वैष्णव ( भागवत ) धर्म उत्पत्ति तथा विकास | चतुर्व्यूह से क्या मतलब है | Vaishnav Dharm Ki Utpatii Aur Vikas
वैष्णव ( भागवत ) धर्म उत्पत्ति तथा विकास चतुर्व्यूह से क्या मतलब है
वैष्णव ( भागवत ) धर्म उत्पत्ति तथा विकास
- वैष्णव धर्म का विकास भागवत धर्म से हुआ। परम्परा के अनुसार इसके प्रवर्तक वृष्णि (सात्वत) वंशी कृष्ण थे जिन्हें वासुदेव का पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण कहा जाता है। वे मूलतः मथुरा के निवासी थे। छान्दोग्य उपनिषद् में उन्हें देवकी पुत्र कहा गया है तथा घोर अंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण के अनुयायी उन्हें 'भगवत्' (पूज्य) कहते थे। इस कारण उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म की संज्ञा भागवत हो गयी।
- महाभारत काल में वासुदेव कृष्ण का समीकरण विष्णु से किया गया तथा भागवत धर्म वैष्णव धर्म बन गया।
- विष्णु एक ऋग्वैदिक देवता है तथा अन्य देवताओं के समान प्रकृति के देवता हैं। वे सूर्य के क्रियाशील रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- विष्णु का सर्वाधिक महत्त्व इस कारण है कि उन्होंने तीन पगों से सम्पूर्ण पृथ्वी को नाप डाला है। उन्हें 'उरुगाय' (महान् गतिवाला) तथा 'उरुक्रम' (विस्तृप पाद प्रक्षेपों वाला) बताया गया है।
- उनकी स्तुति में कहा गया है कि जहाँ पर देवताओं की कामना करने वाले लोग हर्षित होते हैं, वही स्थान विष्णु का प्रिय है। वहीं अमृत का उत्स (श्रोत) है। बाद की संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में हम विष्णु के प्रभाव में वृद्धि पाते हैं।
- शतपथ ब्राह्मण में उन्हें यज्ञ का प्रतिरूप माना गया है। तथा बताया गया है कि देवताओं के युद्ध में वे सर्वशक्तिशाली सिद्ध हुए तथा सर्वाधिक प्रसिद्ध घोषित किये गये।
- ऐतरेय ब्राह्मण में भी विष्णु को 'सर्वोच्च देवता' बताया गया है। महाभारत में हम विष्णु को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में प्रतिष्ठित पाते हैं। वस्तुतः समस्त महाभारत ही विष्णु से व्याप्त है। इसमें विष्णु के विभिन्न अवतारों का उल्लेख मिलता जिनमें से एक अवतार कृष्ण वासुदेव हैं। इस समय से भागवत धर्म वैष्णव धर्म बन जाता है तथा विष्णु उसके अधिष्ठाता देवता हो जाते हैं।
- पतंजलि ने भी वासुदेव को विष्णु का रूप बताया है।
- विष्णु पुराण में वासुदेव को विष्णु का एक नाम बताते हुए कहा गया है कि 'विष्णु सर्वत्र हैं, उनमें सभी का वास है, अतः वे वासुदेव हैं।'
- प्राचीन भागवत धर्म ही कालान्तर में वैष्णव धर्म में परिवर्तित हो गया
- इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन भागवत धर्म ही कालान्तर में वैष्णव धर्म में परिवर्तित हो गया इसी प्रकार जब कृष्ण-विष्णु का तादात्म्य नारायण से स्थापित हुआ तब वैष्णव धर्म की एक संज्ञा 'पाञ्चरात्र धर्म' हो गयी क्योंकि नारायण के उपासक पाञ्चरात्र कहे जाते थे। जहाँ तक 'नारायण' का प्रश्न है, हम सर्वप्रथम उनका उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों में ही पाते हैं।
- शतपथ ब्राह्मण में उन्हें 'परमपुरुष' बताया गया है जिसमें सभी लोक, वेद, देवता तथा प्राण प्रतिष्ठित हैं। आगे बताया गया है कि सभी का अतिक्रमण करने के लिए उन्होंने पाञ्चरात्र यज्ञ किया तथा सर्वोच्च एवं सर्वव्यापी बन गये।
