डॉ राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक विचार | Ram Manohar Lohiya Ke Rajnititk Vichar
डॉ राम मनोहर लोहिया के राजनीतिक विचार
समाजवादी चिन्तन में सर्वाधिक प्रभावशाली आर्थिक तत्व होता है लेकिन डॉ. लोहिया के समाजवादी दर्शन में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक तत्व भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है। उनके राजनीतिक विचार व्यापक हैं, जिसमें व्यक्ति एवं समाज से संबंधित तमाम पहलूओं पर विचार किया गया है। डॉ. लोहिया के राजनीतिक दर्शन के प्रमुख तत्व इस प्रकार है:
डॉ. लोहिया का राजनीतिक दर्शनलोहिया के राजनीतिक विचार
- यदि कोई राष्ट्र से दावा करे कि हमेशा उसकी शक्तियाँ समान रहेंगी तो यह उसकी बहुत बड़ी भूल होगी।
- एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था, जिसके चार आधार होते हैं- ग्राम मण्डल, प्रांत व केन्द्र, जिनका परस्पर घनिष्ट संबंध होगा।
- व्यक्ति और राज्य दोनों ही एक-दूसरे के विकास में भागीदार होते हैं।
1 राजनीतिक इतिहास की समाजवादी व्याख्या
- इतिहास चक्र में सभी देशों का समान रूप से उत्थान पतन होता है, चाहे कोई भी देश कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो। कोई देश के लिए न तो वैभवशाली और धनवान होता है और न ही उनसे रहित। इतिहास बताता है कि जो देश पहले शक्तिशाली थे उनका भी पतन हो गया और जो पहले कमजोर थे, उनका उत्थान हो गया।
2 चौखम्मा-योजना का स्थान
- डॉ. लोहिया के राजनीतिक चिन्तन में चौखम्भा योजना का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने न केवल आर्थिक, अपितु राजनीतिक विकेन्द्रीकरण को प्रमुख स्थान दिया। राजनीतिक विकेन्द्रीकरण राजनीतिक समता एवं सम्पन्नता का द्योतक हैं। वे राजनीति केन्द्रीकरण के विरोधी थे। उनका कहना था कि इससे 'दिमाग जकड़ गये हैं, विचारों का स्थान प्रचारों ने ले लिया हैं आज विचार शक्ति का गुलाम बन गया है। यदि प्रजातांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ करना है तो विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया को अपनाना होगा ताकि शासन में स्थानीय लोगों की अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित की जा सके। दो खम्भों केन्द्र एवं प्रान्त वाली संघात्मक व्यवस्था को डॉ. लोहिया अपर्याप्त मानते थे।
- उनके अनुसार, "बड़ी राजनीति, देश के कूड़े को बुहारती है, छोटी राजनीति, मोहल्ले अथवा गांवों के कूड़े को।" इसलिए उन्होंने अपने चौखम्भा योजना के तहत ग्राम मण्डल, प्रान्त और केन्द्र इस चार समान प्रतिभा और सम्मान वाले खम्भों में शक्ति के विकेन्द्रीकरण का सुझाव दिया।
3 वाणी स्वतन्त्रता और कर्म-नियन्त्रण का सिद्धान्त
वाणी की स्वतन्त्रता का सशक्त प्रतिपादन करते हुए डॉ. लोहिया ने जनतांत्रिक देशों से आग्रह किया कि वे व्यक्ति को भाषण और अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता दे ऐसा साम्यवादी देशों मॅसंभव नहीं हो सकता, क्योंकि वहां सर्वहारा वर्ग की तानाशाही होती है। स्वतन्त्रता के साथ-साथ डॉ. लोहिया ने जो कर्म नियन्त्रण की बात कही, वह महत्वपूर्ण है। कर्म-नियन्त्रण को उन्होंने दो प्रकार से बतलाया प्रथम सिद्धान्त और विधान वर्जित कामों को न करें और द्वितीय सम्मेलन विधान द्वारा आदेशित कामों को करें।
4 जन-शक्ति का समर्थन
जन शक्ति से उनका तात्पर्य जन-इच्छा से था। यह वह जन इच्छा है जो डॉ. लोहिया द्वारा अपनी पुस्तक सात क्रांतियों का सूत्रपात में की हैं
1. नर-नारी की समानता के लिए,
2. चमड़ी रंग पर रची असमानताओं के विरूद्ध
3. जन्मजात तथा जाति प्रथा के खिलाफ
4. परदेशी गुलामी के खिलाफ
5 निजी पूंजी की विषमताओं के खिलाफ
6 अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ
7. सत्याग्रह के लिए।
डॉ. लोहिया के विचार में राज्य को आन्तरिक एवं बाह्य दोनों मामलों में अपनी शक्ति का इस्तेमाल हमेशा जन इच्छा की दृष्टि से विकास के हित से करना चाहिए।
5 व्यक्ति और राज्य के संबंधों की विवेचना
- डॉ. लोहिया ने तो व्यक्ति और समाज को एक ही माना है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि व्यक्ति समाज से जन्मा है और समाज भी व्यक्ति से जन्मा है। जिस प्रकार व्यक्ति का विकास समाज द्वारा होता है, उसी प्रकार समाज का विकास व्यक्ति द्वारा होता है। डॉ. लोहिया ने कहा है कि व्यक्ति एक साध और एक साधन दोनों है, एक साध्य के रूप में वह सबके प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति करता है, एक साधन के रूप में वह अन्याय के विरुद्ध क्रांतिकारी क्रोध का उपकरण है।"
