प्राचीन काल में नगर योजना | Prachin Kaal Me Nagar Yojna

 


प्राचीन काल में नगर योजना

 

  • इस काल के शहरी आवासों का निर्माण अक्सर मिट्टी व लकड़ी से किया जाता था तथा छत खपरैल की होती थी। इस प्रकार के घर आज भी गंगा के मैदानी इलाकों में देखे जा सकते हैं। धीरे-धीरे घरों के निर्माण में पक्की ईंटों एवं पत्थरों का उपयोग शुरू हुआ। समकालीन ग्रन्थों के आधार पर नगरीय जीवन का चित्रण सरलता से किया जा सकता है।

 

  • नगरों में राज्य के प्रमुख अधिकारियों के आवास मध्य में बनाये जाते थे। राजा एवं विशिष्ट जन अपने-अपने प्रासादों से नगरीय शोभा में अभिवृद्धि करते थे। राजप्रासाद की भव्यता के अनेक उदाहरण तत्कालीन साहित्य में मिलते हैं। चाणक्य (कौटिल्य) ने अर्थशास्त्र (तृतीय अध्याय) में नगर विधान एवं दुर्ग विधान का निरूपण किया है। उन्होंने एक आदर्श नगर की तस्वीर प्रस्तुत की है जिसके अनुसार, “आठ सौ गाँवों में एक स्थानीय संज्ञक विशिष्ट नगर की रचना जनपद के मध्य में करेजो कि राजा की धन वसूली केन्द्र भी (वहाँ राजस्व अधिकारी नियुक्त हो) । " वास्तु विद्या विशेषज्ञों के अनुसार ऐसा नगर किसी प्रशस्त स्थान पर नदी के संगम स्थल के समीप अथवा जल पूर्ण बड़े जलाशय के तट पर बनवाये। उस नगर को वास्तु स्थिति के अनुसारगोलचौकोर या लंबा रखे। नगर के चारों ओर जलयुक्त नदी का प्रवाह अथवा जल से पूरित खाई अवश्य हो । नगर के चारों ओर की उत्पादित वस्तुएँ लाकर संग्रह करने और क्रय-विक्रय करने की पूर्ण सुविधाएँ रहें तथा उसका सम्पर्क जल-थल मार्गों में भी रखा जाये। नगर के चारों ओर एक-एक दण्ड ( चार-चार हाथ) के अन्तर पर तीन खाइयाँ हों जो क्रमश: चौदह दण्डबारह दण्ड और दस दण्ड चौड़ी तथा इससे पौन या आधी गहराई रहे अथवा चौड़ाई की तिहाई भाग ही गहराई रखें। उन खाइयों का तल पाषाण बिछवाकर पक्का किया जाना चाहिएउनकी दीवार भी पत्थरों से पक्की करवाई जाये। खाइयों में भूमिगत जल अथवा किसी नदी का जल सदैव प्रवाहित रहे।


  • ईंट उपलब्ध न होने पर पत्थर से प्राकार (परकोटे) की रचना करें। परकोटा काष्ठ का न हो। काष्ठ के परकोटे से अग्नि का भय बना रहता है। परकोटे के भीतर भवनों (अट्टालिकाओं) का निर्माण किया जाये। प्रत्येक भवन की पारस्परिक दूरी तीस दण्ड रहे और प्रत्येक दो भवन के मध्य रथ के चलने योग्य वीथि (सड़क) बनी हो । यद्यपि चाणक्य की नगर योजना एक आदर्श नगर का चित्र प्रस्तुत करती है परन्तु इसके कुछ तत्वों का मिश्रण तत्कालीन नगरों के निर्माण में अवश्य रहा होगा। क्योंकि चाणक्य की नगरीय योजना की पुष्टि मेगस्थनीज के पाटलिपुत्र के वर्णन से भी होती है। मेगस्थनीज (मेकक्रिन्डल की एश्येण्ट इंडियापृ. 187) ने पालिवोथ्रा (पाटलिपुत्र) के शासन की 5-5 सदस्यों की 6 समितियों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार पाटलिपुत्र 80 स्टैडिया लंबा एवं 15 स्टैडिया चौड़ा थाइसका आकार समानान्तर चतुर्भुज की भांति था और इसके चारों ओर लकड़ी की दीवार थी जिसमें तीर छोड़ने के लिए छिद्र बने हुए थे। राजधानी के सामने खाई भी थी। एरियन (मेकक्रिण्डलपृ. 209-210) इस विवरण को आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं कि पाटलिपुत्र में 570 स्तंभ एवं 64 द्वार थे। पतंजलि ने भी महाभाष्य में पाटिलपुत्र का कई बार जिक्र किया है। उन्होंने पाटलिपुत्र को शोण (नदी) के किनारे स्थित बताया है और इसके विशाल प्रासादों (भवनों) एवं प्राकार (परकोटे) का भी उल्लेख किया है।