- महाभारत के शान्तिपर्व में नारायण का तादात्म्य वासुदेव विष्णु के साथ स्थापित करते हुए उन्हें सर्वव्यापी एवं सभी को उत्पन्न करने वाला बताया गया है।
- वासुदेव अथवा भागवत धर्म की प्राचीनता ईसा पूर्व पाँचवी शती तक जाती है। महर्षि पाणिनि ने भागवत धर्म तथा वासुदेव की पूजा का उल्लेख किया है। उन्होंने वासुदेव के उपासकों को 'वासुदेवक' कहा है। प्रारम्भ में मथुरा तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में यह धर्म प्रचलित था।
- यूनानी राजदूत मेगस्थनीज शूरसेन (मथुरा) के लोगों को 'हेराक्लीज' का उपासक बताता है जिससे तात्पर्य वासुदेव कृष्ण से ही है। सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखक हमें बताते हैं कि पोरस की सेना अपने समक्ष हेराक्लीज की मूर्ति रखकर युद्ध करती थी।
- भागवत धर्म में कृष्ण को सर्वोच्च देवता मानकर उनकी भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति का विधान प्रस्तुत किया गया था।
- महावीर तथा बुद्ध की ही भाँति वासुदेव कृष्ण को भी अब ऐतिहासिक व्यक्ति माना जा चुका है। वे वृष्णि कबीले के प्रमुख थे।
- ईस्वी सन् के प्रारम्भ होने से पूर्व ही उनकी देवता के रूप में पूजा प्रारम्भ हो चुकी थी। गीता में स्वयं कृष्ण ने अपने को वृष्णियों में वासुदेव कहा है (वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि ।
वैष्णव ( भागवत ) धर्म का विस्तार
- मथुरा से भागवत धर्म धीरे-धीरे भारत के अन्य भागों में फैलने लगा। लगता है पहले इसका प्रचार उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण की ओर हुआ और पूर्वी भारत में यह धर्म बहुत बाद में आया। अशोक के लेखों में धर्म का उल्लेख नहीं मिलता।
- मौर्यकाल के पश्चात् यह धर्म मध्य भारत में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। शुंगों के काल में इस धर्म का विकास हुआ तथा विदेशी भी इसे ग्रहण करने लगे। इसे लोकप्रिय बनाने में यवनों का विशेष योगदान रहा।
- पुरातात्विक प्रमाणों से भी इस धर्म के लोकप्रियता की सूचना मिलती है। भागवत धर्म से सम्बन्धित प्रथम प्रस्तर स्मारक विदिशा (बेसनगर) का गरुड़ स्तम्भ है। इसमें पता चलता है कि तक्षशिला के यवन राजदूत हेलियोडोरस ने भागवत धर्म ग्रहण किया तथा इस स्तम्भ की स्थापना करवाकर उसकी पूजा की थी। इस पर उत्कीर्ण लेख में हेलियोडोरस को 'भागवत' तथा वासुदेव को 'देवदेवस' अर्थात् देवताओं का देवता कहा गया है।
- अपोलोडोटस के सिक्कों पर सबसे पहले भागवत धर्म के चिन्ह मिलते हैं। उत्तर-पश्चिम से मध्य देश तक जहाँ जहाँ यवन गये, यह सम्प्रदाय भी फैला। ईसा पूर्व दूसरी शती तक समाज में वासुदेव को सर्वोच्च देवता मानकर उनकी उपासना की जाने लगी थी।
- गीता में कृष्ण कहते है कि 'बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में ज्ञान प्राप्त व्यक्ति 'सब कुछ वासुदेव ही हैं' इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है।' बेसनगर से ही प्राप्त एक अन्य लेख में भागवत की उपासना में मन्दिर तथा गरुड़ध्वज बनवाये जाने का वर्णन मिलता है।
