अम्बेडकर के राजनीतिक विचार | Political thoughts of Ambedkar in Hindi
अम्बेडकर के राजनीतिक विचार Political thoughts of Ambedkar in Hindi
अम्बेडकर के राजनीतिक विचार Dr.Ambedkar Ke Rajnitik Vichar
- राज्य का वास्तविक और प्रत्यक्ष रूप सरकार है। सरकार अपना कार्य सुचारू रूप से तभी कर सकती है जब कि प्रजा उसके आदेशों को माने । प्रजा द्वारा सरकार के आदशों का पालन स्वैच्छिक होना चाहिए।
- अम्बेडकर सविनय अवज्ञा जैसे आंदोलनों के विरूद्ध हैं और उन्हें अराजकता का पर्याय समझते हैं। यदि शासन अन्याय और अत्याचार की राह पर चले तो अम्बेडकर नागरिकों को उसका विरोध करने की सलाह देते हैं ।
अम्बेडकर ने राज्य के निम्नलिखित कर्तव्य निर्धारित किए हैं-
• जीवन स्वतंत्रता, सुख प्राप्ति, भाषण स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करना।
• समाज के दलित वर्गों को अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएं देकर सामाजिक
राजनीतिक और आर्थिक असमानता को दूर करना।
• अम्बेडकर के राजनीतिक चिंतन में
स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए गुंजाइश है जो नागरिकों की अनेक आवश्यकताओं को पूरी
करते हैं । इन संस्थाओं के बिना नागरिकों का उचित रीति से विकास नहीं हो सकता।
अम्बेडकर के विचार में- राज्य और व्यक्ति (State and Individual)
- अम्बेडकर के विचार से भारत मे प्रायः व्यक्ति को समूह अथवा जाति के अधीन माना गया है। यदि व्यक्ति जाति बिरादरी के नियमों का उल्लंघन करता तो उसका हुक्का पानी बंद किया जा सकता था उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। राज्य और समाज दोनों ही व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लागा देते थे।
- अम्बेडकर स्वतंत्र भारत में यह स्थिति सहन करने के लिए तैयार नहीं है। स्वतंत्र भारत में राज्य से अपेक्षा की जा सकती है कि वह व्यक्ति के विभिन्न अधिकारों की रक्षा करेगा और उसे आत्म विकास के पूरे अवसर देगा।
अम्बेडकर के विचार में राज्य का स्वरूप (Form of
State)
- अम्बेडकर ने राज्य के अस्तित्व के प्रयोजन और औचितत्य पर उदारवादी दृष्टि से विचार किया। वे राज्य को एक अनिवार्य और उपयोगी संस्था मानते थे। किंतु उनकी यह भी मान्यता थी कि राज्य की सत्ता को असयमित एवं अमर्यादित नहीं माना जा सकता। वे समाजिक शक्ति तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व पर राज्य की निरंकुश शक्ति का नियंत्रण स्थापित नहीं करना चाहते थे किंतु वे एक संगठित व्यवस्था तथा एक नयनिष्ठ सामाजिक प्रणाली के निर्वाह में राज्य की सकारात्मक भूमिका के महत्व को स्वीकार करते थे। उनका मत था कि राज्य का प्राथमिक दायित्व व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करना तथा ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना है जिसमें सभी व्यक्ति स्वतंत्रता के वरदानों का लाभ उठा सकें।
- अम्बेडकर राज्य से अपेक्षा करते थे कि वह व्यक्ति के अधिकारों के क्षेत्र में यथासंभव अतिक्रमण न करते हुए यह सुनिश्चित करे कि समाज में समता स्वतंत्रता व भ्रातृत्व के आदर्श प्रतिष्ठित हो सके। इसी कारण अम्बेडकर उदारवादी होते भी राज्य के अहस्तक्षेपवदी स्वरूप के पक्षधर नहीं है। उनका मत है कि राज्य को सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में सुधार के लिए अपनी शक्ति का सार्थक उपयोग करना चाहिए अम्बेडकर का मत है कि राज्य जनता संपत्ति व गरिमा की रक्षा के दायित्वों की पूर्ति के अतिरिक्त सामजिक और आर्थिक क्षेत्रों में समाज के सभी वर्णों के न्यायसम्मत दावों को समुचित रीति से सुनिश्चित करके ही अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करता है तथा इन्ही आधारों पर वह नागरिकों की सहज आज्ञाकारिता को अर्जित करता है।
