प्राचीन भारत का इतिहास : नगरीकरण का आर्थिक विकास में योगदान | Urbanization's Contribution in Economic Growth
प्राचीन भारत का इतिहास
नगरीकरण का आर्थिक विकास में योगदान
Urbanization's Contribution in Economic Growth
- अनेक विद्वान तत्कालीन नगरीकरण को परजीवियों की संस्कृति स्वीकार करते हुए उनका समाज के लिए कोई विशेष योगदान नहीं मानते क्योंकि शहर में उपभोग की सब कुछ सामग्री गाँवों से प्राप्त होती थी और शहरी लोग गाँवों के अधिशेष का उपभोग करते तथा जनपद के लोगों पर भारस्वरूप थे। इस श्रेणी में शासक वर्ग, राज्य के अधिकारी, सैनिक, पुरोहित और कुछ हद तक व्यापारी सम्मिलित थे। इस संबंध में रामशरण शर्मा ने उल्लेख किया है। कि उत्पादन के प्रबंध से कुछेक लोगों का संबंध अवश्य था परन्तु वे स्वयं कुछ भी पैदा करने में हाथ नहीं बँटाते थे। पर इसमें सन्देह नहीं कि शहरों में बहुत से शिल्पी और तरह-तरह के कामगार हस्तशिल्प में लगे थे। उनके और व्यापारियों के कार्यकलाप के कारण शहर विनिमय उद्योग धंधे और तकनीक के केन्द्र बन गए थे। इसलिए हस्तशिल्प और एक प्रकार से खाद्यान्न के उत्पादन में भी शहरों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। सारे शहर को परजीवी समझना गलत होगा। इसलिए प्राचीन शहरों के उत्पादक पक्ष की अनदेखी नहीं की जा सकती है। शहरों के कारण राजतंत्र भी मजबूत होता था। शहरों में शिल्पकारों की श्रेणियाँ तथा वाणिज्यिक समुदाय के संगठन धीरे-धीरे प्रभावशाली होने लगे थे। अलग-अलग नगरों में कुछ विशिष्ट वस्तुओं का बड़ी मात्रा में निर्माण होता था और फिर सारे देश में उनका वितरण होता था। मुद्रा के प्रचलन से व्यापार में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस युग की नगरीय संस्कृति में पनपे हस्तशिल्प का ही परिणाम था कि रोम से भारत का व्यापारिक संबंध कायम हुआ। यहाँ सिल्क वस्त्र एवं अन्य हस्तशिल्प की सामग्री का निर्यात बड़ी तादाद में हो रहा था और रोम में स्वर्ण सिक्कों के रूप में भारत आ रहा था।
- नगरीकरण का ही एक परिणाम यह भी था कि वाणिज्य व्यापार एवं वाणिज्यिक मार्गों का विकास, जिसका चरमोत्कर्ष कुषाण काल में देखा जाता है। व्यापारिक मार्गों की चर्चा आगे की जायेगी यहाँ यह जान लेना पर्याप्त है कि रोमन साम्राज्य से होने वाले व्यापार का काफी बड़ा भाग इन मार्गों से होकर गुजरता था। पालि ग्रंथों से ज्ञात होता है कि व्यापारी पाँच-पाँच सौ बैलगाड़ियों से माल ढोकर ले जाते थे। कश्मीर व उज्जयिनी से लाई गई अनेक वस्तुएँ भड़ौंच के बन्दरगाह से पश्चिमी देशों को भेजी जाती थीं। इस प्रकार नगरीय लोगों के आर्थिक विकास में योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
नगरीकरण का विघटन
