प्राचीन भारत के गणराज्य | Prachin Bharat Ke Gan Rajya
प्राचीन भारत के गणराज्य | Prachin Bharat Ke Gan Rajya
भारतीय राजनीति में गणराज्यों का अस्तित्व बुद्धकाल की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। उत्तर वैदिक काल में ही कुछ गणराज्यों का उदय हो गया था। राजाओं की प्रशासनिक कार्यों में रुचि का अभाव एवं निरंकुशता से मुक्ति के प्रयास के फलस्वरूप गणराज्यों का विकास हुआ।
तत्कालीन साहित्य में दस गणराज्यों के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। विद्वानों ने शासन केन्द्रों के नाम एवं गणराज्यों का उल्लेख इस प्रकार किया है कपिलवस्तु के कोलिय पावा के मल्ल, कुसिनारा के मल्ल, पिप्पलीवन के मोरिय मिथिला के विदेह, वैशाली के लिच्छवि, वैशाली के नाय (ज्ञातृक)।
रामशरण शर्मा ने उल्लेख किया है कि रामग्राम को छोड़कर गणराज्यों से जुड़े सभी प्रमुख नगरों की उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों से पुष्टि होती है, जैसे कपिलवस्तु, श्रावस्ती, कुशीनगर आदि। ये नगर बौद्ध धर्म से संबद्ध रहे हैं।
मैगस्थनीज ने कुछ और गणराज्यों का उल्लेख किया है परन्तु उनका समीकरण नहीं किया जा सका है।
वज्जिप्रदेश \लिच्छविगण को वज्जिगण
इन गणराज्यों में शाक्यों और लिच्छवियों के गणराज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थे और इन्हीं के विषय में सर्वाधिक सूचनायें भी मिलती हैं। लिच्छविगण को वज्जिगण भी कहा गया और यह कई क्षत्रिय कुलों से मिलकर बना था।
- वज्जिप्रदेश गंगा के उत्तर में नेपाल की तराई क्षेत्र में विस्तृत था। इसमें बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर व चम्पारन जिले एवं सारन तथा दरभंगा जिले के कुछ भाग सम्मिलित थे। यह राज्य मगध के उत्तर तथा कोशल एवं मल्ल राज्यों के पूर्व में स्थित था। इस गणराज्य की राजधानी वैशाली थी जिसका तादात्म्य वर्तमान में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में गंडक नदी के तट पर स्थित बसाढ़ से किया जाता है। वैशाली में 7,707 प्रासाद, 7.707 कूटागार, 7,707 आराम, 7,707 कमल पुष्करिणी होने की जानकारी महावग्ग से मिलती है। वैशाली तीन भागों में विभक्त था 7,000 घर स्वर्ण शिखर के, 14,000 घर चांदी के शिखर के एवं 21,000 घर ताम्र शिखर के थे। यह क्रमश: उच्च माध्यम एवं निम्नवर्गों के द्योतक हैं।
- वज्जिसंघ ने बुद्ध के समय अपने को आठ संघों एक समूह में संगठित कर लिया था जो अट्ठकुलिक कहलाते थे। इनमें विदेह ज्ञातृक, लिच्छवि एवं वज्जि आदि सम्मिलित थे। दूसरे चार उग्र, भोग, ऐक्ष्वाकु एवं कौरव माने जाते हैं। वज्जि संघ के वज्जियों एवं लिच्छवियों में भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि वज्जि संघ की एक पृथक जाति भी थी एवं लिच्छवि आदि जातियों को सम्मिलित किये जाने से इस गणराज्य का नाम वज्जि था। इस तरह वैशाली केवल लिच्छवि वंश की ही नहीं, बल्कि संपूर्ण वज्जि गणतंत्र की राजधानी थी। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इक्ष्वाकु के पुत्र विशाल ने वैशालिक वंश की स्थापना की और उसी ने वैशाली नगर बसाया था।
