भारत की राजनीति में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने कारक |मतदान व्यवहार क्या है ?| Matdaan Vayahar Kya Hai
भारत की राजनीति में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने कारक
विषय सूची
- भारत की राजनीति में नृजातीयता
- भारत की राजनीति में धर्म
- राजनीति और भाषा
- चुनावी राजनीति सोशल मीडिया की भूमिका
- भारत में जाति और राजनीति
- जाति और राजनीति में अंतःक्रिया , जाति के राजनीतिकरण की विशेषताएं
- भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका
भारत की राजनीति में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने कारक
मतदाताओं के मतदान आचरण को प्रभावित करने वाले कई कारक होते हैं। भारत में जाति, वर्ग, जनजाति, लिंग (जेंडर), धर्म, भाषा तथा जातीयता जैसे अनेक निर्धारित मतदान व्यवहार को निर्धारित करते हैं।
मतदान व्यवहार क्या है ? What is Voting Behavior?
मत व्यवहार, मत डालने के तरीकों या उन कारकों को परिभाषित करता है जो वोट देने
में लोगों को प्रभावित करते हैं। इसके अध्ययन से पता चलता है कि मतदान व्यवहार को
प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन से है। मतदान व्यवहार का अध्ययन मतदान के आँकड़ों, चुनावी आँकड़ों के रिकार्ड या अवलोकन
तक सीमित नहीं है। यह मतदाताओं के अनुभव, भावना आदि के मनोवैज्ञानिक पहलुओं को शामिल करता है और राजनीतिक
कार्यवाही और संस्थागत ढाँचे के साथ उनके संबंधों को भी शामिल करता है।
भारत में मतदान व्यवहार के अध्ययन की उत्पत्ति
- मत व्यवहार का अध्ययन चुनाव अध्ययनों का एक हिस्सा है। चुनावों के अध्ययन के विषय को सेफोलोजी कहते हैं। इसका उद्देश्य चुनावों के दौरान मतदाताओं के व्यवहार के बारे में प्रश्नों का विश्लेषण करना होता हैं। मतदाता किसी उम्मीदवार को वोट क्यों देते हैं? या वे चुनाव में एक ही पार्टी को क्यों पसंद करते हैं? क्या ये आर्थिक कारक? क्या यह मजबूत नेतृत्व या करिशमाई नेतृत्व हैं? ये कुछ सवाल हैं जिन पर मतदान के निर्धारकों के संबंध में अध्ययन किया जाता है।
- भारत में राजनीतिक विद्वान, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी, मीडिया हाउस और राजनीतिक दल चुनावी अध्ययनों में लगे हुए हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में 1951-52 के प्रथम आम चुनावों के समय से 1950 के दशक से चुनाव अध्ययन शुरू हुए थे। लेकिन व्यवस्थित तरीके से चुनावी अध्ययन 1960 के दशक से शुरू हुए थे। रजनी कोठारी और मायरन वीनर जैसे राजनीतिक वैज्ञानिकों ने इसका आरंभा किया था। 1980 के दशक में प्रणय रॉय और अशोक लाहिरी की पुस्तक ने इस अध्ययन को नयी गति दी।
- लेकिन 1990 के दशक से ही चुनावी अध्ययनों का निर्यात तरीके से अध्ययन हो रहा है। इसका प्रमुख कारण लोक सभा था राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव में हो रही निरंतर वृद्धि है। 1990 के दशक में भारत में चुनावी अध्ययन की पहल को शुरू करने का श्रेय जाने माने शिक्षाविद योगेन्द्र यादव को जाता है जो कि सी. एस. डी. एस से संबंधित रहे। यह ठीक लोकनीति के नाम से जाने वाले एक संगठन के बैनर तले चुनाव के अध्ययन का आयोजन करती है। सी. एस. डी. एस. टीम के सदस्यों के रूप में, देश में विभिन्न विश्वविद्यालयों के विद्वानों ने चुनाव अध्ययन की व्यवस्था थी।
