डॉ. राम मनोहर लोहिया के समाजवाद संबंधी विचार
राम मनोहर लोहिया के समाजवाद संबंधी विचार
1 लोकतंत्र एवं स्वतन्त्रता के लिए हित पोषक
- डॉ. लोहिया का प्रजातंत्र एवं स्वतंत्रता में अटूट विश्वास था। उन्होंने मार्क्सवाद का विरोध इसी आधार पर किया था, क्योंकि मार्क्स लोकतंत्र एवं स्वतन्त्रता को महत्व नहीं देता। वे कहते थे कि यदि कोई मार्क्सवाद पर चलेगा तो तानाशाही उसका एक तत्व अवश्य होगा। डॉ. लोहिया व्यक्ति की स्वतन्त्रता के इतने बड़े समर्थक थे कि वे उसको किसी कीमत पर भी छोड़ना नहीं चाहते थे। व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए यदि राज्य की सत्ता में कमी भी करनी पड़े तो उसके भी तैयार थे।
2 व्यावहारिकता पर बल
- डॉ. लोहिया के समाजवादी चिंतन में व्यावहारिकता की छाया स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। यूरोप के समाजवादी लोगों ने जिस तरह का सिद्धान्तवादी समाजवाद माना है- डॉ. लोहिया उससे बिल्कुल सहमत नहीं है। उसे वे रूढ़ समाजवाद कहते थे। उनका मत था कि यूरोप के समजावादी चिन्तक अपने राष्ट्रों की समस्याओं से ही सम्बन्धित बातें में उलझे हुए हैं और समाजवाद के विश्व दर्श से दूर हैं। इस तरह उन्होंने ऐसे समाजवाद को अपनाने पर बल दिया जो हमारी परिस्थितियों के अनुकूल हो जिससे हमारी समस्याओं का समाधान हो सकें।
3 समाजवाद को नवीन प्रकृति देने का प्रयास
- स्वतन्त्र चिन्तक होने के कारण डॉ. लोहिया समाजवाद को एक नई प्रकृति देना चाहते थे। उन्होंने सन् 1950 में समाजवादियों के मद्रास सम्मेलन में कहा था कि अब समाजवाद को विभिन्न आदर्शों की जरूरत नहीं है। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम सामाजिक सच्चाईयों को समझों और उनकी समाजवादी मोड़ देने के लिए किसी की रूढ़ मान्यता से न बंधे रहे। आज आवश्यकता इस बात की है कि नव स्फूर्त समाज की स्थापना की जाएं।
4 समाजवाद को नवीन चिन्तन एवं कर्म की आवश्यकता
- डॉ. लोहिया साम्यवादियों की इस बात को नहीं मानते थे कि पूँजीवाद की चरम सीमा से समाजवाद का उदय होगा। उनका कहना था कि समाजवाद को मूर्त रूप देने के लिए प्रयत्न करना होगा। नये तौर से व्यापक चिन्तन करना होगा। वे मार्क्सवादियों की इस बात को कोरी मूर्खता कहते थे कि चिन्तन का कार्य मार्क्सकर चुका है और किसी नये चिन्तन की आवश्यकता नहीं है। वे कहते थे कि समाजवाद लाने के लिए निरन्तर चिन्तन और कर्म की आवश्यकता है।
5 विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के समर्थक
- डॉ. लोहिया पूंजीवादी या समाजवादी उत्पादन तकनीकी को भारत के लिए ठीक नहीं समझते थे। उनका कहना था कि यहां के समाजवाद में जो भी उत्पादन की तकनीकी होगी वह इस बात पर आधारित होगी कि यहां पर कितने छोटो-छोटे खेते हैं, यहां की जनसंख्या कितनी है और यहां पर पूंजी कितनी है आदि। इसलिए डॉ. लोहिया विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे जो भारत और एशिया की विशेष आर्थिक दशा को सामने रखकर नियोजित की जाए।
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