- कुछ विद्वानों की मान्यता है कि लिच्छवि लोग विदेशी थे। बील (सेमुएल) ने लिच्छवियों को यू-ची जाति का सदस्य माना है परन्तु भारत में यूची जाति का आगमन प्रथम शती ई. में हुआ था। अतः इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
- डॉ. स्मिथ की मान्यता है कि वे तिब्बती थे। न्याय प्रणाली एवं शव संस्कार ( शव जंगली जानवरों के भक्षण हेतु फेंका जाता था) के आधार पर ऐसा कहा गया है। रायचौधरी का कथन है कि तिब्बती न्याय व्यवस्था जिसमें तीन न्यायालय होते थे, सात न्यायालय वाली लिच्छवि न्याय व्यवस्था से अभिन्न नहीं की जा सकती। शव संस्कार के विषय में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि जंगली जानवरों के भक्षण हेतु फेंके जाने का प्रचलन लिच्छवियों में था। जायसवाल एवं रायचौधरी आदि विद्वान लिच्छवियों को क्षत्रिय मानते हैं। इस संबंध में कहा गया है कि भगवान बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने पर उनके अस्थि अवशेषों की मांग इस आधार पर लिच्छवियों ने भी की थी 'भगवान बुद्ध भी क्षत्रिय थे और वे भी क्षत्रिय थे। जैन ग्रंथ कल्पसूत्र में वैशाली के चेटक की बहिन त्रिशला को क्षत्रियाणी कहा है। मनु ने लिच्छवियों एवं मल्लों को व्रात्य क्षत्रिय कहा है। रायचौधरी ने लिखा है कि निष्कर्ष यही निकलता है कि लिच्छवि लोग भी क्षत्रिय थे किन्तु ब्राह्मण विधियों की अवहेलना करने के फलस्वरूप उन्हें व्रात्य कहकर निम्न कोटि का मान लिया गया।
शाक्य गणराज्य
- हिमालय की तराई में स्थित शाक्य गणराज्य के शासन केन्द्र कपिलवस्तु को रोहिणी नदी के पश्चिमी तट पर स्थित कहा है कि संभवतः यह कोशल के अधीन रहा होगा। अतः सोलह महाजनपदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता।
- सुत्तनिपात में बिम्बिसार द्वारा अपना परिचय पूछे जाने पर बुद्ध ने स्वयं को शाक्य जाति में उत्पन्न तथा कोशल का निवासी बताया (कोसलेसु निकेतनो) है। शाक्य संघ में 80,000 कुल या पांच लाख जनसंख्या थी। इनमें विरुद्धक (विड्डभ) से 77,000 शाक्यों का क्रूरतापूर्वक वध कर दिया था।
- इस संघ में राजधानियों के अतिरिक्त अन्य नगरों के विषय में भी जानकारी मिलती है छातुमा, सामगारा, कोमदास्स, सिलावती, मेदलुम्पा, नागरका, उलम्पा, देवदाहा, सकारा आदि। इसका प्रमुख राजा कहलाता था। बुद्ध के पिता शुद्धोधन को राजा कहा गया है। विरुद्धक के आक्रमण के समय शाक्य संस्थागार में एकत्र हुए थे। नगर के द्वार खोले जाएं अथवा न खोले इस प्रश्न पर बहुमत जानने का प्रयास किया था।
कोलिय
- कोलियों को नागवंशी माना गया है। उनका पूर्वपुरुष रामकाशी का नागवंशी नरेश था। कोलियो का राज्य गोरखपुर के दक्षिणी भाग में स्थित था। इनकी राजधानी रामागाम थी इसके अतिरिक्त पांच अन्य नगरों का उल्लेख आया है हल्दावसाना सजनेला सापगा, उतरा एवं काकरापत्ता। कोलियों को शाक्यों से निकट रूप से संबद्ध ( वैवाहिक संबंधों के होने से) कहा है।