- राजस्थान के घोसुंडी से प्राप्त लेख में एक अनुयायी द्वारा भागवत की पूजा के निमित्त 'शिला प्रकार' बनवाये जाने का उल्लेख मिलता है। यह लेख ईसा पूर्व प्रथम शती का है। इससे सूचित होता है कि इस समय तक राजस्थान में भागवत धर्म लोकप्रिय हो चुका था।
- इसी समय एक लेख महाराष्ट्र के नानाघाट से मिलता है जिसमें संकर्षण (बलराम) तथा वासुदेव की पूजा का उल्लेख है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि महाराष्ट्र में भी भागवत धर्म का प्रचार हो चुका था। कुषाण काल में भी यह धर्म भारत के विभिन्न भागों में प्रचलित हुआ।
- हुविष्क तथा वासुदेव जैसे शासक वैष्णव मतानुयायी थे। इसी समय में भारत में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ और यह भागवत धर्म (वैष्णव धर्म) का अभिन्न अंग बन गयी, यद्यपि इसके पूर्व इसके मूर्ति पूजा के साहित्यिक उल्लेख छिटपुट रूप में मिलते हैं।
- भागवत अथवा वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त राजाओं के शासन काल (319-550 ई॰ ) में हुआ।
- गुप्त नरेश वैष्णव मतानुयायी थे तथा उन्होंने इसे राजधर्म बनाया था। अधिकांश शासक 'परम भागवत' की उपाधि ग्रहण करते थे। विष्णु का वाहन गरुड़ गुप्तों का राजचिन्ह् था।
- प्रयाग लेख से सूचित होता है कि गुप्त शासनपत्रों के ऊपर गरुड़ की मुद्रा लगी होती थी (गरुत्मंदक शासन)। विष्णु की उपासना में अनेक मन्दिरों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया गया।
- मेहरौली लेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवायी थी] (प्रांशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णोर्ध्वजः स्थापित)। स्कन्दगुप्त कालीन भितरी (गाजीपुर) लेख में विष्णु की मूर्ति स्थापित किये जाने वर्णन है।
- जूनागढ़ लेख से भी ज्ञात होता है कि चक्रपालित ने सुदर्शन झील के विष्णु की मूर्ति स्थापित करवायी थी; तिगवां (जबलपुर, म० प्र०), देवगढ़ (झांसी), मथुरा आदि से इस काल के बने हुये मन्दिर तथा मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं।
- देवगढ़ की मूर्ति में विष्णु को शेषशय्या पर विश्राम करते हुए दिखाया गया है। गुप्तकाल में लिखे गये पुराणों में विष्णु के अवतारों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
- इस युग के कोशकार अमरसिंह ने अपने ग्रन्थ में विष्णु के 39 नाम गिनाते हुए उन्हें वासुदेव का पुत्र बताया है।
- गुप्तकाल के बाद भी वैष्णव धर्म का उत्थान होता रहा। हर्षकाल में भी यह एक प्रमुख धर्म था। हर्षचरित में पाञ्चरात्र तथा भागवत सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है। राजपूत काल में तो वैष्णव धर्म का अत्यधिक उत्कर्ष हुआ। विभिन्न लेखों में 'ओम् नमो भगवते वासुदेवाय' कहकर विष्णु के प्रति श्रद्धा प्रकट की गयी है। विभिन्न शासकों ने विष्णु के सम्मान में मन्दिर तथा मूर्तियों का निर्माण करवाया था।
- चन्देल राजाओं ने खजुराहों में विष्णु के कई मन्दिर बनवाये थे। चेदि, परमार, पाल तथा सेन राजाओं के शासन में भी विष्णु के कई मन्दिर तथा मूर्तियों का निर्माण करवाया गया था। इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं तथा उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म है। साथ ही साथ लक्ष्मी और गरुड़ की मूर्तियाँ भी निर्मित करवायी गयी थीं।
