प्राचीन काल में नगरों के प्रमुख व्यवसाय |Prachin Kaal Me Nagron Ka Vavysaya

प्राचीन काल में नगरों के प्रमुख व्यवसाय |Prachin Kaal Me Nagron Ka Vavysaya


प्राचीन काल में नगरों के प्रमुख व्यवसाय

 

  • शहरी व्यवसायों पर कारीगरों एवं व्यापारियों का प्रभाव था जो विस्तृत क्षेत्र के लिए वस्तुओं का उत्पाद और विनिमय करते थे। शहरी अर्थव्यवस्था के विकास में कुछ तत्वों का विशेष योगदान रहता था जैसे अतिरिक्त अन्न उत्पादन (समीप के गाँवों से जिसकी पूर्ति होती थी)कारीगरों के उत्पादव्यापारिक समुदाय का विकासधातुमुद्रा का प्रचलनशासकीय निकाय एवं शिक्षित वर्ग सामान्यतः शहरों के कारीगर विविध व्यवसायों में संलग्न रहकर उत्पादन करते थे और व्यापारी वर्ग शहर एवं अन्य नगरों के साथ व्यापार करते थे। नगरों का एक वर्ग जिसे कारीगर या उत्पादक वर्ग कहा जाता है विभिन्न व्यवसायों द्वारा माल का उत्पादन करते थे। एक वर्ग ऐसा भी था जिनका किसी प्रकार के उत्पादन से कोई संबंध नहीं था। 


  • दूसरा वर्ग राज्य सेवा में लगे हुए अधिकारियों का था इसी श्रेणी में सेना को भी रखा जा सकता हैइनका शहरी अर्थव्यवस्था पर कोई नियंत्रण नहीं था। इस श्रेणी के लोगों को सेवाओं के अंतर्गत रखा जा सकता है। व्यापारी वर्ग भी इसी तरह का वर्ग था परन्तु वह वस्तुओं के वितरण एवं विनिमय द्वारा शहरी अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान करता था। अनेक नगरों की खुदाई से प्राप्त अवशेषों के आधार पर तत्कालीन व्यवसायों का वर्गीकरण सरलता से किया जा सकता है जैसे मिट्टी के बर्तन बनाने वाला समुदाय (कुम्हार या कुलाल) का महत्व बड़ी मात्रा में उत्तरी काली पॉलिश वाले मृद्भाण्डों की उपलब्धि से स्पष्ट है। बढ़ईगिरी एवं लकड़ी की वस्तुओं के निर्माण करने वालों का उल्लेख ऋग्वेद में भी आये हैं और इस वर्ग का महत्त्व आगे भी बरकरार रहा। उत्तर वैदिक साहित्यबौद्ध एवं जैन ग्रंथों में भी इनकी चर्चा मिलती है। विविध धातुओं का काम करने वाले वर्गों की जानकारी ऋग्वेद से मिलने लगती है। बौद्ध एवं जैन साहित्य द्वारा स्वर्णकारों व लौह सामग्री निर्माताओं को महत्त्वपूर्ण उत्पादक वर्गों में रखा गया। मिलिंदपन्हों में सोनाताँबालोहासीसाटिन आदि की वस्तुओं के निर्माण करने वाले अलग-अलग वर्गों का उल्लेख मिलता है। तत्कालीन शहरी केन्द्रों के उत्खनन से प्राप्त हाथीदांत की वस्तुएंसिक्केपत्थर व शीशे की वस्तुएंमनकेतांबे व लोहे की वस्तुएं आदि अनेक प्रकार के कारीगर वर्ग के अस्तित्व के प्रमाण हैं।

 

  • वर्तमान बनारस जो भारत के प्राचीनतम नगरों में से एक है इसकी प्रसिद्धि एक तीर्थ केन्द्र होने के कारण थी। नगरों में स्थित तीर्थों में देश के कोने-कोने से लोग आते थे और देवी-देवताओं को कुछ न कुछ भेंट करते थे। इस तरह से मंदिरों के पुजारी वर्ग तीर्थ यात्रियों के संसाधनों को अपनी ओर खींचने में सक्षम थे। दूसरे शब्दों में नगरीय केन्द्र अपनी भौतिक सीमा के बाहर रहने वाले लोगों को भी धार्मिक सेवाओं के अतिरिक्त प्रशासनिक एवं आर्थिक सेवाएँ प्रदान करते थे। धार्मिक सेवायें ब्राह्मण या पुजारी वर्गप्रशासनिक सेवा राज्य सेवक तथा आर्थिक गतिविधियों को व्यापारी वर्ग नियन्त्रित करते थे। नगरों में रहने के कारण ही व्यापारी वर्ग धातुओंखनिजों एवं विलासिता की सामग्री की आपूर्ति को नियंत्रित करके नगरीय प्रभाव क्षेत्र के ग्रामीणों के संसाधनों के एक भाग पर कब्जा करने से सफल हो जाते थे।

 

  • इस प्रकार शहरी लोग जो ग्रामीण क्षेत्रों के अतिरिक्त संसाधनों को अपनी ओर खींचने में सफल होते हैं ग्रामीण लोगों की तुलना में अधिक धनी होते हैं और अपने इस धन के बल पर ही आलीशान भवनों का निर्माण करवा पाते हैं। नगरीय जन अपने धन का प्रयोग सम्मान तथा ताकत प्राप्त करने में करते हैं। आज की तरह उन दिनों अपने धन से लोग विशाल महल व सुन्दर मंदिरों का निर्माण करवाते थे। कुछ लोगों की रुचि अपने धन को अधिक बढ़ाने में रहती थी। इसी तरह कुछ लोग धन के बल पर मूल्यवान धातुओं व पत्थरों का संग्रह करते थे। जहाँ तक शिल्पकारों एवं कामगारों का सवाल है उन्हें सम्पन्न लोगों की तरह विशेषाधिकार प्राप्त न थे परन्तु इन लोगों में अपने व्यावसायिक कोशल में वृद्धि तथा अधिक लाभ की कामना से अपने को संगठित करने की प्रवृत्ति का विकास दिखाई देता है। पालि ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि गौतम बुद्ध के काल में विभिन्न प्रकार के शिल्पी नगरों में बसते थे और उनकी अपनी अपनी वीथी (गली) होती थी। श्रेणी और निगमों के रूप में ये अपने को संगठित करते थे। रोमिला थापर ने इनके विषय में लिखा है कि नगरों के विकास के साथ शिल्पियों की संख्या में वृद्धि हुईजो श्रेणियों में संगठित थे। प्रत्येक श्रेणी नगर के एक निश्चित भाग में बसी हुई थी जिससे एक श्रेणी के सदस्य एक साथ रह कर कार्य कर सकते थे और आमतौर पर उनमें ऐसा संबंध पाया जाता था कि उन्हें एक जाति के रूप में देखा जाने लगा।

 

  • नगरों में रहने वाले लोगों में सबसे खराब स्थिति स्वच्छकारों (भंगियों) चाण्डालोंधोबियों एवं भिखारियों की थी। अंतिम संस्कार के लिए भंगियों का महत्त्व था। इनकी स्थिति अत्यंत खराब थी। जाति व्यवस्था में इनका स्थान सबसे नीचे और शहरों से बाहर इनके निवास थे। जहाँ कामगारों की स्थिति उनके व्यावसायिक कौशल के कारण ठीक थी वहीं इस तिरस्कृत वर्ग की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी और इस तरह समाज में धनी और गरीबों का अस्तित्व नगरीय जीवन की एक विशेषता बनी।


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