- तीन सौ ईसवी के बाद अधिकांश नगरों का पतन होने लगा। वाई.डी. शर्मा के अनुसार बड़े नगर गुप्त और गुप्तोत्तर काल में पतनावस्था में पहुंच गये थे। नगरों के पतन पर डॉ. रामशरण शर्मा ने उल्लेख किया है और कुछ महत्त्वपूर्ण साक्ष्य जुटाये हैं। उनकी मान्यता है कि पाँचवीं और छठी शताब्दियों तक नगर प्रशासन में वाणिज्यिक व्यापारिक और शिल्पीय तत्वों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और भूमि की खरीद-फरोख्त में उनकी सहमति आवश्यक समझी जाती थी। बिना उनकी राय के नगरीय प्रशासन जिले में कोई भूमि नहीं बेच सकता था। लेकिन गुप्तोत्तर काल में ऐसा नहीं था। नागरिक प्रशासन में सौदागरों, व्यापारियों एवं शिल्पियों का कोई योगदान नहीं था। इस आधार पर निष्कर्षतः कहा गया है कि सातवीं से दसवीं शताब्दियों तक के काल में व्यापार और नगरीकरण मंद पड़ गए और जो लोग शिल्प तथा वाणिज्य में लगे हुए थे उनका महत्त्व कम हो गया।
- डॉ. शर्मा के अनुसार दूसरा प्रमुख कारण भारत और रोम के बीच तेजी से घटता हुआ व्यापार था। भारत और अन्य पूर्वी देशों के साथ व्यापार के कारण रोम का खजाना खाली होने लगा। रोमन शासकों ने भारतीय उत्पादों के आयात पर प्रतिबन्ध लगा दिया। तीसरी शताब्दी के अंत तक भारत के साथ रोम का व्यापार बहुत घट गया था। इसके अतिरिक्त भारतीय राजनीति का भी व्यापार व्यवसाय पर बुरा प्रभाव पड़ा। जब तक सातवाहन एवं कुषाणों की सत्ता रही तब तक कानून एवं व्यवस्था बनी रही जो व्यापार की प्रगति के लिए एक आवश्यक शर्त होती है। व्यापारियों को स्थान-स्थान पर चुंगी नहीं देनी पड़ती थी। इनके पतन के बाद धीरे-धीरे शहर अपने पतन की ओर अग्रसर हुए। गुप्तकालीन भूमिदान की प्रथा भी नगरीयकरण के लिए घातक सिद्ध हुई। गुप्त शासक और सामन्त भूमि के साथ नगर भी दान करने लगे। नगरों व गांवों के पतन से वाणिज्य व्यापार पर बहुत से प्रतिबन्ध लग गए। अब नये स्वामियों (बौद्ध भिक्षुओं या पुरोहित वर्ग जो भूमि एवं नगरों का दान ग्रहण करते थे) के अधीन व्यापारियों एवं शिल्पकारों को पूर्व की भांति स्वतंत्रता न थी। अब नगर भी एक तरह से सामन्ती व्यवस्था के अंग बन गये थे। इस प्रकार गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल में अनेक तत्व नगरीयकरण के पतन के लिए एक साथ जुट गये थे।
प्राचीन काल में आर्थिक कार्यकलाप
- वर्तमान की भांति उस काल में भी अधिकांश जनता गांवों में निवास करती थी। गांव में घरों के समूह के चारों ओर कृषि भूमि का विस्तार था। गाँव से संबद्ध चरागाह होते थे जिन्हें वन या 'दाव' कहा जाता था। सामान्य कृषक अपनी भूमि पर स्वयं कृषि करते थे किन्तु बड़े भूस्वामी श्रमजीवियों से इस कार्य को सम्पादित करवाते थे, जिससे समाज में श्रमजीवी वर्ग का आविर्भाव हुआ। यह वर्ग दूसरों की भूमि पर कार्य द्वारा अपनी जीविकोपार्जन करता था। तत्कालीन साहित्य में ऐसे अनेक विवरण मिलते हैं जो स्वामी एवं सेवक के संबंध को सूचित करते हैं। उस समय धनी ब्राह्मण एवं क्षत्रियों के पास कृषि भूमि की जुताई करने हेतु सैकड़ों बैल और हल होते थे एवं कृषि कार्य संपन्न करने के लिए अनेक श्रमजीवियों (भृतकों) को नियुक्त करते थे। श्रमिकों को पारिश्रमिक अन्न या धन के रूप में दिया जा सकता था। स्त्रियाँ भी सुबह से सायं तक आजीविका चलाने हेतु श्रम करती थी। रजिडेविड्स ने लिखा है कि भारत में सदा से ही जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग अपनी जीविका के लिए कृषि कर्म पर निर्भर रहा है, बुद्ध के समय में भी भारत का ग्रामीण अर्थतंत्र मुख्य रूप से भूस्वामियों द्वारा निर्वासित ग्राम समुदायों के ढांचे पर आधारित था।