- विष्णु के दस अवतारों की कथा का व्यापक प्रचलन हुआ। तथा प्रत्येक की मूर्तियों का निर्माण हुआ। समाज में वैष्णव धर्म से सम्बन्धित अनेक व्रतों एवं अनुष्ठानों का भी प्रचलन हो गया।
दक्षिणी भारत में वैष्णव धर्म
- उत्तरी भारत के ही समान दक्षिणी भारत में भी वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ। संगम साहित्य से पता लगता है कि ईसा की प्रथम शती में यह तमिल प्रदेश का एक महत्त्वपूर्ण धर्म था। दक्षिण भारत में विष्णु के कई मन्दिर तथा मूर्तियाँ मिलती हैं।
- वेंगी के पूर्वी चालुक्य शासक वैष्णव मतानुयायी थे तथा उनका राजचिह्न गुप्तों के समान ही 'गरुड़' था। उनके लेखों में वाराह की उपासना मिलती है।
- राष्ट्रकूट काल में भी दक्षिणापथ में वैष्णव धर्म का विकास हुआ, यद्यपि राष्ट्रकूट नरेश जैनमत के पोषक थे।
- दन्तिदुर्ग ने एलौरा में दशावतार का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया था जिसमें विष्णु के दस अवतारों की कथा मूर्तियों में अंकित है।
- तमिल प्रदेश में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार आलवार सन्तों द्वारा किया गया। 'आलवार' शब्द का अर्थ 'ज्ञानी व्यक्ति' होता है।
- आलवार सन्तों की संख्या बारह बताई गयी है जिनमें तिरुमंगई, पेरिय अलवर, आण्डाल, नाम्मालवार आदि नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनका आविर्भाव सातवीं से नवीं शताब्दी के मध्य हुआ।
- प्रारम्भिक आलवर में पोयगई, पूडम तथा पेय के नाम मिलते हैं जो क्रमश: कांची, मल्लई तथा मयलापुरम् के निवासी थे। इन्होंने सीधे तथा सरल ढंग से भक्ति का उपदेश दिया। इनके विचार संकीर्णता अथवा साम्प्रदायिक तनाव से रहित थे। इनके पश्चात् तिरुमलिशई का नाम मिलता है जो संभवतः पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन् प्रथम के समय में हुआ।
- तिरुमंगई अत्यन्त प्रसिद्ध आलवर सन्त हुआ। अपनी भक्तिगीतों के माध्यम से जैन तथा बौद्ध धर्मों पर आक्रमण करते हुए उसने वैष्णव धर्म का जोरदार प्रचार किया। कहा जाता है कि श्रीरंगम् के मठ की मरम्मत के लिये उसने नेगपट्टम् के बौद्ध विहार से एक स्वर्ण मूर्ति चुरायी थी। शैवों के प्रति उसका दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार था।
- आलवरों में एकमात्र महिला साध्वी आण्डाल का नाम मिलता है जिसके भक्तिगीतों में कृष्ण कथायें अधिक मिलती हैं।
- मध्ययुगीन कवयित्री मीराबाई की कृष्ण भक्ति के समान आण्डाल भी कृष्ण की प्रेम दीवानी थी। आलवर सन्तों की अन्तिम कड़ी के रूप में नाम्मालवार तथा उसके प्रिय शिष्य मधुर कवि के नाम उल्लेखनीय हैं।
- नाम्मालवार का जन्म तिनेवेली जिले के एक वेल्लाल कुल में हुआ था। उसने बड़ी संख्या में भक्तिगीत लिखे। उसके गीतों में गम्भीर दार्शनिक चिन्तन देखने को मिलता है।
- विष्णु को अनन्त एवं सर्वव्यापी मानते हुए उसने बताया कि उसकी प्राप्ति एक मात्र भक्ति से ही संभव है।
- नाम्मालवार के शिष्य मधुर कवि ने अपने गीतों के माध्यम से गुरु महिमा का बखान किया। आलवर सन्तों ने ईश्वर के प्रति अपनी उत्कट भक्ति-भावना के कारण अपने को पूर्णरूपेण उसमें समर्पित कर दिया। उनकी मान्यता थी कि समस्त संसार ईश्वर का शरीर है तथा वास्तविक आनन्द उसकी सेवा करने में ही है।