मल्ल संघ
- मल्ल मल्ल संघ पावा एवं कुशिनारा दो केन्द्रों में विभक्त था। पावा में महावीर ने देह त्याग किया था। दूसरी ओर कुशीनारा में बुद्ध का निर्वाण हुआ था। सुमंगलविलासिनी ने पावा को कुशीनगर से तीन गावुत (लगभग 6 मील) दूर कहा है। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कासिया नामक स्थान से उत्खनन में महानिर्वाण स्तूप एवं चैत्य के अवशेष, ताम्रपत्र एवं मुद्रायें प्राप्त हुई हैं जो बुद्ध के निर्वाण स्थल को इंगित करते हैं। पिप्पलीवन के मोरिय तथा अलकम्प के बुलि लोगों ने भी भगवान बुद्ध के शारीरिक अवशेषों के एक अंश की मांग की थी। केसपुत्र के आलार कालाम का नाम बौद्ध साहित्य में आता है। केसपुत्र संभवतः कोशल राज्य के अधीन था। चुल्लवग्ग में वत्सराज उदयन के पुत्र कुमार बोधि का विवरण आया है जिसने सुसुमारगिरी में अपने नये बनवाये गये कोकनद प्रासाद में बुद्ध का स्वागत किया था।
वज्जिसंघ की प्रशासनिक व्यवस्था
- वज्जिसंघ की प्रशासनिक व्यवस्था के संचालन हेतु संघ की सभा में 7,707 राजा थे, जो वैशाली के नागरिक द्विगुणित 84,000 अर्थात् 168 लाख जनसंख्या में से चुने जाते थे। इनसे इतने ही उपराजा, सेनापति एवं भण्डारिक थे। लिच्छवि गण के बहुसंख्यक राजाओं के बारे में कहा गया है कि कोई लिच्छवि राजा अपने को किसी दूसरे से छोटा नहीं मानते थे और सब 'मैं राजा हूं', 'मैं राजा हूं' कहते थे। वे विभिन्न प्रकार के सुन्दर वस्त्र पहनकर सभा भवन में उपस्थित होते थे। संघ के अधिवेशन स्थल को संथागार कहा जाता था। कभी-कभी अधिवेशन उद्यान (आराम) में भी होते थे। अट्ठकथा से जानकारी मिलती हैं कि अधिवेशन से पूर्व घड़ियाल बजाया जाता था। राजाओं के अधिवेशन में न केवल विदेशी मामलों पर विचार किया जाता था बल्कि व्यापार, कृषि, सामाजिक एवं वैवाहिक मामले भी तय किये जाते थे।
- गणराज्यों की कार्य प्रणाली का विस्तृत विवेचन नहीं मिलता किन्तु बौद्ध संघों की कार्य विधि का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में आया है। विद्वानों की मान्यता है कि बौद्ध संघ की कार्यप्रणाली का जो स्थूल चित्र बनता है उससे अधिक भिन्न गणराज्यों की कार्य प्रणाली नहीं रही होगी।
- अधिवेशन हेतु एक विशेष अनुभवी अधिकारी 'आसनपञ्चपक' वरिष्ठताक्रम (जेष्ठानुपूर्वीक्रम) से आसन की व्यवस्था करता था। अधिवेशन के लिए गणपूर्ति (कोरम) का विधान था, गण पूर्ति के लिए कम से कम दस ( सीमान्त क्षेत्रों में पांच) सदस्यों का विधान था। वस्तुतः भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए संघ की निर्धारित उपस्थिति (नियतोपस्थिति) अलग-अलग (5, 10, 20 और 20 से अधिक) कही गई है। गणपूर्ति में दूसरे जनपदों के व्यक्ति या जिनके विरुद्ध मामला विचाराधीन हो सम्मिलित नहीं किये जाते थे। गणपूरक नामक अधिकारी कोरम पूरा कराने का प्रयास (व्हिप) करता था। संघ का अध्यक्ष विनयधर कहलाता था उसकी गणना गणपूर्ति में नहीं की जाती थी। संघपूर्ति के अभाव मं संघवग्ग (व्यग्र ) कहलाता था, व्यग्र संघ के निर्णय अनियमित माने जाते थे और अनुपस्थित भिक्षुओं की अनुमति से भी उनको नियमित नहीं कहा जा सकता था।