- चुनाव अध्ययन करने के तरीकों में मुख्य रूप से सर्वेक्षण शामिल हैं। इन सर्वेक्षणों को राष्ट्रीय चुनाव सर्वेक्षण कहा जाता है। चुनाव से पहले या बाद में, शोधकर्ता चुनाव प्रभाव के विभिन्न पहलुओं को जानने के लिये सर्वेक्षण के अध्ययन के महत्वपूर्ण पहलू हैं। इन अध्ययनों के नतीजों को कई पुस्तकों, लेखों, पत्रिकाओं में प्रकासित भी किया जाता है। सी. एस. डी. एस. के अलावा, कई शोधकर्ता और मीडिया समूह, राजनीतिक दल मतदान व्यवहार के निर्धारकों के अध्ययन में संलग्न है।
मतदान व्यवहार के निर्धारक कारक
मतदान व्यवहार के विभिन्न निर्धारक कारक हैं
जैसे धर्म, जाति, वर्ग समुदाय,
जातीयता, भाषा, विचारधारा, राजनीतिक हलचल इत्यादि । राजनीतिक दल
इन कारकों का इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिये करते हैं। राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि
भी इन कारकों का प्रयोग मतदाताओं को रिझाने के लिये करते हैं। चाहे वे किसी भी
विचारधारा से संबंध रखते हों। मतदाता भी इन कारकों के आधार पर ही अपना मत देते
हैं। इस खण्ड में हम जाति,
वर्ग, लिंग (जेन्डर) और जनजाति जैसे भारत में
मतदान व्यवहार के निर्धारक कारकों की चर्चा करेंगे।
मतदान व्यवहार कारक -जाति
जाति मतदान व्यवहार का महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व है समझाइए ?
- जाति मतदान व्यवहार का सबसे प्रमुख कारक माना जाता है। यद्यपि जाति स्वतंत्र भारत में चुनाव का एक महत्वपूर्ण और प्रभावी तत्व है लेकिन 1990 के दशक से यह अधिक प्रभावशील हो गया है। इसका प्रमुख कारण है वी. पी. सिंह सरकार ने ओ.बी.सी. के लिये मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना था जिसने केन्द्र सरकार की संस्थाओं में इन वर्गों के लिये आरक्षण का सुझाव दिया था। इसने उत्तर भारत में प्रमुख दलों जैसे बी. एस. पी., एस. पी. और आर. जे. डी. को उभरने का मौका दिया ।
- इन राजनीतिक दलों की पहचान दलितों, पिछड़े वर्गों या कृषक वर्गों के दलों के रूप में हुई है। इनके उदय के पूर्व काँग्रेस पार्टी विभिन्न जातियों के गठबंधन का प्रतिनिधित्व करती थी। इन पार्टियों ने निम्न जातियों के महत्व को रेखांकित किया है और इन जातियों ने चुनावी राजनीति में अपनी अहम भूमिका निभाई है। इन जातियों के उदय ने विभिन्न जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा को भी बढ़ावा दिया है।
- भारत में चुनावी अध्ययनों से यह पता चला है कि भारत में लोकतंत्र के स्तर में जाति एक महत्वपूर्ण मापदंड के तौर पर कार्य करती है। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि विभिन्न जातियों की विशेषकर दलितों एवं पिछड़े वर्गों की भागीदारी ने लोकतंत्र में एक शांत क्रांति (Silent Revolution ) अथवा प्रजातांत्रिक उथल-पुथल का संकेत दिया है। जाति के राजनीतिकरण ने कमजोर वर्गों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में समुचित भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया है। राजनीतिक दल भी अपने कार्यक्रमों, घोषणा पत्रों को बनाते समय जाति का विशेष ध्यान रखते हैं। जाति नीति निर्माण को भी प्रकाशित करती है। राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन उनकी जाति के आधार पर तय करते हैं। जो प्रत्याक्षी चुनाव लड़तें हैं वो सीमित जातियों से होते हैं लेकिन जो जातियाँ मतदान में हिस्सा लेती हैं