मगध साम्राज्य में नन्द वंश | नन्द वंश | महापद्मनन्द | Nand Vansh GK in Hindi
मगध साम्राज्य में नन्द वंश
नन्द वंश
नन्द वंश
- मगध साम्राज्य में नन्द वंश के आविर्भाव के साथ पहली बार गांगेय प्रदेश के अतिरिक्त दक्षिण भारत के विस्तृत भू-भाग को सम्मिलित किया जा सका और सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोने की दृष्टि से भारतीय साम्राज्य की स्थापना की संभावना दृष्टिगोचर होने लगी। इस प्रकार के साम्राज्य में केन्द्रीकृत शासन व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय लोगों के लिए परस्पर सम्पर्क, व्यापार एवं आवागमन की सुविधाओं का विकास हुआ। राय चौधरी ने लिखा है कि सप्त सिन्धु ने अन्ततोगत्वा जम्बद्वीप का रूप धारण कर लिया था। वह समय अधिक दूर नहीं था जब संस्कृति एवं राजनीति के क्षेत्र में भी भारत एकता के सूत्र में बंध गया था।
- मगध साम्राज्य को गंगा की उपत्यका से बाहर दक्षिण की ओर बढ़ाने का श्रेय नन्द वंश को प्राप्त हुआ। शिशुनाग वंश को समाप्त कर मगध में नन्द वंश ने सत्ता स्थापित की गई। नन्द वंश की स्थापना के विषय में तत्कालीन साहित्य में रोचक आख्यान मिलते हैं। हेमचन्द्र ने परिशिष्टपर्वन में नन्द सम्राट को एक वेश्या के गर्भ से जन्मा दिवाकीर्ति नाई का पुत्र बताया है, जिसने नन्द वंश की स्थापना की थी। हरिभद्रसूरि के आवश्यकसूत्रवृत्ति' में 'नापितदास' एवं जिनप्रभ के विविध कल्पतरु में नापित गणिकासुत बताया गया है। पुराणों से भी इस तथ्य का समर्थन होता है। इसमें नन्द राजा को अंतिम शैशुनाग नृपति महानंदी द्वारा एक शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न (शूद्रागर्भोद्भव) एवं उसके वंशजों को 'शूद्रभूपालाः' कहा है। पुराणों के अनुसार महापद्म या महापद्मपति नन्द वंश का प्रथम नन्द था। महाबोधि वंश के अनुसार प्रथम नंद नरेश का नाम उग्रसेन था।
- इन तथ्यों की पुष्टि पाश्चात्य लेखकों के प्राप्त विवरणों से होती है। उन आख्यानों को जो नन्द वंश के विषय में प्रचलित थे सिकन्दर के समकालीन लेखकों ने सुना होगा। कर्टियस ने इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि इसका पिता नाई था। बेचाना अपनी रोजाना की कमाई से किसी तरह जीवनयापन करता था। लेकिन देखने-सुनने में काफी खूबसूरत था, इसलिए महारानी उसे बहुत मानती थीं। रानी के प्रोत्साहन के फलस्वरूप ही वह राजा के भी समीप पहुंच गया और राजा का विश्वासपात्र बन गया। एक दिन उसने छल से राजा की हत्या कर दी। अपने को राजकुमारों का अभिभावक घोषित करते हुए उसने राजा के सभी अधिकार अपने हाथ में कर लिये कई राजकुमारों की हत्या भी की और नया राजकुमार पैदा किया डायोडोरस ने कटिंयस के कथन का समर्थन किया है और 'गेंगेरदाई' एवं 'प्रासी' (गांगेय एवं प्राच्य ) का तत्कालीन राजा जेण्डूमिज को अज्ञात कुल एवं नीच और जाति से नाई बताया है। इस बारे में मतभेद है कि जिस वर्तमान राजा (अग्रेमीस) की कर्टियस ने चर्चा की है और जो उसके अनुसार ई.पू. 326 में राज्य करता था वह नन्द वंश का पहला राजा था अथवा उसके पुत्रों में से कोई एक था। क्लासिकल ग्रंथों के प्रमाण के बाद इस बारे में किसी प्रकार के संशय की गुंजाइश नहीं रह जाती। अग्रेमीस राजा का पुत्र था। उसके पिता ने सारी सत्ता पहले ही हड़प ली थी और सिंहासन के वैध उत्तराधिकारियों की हत्या कर दी थी। कर्टियस ने जिस राजा का जिक्र किया है उसका वर्णन प्रथम नंद से मेल नहीं खाता जो गणिका कुक्षिजन्मा (गणिकासुत) था और जिसके पिता को प्रभुसत्ता प्राप्त नहीं था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अग्रेमीस या डायोडोरस का जेन्ड्रेमीस नन्द वंश की दूसरी पीढ़ी का राजा था और उसका पिता नन्द वंश का पहला राजा था अर्थात् भारतीय परम्परा का महापद्य उग्रसेन वही था।