- प्रस्ताव (ज्ञप्ति) औपचारिक रूप से प्रस्तोता (ज्ञापक) द्वारा स्थापित (स्थापना) या प्रस्तुत करना आवश्यक था। तदनन्तर उसका नियमित अनुस्सवान या आवृति होती थी, जिससे सब सुन सकें। इस तरह वाद-विवाद विषय वस्तु तक ही सीमित रहता था, असम्बद्ध बातों पर वाद-विवाद नहीं किया जा सकता था। प्रस्तुत ज्ञप्ति पर किसी सदस्य का मौन रहना उसकी सहमति का सूचक था। विवादास्पद विषय पर सबकी सहमति प्राप्त करने के लिए अन्य संघ का उदाहरण प्रस्तुत किया जाता था। विवादास्पद विषय पर किसी निर्णय पर नहीं पहुंचने की स्थिति में एक उपसमिति बना दी जाती, जिसे उब्बाहिक (उद्वाहिका) सभा कहा जाता था। इस समिति में चुने हुए व्यक्ति ही सदस्य बनाये जाते थे। वह समिति किसी अन्य स्थान पर विचार-विमर्श कर सकती थी। उसका निर्णय सबको मान्य होता था। रीजडेविड्स ने 'नेति' एवं 'उब्बाहिक' शब्द पंचनिर्णय के द्योतक माने हैं उनके अनुसार विवादास्पद विषय पंचनिर्णय हेतु भेजे जाते थे।
- अत्यन्त जटिल एवं विवादास्पद विषय पर एक मत न होने पर बहुमत द्वारा उसका निर्णय किया जाता था, जैसा विदित है कि विरूद्धक द्वारा आक्रमण किये जाने पर “कोशल नरेश (विरूद्धक) की आधीनता स्वीकार कर ले या नहीं", इसका निर्णय भी बहुमत से करना पड़ा था। मतदान लेने वाला अधिकारी 'शलाका ग्राहापक' कहलाता था। शलाकाएँ लकड़ी की बनी होती थीं, जिन्हें सदस्यों में वितरित कर दिया जाता था। प्रत्येक सदस्य को उस रंग की शलाका का चयन करना होता था जो उसके मत के अनुरूप हों एवं शलाका का चयन गुप्त रखा जाता था। 'स्वकर्णजल्पक' विधि द्वारा शलाका ग्राहापक कान के पास मुंह ले जाकर गुप्त रूप से अवगत करवाता था कि किस रंग की शलाका क्या आशय रखती है और कौन-सी शलाका का उसे चयन करना चाहिए।
- सदस्यों में असमान व्यवहार से या वर्ग में विभक्त कर करवाया गया मतदान अवैध माना जाता था। गण के अधिवेशनों में कार्यवाही लेखन की क्या व्यवस्था थी इस विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती। किन्तु महागोविन्दसुत्त से ज्ञात होता है कि सभागार में व्यर्थ प्रलाप भी होता था। इससे स्पष्ट होता है कि अधिवेशन के अभिलेखन की व्यवस्था थी। संभवतः यह कार्य अधिकारियों अथवा लिपिकों द्वारा संपन्न किया जाता होगा।
- विनयपिटक में एक स्थान पर अपनी दुश्चरित्र पत्नी की हत्या के इच्छुक एक व्यक्ति को लिच्छविगण के समक्ष प्रस्तुत किये जाने का उल्लेख आया है, इससे प्रतिध्वनित होता है कि गण सभा न्यायिक सभा का कार्य भी करती
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