 

  • तत्कालीन साहित्य में राजमार्गों का वर्णन मिलता है जो नगर के मध्य में होकर जनपदों की ओर जाते थे। राजपथ के दोनों ओर अनेक विशाल भवन निर्मित किये जाते थे जो वातायनों एवं तोरणों से अलंकृत होते थे। विशिष्ट एवं समृद्ध नागरिकों के विशाल भवन लोगों के आकर्षण के केंद्र होते थे। अशोक के पाटलिपुत्र स्थित राज प्रासाद का वर्णन चीनी यात्री फाह्यान ने सात सौ वर्ष बाद किया थाउसने लिखा था कि नगर में अभी तक अशोक का राजप्रासाद और सभा भवन हैं। ये सब असुरों के बनवाए हुए हैं। पत्थर चुनकर दीवारें और द्वार बनाए गए हैं। राजपथ आजकल की तरह कोलतार या सीमेंट आदि से निर्मित नहीं होते थे इसलिए तत्कालीन राजमार्गों पर जब व्यापारियों का काफिला गुजरता था तो उनके पीछे धूल के गुबार निकलते थे।

 

  • साहित्यिक साक्ष्यों की पुष्टि के लिए पुरातात्विक साधनों का विश्लेषण करना समीचीन होगा। अब तक किये गये उत्खनन से प्राप्त विवरणों से प्राचीन भारत के नगरों के बारे में विस्तृत जानकारी दी जा सकती है। डॉ. रामशरण शर्मा की मान्यता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक संख्या में उपलब्ध आरंभिक ऐतिहासिक स्थलों में केवल तक्षशिलाकौशाम्बीअहिच्छत्रा और नागार्जुनकोंडा का बड़े पैमाने पर उत्खनन हुआ। अतरंजीखेड़ाराजघाटखैराडीह और चिरांद का उत्खनन भी यथेष्ट हुआ है लेकिन मथुरा जैसे अति महत्त्वपूर्ण स्थल की अभी तक समुचित खुदाई नहीं हुई है। " वस्तुतः किसी भी स्थल के व्यापक पैमाने पर उत्खनन किए जाने से ही किसी नगर के आकार और उसकी आबादी के बारे में ही सही अनुमान लगाया जा सकता है। एक स्थल पर एकाधिक टीलों की उपस्थिति घनी आबादी की द्योतक मानी जाती है और मकानों की सघनता भी उस बस्ती की अधिक आबादी को इंगित करती है। इसी प्रकार शहर किसी नदी के तट पर स्थित नहीं है तो तालाबों और छल्लेदार कुओं की अधिकता से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किसी बड़ी आबादी को इनसे जल आपूर्ति की जाती थी। विविध कामगारों की बस्ती में उपस्थितिउसकी नगरीय बस्ती होने का प्रमाण मानी जाती है। दूसरे शब्दों में गैर कृषकों की उपस्थिति शहरी आबादी का विशिष्ट लक्षण है। जैसा उल्लेख किया गया कि भारत के अधिकांश प्रारंभिक नगर नदी मार्गों एवं व्यापारिक मार्गों पर स्थित थे। कुरू राज्य में इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) और हस्तिनापुर यमुना तट पर कौशाम्बी और गंगातट पर बनारस (वाराणसी या काशी) आदि इस तथ्य के प्रमाण हैं। डी. डी. कोशाम्बी ने कहा भी है कि “ ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दी की शुरूआत में नगरों की स्थापना को केवल इसी आधार पर समझा जा सकता है कि अभेद्य जंगलों और दलदल वाले प्रदेशों से तेजी से बहने वाली इन विशाल नदियों में पहले से ही नौकाओं का आवागमन होता था।" ऋग्वेद में सौ डाँडोवाली नौकाओं के और निकटतम भूमि से तीन दिन की जल यात्रा के संक्षिप्त उल्लेख मिलते हैंजिनसे पता चलता है कि आर्य लोग नाव चलाना जानते थे। इन सारी बातों का यही एक निष्कर्ष निकलता है कि ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दी के आरंभकाल के ये अज्ञातनामा साहसी अग्रगामी समुद्र तक पहुँच गए थे और इन्होंने कच्ची धातुओं के भण्डारों को खोज निकला थाअन्यथा गंगा तट पर वाराणसी के किले की खुदाई में तटबंध के नीचे पुरावशेष प्राप्त होने का कोई कारण या अर्थ नहीं हो सकता।