- तत्कालीन साहित्य से देश में प्रचुर मात्रा में अन्न उत्पाद की जानकारी मिलती है। भूमि का उपजाऊ होना इसका प्रमुख कारण था। कृषि लोगों का प्रमुख व्यवसाय था। सामाजिक दृष्टि से भी कृषि को उच्च स्थान प्राप्त था। बौद्ध ग्रंथों में कृषि को तीन उत्कृष्ट व्यवसायों में प्रथम स्थान पर रखा गया है। भूस्वामियों के विषय में प्राचीन ग्रंथकारों के मत को लेकर आधुनिक इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि भूमि पर राजा का स्व जबकि कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि उस पर व्यक्तिगत स्वत्व माना जाता था। स्मिथ का विचार है कि प्राचीन भारत में भूमि को राजा की सम्पत्ति माना जाता था। प्राचीनकाल में अनेक राजाओं द्वारा ब्राह्मणों, शैक्षणिक संस्थाओं आदि को भूखण्ड दान में दिये जाते थे जो उनके व्यक्तिगत स्वामित्व को व्यक्त करते हैं। घोषाल की मान्यता है कि वैदिक युग से ही कृषि भूमि पर वैयक्तिक भूस्वामित्व सिद्ध होता है। जायसवाल की भी धारणा है कि प्राचीनकाल में व्यक्तिगत भूस्वामित्व प्रमाणित होता है। आर. एस. त्रिपाठी ने लिखा है कि ग्राम अर्थ नीति भूमि के स्वतंत्र स्व के आधार पर खड़ी थी। कृषक अपने खेत का स्वामी था परन्तु गांव की पंचायत अथवा परिषद् की अनुमति के बिना वह अपना खेत बेच या रेहन नहीं कर सकता था। वैयक्तिक भू स्वामित्व के अनेक प्रमाण तत्कालीन साहित्य में मिलते हैं। एक ब्राह्मण के अपनी भूसम्पत्ति में से सहस्त्र करीस (संभवत: एकड़) भूमि दान दिये जाने का विवरण मिलता है।
- राजगृह के श्रेष्ठी अनाथपिंडक (सुदत) ने राजकुमार जेत का उद्यान 18 कोटि स्वर्णमुद्राओं में क्रय करके बुद्ध के निवास हेतु भेंटस्वरूप प्रदान किया। ये स्वर्ण मुद्रायें राजकुमार जेत की मांग के अनुसार उद्यान में बिछा दी गई थीं, जिन्हें गाड़ियों पर लादकर वहाँ लाया गया था। इस आख्यान से भूमि पर व्यक्ति का कानूनी अधिकार सिद्ध होता है और विक्रय द्वारा वह इस अधिकार का हस्तान्तरण करने को स्वतंत्र था। स्त्रियाँ भी भूमि दान कर सकती थीं। आम्रपाली द्वारा बुद्ध को अपनी वाटिका (आम्रवन) दान में देने का उल्लेख स्त्रियों के भूमि पर अधिकार को प्रमाणित करता है। गंगा के मैदानों में जंगलों को साफ करने में लोहे के औजारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस क्षेत्र के बड़े भू-भाग में विविध अनाजों का उत्पादन किया जाने लगा। कृषि विस्तार ने पशुओं के महत्त्व को बढ़ा दिया। बौद्ध लोग पशुओं की रक्षा पर बल देते थे। सुत्तनिपात में कहा गया है कि पशुओं को नहीं मारना चाहिए क्योंकि वे अनाज प्रदान करते हैं।