- पाश्चात्य विवरणों में यह भी कहा गया कि पूर्वी प्रदेश के लोग (प्रासी) तथा गंगा घाटी के निवासी एक ही सम्राट द्वारा शासित थे। इनके साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र (पालिब्रोथ) थी। चन्द्रगुप्त ने 326 ई.पू. में पंजाब में सिकन्दर से भेंट की थी। उस समय पाटलिपुत्र में नन्द वंश का शासन था। इस दौरान 355 ई.पू. के कुछ समय बाद जेनोफन की मृत्यु हुई थी, उसने अपने प्रसिद्ध विश्वकोष में उल्लेख किया है कि भारत में एक शक्तिशाली राजा राज्य करता था। उसने पश्चिमी एशिया के महान सम्राटों के मध्य होने वाले संघर्षों में मध्यस्थ बनने की कामना की थी। विश्वकोष से यह भी ज्ञात होता है कि वह राजा बड़ा धनी था। यद्यपि जेनोफन ने उक्त राजा को छठी शताब्दी ईसा पूर्व का माना था जो पश्चिमी राष्ट्रों में मध्यस्थता करना चाहता था परन्तु छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कोई ऐसा शासक नहीं था बल्कि उसका समकालीन नन्द वंश का शासक ही था और भ्रमवश पूर्ववर्ती मान लिया गया।
- पुरातात्विक साक्ष्यों से भी नन्द वंश के विषय में जानकारी मिलती है। खारवेल के हाथी गुफा अभिलेख में नन्दराज एवं खारवेल के मध्य 'तिवससत' की अवधि का उल्लेख मिलता है और उसके पाँचवें वर्ष (खारवेल के राज्यारोहण के) में तीन सौ वर्ष पूर्व निर्मित नहर 'तनसुलिय' के मार्ग से लाये जाने का उल्लेख हुआ है। खारवेल के बारहवें राज्य वर्ष में नन्दराज द्वारा हस्तगत की गई "जिन" की मूर्ति को पुनः प्राप्त किया।
महापद्मनन्द
- नन्द वंश के संथापक को पुराणों में महापद्मनंद या महापद्मपति के नाम में अभिहित किया गया है। उसने सभी क्षत्रियों को समाप्त कर एकछत्र राज्य स्थापित किया। महाबोधि वंश में नन्द वंश की स्थापना अग्रसेन द्वारा किये जाने का विवरण आया है।
- कर्टियस द्वारा उल्लिखित अग्रेमीज को राय चौधरी ने उग्रसेन के पुत्र औग्रसैन्य (संस्कृत) का बिगड़ा हुआ रूप माना है। बाण के हर्षचरित में नन्द वंश के संस्थापक द्वारा पूर्ववर्ती शैशुनाग वंश के शासक ( काकवर्ण) की हत्या गले में तलवार भोंक कर किये जाने का अत्यन्त कारुणिक विवरण मिलता है। जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
- महापद्मनंद बिम्बिसार एवं अजातशत्रु की भांति घोर साम्राज्यवादी शासक था। पुराणों में नन्द वंश के संस्थापक को 'सर्वक्षत्रान्तक' एवं 'एकराट' कहा गया है। भागवत पुराण टीका से ज्ञात होता है कि नन्दराज के पास दस पद्म सेना अथवा इतनी ही सम्पत्ति थी अतः उसे महापद्म कहा जाने लगा। इससे संकेतित होता है कि न केवल उसके पास विशाल सेना थी बल्कि वह एक प्रबल विजेता भी था। पार्जिटर ने उल्लेख किया है कि महापद्म ने समकालीन सभी क्षत्रियों का उन्मूलन किया जिसकी पुष्टि पौराणिक विवरणों से होती है। स्थविरावलीचरित नन्द के एक