हितों के अनुरूप ही था.
इस प्रकार मार्क्सवादी इतिहास लेखन ने उपनिवेशवादी आर्थिक शोषण को उजागर कर भारतीय परतंत्रता के मूल को पहचाना. ये परतंत्रता पहले के किसी भी विदेशी शासन से इसी आर्थिक शोषण के कारण भिन्न थी. मार्क्सवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के सीमित वर्गीय चरित्र पर भी प्रकाश डाला. इस प्रकार उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के द्वारा मूलभूत आर्थिक परिवर्तन की संभावना की कमज़ोरी को रेखांकित किया.
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