चुनावी राजनीति में जाति की भूमिका |Role of caste in electoral Politics
चुनावी राजनीति में जाति की भूमिका Role of caste in electoral Politics
राजनीति में जाति की भूमिका
- भारतीय राजनीति में जाति सबसे महत्वपूर्ण कारक बन गयी है। जाति चेतना एवं जातिगत संगठनों के उदय ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को बदल दिया है।
- सार्वभौम वयस्क मताधिकार के लागू होने के बाद सभी वर्गों की राजनीति में भागीदारी बढ़ी है तथा ये वर्ग बहुत मजबूत ताकत बनकर उभरे हैं।
- हमें यह समझने की जरूरत है कि भारत की चुनावी राजनीति में जाति के दो पहलू हैं: पहला, जाति के आधार पर प्रतिनिधी चुने जाते है, या जाति के आधार राजनीतिक दल टिकटों का बंटवारा करते हैं, तथा दूसरा पहलू यह है कि राजनीतिक दलों का आधार, जातियों का समर्थन होता है।
- प्रथम पहलू यह दर्शाता है। जबकि दूसरा यह दर्शाता है कि चुनावी सफलता में जातियों की भूमिका अधिक बढ़ गयी है। प्रथम पहलू यह दर्शाता है कि जातियों को विधायी निकायों में शामिल किया जा रहा है जबकि दूसरा यह है कि चुनावी सफलता में जातियों की भूमिका अधिक बढ़ गयी है।
- दूसरे पहलू में हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि अब जातियों को रोजगार, स्वास्थ्य शिक्षा, एवं शासन में अधिक महत्व दिया जा रहा है।
- इन सब पहलुओं के आधार पर यह कह सकते हैं कि जाति राजनीति का प्रमुख कारक बन गयी है।
- हालांकि, अन्य कारक भी राजनीति को प्रभावित करते हैं लेकिन जाति इनमें से एक है। वास्तव में कुछ राजनीतिक दलों के समर्थन का आधार ही जाति बन गयी है। उदाहरण के तौर पर बहुजन समाज पार्टी का दलित वर्ग सबसे प्रमुख समर्थन का आधार है।
- 1980 तक काँग्रेस पार्टी का आधार भी दलित वर्ग ही प्रमुख था, इसके अलावा पिछड़े वर्ग एवं उच्च जातियाँ भी इसमें थी। पॉल ब्रास ने इसे "जातियों का महागठबंधन कहा था।
- इन रणनीतियों के आधार पर विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिये जातियों के आधार पर टिकट तय करती है।
- यहाँ तक कि वोट देने वाले भी जाति के आधार पर ही वोट डालते हैं।
- कई शोध कार्यों से यह पता चलता है कि जातियों ने राजनीति में भागीदारी के कारण लोगों को मजबूत किया है खासकर जो वर्ग पिछड़े हैं उनको अधिक सशक्त बनाया है।
- इन अध्ययनों में शामिल है, जैफरलों एवं कुमार (सं.) की पुस्तक (2011) 'राइज ऑफ प्लेनियन्स'? जिसके अनुसार भारतीय विधान सभाओं का चरित्र अब पूरी तरह बदल गया है। इसका चरित्र यह दर्शाता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दलितों, पिछड़े वर्गों तथा कमजोर वर्गों का प्रतिनिधित्व इन निकायों में बढ़ा है।
- अपनी पुस्तक "हू वांटस् डेमोक्रेसी'? में जावेद आलम यह सुझाव हैं कि, निम्न जातियाँ जाति को अपने सशस्तीकरण के लिये एक महत्वपूर्ण औजार मानती है।
- प्रताप भानू मेहता ने "बर्डन ऑफ डेमोक्रेसी" में यह दलील दी कि लोकतंत्र ने अशिक्षित तथा गरीब लोगों के लिए अवसर प्रदान किए। और प्रतिनिधित्व परन्तु असमानताओं के कारण एवं उत्तरदायित्व के बीच काफी अंतर है। राज्य की ओर माँग अधिक बढ़ रही है, इससे राज्य की तरफ लोगों का गुस्सा अधिक है एवं शासन के सिद्धांत पूरी तरह बिखर गये है या टूट गये है।
- योगेन्द्र यादव ने लोकतांत्रिक उथल-पुथल के संदर्भ में विभिन्न सामाजिक समूहों की बदलती भागीदारी का अवलोकन किया।
- वे इस उथल-पुथल को दो चरणों में विभाजित करते हैं:- प्रथम लोकतांत्रिक उठान, इसमें 1960 से 1970 के दशक में पिछड़े वर्ग उभर कर सामने आये जबकि दूसरा लोकतांत्रिक उठान जब दलितों की भागेदारी बढ़ी। इसका प्रमुख कारण जातिगत संगठनों की प्रभावी भूमिका रही है।
- इस संदर्भ में, रजनी कोठारी का यह मानना है कि राजनीति में जातिवाद जाति के राजनीतिकरण से ना कम है या ज्यादा है। अन्य शब्दों में, राजनीति पर जाति का प्रभावअधिक नहीं पड़ा है बल्कि जाति का राजनीतिकरण हुआ है।
- जाति भारत में सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण पहलू है। सामाजिक संस्था के रूप में, यह वृहत मजबूती के साथ खड़ी है और आधुनिकीकरण के युग में भी जाति अभी विद्यमान है। यद्यपि जाति के अंदर बहुत परिवर्तन आ गया है फिर भी यह राजनीति एवं राजनीतिक दलों के साथ पूरी तरह से घुल मिल गयी है एवं कोई भी राजनीतिक दल इसकी अनदेखी नहीं कर सकता।
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