- कृषकों द्वारा कृषि भूमि को तैयार करने हेतु पर्याप्त परिश्रम करना होता था। कभी-कभी खेत को तीन से सात बार अथवा उससे भी अधिक बार जोता जाता था। जुताई हल से की जाती थी जिसके लिए बौद्ध ग्रंथों में 'नंगल' शब्द आया है। वर्तमान की भांति उस समय भी हल खींचने के लिए बैलों का उपयोग किया जाता था। हल को दो या दो से अधिक बैल खींचते थे। अनुपजाऊ भूमि को तैयार करने हेतु संभवतः अधिक बार जुताई की जाती थी, फिर बीज बोया जाता था, बुवाई कार्य में स्त्रियाँ भी सहयोग करती थीं। उत्तर वैदिक काल की तुलना में बौद्ध काल में अधिक खाद्यान्नों के उत्पादन का एक कारण धान की पैदावर में रोपाई पद्धति को अपनाया जाना था। कृषि कार्य से संबंधित अनेक विवरण जैन साहित्य में मिलते हैं। उस युग में तीन प्रकार की फसलें पैदा की जाती थीं।
- खेतों में उत्पन्न की जाने वाली फसल 'क्षेत्रिक' कही जाती थी एवं उद्यानों में पैदा की जाने वाली 'आरामिक' कहलाती थी और जंगलों में उत्पादित वस्तुओं को 'आटविक' कहा जाता था। बुद्धघोष ने (विनयपिटक टीका) 'उदकवप्प' तथा 'थूलवप्प' दो प्रकार की बुवाइयों का उल्लेख किया है। प्रथम जलयुक्त खेत में दूसरे सूखी भूमि वाले खेत में बीज डाला जाता था। जबकि बृहत्कल्प भाष्य में खेतों में (क्षेत्रिक) की जाने वाली फसल को दो भागों में विभक्त किया है एक 'सेतु' जिसकी सिंचाई कृत्रिम साधनों द्वारा की जाती थी दूसरी 'केतु' जो वर्षा पर निर्भर करती थी। सिंचाई के विविध साधनों के उपयोग की जानकारी मिलती है, सिन्धु देश में नदियों, द्रविड़ क्षेत्र में तड़ागों, उत्तरापथ में कुओं से खेतों की सिंचाई की जाती थी।
- कुओं से पानी निकालने के लिए 'तुल' (ढेकुली) एवं चक्क वट्टक (रहट) का विवरण मिलता है। पकी हुई फसल को हसिये (असिसहि) से काटा जाता था जिसके लिए पाणिनी ने 'पात्र' एवं 'लवित्र' शब्द का प्रयोग किया है। अनाज को 'सुप्पकत्तर' से साफ किया जाता था। तत्कालीन साहित्य में विविध प्रकार के अनाजों का उल्लेख मिलता है - यव (जौ) ब्रीहि या शालि (धान), गोधूम (गेहूँ), कगुं (बाजरा) मुग्ग (मूंग), चणक (चना), सासप (सरसों), गन्ना (इच्छु) कपास, लवंग, पिप्पल, क्षोम, तम्बोल (ताम्बुल), साणा (सन) आदि। फलों में अनार, अंगूर, आम, सेव, अंजीर, खजूर इत्यादि प्रमुख थे। इनके अतिरिक्त हल्दी (हलिदिद) अदरक (सिंगवेर) लेहसुन (लसुण), कालीमिर्च (पिप्पलि), मिर्च ( मरिच), प्याज, कृषि उत्पाद्य आदि थे।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि छठी शताब्दी ई.पू. के बाद के काल में लोग विविध उत्पादनों की ओर अग्रसर हो रहे थे और भरण-पोषण पर आधारित अर्थव्यवस्था का बाजार अर्थव्यवस्था में संक्रमण हो रहा था। खेतों को एकाधिक बार जोता जाना तथा हल को खींचने में दो से अधिक बैलों का प्रयोग इस तथ्य का द्योतक है कि खाद्यान्नों का अधिशेष उत्पादन होने लगा था। यदि ऐसा न होता तो समाज के अन्य वर्गों की खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती और सोलह महाजनपद, उनके महत्त्वपूर्ण नगर और स्थायी सेनाओं का अस्तित्व संभव नहीं होता। साथ ही इस काल में ऐसे प्रमुख नगरों की स्थापना हो चुकी थी जो व्यापार मार्गों पर स्थित थे तथा जिनमें विविध प्रकार के उच्च स्तरीय व्यवसाय विकसित हो चुके थे। नदी घाटियों के विशाल मैदानी क्षेत्रों में ऐसे नगरों का होना भी कृषि द्वारा अधिक खाद्य उत्पादन का प्रमाण है।
प्राचीन काल में भूमिकर