अम्बेडकर के विचार में शासन का स्वरूप व शासकीय शक्ति की मर्यादाएं (Form of Government and Limitations of using Power )
अम्बेडकर ने सामन्यतः शासन की संसदीय
पद्धति को उपयुक्त माना, उनके अनुसार यही शासन की पद्धति उपयुक्त है। जिसमें कार्यपालिका
स्वयं को इतना सक्षम तो अनुभव करे कि वह अपने कार्यक्रमों व नीतियों को बिना
गतिरोधों के क्रियान्वित कर सकें। किंतु इस दृष्टि से वे शासन की प्रणाली में ऐसी
संस्थागत और प्रक्रियागत व्यवस्थाएं हों कि कार्यपालिका अपनी शक्ति का दूरूपयोग
नही कर सके। एक उपयुक्त शासन प्रणाली के संबंध में अपने दृष्टिकोण के सार को
अम्बेडकर ने निम्नांकित रूप से सूत्रबद्ध किया।
1. बहुमत को सरकार बनाने का अवसर हो किंतु यह
सुनिश्चित किया जाये कि शासकीय कार्यों में अल्पसंख्यकों के मत व मंतव्यों की
उपेक्षा नहीं की जाये।
2. प्रशासन पर केवल बहुमत का संपूर्ण नियंत्रण नहीं हो तथा ऐसे उपाय किये जाएं कि बहुमत द्वारा अल्पमत पर अपनी निरंकुश इच्छाएं थोपी नही जा सके।
3. बहुमत के आधार पर कार्यपालिका का गठन करनेवाले दल पर यह प्रतिबंध हो कि वह अल्पसंख्यकों के ऐसे प्रतिनिधियों को कार्यपालिका में सम्मिलित न करे जिन्हें अल्पसंख्यकों का विश्वास प्राप्त न हो।
4. कार्यपालिका की स्थिरता को सुनिश्चित किया जाये ताकि प्रशासन को अच्छी रीति और दक्षता के साथ चलाया जा सके।
5. कार्यपालिका अपने अधिकारों के क्षेत्र का अतिक्रमण न कर सकें इस दृष्टि से उस पर यह प्रतिबंध हो कि वह विधायिका द्वारा दिये गये निर्देशों तथा पारित विधि के अनुरूप ही अपनी शक्ति का प्रयोग करे।
6. कार्यपालिका व विधायिका दोनों ही अपनी
सीमाओं का अतिक्रमण न कर सकें इस दृष्टि से न्यायपालिका को कार्यपालिका व विधायिका
के नियंत्रण से मुक्त रखा जाये तथा उसे कार्यपालिका तथा विधायिका द्वारा किये गये
कृत्यों की समीक्षा का अधिकार प्राप्त हों
अम्बेडकर के विचार में लोकतंत्र (Democracy)
- अम्बेडकर ने लोकतंत्र की पश्चिमी विद्वानों द्वारा की गई परिभाषाओं को अपूर्ण और स्पष्ट बताया। उनका मत था कि पश्चिमी विद्वानों ने लोकतंत्रों को प्रायः शासन की ऐसी पद्धति के रूप में परिभाषि किया है जिसमें शासन की शक्ति व्यावहारिक रूप में जनता के चुन हुए प्रतिनिधियों के हाथों में तथा सैद्धांतिक दृष्टि से जनता में निहित मानी जाती है। अम्बेडकर का मत था कि लोकतंत्र का मर्म केवल शासन के निकायों पर जनता के प्रतिनिधियों के नियंत्रण में निहित नहीं है। उनके अनुसार वास्तविक लोकतंत्र वह है जहां शासन की शक्ति में जनता के सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित किया जा सके। इस प्रकार उनके मत में सामाजिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र की पूर्व शर्त है। उन्होंने लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा कि वह शासन की एसी पद्धति है जिसके द्वारा लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में बिना रक्तपात के क्रांतिकारी परिवर्तन लाये जा सके।
- अम्बेडकर के अनुसार लोकतांत्रिक शासन पद्धति में दो तथ्यों का समावेश अनिवार्य है। प्रथम विविध का शासन तथा द्वितीय सामाजिक और आर्थिक परिवर्तमनों के प्रति आस्था, ताकि सामुदायिक जीवन को सामाजिक और आर्थिक न्याय के आदेशों के अनुकूल बनाया जा सके। शासन की पद्वति के रूप में संसदीय प्रजातंत्र के महान प्रशंसक थे। उनका मत संसदीय प्रजातंत्र में कार्यपालिको को जनमत के प्रति निरंतर संवेदनशील रहना होता है क्योंकि इस पद्धति में नीति निर्णय वाद विवाद और खुली चर्चा पर आधारित होते हैं। संसदीय प्रजातंत्र प्रणाली को बिल्कुल उसी रूप में अपनाये जाने का समर्थन नहीं किया। उन्होंने कहा कि उन कारणों की समीक्षा की जानी चाहिए जिनके रहते संसदीय प्रजातंत्र पश्चिमी यूरोप के अन्य देशों में सफल नहीं हो सका।