 

  • ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी के लगभग अयोध्याकौशाम्बी और श्रावस्ती अस्तित्व में थे। इन बस्तियों में रहने वाले लोग विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों को उपयोग में लाते थे। छठी शताब्दी तक आते-आते इस सम्पूर्ण क्षेत्र के निवासी उत्तरी काली पॉलिश वाले मृद्भाण्डों (एन.बी.पी.डब्ल्यू.) का उपयोग करने लगे। विशेष प्रकार के चमकदार परत वाले मृद्भाण्ड इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय गंगा घाटी के नगरों में व्यापक सांस्कृतिक एकरूपता था। संभवतः कुछ ही नगरों के कामगार इस प्रकार के मृद्भाण्डों का निर्माण करते थे और दूसरे स्थलों पर इस तरह के मिट्टी के बर्तन व्यापारियों द्वारा निर्यात किये जाते थे।

 

  • श्रावस्ती का उत्खनन एक छोटे से भाग में किया गया है। फाहियान के विवरण से ज्ञात होता है कि यह नगर पाँचवीं शताब्दी में अपने पतन पर था। इलाहाबाद से लगभग साठ किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में स्थित कौशाम्बी में खुद अधिक विस्तृत क्षेत्र में की गई है। यहाँ से अशोक के स्तंभ लेख (जिस पर समुद्रगुप्त की विजय उत्कीर्ण है) एवं तीन कुषाण लेख प्राप्त हुए हैं। एक अभिलेख में कौशाम्बी के घोषिताराम विहार का जिक्र है। जिससे इस स्थल की पहचान सुनिश्चित हो जाती है। यहाँ से मघों के बहुसंख्यक सिक्के ईसा की दूसरी एवं तीसरी शताब्दी के उपलब्ध हुए हैं। अयोध्या में 1969-70 में थोड़ी सी खुदाई की गई। इसके कुबेर टीले से अनेक चरणों में ईंटों से निर्मित विशाल इमारतों के अवशेष मिले हैं। पूर्ववर्ती चरण नगर योजना को इंगित करता है। विद्वानों ने इस स्थल को उत्तरी काली पॉलिशदार मृद्भाण्ड के समय आबाद माना है। तक्षशिला की स्थापना ई.पू. पाँचवीं सदी में भीर टीले पर की गई जिसका क्षेत्र उत्तर से दक्षिण 12,000 गज एवं पूरब से पश्चिम 730 गज था। मौर्य शासन काल में यह अपनी विकसित अवस्था में था। नगर योजना का अच्छा उदाहरण दूसरे तक्षशिला में देखा गया। इस नगर को सिरकप कहा जाता है। बैक्ट्रिया के यूनानियों ने ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में इसकी स्थापना की। इसकी योजना यूनानी शहरों की शतरंज पद्धति पर आधारित थी। यदि इसके उपनगरीय भाग को छोड़ दिया जाए तो यह 3.5 मील लम्बा था।

 

  • चित्रित धूसर मृद्भाण्ड वाले स्थल के रूप में मेरठ जिले में हस्तिनापुर का उल्लेख किया जा सकता हैजिसका विकास ई.पू. 200 के लगभग हुआ और 300 ई. तक लाल मृद्भाण्डों का प्रचलन रहा। विद्वानों ने इसको सात उपकालों में विभक्त किया है जिनमें पक्की ईंटों के मकान मिले हैं। यहाँ चारों दिशाओं के अनुकूल गृह योजना भी देखी गई है। पांचालों की राजधानी अहिच्छत्रा (बरेली जिला) की बस्ती में ई.पू. 300 में कच्ची ईंटों के उपयोग में लाया जाता था और पक्की ईंटें ई. पू. पहली सदी में प्रयुक्त हुईंउस समय नगर 3.5 मील लंबी पक्की ईंटों की दीवार से दुर्गीकृत था। यहाँ से अनेक सिक्के मित्र उपाधि वाले राजाओं के प्राप्त हुए हैं।