- भूमिकर के लिए बौद्ध साहित्य में 'बलि' एवं 'भाग' शब्द मिलते हैं। राज्य को देय भाग के विषय में मनुस्मृति में 1/6, 1/8 तथा 1/12 की अलग-अलग दरों का उल्लेख मिलता है। गौतम ने उत्पादन का 1/10, 1/8 या 1/6 हिस्सा राजभाग के रूप में माना है। वसिष्ठ एवं विष्णु धर्मसूत्रों ने 1/6 भू राजस्व का उल्लेख किया है। एक जातक (काम) जातक) में 'बलि निर्धारण' का आधार भूमि मापन को माना गया है। इस काल में 'रज्जुगाहक अमच्च' नामक राजकीय पदाधिकारी अशोक के अभिलेखों में उल्लिखित 'राजुक' के समक्ष दिखाई पड़ता है। संभवत: भूमि के परिमापन द्वारा भू-राजस्व का निर्धारण इसी अधिकारी द्वारा किया जाता था। इस काल में बलि (भू-राजस्व) वस्तु के रूप में प्राप्त किया जाता था।
- जैन एवं बौद्ध ग्रंथों में कभी-कभी वर्षा के अभाव में अकाल की अवस्था का उल्लेख मिलता है। ऐसे समय में भिक्षुओं को भिक्षा मिलने में बड़ी कठिनाई होती थी। एक अकाल का उल्लेख महावग्ग में आया है, जिसमें पशुओं कुत्ता, घोड़ा, आदि को खाकर लोगों को जीवित रहने को बाध्य होना पड़ा था। पशुपालन इस युग में कृषि तथा वाणिज्य के साथ उत्कृष्ट व्यवसाय के रूप में जाना जाता था। लोग विविध प्रकार के पशु- -पक्षियों को पालते थे तथा अनेक का शिकार भी करते थे। इस काल के अनेक पुरातात्विक स्थलों ने भेड़, बकरी, घोड़े, सुअर आदि की हड्डियां बड़ी मात्रा में प्राप्त हुई हैं जो यह इंगित करती हैं कि पशुओं का उपयोग केवल हल चलाने और सामान ढोने के लिए ही नहीं होता था अपितु समाज का एक वर्ग संभवतः मांसाहारी भी था। जाल का प्रयोग भी शिकार के लिए किया जाता था। पालतू पशुओं में गाय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि इसके दूध के अतिरिक्त बछड़े बैलों के रूप में कृषि कार्य में उपयोग में लिये जाते थे। अन्य पशुओं में बकरी, भैंस, घोड़ा, हाथी आदि महत्त्वपूर्ण थे। घोड़े एवं हाथी सेना के महत्त्वपूर्ण अंग थे।
प्राचीन काल में श्रेणी एवं व्यापार
- इस काल में उद्योग धन्धों का बहुत अधिक विकास हुआ। अपने पृथक्-पृथक् व्यवसाय एवं उद्योगों से संबद्ध अनेक व्यावसायिक जातियों का प्रादुर्भाव भी देखा जाता है। विविध व्यवसायों से संबंधित लोगों की परस्पर संगठित जीवन में अभिरुचि का विकास इस काल में हुआ। 'श्रेणी' (सेणी), 'गण' एवं 'पूग' आदि इसी प्रकार के संगठनों के द्योतक शब्द हैं। विद्वानों की मान्यता है कि श्रेणी एक ही अथवा अलग-अलग जातियों के किन्तु एक ही व्यापार अथवा उद्योग में प्रवृत लोगों का संगठन था। जातकों में अठारह श्रेणियों का विवरण मिलता है परन्तु किसी भी जातक में सभी श्रेणियों का एक साथ उल्लेख नहीं मिलता।
प्राचीन काल में व्यवसाय एवं उद्योगों श्रेणी
रीजडेविड्स ने तत्कालीन साहित्य के आधार पर अठारह श्रेणियों का उल्लेख किया है।
1. लकड़ी का कार्य करने वाले बढ़ई (वड्ठकि) द्वारा नावों एवं पोत निर्माण की जानकारी जातकों से मिलती है।
2. धातुकर्म करने वाले, धातु को गलाकर तौल एवं माप आदि का निर्माण करते थे। मिलिंदपन्हों में सोना, तांबा, लोहा, सीसा, टिन आदि की वस्तुएं बनाने वाले अलग-अलग वर्गों का उल्लेख मिलता है। कृषि कार्य हेतु हल, फावड़ा, कुदाल, हसियां आदि औजार बनाये जाते थे।