- संसदीय प्रजातंत्र पर अम्बेडकर की प्रथम आपत्ति यह है कि उसमें विधि के समक्ष समानता को एक रूढ़ कानूनी सिद्धांत समझ कर अपना लिया गया है, तथा समाज में विद्यमान सामाजिक व आर्थिक विषमताओं का उन्मूलन कर दिया जाये तथा सभी व्यक्ति समान रूप से विधि के संरक्षणों से लाभांवित होने की स्थिति में आ जाएं।
- संसदीय प्रजातंत्र के संबंध में अम्बेडकर की द्वितीय आपत्ति यह है कि इसमें निर्णयों में अत्यधिक विलंब होता है। अतः भारत जैसे देश में जहां सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों के लिए तीव्र गति की आवश्यकता है यह प्रणाली तथी उपयुक्त हो सकती है। जब कि सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों की आवश्यकता तथा उन्हें लागू करने की नीति के विषय में एक आम सहमति का वातावरण बन जाए ताकि इन प्रयासों को बिना प्रतिरोध के लागू किया जा सके।
- अम्बेडकर ने भारत में संसदीय प्रजातंत्र को अपनाएं जाने से पूर्व ऐसे संविधानिक प्रावधानों की आवश्यकता अनुभव की जो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के लिए शासन को वचनबद्ध बनाएं ओर सामाजिक व आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना के प्रति शासन का समप्रण संसद में बहुत प्राप्त करने वाले दल की सदिच्छा मात्र पर निर्भर न रहे। संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक न्याय को सुनिश्चित करने के संकल्प की अभिव्यक्ति तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्तों के माध्यम से एक समतामय और शोषण मुक्त समाज की स्थापना के लिए राज्य के दायित्वों की घोषणाएं संसदीय प्रजातंत्र के सुधारवादी स्वरूप के प्रति अम्बेडकर के आग्रह को प्रतिध्वनित करते हैं।
अम्बेडकर के विचार में लोकतंत्र की सफलता की आवश्यक शर्ते (Essentials of Successs of Democracy)
- अम्बेडकर भारत के लिए लोकतांत्रिक पद्धति को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। किंतु वे इस बात से अत्यंत क्षुब्ध थे, कि भारत में विद्यमान परिस्थितियां, लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए उपयुक्त नहीं है। उनका मत था कि भारतीय सामाजिक प्रणाली में परंपरागत रूप से सामाजिक असमानता शोषण और अन्याय को श्रय दिया जाता रहा है।
- उन्होंने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विद्यमान इस तथ्य को लोकतांत्रिक शासन के मार्ग में एक बड़ी बाधा बताया कि इसमें समुदाय के दो बड़े वर्गों दलितों व स्त्रियों को सामाजिक व राजनैतिक अधिकारों से वंचित करके उन्हें वस्तुतः सामाजिक व राजैतिक जीवन की मुख्य धारा से अलग-थलग पटक दिया गया है।
- उन्होंने भारत में विद्यमान व्यक्ति की पूजा की मनोवृत्ति को भी लोकतांत्रिक दृष्टिकोण के विकास ममें बाधक बताया। उन्होंने कहा दुर्भाग्य वश परंपरा से भारतीय लोग ऐसे हैं जिनमें चातुर्य की अपेक्षा आस्था अधिक है।
- यदि कोई ऐसा कार्य करले जो साधारण से भिन्न हो अथवा कोई ऐसा अजूबा कर ले जिसके कारण अन्य देशों में उसे पागल कहा जा सकता है उसे इस देश में महात्मा या योगी का दर्जा दे दिया जाता है तब तक देश में राजनैतिक विकास को कोई लाभ नहीं है।
- अम्बेडकर ने भारतीय समाज में विद्यमान जाति प्रथा को लोकतंत्र के मार्ग में बड़ी बाधा बताया। उन्होंने कहा कि जाति प्रथा के करण समाज में असमानता को संस्थागत समर्थन प्राप्त हो गया है और राजनीतिक संस्थाओं से परे सामाजिक जीवन में ही कुछ व्यक्तियों को शासक व कुछ को शासित का दर्जा प्राप्त हो गया है।
- अम्बेडकर का मत था कि भारत में संसदीय प्रजातंत्र की सफलता के लिए सामाजिक व्यवस्था में से उपर्युक्त दोषों का निराकरण किया जाना आवश्यक है।