 

उपरोक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि साहित्य में वर्णित प्राचीन नगरों की उत्खनन से प्राप्त अवशेषों की पुष्टि होती है। प्रारंभ में भवन निर्माण हेतु लकड़ियों का उपयोग किया जाता रहा जब लकड़ी विपुल मात्रा में उपलब्ध थी। लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने कच्ची ईंटों एवं बाद में पक्की ईंटों तथा पत्थर का उपयोग करना शुरू किया। यद्यपि द्वितीय नगरीय क्रांति में नगरों में हड़प्पा सभ्यता की तरह योजनाबद्ध नगरों का विकास नहीं हुआ और न वहाँ की तरह समुचित प्रणाल (पानी के निकास हेतु नालियाँ) व्यवस्था विकसित हो पाई। इन नगरों का विकास स्वाभाविक प्रक्रिया का परिणाम था। सड़कें बिछाने का इस काल में पूरा ध्यान रखा जाता था। धीरे-धीरे ईंटों एवं पत्थरों से विशाल भवनों का निर्माण करना शुरू किया गया जैसा तत्कालीन साहित्य में विवरण मिलता है। यद्यपि तत्कालीन साहित्य में नगरों की शान शौकत को कुछ अधिक बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाया गया है फिर भी इसके परवर्ती दौर में नगर अपने विकासमान संस्कृति के प्रतीक थे। 


प्राचीन भारतीय साहित्य में नगरों के प्रतीक रूप में पुरदुर्गनगर निगम आदि शब्दों का पुष्कल प्रयोग देखा जाता है

 

पुर क्या होते हैं 

  • प्रारंभिक वैदिक साहित्य में पुर शब्द आया है। यहां इनका उल्लेख किलेबंद बस्तियों आदि के लिए हुआ है। बाद में राजा एवं राजन्य वर्ग के निवासगणसंघों के शासक एवं उसके परिजनों के निवास के रूप में इसका प्रयोग हुआ और आगे जाकर शहर या नगर के लिए पुर शब्द प्रयुक्त होने लगा। दुर्ग सुरक्षा दीवार से आवृत राजधानी के लिए दुर्ग का प्रयोग वैदिककाल से ही होने लगा था। घेराबंदी न केवल नगर को सुरक्षा प्रदान करती थी बल्कि शहरवासियों के कार्यकलापों पर भी सरलता से नियंत्रण किया जाना संभव था।

 

प्राचीन काल में निगम का अर्थ 

  • पाली साहित्य में विशेष रूप से निगम के उल्लेख आये हैं। संभवतः इसका संबंध ऐसे स्थलों से रहा हैजहां व्यापारी वर्ग द्वारा वस्तुओं का क्रय-विक्रय किया जाता था। कतिपय विद्वानों की मान्यता है कि निगमों का विकास उन गांवों में हुआ जहां बर्तनकाष्ठ सामग्रीलौह सामग्री एवं नमक आदि का निर्माण किया जाता था। कहा जा सकता है कि ये बाजार वाले कस्बे थे जिसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि परवर्ती काल की मुद्रायें निगमों द्वारा जारी की जाती थीं। कभी-कभी साहित्य में निगम शब्द का प्रयोग उस स्थल के लिए हुआ है जहाँ दस्तकार एवं कारीगर निवास करते थे और अपना उत्पादन करते थे।

 

प्राचीन काल में नगर

  • प्राचीन काल में शहर के लिए सर्वाधिक प्रयोग 'नगरशब्द का हुआ है। तैत्तरीय आरण्यक में इसका सर्वप्रथम उल्लेख आया है। इसी प्रकार महानगर शब्द का प्रयोग भी नगरों के लिए हुआ है। इन्हें पुर के राजनैतिक कार्यकलाप तथा निगम के व्यापार व्यवसाय का समन्वित रूप कहा जा सकता है। तत्कालीन नगर प्रशासन तंत्रव्यापार व्यवसाय एवं धार्मिक क्रिया कलापों के केन्द्र थे जिनमें प्रशासक वर्गव्यापारियों व कारीगरों के निवास थे। बौद्ध साहित्य में छ महानगरों का उल्लेख हुआ है जो मध्य गंगा घाटी में स्थित थे राजगृहचम्पाकाशीश्रावस्तीसाकेतकौशाम्बी।.

Also Read....












No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.