- आलवर की तुलना उस विरहिणी युवती के साथ की गयी है जो अपने प्रियतम के विरह वेदना में अपने प्राण खो देती है। इस प्रकार आलवर सच्चे विष्णुभक्त थे। इन्होंने भजन-कीर्तन, नामोच्चारण, मूर्ति-दर्शन आदि के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया। इनके उपदेशों में दार्शनिक जटिलता नहीं थी। उन्होंने एकमात्र विष्णु को ही आराध्य देव बताया जो प्राणियों के कल्याण के निमित्त समय-समय पर अवतार लेते हैं। उनका कहना था कि मोक्ष के लिये ज्ञान नहीं अपितु विष्णु की भक्ति आवश्यक है।
- वेदों को न जानने वाला व्यक्ति भी यदि विष्णु के नाम का कीर्तन करे तो वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आलवर सन्तों तथा आचार्यों के प्रभाव में आकर कई पल्लव राजाओं ने वैष्णव धर्म को ग्रहण कर उसे राजधर्म बनाया तथा विष्णु के सम्मान में मन्दिरों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया।
- सिंहविष्णु ने मामल्लपुरम् में आदिवाराह मन्दिर का निर्माण करवाया था। नरसिंहवर्मा द्वितीय के समय में काञ्ची में बैकुंठ पेरूमाल मन्दिर का निर्माण करवाया गया था।
- दन्तिवर्मा भी विष्णु का महान् उपासक था। लेखों में उसे विष्णु का अवतार बताया गया है। बादामी के चालुक्य नरेश भी वैष्णव मत के पोषक थे तथा कुछ ने 'परमभागवत' की उपाधि ग्रहण की थी। ऐहोल में विष्णु कई मन्दिर का निर्माण किया गया था।
- चोल राजाओं के समय में शैव धर्म के साथ-साथ वैष्णव धर्म की भी प्रगति हुई। इस काल में वैष्णव धर्म के प्रचार का कार्य आलवारों के स्थान पर आचार्यों ने किया। उन्होंने आलवारों की वैयक्तिक भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया तथा भक्ति का समन्वय कर्म और ज्ञान के साथ स्थापित करने का प्रयास किया।
- आचार्य तमिल तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे। अतः उन्होंने दोनों ही भाषाओं में वैष्णव सिद्धान्तों का प्रचार किया। आचार्य परम्परा में सबसे पहला नाम नाथमुनि का लिया जाता है। उन्हें अन्तिम आलवर मधुरकवि का शिष्य बताया जाता है। उन्होंने आलवरों के भक्तिगीतों को व्यवस्थित किया। 'न्यायतत्व' की रचना का श्रेय उन्हें दिया जाता है।
- इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रेममार्ग के दार्शनिक औचित्य का प्रतिपादन किया। परम्परा के अनुसार नाथमुनि श्रीरंगम् मन्दिर की मूर्ति में प्रवेश कर ईश्वर में समाहित हो गये थे। दूसरे महान् आचार्य आलवंदार हुए जिनका एक अन्य नाम यामुनाचार्य भी मिलता है। आगमों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उन्होंने उन्हें वेदों के समकक्ष बताया। अपने गीतों के माध्यम से प्रपत्ति के सिद्धान्त को उन्होंने अत्यन्त सुन्दर ढंग से अपने शिष्यों के समक्ष प्रस्तुत किया।
