सम्प्रदायवादी इतिहास लेखन | आधुनिक इतिहास लेखन प्रवृत्ति | Sampradya Vaadi Itihaas Lekhan
सम्प्रदायवादी इतिहास लेखन
सम्प्रदायवादी इतिहास लेखन आधुनिक इतिहास लेखन की ही एक विशिष्ट प्रवृत्ति
- सम्प्रदायवादी इतिहास लेखन आधुनिक इतिहास लेखन की ही एक विशिष्ट प्रवृत्ति है. बुद्धिजीवी एवं इतिहासकार यह स्वीकार करते हैं कि 'राष्ट्रवाद', 'सम्प्रदायवाद' एवं 'धर्मनिरपेक्षता' आदि शब्द आधुनिकता की देन हैं. अर्थात, चेतना एवं विचारधारा के स्तर पर आधुनिकता के पूर्व इन शब्दों का अर्थ नहीं था.
- यहाँ हम मूलतः सम्प्रदायवाद को समझने का प्रयास कर रहे हैं, जैसे कि राष्ट्रवादी विचारधारा का उदय आधुनिककाल में हुआ, उसी प्रकार सम्प्रदायवादी विचारधारा का उदय भी आधुनिककाल में हुआ.
- भारत में राष्ट्रवादी चेतना का जन्म उन्नीसवीं के अंतिम दशकों में हो रहा था. यही काल भारत में सम्प्रदायिक चेतना के उदय का भी है, फिर भी, सम्प्रदायिक इतिहास लेखन का आरम्भ सम्प्रदायिक चेतना के तुरंत बाद नही हुआ सम्प्रदायिक चेतना पहले-पहल सांस्कृतिक राष्ट्रवादी इतिहास लेखन मे अभिव्यक्त हुयी.
- प्रसिद्ध इतिहासकार बिपिन चन्द्र के मतानुसार भारतीय इतिहास का सम्प्रदायवादी दृष्टिकोण कुछेक मूल अवधारणाओं पर आधारित है. पहला, हिन्दू और मुसलमान दो भिन्न एवं विपरीत संस्कृतियाँ हैं. यह धारणा इस मत को जन्म देती है कि इतिहास ( साथ ही वर्तमान एवं भविष्य में भी) में हिन्दू और मुस्लिम हित टकराते थे. इस कारण सम्प्रदायिक इतिहास लेखन भूत के हिन्दू-मुस्लिम समन्यवय के उदाहरणों को तो नज़रअन्दाज़ करते है और संघर्षों पर अत्यधिक बल देते हैं.
- बिपिन चन्द्र के अनुसार सम्प्रदायिक इतिहास लेखन की दूसरी मूल अवधारणा मुस्लिमों को मध्यकालीन शासकों एवं हिन्दुओं को शासितों या ‘गुलामों' के रूप में चित्रित करती है. हम जानते हैं कि मूल रूप में ये दोनो ही धारणाएं औपनिवेशिक इतिहास लेखन की देन हैं.
- इसप्रकार सम्प्रदायवादी इतिहासलेखन औपनिवेशिक इतिहास लेखन की विचारधारात्मक हेज़ीमनी को तोड़ नही पाया. आगे हम सम्प्रदायिक चेतना के आधुनिक इतिहास लेखन पर प्रभाव की चर्चा करेंगे.
- इतिहास लेखन में सम्प्रदायिक चेतना सबसे पहले सांस्कृतिक राष्ट्रवादी इतिहास लेखन मे दिखाई देती है. बंकिम चन्द्र चटर्जी ने अपने एक लेख 'विविध प्रबन्ध' के माध्यम से 'हिन्दू इतिहास' लिखने की प्रेरणा दी थी. उन्होंने तर्क दिया कि 'यूनानियों की शौर्यगाथाएं यूनानियों ने लिखी हैं.
- युद्ध में मुसलमानों के बहादुरी के किस्से उन्ही के विवरणों पर आधारित हैं.' चटर्जी ने युद्ध यह तर्क ख़ारिज करते हुए कि हिन्दुओं में गौरवपूर्ण गुण नहीं हैं, कहा कि दरअसल हिन्दुओं की गौरवपूर्ण गाथाओं के केवल लिखित साक्ष्य भर नहीं हैं. इस चेतना का परिणाम यह हुआ कि सांस्कृतिक राष्ट्रवादी इतिहास लेखन मे प्राचीन भारत का महिमा मण्डन किया गया. साथ ही, मध्यकाल को मुस्लिम शासन की भाँति देखा गया.
- भले ही इस इतिहास लेखन को सम्प्रदायिक इतिहास लेखन न कहा जा सकता हो इसने सम्प्रदायिक इतिहास लेखन के बीज अवश्य ही डाल दिये. उदाहरणस्वरूप राष्ट्रवादी इतिहासकार आर. सी. मजुमदार ने लिखा कि मध्यकालीन भारत 'सदा ही दो शक्तिशाली ईकाइयों में बटा रहा, प्रत्येक का स्पष्ट रूप से ख़ास व्यक्तित्व था, जो किसी तरह के विनम्र विलय या निकट के सहयोग को साबित नहीं करता.