3. चमड़े का काम करने वाले (चर्मकार) चमड़े की रस्सियां, जूते आदि बनाते थे।
4. कुंभकार (कुम्हार) मिट्टी के बर्तन समाज को उपलब्ध करवाता था।
5. पत्थरों से कार्य करने वाले ( शिल्पकार) भवनों का निर्माण करते थे।
6. इस समय वस्त्र उद्योग बहुत अधिक विकसित था। सूती, ऊनी एवं रेशमी आदि अनेक प्रकार के वस्त्र निर्मित किये जाते थे। नगर के बाहर राजगृह में बुनकरों की बस्ती होने का उल्लेख आया है।
7. हाथी दाँत से कलात्मक वस्तुएँ बनाने वाले वर्ग का अस्तित्व भी था। काशी में यह उद्योग बहुत विकसित होने की जानकारी मिलती है।
8. कपड़े रंगने वाले कपड़ों को स्वच्छ करके नीला, पीला, लाल, गुलाबी रंग से वस्त्रों को सुन्दर बनाते थे।
9. आभूषण बनाने वाले (स्वर्णकार) विभिन्न प्रकार के आभूषणों का निर्माण करते थे। समाज में अधिकांश लोग स्वर्णाभूषणों में रुचि रखते थे एवं शरीर सज्जा हेतु उपयोग करते थे।
10. चित्रकार भवनों, प्रासादों, विहारों को विभिन्न रंगों द्वारा सौन्दर्य प्रदान करते थे। अन्य वर्गों में उल्लेखनीय हैं-
11. मछुआरे,
12. कसाई,
13. शिकारी,
14. नाई,
15. मालाकार (माली)
16. नाविक,
17. भोजन मिठाई बनाने वाले तथा
18. डलिया बनाने वाले थे।
- यह युग जैसा विदित है नगरों के विकास का युग था। अतः पत्थर का कार्य करने वाले शिल्पियों को भवनों, अट्टालिकाओं के निर्माण में अपने कोशल को प्रदर्शित करने का अवसर मिला। भवन निर्माण हेतु प्रस्तर का उपयोग इस काल में प्रारंभ हो गया था।
- संभवतः मूर्ति निर्माण कला का प्रारंभ भी छठी शताब्दी ई.पू. के काल की देन है। इसी तरह वस्त्र निर्माण भी इस काल का अत्यन्त विकसित उद्योग था। कई स्थान अपने विशिष्ट वस्त्र उद्योग के लिए प्रसिद्ध थे। उज्जयिनी के शासक प्रद्योत ने जीवक की सेवाओं से प्रसन्न होकर शिवि प्रदेश में निर्मित (सीवेय्य) चादरों का जोड़ा भेंट किया था। काशी में निर्मित परिधान धारण कर लोग गर्व का अनुभव करते थे अर्थात् वहां के वस्त्रों का विशेष महत्त्व था।
- श्रेणियों के समान ही 'गण' एवं पूग का उल्लेख धर्मसूत्रों में मिलता है। धन एवं लाभ की प्राप्ति के लिए विविध जातियों और व्यवसायों में प्रवृत्त लोगों द्वारा अपने को एक संगठन में संगठित करने से पूग का गठन होता था। प्रत्येक श्रेणी के अध्यक्ष को जेट्ठक (ज्येष्ठक) या प्रमुख कहते थे। इन श्रेणियों द्वारा निर्धारित नियमों का पालन प्रत्येक सदस्य को करना होता था। श्रेणियों के मध्य विवाद का निपटारा महासेट्ठि द्वारा किया जाता था। श्रेणियों को पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त थी अर्थात् इन संगठनों को सहकारिता के आधार पर संचालित किया जाता था।