मंत्री कल्पक का उल्लेख करता है जो अपनी बुद्धि एवं प्रपंचों के लिए प्रसिद्ध था, उसने मगध के विस्तार में पर्याप्त योगदान दिया। कहा गया है कि युद्ध कला में प्रवीण कल्पक के सहयोग से नन्द ने समुद्र तट का संपूर्ण प्रदेश अपने अधीन कर लिया था। महापद्म ने उत्तर भारत के लगभग सभी समकालीन शासकों को उत्क्षिप्त सत्ता विहीन किया, जिनका उल्लेख राय चौधरी ने इस प्रकार किया है इक्ष्वाकु पंचाल, काशी, हैहय, कलिंग, अश्मक, कुरु, मैथिल, शूरसेन तथा वितिहोत्र आदि।
- इक्ष्वाकु राजा कोशल (आधुनिक अवध) का शासक था। अजातशत्रु ने कोशल नरेश को परास्त किया था। शिशुनाग ने भी राजसत्ता पर अधिकार किये जाने के बाद अपने पुत्र को यहाँ का वायसराय (उपराजा) नियुक्त किया था। कथासरित्सागर में अयोध्या में नन्द के सैनिक शिविर लगने का प्रसंग आया है। संभवतः अजातशत्रु द्वारा पराजित किये जाने के बाद पुन: स्वतंत्र हो गया था और नन्द के लिए दूसरा सैनिक अभियान आवश्यक हो गया। गंगा के ऊपरी भाग एवं गोमती के मध्य दोआब क्षेत्र पर पांचालों का शासन था। गंगा घाटी एवं 'प्रासी' के लोग एक ही राजा के अधीन होने का उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलता है। संभवत: इसमें पांचाल क्षेत्र सम्मिलित रहा होगा क्योंकि रेगिस्तान (राजस्थान) की बहादुर जातियों के भी उसके राज्य में सम्मिलित होने का संकेत मिलता है। ऐसा लगता है कि नन्द वंश के उदय से पहले मगध राज्य के साथ उसकी कभी लड़ाई नहीं हुई थी।
- नन्द वंश ने इन्हें पराजित करके अपने नियंत्रण में लिया होगा जैसा कि प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध प्रमाणों से प्रतीत होता है। बनारस के निकटवर्ती प्रदेश को काशैय कहा जाता था बिम्बिसार एवं अजातशत्रु के समय यह मगध के अधीन था। शिशुनाग द्वारा मगध की राजधानी गिरिव्रज बनाये जाने पर एक राजकुमार को बनारस का शासक नियुक्त किया गया था। संभवत: इसी वंश के उत्तराधिकारी से नन्द ने बनारस क्षेत्र पर कब्जा किया होगा।
- नर्मदा नदी घाटी के एक प्रदेश पर हैहय वंश का अधिकार था, इसकी राजधानी महिष्मति थी। हैहय वंश को यादवों की एक शाखा कहा गया है। पार्जिटर के अनुसार मान्धाता से इसका तादात्म्य किया जा सकता है। कुछ विद्वान महेश्वर नामक कस्बे को महिष्मती स्वीकार करते हैं जो नर्मदा के उत्तरी किनारे पर इन्दौर क्षेत्र में है। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय मालवा एवं गुजरात मगध साम्राज्य के अभिन्न अंग थे। संभवतः नन्दों द्वारा ही यह कार्य सम्पादित किया गया था। शिशुनाग द्वारा अवन्ति पर अधिकार किये जाने का उल्लेख पुराणों में मिलता है। उड़ीसा में विजगापट्टम जिले एवं वराह नदी के विस्तृत क्षेत्र को कलिंग कहा जाता था। कलिंग पर नन्दों का आधिपत्य जिस क्षेत्र पर रहा उसकी राजधानी दंतपुर (या दंतकुर) कही गई है। गंजाम जिले में चिकाकोल के निकट लांगुल्य (लागुलिनी) नदी के तट पर स्थित दंतवक्त्र का तादात्म्य प्राचीन दंतपुर से किया जाता है।