डॉ. राम मनोहर लोहिया के मौलिक अधिकार संबंधी विचार
डॉ. राम मनोहर लोहिया ने मौलिक अधिकारों पर विशेष बल दिया है। उनका तर्क है कि मौलिक अधिकारों के बिना व्यक्ति का सर्वागीण विकास सम्भव नहीं हो सकता। अतः मानव जीवन को संस्कृत एवं गौरवमय बनाने के लिए मौलिक अधिकारों का अनुमोदन किया, जो लोकतांत्रिक समाजवादी जीवन के अनिवार्य अंग है। उनकी राय में राज्य मौलिक अधिकारों को जन्म देने वाला न होकर केवल औचित्य प्रदान करने वाला होता है।
डॉ. लोहिया के मौलिक अधिकार संबंधी विचार निम्न है -
1 बौद्धिक स्वतन्त्रता के अधिकार का समर्थन
- डॉ. लोहिया चिन्तन एवं अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्ष में थे। डॉ. लोहिया समाजवादी होते हुए, बौद्धिक स्वतन्त्रता पर साम्यवादी देशों द्वारा लगाए गये अंकुश के कट्टर आलोचक थे। साम्यवादी व्यवस्था मनुष्य को मौलिक अधिकारों से वंचित रखती है। यह सम्पूर्ण मानव जाति के पतन का द्योतक है। इस प्रकार डॉ. लोहिया ने वाणी स्वतन्त्रता और कर्म नियन्त्रण के सिद्धान्त द्वारा बौद्धिक स्वतन्त्रता का व्यापक अनुमोदन किया ।
2 अत्याचारी एवं अन्यायी कानूनों का प्रतिरोध का अधिकार
- डॉ. लोहिया के अनुसार ये अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त होने चाहिए। लेकिन ऐसा अहिंसात्मक एवं शांतिमय ढंग से होना चाहिए। यही कारण है कि डॉ. लोहिया ने सविनय अवज्ञा के अधिकार का समर्थन किया। वह इसे मौलिक अधिकार मानते हैं। उन्होंने एक ओर प्राण दण्ड देने का विरोध किया, तो दूसरी और आत्म हत्या के अधिकार का समर्थन किया। उनका मत है कि व्यक्ति आत्महत्या तब करता है, जब वह अपने जीवन से ऊब जाता है और उसके स्तर में गिरावट आ जाती है।
3 धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
- डॉ. लोहिया धर्मनिरपेक्ष राज्य के समर्थन होने के कारण धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का पक्ष लेते थे। उनका मत था कि किसी भी नागरिक के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए और सभी को विकास के समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए। इसके अलावा नागरिकों को अपने धर्म का प्रचार करने, धार्मिक क्रया कलाप करने, धार्मिक संस्थाओं के संचालन करने आदि की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
4 समता का अधिकार
- भारतीय समाज में विद्यमान विषमताओं को समाप्त करने के लिए समता की भावना और व्यवहार को सर्वक्षेत्रीय बअनाने में उन्होंने भारी योगदान दिया। डॉ. लोहिया ने नर-नारी समता, जाति उन्नमूलन, रंग भेद और छुआछुत की समाप्ति के न केवल सिद्धान्त तथा कर्म प्रस्तुत किये, बल्कि व्यापक रूप में स्वयं संघर्ष भी किया। उन्होंने वैधानिक, आर्थिक राजनीतिक तथा धार्मिक सभी क्षेत्रों में समानता के अधिकार का समर्थन किया। वह वैधानिक समता के तहत विधि के समक्ष समानता राजनीतिक समता के तहत भेदभाव रहित सार्वभौतिक मताधिकार, आर्थिक समता के अन्तर्गत समाजवाद की स्थापना और धार्मिक समता के अन्तर्गत धर्मनिरपेक्ष एवं सहिष्णुत की अवधारणा को अपनाने पर बल प्रदान करते है। इस प्रकार लोहिया ने न केवल मौलिक अधिकारों, अपितु समस्त मानवाधिकारों को सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक एवं धार्मिक विकास के लिए अनिवार्य बतलाया। इन्हीं की प्रगति से व्यक्ति एवं समाज जीवन उच्च तथा समृद्ध हो पायेगा।
डॉ. लोहिया के अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्था संबंधी विचार
डॉ. राममनोहर लोहिया भारत में ही नहीं, अपितु विश्व में एक मौलिक चिन्तक के रूप में स्थान रखते है । उनका चिन्तन केवल भारत तक ही सीमित नहीं रहा। उनके समाजवादी दर्शन का स्वरूप विश्वव्यापी हैं।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर लोहिया जिन विचारों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे, वे हैं-
- विश्व समाजवाद का दर्शन
- संयुक्त राष्ट्र संघ के पुनर्गठन का नवीन आधार
- अन्तरराष्ट्रीय जाति प्रथा का उन्नमूलन
- विश्व विकास की सीमित पहल
- निशस्त्रीकरण का सशक्त प्रतिपादन
- साक्षात्कार का सिद्धान्त
- अन्तरराष्ट्रीयवाद
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