वो संख्या में अधिक होती है। ऐसे मामलों में, जातियाँ अपनी-अपनी जाति के प्रत्याशियों को वोट देती हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि जाति का महत्व कम हो जाता है? क्योंकि मतदाता उम्मीदवारों के लिये अपनी जाति के साथ-साथ अन्य जाति के प्रत्याशी को भी वोट देते हैं। आमतौर पर जाति समूह (एक से अधिक जातियाँ) ऐसे उम्मीदवार को वोट देने का निर्णय करता है जो अपनी जाति का नहीं होता क्योंकि मतदान देने वाली जातियाँ अनेक होती हैं तथा उम्मीदवार एक जाति का होता है। शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में चुनावों में जाति अधिक निर्धारक कारक होता है। जाति कारक न केवल पार्टी के गठन को प्रभावित करता है बल्कि, राष्ट्रीय पार्टी के साथ जाति विशेष के संबंध को भी प्रभावित करता है। जैसा कि पुष्पेन्द्र ने एक लेख में उल्लेख किया है, जिसमें 11वीं लोकसभा चुनाव (1996) में उच्च जाति के नेताओं ने खासकर उत्तरी भारत में काँग्रेस पार्टी को छोड़ दिया और भाजपा के पीछे चले गये। आंतरिक विभाजन तथा संघर्षो के बावजूद क्षेत्रीय दलों और पिछड़ी जातियों के उदय को विभिन्न क्षेत्रीय दलों और मतदाताओं के रूप में जबरदस्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला है। जिन पक्षों की पहचान विशिष्ट जातियों के साथ की जाती है, वे मुख्य जातियों में अपना समर्थन आधार बनाए रखना चाहते हैं। जिन पार्टियों का समर्थन का आधार प्रमुख जातियां होती है वो उन्हें बनाए रखना चाहती है। उदाहरण के तौर पर बी. एस.पी., एस.पी., आर. जे. डी. जे. डी.यू. इन पार्टियों का आधार दलित एवं पिछड़े वर्ग हैं जबकि बी.जे.पी. का आधार मुख्यता उच्च जातियां है। लेकिन कई अवसरों पर जातियों का एक वर्ग अन्य पार्टियों को भी समर्थन करता है। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि ये जातियाँ अपने दलों से असंतुष्ट हो जाती है। उदाहरण के लिए यू.पी. में 1990 में, कई पिछड़ी जातियों ने बी.जे.पी. को समर्थन दिया था । शोधकर्ताओं ने इसे बी. जे. पी. का मंडलीकरण कहा था। इस शताब्दी के प्रथम दशक तक कई उच्च जातियों ने बी. एस. पी. एवं एस.पी. का भी समर्थन किया था। शाह के अनुसार पाटियाँ विभिन्न जातियों के सदस्यों को पार्टी का टिकट देकर अकॉमॉडेट (शामिल) करती हैं। 1950 के दशक के चुनावों के दौरान, जातिवादी संगठनों ने अपनी एकता बनाये रखी और अपने समर्थकों को वोट देने के लिए उत्साहित किया। उन्होंने अपनी जाति के अपने सदस्य को वोट देने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया चाहे वे किसी भी दल के उम्मीदवार हों । तथापि, कभी भी जातियाँ एकजुट (en bloc ) जाति के आधार पर वोट नहीं डालती हैं।
मतदान व्यवहार कारक - वर्ग
- वर्ग आर्थिक मामलों जैसे रोज़गार या रोजगार भत्ता, मूल्य वृद्धि, भूमि सुधार, सब्सिडी, गरीबी हटाओ, ऋण माफी आदि में परिलक्षित होता है । ये मुद्दे कई चुनावों में अभियान का केंद्र रहे हैं। 1971 के लोकसभा चुनावों में काँग्रेस का प्रमुख नारा था गरीबी हटाओ, इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को सफलता मिली थी । यह नारा मुख्य रूप से काँग्रेस के पक्ष में मतदान करने वाला निर्धारित कारक बन गया था। 1960 के दशक में देश के सुधार और कल्याण की योजनाओं में राजनीतिक आंदोलनों के मुख्य मुद्दों में वर्गीय मुद्दों को भी शामिल किया गया।
- पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा से वाममंथी दलों की नीतियाँ की थी जो आर्थिक नीतियाँ थीं उन्होंने कई चुनावों में मतदाताओं के व्यवहार को निश्चित किया । 1960 में समाजवादी दलों ने अन्य विपक्षी दलों के साथ आर्थिक मुद्दों पर जनता को लामबंद किया। इसके परिणामस्वरूप काँग्रेस की 1967 के चुनावों में आठ राज्यों पराजय हुई और वहाँ पर गैर-काँग्रेसी सरकारों की स्थापना हुई। 1970 दशक के दौरान, उत्तर भारत में चरण सिंह के नेतृत्व में भारतीय क्रांति दल, भारतीय लोकदल या लोकदल की स्थापना हुई। इस दल ने विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में अमीर और मध्यम किसानों के वर्गगत मुद्दों की वकालत की। ये किसान अधिकतर मध्य जाति के थे जैसे जाट, यादव, कुर्मी इत्यादि । इस प्रकार ये दल कृषक समुदायों का जाति और वर्ग दोनों के रूप में प्रतिनिधित्व करते थे। चरण सिंह के नेतृत्व वाली पार्टियों के समर्थन में उनका मतदान व्यवहार एक ही समय में वर्ग और जाति दोनों कारकों द्वारा निर्धारित होता था। फिर भी, जैसाकि आपने ऊपर पढ़ा है, अनेक क्षेत्रीय पार्टियाँ जाति पर आधारित है और मतदाता उस जाति विशेष का समर्थन करते हैं जो उनकी जाति का हो। वे वर्ग को प्राथमिकता नहीं देते। दिल्ली जैसे शहर में 2020 के विधान सभा चुनावों में बिजली और पानी के बिलों में रियासत से संबंधित आर्थिक मुद्दों ने आम आदमी पार्टी के पक्ष में मतदान को प्रभावित किया । 1998 के विधान सभा चुनाव में मतदाताओं ने प्याज की कमी और उनकी कीमतों में वृद्धि के कारण भाजपा के खिलाफ मतदान किया ।
मतदान व्यवहार का कारक लिंग (जेन्डर)
- हालांकि लिंग एक व्यापक अवधारणा या संकल्पना है, लेकिन जब हम मतदान के व्यवहार के संबंध में लिंग पर चर्चा करते हैं, तो मतदान में महिलाओं की भूमिका का उल्लेख मिलता है। 1990 के दशक के बाद से उपेक्षित तबकों या महिलाओं सहित सामान्य वर्गों के लोगों की चुनावों में मतदान की सहभागिता में वृद्धि हुई है।
- मतदान एक ऐसा उपकरण है जो अपने प्रतिनिधियों की पसंद करने के मामले में महिला सशक्तिकरण को सक्षम बनाता है। मतदान में महिलाओं की भूमिका का महत्व इस तथ्य से उजागर होता है कि कई क्षेत्रीय दलों में महिलाओं से संबंधित मुद्दों को उनके एजेंडा में शामिल किया गया है या नहीं। इन मुद्दों में घरेलू अर्थव्यवस्था, यौन हिंसा, विधानमंडलों में महिलाओं के लिए आरक्षण और सामाजिक दमन इत्यादि हैं। परन्तु राजनीतिक दलों में विधानमंडल में महिलाओं के लिये आरक्षण को लेकर मतभेद हैं। कई दलों ने अपने घोषणा पत्र में महिलाओं के कल्याण के बारे में इन मुद्दों को शामिल किया है। उदाहरण के लिए 2015 में विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने बिहार में महिलाओं विशेषकर उपेक्षित और पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए मद्यपान विरोधी नीति शुरू की। नीतीश कुमार की साइकिल योजना" जो कि लड़कियों के लिए स्कूल जाने के लिए थी, ने बिहार के चुनावों में मतदान व्यवहार को निर्धारित किया।