- खारवेल के हाथी गुफा अभिलेख में दो स्थलों पर नन्दराज का उल्लेख आया है। एक स्थल पर कहा गया है कि खारवेल तीन सौ पूर्व पूर्व नन्दराज द्वारा खुदवाई गई नहर को अपने शासन के पाँचवें वर्ष में तनसुलियवाट से राजधानी में लाया। अभिलेख में खारवेल के शासन के बारहवें वर्ष का वर्णन करते हुए लिखा है कि खारवेल उस 'जिन' प्रतिमा को वापस ले आया जिसे नन्दराज कलिंग से उठाकर ले गया था। कतिपय विद्वान नंदराज को स्थानीय (कलिंग) राजा मानते हैं किन्तु इस अभिलेख से इस कथन की पुष्टि नहीं होती। राय चौधरी ने लिखा है कि इन लेखों में नन्द राजा के कार्यों की चर्चा मिलती है। नन्द राजा की अनेक जीतों का भी उल्लेख इसमें है। नन्द राजाओं द्वारा कलिंग-विजय को देखते हुए अश्मक-विजय तथा दक्षिण भारत के अन्य छोटे-छोटे भागों की जीत लेना कोई असंभव बात प्रतीत नहीं होती। गोदावरी के तट पर नौ नन्द देहरा ( नन्देर) नामक एक नगर था। इससे लगता है कि नन्द राजाओं ने दक्षिण भारत का भी काफी भाग अपने अधिकार में कर लिया था।
- गोदावरी नदी घाटी के कुछ प्रदेश अश्मक कहलाते थे, इसकी राजधानी पाटेल (पोटुन पोटन) कही गई है। पोतन शब्द बोधन के सदृश प्रतीत होता है जो आन्ध्र प्रदेश में निजामाबाद से कुछ दूर मंजीरा एवं गोदावरी के संगम के दक्षिण में स्थित है। निजामाबाद जिले के पश्चिम में राय चौधरी द्वारा उल्लिखित 'नौ-नंद-देहरा' नामक नगर स्थित है। अतः अश्मक पर आधिपत्य होने पर इस नगर की स्थापना की गई होगी।
- कुरू प्रदेश को हस्तगत किये जाने के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते किन्तु गांगेय प्रदेश में यह क्षेत्र सम्मिलित था। कुरू, पंचाल और शूरसेन जनपदों पर नन्द युग के पूर्व मगध का अधिकार प्रमाणित नहीं होता। क्लासिकल लेखकों के विवरण से जानकारी मिलती है कि ये प्रदेश नंदों के अधिकार में थे। कर्टियस के अनुसार जब सिकन्दर व्यास नदी के किनारे पहुँचा तो फेगेलस नामक भारतीय शासक ने उसे बताया कि व्यास नदी के परे विशाल रेगिस्तान है और उसके बाद गंगानदी है जो समस्त भारत की सबसे बड़ी नदी है और उसके परे स्थित प्रदेश 'गेंगेरदाई' एवं 'प्रसिआई' नामक जातियाँ रहती हैं, जिनका राजा अग्रेजिम है। इस तरह के विवरणों के आधार पर आर. के. मुकर्जी ने नन्द साम्राज्य को पंजाब तक विस्तृत माना है।
- नेपाल सीमा में जनकपुर नामक एक छोटे नगर से मैथिल का समीकरण किया जाता है जिसके दक्षिण में दरभंगा एवं मुजफ्फरपुर जिले की सीमायें मिलती हैं। अजातशत्रु ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में सम्मिलित किया था, उसके समय वज्जि (लिच्छवि) गणराज्य था जिसकी राजधानी वैशाली थी। नन्दों ने भी संभवतः सैनिक छावनी के रूप में इसका उपयोग किया होगा।
- वितिहोत्र का हैहय एवं अवन्ति क्षेत्र से निकट संबंध रहा है। विद्वानों की मान्यता है कि प्रद्योत वंश के उत्थान से पूर्व वितिहोत्रों की प्रभुसत्ता समाप्त हो चुकी थी। यदि भविष्यानुकीर्तन के अन्तिम पृष्ठों में कथित इस बात का कोई मूल्य है कि कुछ वीतिहोत्र शैशुनागों के समकालिक थे तो संभव है कि शैशुनागों ने प्रद्योतों का संपूर्ण यश हरणकर (यशः कृत्स्नं ) अर्थात् परास्त कर पहले के राजवंश के किसी कुमार को पुनः स्थापित किया हो चन्द्रगुप्त मौर्य का सम्पूर्ण पश्चिमी भारत पर नियंत्रण था, इससे यह संभावना बढ़ जाती है कि इसका मार्ग नन्दों ने ही प्रशस्त किया होगा। यह अवन्ति के उत्तर में आधुनिक मालवा प्रदेश में विस्तृत था। इस प्रकार नन्द साम्राज्य सम्पूर्ण उत्तरी भारत में फैला हुआ था।