अम्बेडकर के विचार में सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना (Foundation
of Social Democracy)
अम्बेडकर ने भारत में राजजीतिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना को पूर्व शर्त माना। सामाजिक लोकतंत्र के लिये उन्होंने जाति प्रथा और अस्पृश्यता के उन्मूलन को आवश्यक माना उन्होंने कहा सफल लोकतंत्र के कार्यकरण के लिए यह आवश्यक है कि समाज में गंभीर असमानताएं न हों, कोई दलित वर्ग न हो, कोई शोषित वर्ग न हो, ऐसा ऐसा वर्ग न हो, जिसके पास समस्त विशेषाधिकार हों, कोई ऐसा वर्ग न हो जिसके कंधों पर समस्त प्रकार के प्रतिबंधों का बोझ हो ।
- जब तक समाज में ऐसी स्थितियां विद्यमान हैं तब तक सामाजिक संगठनों में खूनी क्रांति के बीज विद्यमान हैं और संभवतः लोकतंत्र के लिए उनका निराकरण करना संभव नहीं है। अम्बेडकर ने दलित और शोषित वर्गों के लिए सांविधानिक और कानूनी संरक्षणों की घोषणा को सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक माना। उनका मत था था कि इन सांविधानकि संरक्षणों के माध्यम से दलित वर्ग उनसे जुड़ी सामाजिक निर्योग्यताओं से उबर सकेंगे और वे संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों का वास्तव में उपयोग कर सकेंगे। उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र के लिए ऐसे सांविधानिक संरक्षणों को भी आवश्यक माना कि बहुमत के आधार पर सत्ता में आने वाला कोई भी दल जन्म पर आधारित भेदभावों तथा अस्पृश्यता आदि के उन्मूलन के कार्यों में शिथिलता न बरत सके तथा दलित वर्गों को उनके न्यायसम्मत अधिकार प्रदान करने के लिए पूर्ण निष्ठा से प्रयत्नशील रहे।
- उन्होंने दलित वर्गों को राजनीतिक सत्ता व प्रशासन में भागीदारी दिए जाने की तथा इस उद्देश्य से व्यवस्थापिकाओं और सार्वजनिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक माना।
- अम्बेडकर का मत था कि एक न्यायनिष्ठ सामाजिक प्रणाली ही लोकतंत्र के आदर्शों को प्रतिबिम्बित कर सकती है। इस उद्देश्य से उन्होंने भारत में सामाजिक संस्थाओं और राजनीतिक संविधान के मध्य तारतम्य स्थापित किया जाना आवश्यक माना। उन्होंने कहा कि समानता स्वतंत्रता और भ्रातृत्व के मूल्यों पर आधारित एक ऐसी उपयुक्त सामाजिक प्रणाली में ही लोकतंत्र का आदर्श चरितार्थ हो सकता है जिसमें सामाजिक हितों को प्रोत्साहित व संरक्षण देने के लिए समाज की उपलब्ध समस्त क्षमताओं और विवेक का बिना भेदभाव के उपयोग किया जा सके।
- अम्बेडकर ने भारत में विद्यमान सामाजिक धार्मिक और सांस्कृतिक विभिन्नताओं में समन्वय स्थापित करके एक एकताबद्ध सामाजिक प्रणाली की स्थापना के लिए धार्मिक विश्वासों सामाजिक परंपराओं और रीति-रिवाजों आदि में से कट्टरता संकीर्णता और रूढ़िवादिता को समाप्त करने की आवश्यकता अनुभव की तथा सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू किये जाने तथा धार्मिक व भाषायी सहिष्णुता को प्रोत्साहन पर बल दिया।
अम्बेडकर के विचार में बहुदलीय प्रणाली और सक्षम विपक्ष (Multi-party
system and a responsible Opposition)
- अम्बेडकर ने बहुदलीय व्यवस्था को लोकतंत्र के लिए आवश्यक माना। उन्होंने कहा कि जब तक जनता के हाथों में एक दल को सत्ता से हटाकर दूसरे दल को सत्ता सौंप देने का विकल्प न हो तब तक लोकतांत्रिक शासन का कोई अर्थ नहीं है। इस दृष्टि से उन्होंने बहुदलीय प्रणाली को लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक माना। अम्बेडकर के अनुसार एक सक्षम विपक्ष भी लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है क्योंकि सक्षम विपक्ष की वस्तुतः शासन की कमजोरियों को उजागर करता है तथा वह उसे जनता के हितों व अधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाये रखता है। सरकार को निरंतर सजग रखना तथा उसे जनहित के प्रति समर्पित रखना वस्तुतः विपक्ष का कार्य होता है, जो कि उसके दल के सदस्य नहीं है।