- राज्यों की विस्तारवादी नीति के परिणामस्वरूप बड़े राज्यों का अभ्युदय हुआ, जिससे आवागमन अधिक सुरक्षित ही नहीं हुआ बल्कि जनजीवन में भी स्थायित्व आया। दूसरी ओर नगरीय संस्कृति के आविर्भाव और कला शिल्पों के विकास आदि तथ्यों ने व्यापारिक विकास में सहयोग प्रदान किया। सिक्कों के प्रचलन ने इस प्रक्रिया में बहुत योगदान किया। इसने अधिक गतिशीलता तथा व्यवसायों एवं व्यापार को विकास प्रदान किया तथा एक बड़े क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाया। परिणामस्वरूप शहरी अर्थव्यवस्था का विकास हुआ। राज्य भी व्यापारिक गतिविधियों में अपेक्षित सहयोग प्रदान करते थे क्योंकि व्यापारिक वस्तुओं पर लगाये गये कर राजकोष को बढ़ाने के महत्त्वपूर्ण साधन थे। व्यापारियों से उनकी वस्तुओं का निरीक्षण कर राज्य कर्मचारी चुंगी या कर वसूल करते थे। व्यापार में अभिवृद्धि से श्रेष्ठियों एवं गृहपतियों के पास प्रभूत धन एकत्र हो गया था। गृहपति मेदक के बारे में बौद्ध साहित्य में विवरण आया है कि वह सेना को वेतन देता था और महात्मा बुद्ध एवं बौद्ध संघ की सेवा के लिए उसने 1,250 गायों का झुण्ड भेंट किया।
प्राचीन काल में व्यापारिक मर्ग़ / वणिक पथ-
- इस समय के प्रचलित व्यापारिक मार्गों की अधिक जानकारी नहीं मिलती तथापि अनेक विद्वानों द्वारा सुझाये गये संभावित यात्रा मार्गों का उल्लेख करना युक्तिसंगत होगा। आन्तरिक व्यापारिक मार्गों में एक मार्ग राजगृह (आधुनिक बिहार) से प्रारंभ होकर पाटलिपुत्र, वैशाली, कुशीनगर श्रावस्ती (आधुनिक उत्तर प्रदेश) होते हुए उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त के गंधार प्रदेश स्थित तक्षशिला (उत्तरपूर्वी पाकिस्तान) तक पहुंचता था। यह मार्ग व्यापारिक व्यवस्था के उद्भव को स्पष्ट करता है जो प्राचीन उत्तरपथ के उस हिस्से में फैला हुआ था जो हिमालय की तलहटी और बाद में तक्षशिला को राजगृह से जोड़ता था। इस मार्ग में राजगृह से कुसिनारा के मध्य बारह पड़ाव (ग्रामनगर) थे। इस मार्ग का उल्लेख श्रावस्ती के अनाथपिण्डक के काफिले के संबंध में मिलता है। इस मार्ग में एक बार पटना में गंगा नदी को पार करना होता था।
- दूसरा मार्ग श्रावस्ती, अयोध्या, कौशाम्बी, विदिशा, उज्जयिनी एवं प्रतिष्ठान (पैठण) आदि नगरों को संयुक्त करता था। इसमें छः पड़ाव थे। एक अन्य मार्ग श्रावस्ती से प्रारंभ होकर कपिलवस्तु, कुशीनगर, पावा, वैशाली पाटलिपुत्र होते हुए राजगृह जाता था। यह मार्ग बौद्ध अनुयायियों एवं भिक्षुओं की यात्रा के लिए भी उपयोगी था। सुत्तनिपात में यह भी विवरण मिलता है कि दक्षिण एवं पश्चिम के मार्ग आकर कौशाम्बी में मिलते थे तथा यात्रियों के कोशल और मगध जाने के लिए मार्ग भी यहीं से प्रारंभ होते थे।
- पश्चिमी भारत के राजपूताना से मरूस्थल होता हुआ एक मार्ग सौवीर प्रदेश तक जाता था। अन्य मार्गों में वाराणसी से सुवर्ण भूमि जाने वाले मार्ग का उल्लेख किया जा सकता है। सुवर्ण भूमि के अन्तर्गत बर्मा, मलाया, स्याम, कम्बोडिया आदि को सम्मिलित किया जाता है। विवरण मिलता है कि पूर्व में ताम्लुक और पश्चिम में भड़ौच से समुद्री यात्राओं से विदेशों में श्रीलंका (ताम्रपणि) और बर्मा तक जाते थे। 