- सम्प्रदायिक इतिहास लेखन का एक प्रवृत्ति के रूप मे आरम्भ बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में हो गया था. 1923 मे विनायक दमोदर सावरकर ने हिन्दुत्व नामक अपने ग्रंथ में लिखा कि ‘जिस दिन महमूद ग़जनी ने सिन्धु नदी पार की... उस दिन से जीवन एवं मृत्यु का संघर्ष आरम्भ हुआ.' साथ ही, 'इस संघर्ष में, सारे हिन्दु, चाहे वे किसी संप्रदाय, क्षेत्र, और जाति के हों, हिन्दू होने के कारण क्षतिग्रत हुए और जीते गये.' स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण मध्यकाल को हिन्दू-मुस्लिम संघर्षकाल की भाँति ही देखता है.
- इस ग्रंथ के साथ ही सावरकर ने 'हिन्दुत्व' जैसा नया शब्द भी गढ़ा. सावरकर ने हिन्दुत्व की व्याख्या राजनीतिक एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में की. आश्चर्यजनक रूप से सावरकर के 'हिन्दू' शब्द के दायरे में हिन्दू के अतिरिक्त सिख, बौद्ध, जैन अर्थात भारत में उत्पन्न धर्मों के अनुयायी तो आते थे, परंतु भारत में जन्में या सदियों से रहते आये भारतीय मुसलमान या ईसाई नही.
- इसप्रकार राष्ट्रवाद की यह एक विशिष्ट एवं संकुचित अवधारणा थी, जिसमें राष्ट्र के सारे वर्गों एवं समुदायों को सम्मिलित ही नही किया गया था. सावरकर ने मध्यकालीन सिख मुग़ल, राजपूत मुग़ल तथा मराठा-मुग़ल संघर्षों को हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष की भाँति पेश किया था.
- अट्ठारहवीं सदी के मराठा संघर्ष को सावरकर ने ‘राष्ट्रीय स्वाधीनता का महान आन्दोलन' बताया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एम. एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तिका वी आर अवर नेशनहुड डीफाइंड मे मुसलमानों को शत्रु, लुटेरे या हिंसक गुट की भॉति ही पेश किया. सबसे आश्चर्यजनक था तुर्क एवं मुग़ल शासकों मुसलिम आतताईयों की तरह देखना जिन्होंने आने के बाद से हिन्दू संस्कृति के सा उपलब्धियों को नष्ट कर दिया था.
- इसप्रकार भारत की गुलामी को 600-700 वर्ष पीछे ले जाकर तुर्क सत्ता की स्थापना से देखा जाने लगा. यह विचारधारा आर्थिक राष्ट्रवादियों द्वारा प्रस्तुत गुलामी के वास्तविक परिणामों को नज़रअंदाज़ करती है.
- भारतीय मुसलमानों के एक वर्ग में भी सम्प्रदायिक चेतना अलगाव की अवधारणा के रूप में अभिव्यक्त हो रही थी. बीसवीं सदी में इस अभिव्यक्ति का स्रोत मुस्लिम लीग थी. 1906 में लीग का जन्म मुस्लिम हितों की रक्षा के लिये हुआ था.
- परंतु लगातार यह संस्था मुस्लिम सम्प्रदायिकता का केन्द्र बनती जा रही थी. मोहम्मद अली जिन्ना ने हिन्दु-मुस्लिम अलगाव की विचारधारा को सबसे सशक्त आवाज़ दी.
- 1940 के प्रसिद्ध लाहौर अधिवेशन में, जिसमें पाकिस्तान प्रस्ताव पास किया गया था, जिन्ना ने कहा कि पिछले बारह सौ साल का इतिहास एकता प्राप्त करने में असफल रहा है और यह समय दिखाता है कि भारत सदा हिन्दू इंडिया और मुस्लिम इंडिया में विभाजित रहा है.
- मुस्लिम सम्प्रदायिक इतिहासकारों ने हिन्दू सम्प्रदायिक इतिहासकारों के विपरीत मुग़ल शासक औरंगज़ेब की प्रशंसा करना आरम्भ कर दिया. औरंगज़ेब को भारत में इसलाम का संरक्षक एवं जिन्दा पीर कहा गया. यदि हिन्दू इतिहासकारों के लिये गुप्तकाल स्वर्णयुग था तो मुग़लकाल मुस्लिम स्वर्णयुग बन गया.
- इसप्रकार सम्प्रदायिक इतिहास लेखन हिन्दू और मुसलमान दोनों ही साम्प्रदायिकों को तर्क प्रदान करने का माध्यम बन गया. इस इतिहास लेखन ने साम्प्रदायिक्ता को तो बढ़ावा दिया ही, साथ ही राष्ट्रवादी संघर्ष को कमज़ोर किया. इस इतिहास लेखन की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह थी, कि इसने भारत में विद्यमान दूसरे विभाजनों को भी नज़रअन्दाज़ किया. सावरकर ने हिन्दुओं को एक समुदाय के रूप में देखा, और उनके मध्य जाति अथवा क्षेत्र के विभाजनों को पूरी तरह खारिज कर दिया. इसीप्रकार मुस्लिम साम्प्रदायिकों ने मुसलमानों के आंतरिक विभाजनों को कोई महत्व नही दिया. इस इतिहास लेखन ने जमींदारों किसानों तथा मजदूरों-पूंजीपतियों के वर्गीय संघर्षों पर भी विचार नही किया.
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