- आचार्य परम्परा में रामानुज का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। उनका समय 1016-1137 ई० सामान्यतः माना जाता हैं। उसका जन्म काञ्ची के पास श्रीपेरुम्बुदूर नामक स्थान में हुआ था। काञ्ची में यादवप्रकाश से उन्होंने वेदान्त कीशिक्षा ली थी। कुछ समय बाद उनका यादव प्रकाश से कुछ औपनिषदिक सूत्रों की व्याख्या के प्रश्न पर मतभेद हो गया तथा उन्होंने वैष्णव आचार्य यामुनाचार्य की शिष्यता ग्रहण कर ली। यामुनाचार्य की मृत्यु के बाद रामानुज उनके सम्प्रदाय के आचार्य बने। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा जिसे 'श्रीभाष्य' कहा जाता है। उनका मत 'विशिष्टाद्वैत' के नाम से प्रसिद्ध है।
वैष्णव ( भागवत ) धर्म और रामानुज
- रामानुज सगुण ईश्वर में विश्वास करते थे। श्रीरंगम् (त्रिचनापल्ली) के मठ में रहते हुए उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये महान् कार्य किये। उनके प्रयासों के फलस्वरूप यह धर्म समाज में व्यापक रूप से प्रचलित हो गया।
- संभव है इसका प्रभाव चोलों के कुल धर्म शैव पर पड़ा हो तथा इसी से क्षुब्ध होकर किसी कट्टर शैव चोल शासक ने उन्हें उत्पीड़ित किया हो। किन्तु इस चोल राजा की पहचान निश्चित नहीं है।
- सामान्यतः चोल काल शैवों तथा वैष्णवों के परस्पर सद्भाव एवं सम्मिलन का काल रहा तथा रामानुज की कथा अपवादस्वरूप थी। इस समय शिव के समान विष्णु के सम्मान में भी मन्दिर बनवाये गये तथा मठों की स्थापना की गयी। मन्दिर तथा मठ चोलयुगीन धार्मिक जीवन के केन्द्र बिन्दु थे। कई सन्त कवियों ने विष्णु की उपासना में तमिलभाषा में मन्त्रों की रचना की थी।
चतुर्व्यूह से क्या मतलब है चतुरव्यूह Caturvyūha
भागवत अथवा पाञ्चरात्र धर्म में वासुदेव विष्णु (कृष्ण) की उपासना के साथ ही साथ अन्य व्यक्तियों की भी उपासना की जाती थी। इनके नाम इस प्रकार हैं
(1) संकर्षण (बलराम) ये वसुदेव के रोहिणी से उत्पन्न पुत्र थे।
(2) प्रद्युम्न ये कृष्ण के रुक्मिणी से उत्पन्न पुत्र थे।
(3) अनिरुद्ध ये प्रद्युम्न के पुत्र थे।
उपर्युक्त चारों को 'चतुर्व्यूह' संज्ञा दी जाती है। वासुदेव के समान इनकी भी मूर्तियाँ बनाकर भागवत मतानुयायी पूजा किया करते थे।
- महाभारत के नारायणीय खण्ड में इनका विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। वायुपुराण में इन चारों के साथ साम्ब (कृष्ण के जाम्बवन्ती से उत्पन्न पुत्र) को मिलाकर इन्हें 'पञ्चवीर' कहा गया है।
- ऐसा प्रतीत होता है कि चतुर्व्यूह की कल्पना ईसा पूर्व दूसरी शती के पहले की है। इसका प्राचीनतम उल्लेख ब्रह्मसूत्रों में मिलता है।
- मथुरा के समीप मोरा से प्राप्त प्रथम शती के एक लेख से पता चलता है कि तोषा नामक महिला ने वासुदेव के साथ-साथ उक्त चार व्यक्तियों की मूर्तियों को एक मन्दिर में स्थापित करवाया था। सभी के पूर्व 'भागवत्' विशेषण का ही प्रयोग मिलता है।
- विष्णुधर्मोत्तर पुराण में पञ्चवीरों की प्रतिमायें बनाने के नियम दिये गये हैं। अर्थशास्त्र में भी संकर्षण के उपासकों का उल्लेख मिलता है। लगता है कि कृष्ण के समान अन्य चारों ने भी नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया तथा धर्माचार्य के रूप के प्रतिष्ठित हुए। बाद में उनमें देवत्व का आरोपण कर दिया गया।
- वासुदेव कृष्ण को परमतत्व मानकर अन्य चारों को उन्हीं का अंश स्वीकार किया गया।
- संकर्षण, अनिरुद्ध तथा प्रद्युम्न को क्रमशः जीव, अहंकार तथा मन (बुद्धि) का प्रतिरूप माना गया है।
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