'बलाहस्स जातक' से ज्ञात होता है कि ताम्रपणि की समुद्री यात्रा में लोगों को अपने प्राण खोने पड़े क्योंकि मार्ग में दो क्षिणियों का निवास था जो भ्रमित व्यक्तियों को समाप्त कर देती थीं। सुस्सोदिजातक में विवरण मिलता है कि पूर्वी प्रदेश के दक्षिण चम्पा बन्दरगाह होते हुए सुवर्णभूमि की ओर जाते थे। सुधारक जातक एव बावेरूजातक बैबिलोन (बावेरू) तथा मिस्त्र आदि पश्चिमी देशों की व्यापारिक यात्राओं का वर्णन करते हैं। पश्चिमी भारत में भरुकच्छ नामक बन्दरगाह का उल्लेख जातकों में मिलता है जिसका तादात्म्य काठियावाड़ के भड़ौंच नामक नगर से किया जा सकता है। अपरान्त प्रदेश में स्थित 'सुधारक' नाम के बन्दरगाह का विवेचन धम्मपद टीका, दीपवंश तथा महावंश में आया है। इसका समीकरण डॉ. बी.सी. ला ने बोम्बे के थाना जिले के सुपारा (सोपारा) से किया है, जहाँ से अशोक का शिलालेख भी मिला है। सुष्मारक जातक में यह नाम किसी बन्दरगाह वाले नगर के नाविकों के स्वामी के लिए प्रयुक्त हुआ है।
- व्यापारिक मार्ग सदैव सुरक्षित नहीं होते थे, सतिगम्ब जातक में एक चोरों के ग्राम का उल्लेख है जिसमें 500 चोर रहते थे। ये मार्ग में व्यापारियों को लूट लेते थे अतः वणिक अपनी रक्षार्थ सशस्त्र रक्षकदल एवं अनुचरों के साथ चलते थे। व्यापारिक सामग्री बैलगाड़ियों द्वारा ढोयी जाती थी।
- व्यापार हेतु अनेक व्यापारी अपनी-अपनी गाड़ियों के साथ चलते थे, जिसे 'सार्थ' कहा जाता था एवं दल के नेता को 'सार्थवाह' का नाम दिया गया है। इस तरह के व्यापारिक दल (सार्थ) को निश्चित स्थानों पर चुंगी देना होता था। उस समय सड़कों एवं पुलों का अभाव था। अतः बैलगाड़ियां धीरे-धीरे अग्रसर होती थीं. उन्हें नदियां भी पार करनी पड़ती थीं। व्यापारी नदी मार्गों का भी उपयोग करते थे। निर्यात योग्य वस्तुओं में रेशम, मलमल, बहुमूल्यवस्त्र, अस्त्र-शस्त्र चाकू, कालीनें, सुगन्धित द्रव्य, औषधि, हाथीदाँत, हाथी दांत का सामान एवं सोने-चांदी के आभूषण प्रमुख थे। इन वस्तुओं के व्यापार से अनेक व्यापारियों के समृद्ध होने के उल्लेख तत्कालीन साहित्य में आये हैं।
प्राचीन काल में माप एवं तौल
- बौद्ध साहित्य में तौल एवं माप संबंधी अनेक शब्द मिलते हैं। पाणिनी ने तराजू (तुला), माप (एक सिक्के के समान), निष्पाद (स्वर्ण तौलने का छोटा बाट), शारण (बीसरत्ती), बिस्त, शतमान, आढक आदि का उल्लेख किया है। पाणिनी के काल तक कार्षापण निष्क, पण पाद, माषा आदि मुद्राओं का प्रचलन था।
- आमिघम्मप्पदीपिका में अनेक मानों का उल्लेख आया है कुंडव प्रस्थ 4 प्रस्थ 1 आढक, 4 आढक 1 द्रोण, 4 द्रोण 1 माणी तथा 4 माणी-1 खारी योजन दूरी या लम्बाई का द्योतक शब्द था।
- रीजडेविड्स के अनुसार पाँचवीं शताब्दी के पाली ग्रंथों में आये विवरणों के अनुसार यह सात-आठ मील को इंगित करता था। बैंक के समान किसी संस्था का अस्तित्व इस काल में नहीं पाया जाता। लोग अपना धन भूमि में गाड़ कर सुरक्षित रखते थे। इस प्रकार बौद्ध काल में भारत में न केवल लोग आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे बल्कि इस काल में व्यापार, उद्योग एवं शिल्प में भी महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। इस काल में विकसित उद्योग एवं व्यापार के फलस्वरूप भारत आगे जाकर पाश्चात्य देशों को विविध सामग्री का निर्यातक बन गया।
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