- अम्बेडकर का निश्चित मत था कि सरकार के परिवर्तन के साथ ही प्रशासन में परिवर्तन स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है। उनका सुझाव था कि प्रशासन तंत्र में स्थाई नियुक्ति की व्यवस्था होनी चाहिए तथा प्रशासन को निष्पक्ष बनाए रखने के लिए प्रशासन के कार्मिक वर्ग को समुचित संरक्षण तथा सेवा सुरक्षा के प्रति आश्वस्त किया जाना चाहिए।
- उनका मत था कि सिविल सेवा को सरकार की स्थाई प्रशासनिक शाखा बनाया जाना चाहिए तथा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उसके सदस्य सत्तारूढ़ राजनैतिक दल के प्रति निष्ठा रखने की अपेक्षा विधि के प्रावधानों के प्रति निष्ठा का निर्वाह करें।
- अम्बेडकर का मत था कि लोकतंत्र में बहुमत पर मार्यादायें रखी जानी चाहिए ताकि वह अल्पमत को कुचल न सके। शासन में ऐसी प्रक्रियाओं व परंपराओं को अपनाया जाना चाहिए जिससे कि अल्पमत भी यह अनुभव करता रहे कि वह भी शासन व प्रशासन में भागीदारी निभा रहा है।
- अम्बेडकर का मत था कि देश का शासन केवल संविधान की घोषणाओं से आदर्श स्वरूप नहीं करता। लोकतांत्रिक आदर्शों को तभी सुनिश्चित किया जा सकता है जबकि राजनैतिक दल और शासकीय निकायों को संचालित करने वाले व्यक्ति संविधानिक नैतिकता के प्रति पूरी तरह समर्पित हों। उनका मत था कि देश का संविधान केवल एक सूखा ढांचा होता है जिसमें कि रक्त और मांस का संयोग राजनैतिक क्रिया-कलाप में संलग्न व्यक्ति संविधानिक मूल्यों और विश्वसनीय आधार होता है। उनका मत था कि जब तक जनता अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति आश्वस्त रूप से जागरूक नहीं होती तब तक लोकतांत्रिक शासन के लिए परिस्थितियां निर्मित नहीं हो सकती।
- अम्बेडकर दे दलित वर्गों के लिए अनेक छात्रावासों की स्थापना की ये छात्रावास महाराष्ट्र में पावेल, पूणे, नासिक, शोलापुर और थाने जैसे नगरों में और कर्नाटक में धारवाड़ जैसे नगर में खोले गए थे। छात्रावास स्थापित करने के लिए अम्बेडकर ने जनता से दान एकत्रित किया था। उन्होंने नगरपालिकाओं और जिला बोर्डों से अनुदान भी प्राप्त किए थे। इन छात्रावासों में दलित वर्गों के छात्रों को बिना कोई फीस दिए रहने और खाने की सुविधा मिलती थी। अम्बेडकर ने 1945 में पीपुल्स एजूकेशन सोसाइयटी की स्थापना की। इस संस्था का लक्ष्य दलित वर्गों के लाभ के लिए शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना करना था।
- 1946 में औरंगाबाद में एक अन्य कॉलेज की स्थापना की गई। इस कॉलेज का नाम रखा गया था मिलिंद महाविद्यालय अम्बेडकर ने बम्बई में दो और कॉलेज स्थापित किए एक 1953 में और दूसरा 1951 में इस समय पीपुल्स एजूकेशन सोसायटी कॉलेज चला रही है इन विद्यालयों में बसी हजार से अधिक छात्र अध्ययन कर रहे हैं। अम्बेडकर ने कॉलेजों की स्थापना तो की ही वे श्रेष्ठ अध्यापक तथा महान पुस्तक प्रेमी भी थे। उनके व्यक्तिगत पुस्तकाल में हजारों पुस्तकें थी। उन्होंने ये पुस्तकें अमरीका ब्रिटेन तथा भारत के विभिन्न भागों से खरीदी थी। वे उच्च कोटि के विद्वान होने के सथ साथ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लेखक भी थे। हो सकता है कि भावी पीढ़ियां सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में उनकी सफलतओं को भूल जाएं लेकिन विद्वता के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां सदा याद रखी जाएगी। वे एक दर्जन से अधिक विद्वत्तापूर्ण पुस्तकों के लेखक थे। उनकी गणना अपने काल के सबसे अधिक शिक्षित नेताओं में होती थी।
Very nice sahab
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