- पश्चिम में शूरसेन, पूर्वी पंजाब, कुरु एवं दक्षिण पश्चिम में महाराष्ट्र, गुजरात तथा पूर्व में सम्पूर्ण बिहार, उड़ीसा का कुछ भाग और आन्ध्र का उत्तरी भाग नन्द साम्राज्य में सम्मिलित था। इतने विशाल साम्राज्य को विजय करने तथा इसकी सुरक्षा की दृष्टि से एक बड़ी सेना की आवश्यकता थी, उसकी सेना की विशालता का उल्लेख पाश्चात्य विद्वानों ने किया है। कर्टियस के अनुसार औग्रसैन्य ने अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए 20 हजार घुड़सवार, 2 लाख पैदल सेना तथा 2,000 रथों की सेना को तैनात किया था। इसके अलावा उन दिनों सशक्त मानी जाने वाली 3 हजार हाथियों की गज सेना भी देश की रक्षा के लिए तैनात की गई थी। डायोडोरस ने गजसेना में गजों की संख्या 4,000 तथा प्लूटार्क ने 6,000 दी है। बौद्ध ग्रंथों में सेनापति भद्धसाल का नाम भी आया है।
- नन्दों के अतुल ऐश्वर्य के बारे में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने चर्चा करते हुए नन्द के सात प्रकार के अमूल्य रत्नों की पाँच निधियों का संकेत किया है। मुद्राराक्षस एवं कथासरित्सागर में नन्दराज द्वारा 990 करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ एकत्र करने का उल्लेख मिलता है। महापद्मनन्द मात्र सफल विजेता ही नहीं था बल्कि एक अच्छा शासक भी था। खारवेल नन्दराज द्वारा निर्मित नहर को तनुसुलिय मार्ग से नगर में ले गया था। महापद्म के उत्तराधिकारी आठ पुत्र कहे गये हैं जिन्होंने संभवतः एक साथ शासन किया था। सैंहल ग्रंथों में महापद्म एवं उसके पुत्रों की अवधि सम्मिलित करते हुए कुल नौ नन्दों के राजत्व काल को 22 वर्ष बताया गया है। परन्तु पुराणों में महापद्म को 18 वर्ष तथा 12 वर्ष उसके पुत्रों को दिये गये हैं। यदि संपूर्ण राज्यकाल की अवधि के बारे में सैंहल विवरणों को प्रामाणिक माना जाये तो कहा जा सकता है कि महापद्म ने दस वर्ष से अधिक शासन नहीं किया।
नव नन्दों का उल्लेख
- नव नन्दों का उल्लेख महाबोधिवंश में इस प्रकार मिलता है पुण्ड्र, पुण्डगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविषाणाक, दशसिद्धक, कैवर्त एवं धन। अन्तिम शासक धननंद को क्लासिकल लेखकों ने अग्रेमिज तथा तत्कालीन साहित्य में औग्रसैन्य कहा है। संभवतः उसी का व्यंग्यात्मक नाम अतुल सम्पदा के कारण धननंद रहा होगा। उसने अनेक नवीन कर लगाकर धन एकत्र कर लिया था।
- तिथिक्रम बौद्ध संघ की द्वितीय संगीति महापरिनिर्वाण के (लगभग 387 या 386 ई.पू.) सौ वर्ष पश्चात् एवं कालाशोक के शासन के दसवें वर्ष में सम्पादित हुई थी। सैंहल ग्रंथों के अनुसार कालाशोक ( काकवर्ण) ने 28 वर्ष एवं उसके दस पुत्रों ने 21 वर्ष राज्य किया। कालाशोक अपने शासन के नौ वर्ष (386 या 387 ई.पू.) व्यतीत कर चुका था एवं आगे उन्नीस वर्ष अधिक शासन किया। निश्चय ही 396 या 395 ईसा पूर्व में शासन करना प्रारंभ किया होगा। कालाशोक तथा उसके पुत्रों ने मिलकर पचास वर्ष राज्य किया। अतः महापद्म द्वारा (395-50 ई.पू.) लगभग .346 या 345 ई.पू. के बाद राज्यारोहण संभव है। सैंहल गाथाओं के आधार पर नवनंदों अर्थात् महापद्म तथा उसके आठ पुत्रों ने कुल बाईस वर्ष राज्य किया। इस प्रकार नंद वर्ष 324 या 323 ई.पू. समाप्त हुआ। तद्नन्तर मगध में चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन स्थापित किया।
Also Read....
Post a Comment