- 2014 में मोदी सरकार की बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' और 'जन धन योजना' ने भी महिलाओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित किया । रेणुका डागर ने अपने अध्ययन में (2015) यह दर्शाया कि 2014 के लोक सभा चुनाव में जेंडर एक प्रमुख मुद्दा बन गया था विशेषकर इसके तीन मुख्य मुद्दे थे: शासन, विकास एवं धर्मनिरपेक्षता। ये तीनों मुद्दे महिलाओं के कल्याण से जुड़े थे। महिलाओं की सुरक्षा, विकास का मॉडल तथा सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा भी प्रमुख मुद्दे थे। इन मुद्दों के कारण वास्तव में, चुनाव में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। ये मुद्दे मतदान व्यवहार में भी निर्धारित कारक माने जाते हैं । यद्यपि, अन्य कारक जैसे जाति, वर्ग, धर्म तथा भाषा का भी प्रभाव पड़ता है, लेकिन महिलाऐं अपने अधिकारों एवं कल्याणकारी नीतियों के प्रति सजग हो रही है।
- यहाँ यह समझना आवश्यक है कि राजनीति क्रियाकलापों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन अभी भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं का नेतृत्व काफी कम है। वर्तमान समय में महिलाऐं अधिक सक्रिय हैं चाहे वो किसी वर्ग, जाति या उनकी शैक्षिक स्थिति कैसे भी हो। इसका प्रमुख उदाहरण है। स्थानीय सरकारों में महिलाऐं बड़ी संख्या में भागेदारी कर रही है ।
मतदान व्यवहार का कारक जनजाति
- जनजातियाँ, जातियों या वर्गों से अलग होती हैं। जाति का संबंध किसी व्यक्ति के सामाजिक स्तर से है जो हिन्दूओं मुस्लिमों या सिखों में पाया जाता है। जबकि जनजाति की पहचान किसी अन्य लक्षणों पर जा सकती है। इन लक्षणों में सबसे प्रमुख है, उनका में प्रकृति के निकट होना, वन संपदा रहना, प्राकृतिक संसाधन या खनिज संपदा पर उनकी अर्थव्यवस्था की निर्भरता, जनजातियों के सदस्यों में आपेक्षिक सामाजिक समानता तथा महिलाओं की आपेक्षिक स्वतंत्रता होना ।
- जनजातियाँ विभिन्न धर्मों से संबंध रखती है जैसे, इस्लाम, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म आदि । संविधान में इनके लिये अलग से प्रावधान किये गये है । पाँचवी एवं छठी सूची में जनजातिय इलाकों के लिए शासन का प्रावधान किया गया है। इन प्रावधानों में उनकी पहचान की रक्षा जैसे संस्कृति, रीति-रिवाज या आर्थिक हित शामिल है। भारत में कई इलाकों में जनजातियाँ रहती हैं जैसे उत्तर-पूर्व भारत में असम, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मणीपुर, नागालैण्ड, मिजोरम और सिक्किम में । इसके अलावा वे अन्य क्षेत्रों भी रहती है, जैसे छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल इत्यादि में ।
- जनजातियों की हमेशा शिकायत रही है कि उन्हें अलगाव का सामना करना पड़ता है तथा बाहरी लोग उनकी अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति का शोषण करते हैं। कई अवसरों पर इसका परिणाम जातिय हिंसा का रूप ले लेता है। राजनीतिक दल, छात्र संगठन एवं अन्य सामाजिक संगठन जनजातियों को संगठित करती है।
- प्रत्येक चुनाव में राजनीतिक दल आदिवासी संस्कृति उनकी पहचान, अर्थव्यवस्था एवं स्वायत्ता जैसे मुद्दों को उठाती हैं। सबसे महत्वपूर्ण मतदान व्यवहार का निर्धारक कारक हैं उनकी सांस्कृतिक पहचान का संरक्षण करना, प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना, जैसे, जंगल, खनिज एवं प्राकृतिक संसाधन | पाँचवी एवं छठी अनुसूची में क्षेत्रीय विकास, राजनीतिक स्वायत्ता जैसे मुद्दों को । शमिल किया गया है। ये मुद्दे प्रमुखतया आदिवासियों के मतदान व्यवहार का निर्धारण करते हैं ।
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