विकासशील और विकसित देशों की विशेषताऐं
C विकासशील और विकसित देशों की प्रशासनिक विशेषताऐं
1. कार्य विशेषज्ञता की मात्रा
- विकासशील देशों में प्रशासनिक व्यवस्था में कार्य विशेषज्ञता की कम मात्रा एक महत्वपूर्ण विशेषता है। लेकिन दूसरी ओर संसार के सभी विकसित देशों ने अपने प्रशासकीय ढाँचे को नौकरशाही का अध्ययन करते समय मैक्स वेबर द्वारा दिये गये विचार के अनुसार कार्य विशेषज्ञता के सिद्धान्त पर व्यवस्थित किया है। इसी प्रकार पर फ्रैड रिग्ज ने विकसित देशों में प्रशासनिक व्यवस्था के अन्दर विभेदीकरण अथवा अधिक मात्रा में श्रम विभाजन पर बल दिया है। उसके अनुसार विकसित समाज उस बहुरंगीय प्रकाश की तरह है, जो प्रिज्म में से विश्लेषित होकर आ रहा है। सफेद प्रकाश अथवा मिश्रित प्रकाश की प्राचीन समाज से तुलना की जा सकती है। इसके मध्य में प्रिज्मीय समाज है। वह विकासशील अथवा प्रिज्मीय समाज की तुलना उस स्थिति से करता है, जिसमें प्रकाश प्रिज्म के अन्दर बहुरंगीय प्रकाश में बदलता है। इस मॉडल के अनुसार विकसित समाज में कार्य के विभेदीकरण पर बल दिया जाता है। उदाहरणस्वरूप औरंगजेब जैसा राजा अपनी सरकार में कार्यपालक, विधायक तथा न्यायपालक भी था, क्योंकि वह कानून का निर्माता भी था, उन्हें लागू भी करता था और यह निश्चित करता था कि क्या इसे ठीक तरह से लागू भी किया गया है अथवा नहीं। लेकिन आधुनिक सरकार में उक्त कार्यों को करने वाले अलग-अलग अंग हैं। यह उदाहरण उस व्यवस्था को प्रकट करता है जिसे रिग्स ने विश्लेषण द्वारा प्रकट किया है।
- यहाँ यह बताना रोचक है कि प्रारम्भिक ब्रिटिश प्रशासन काल में भारतीय प्रशासनिक सेवाएँ- वैधानिक, कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य तथा औचित्य का निपटारा करने का काम करती थीं। वास्तव में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के सदस्यों को भारतीय कौंसिल के अधीन कौंसिलों द्वारा नामांकित किया जाता था। इस प्रकार वे वैधानिक कार्यों में भाग लेते थे। इसी के साथ-साथ प्रशासकीय अधिकारी थे और कार्यपालिका के सदस्य होते थे। वे ही न्यापालिका का कार्य भी करते थे। अब, वास्तव में भारत में विधि-निर्माता, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका शक्तियाँ एक-दूसरे से अलग-अलग हैं। लेकिन कुछ राज्यों में जिला स्तर पर कार्यपालिका तथा जुर्म सम्बन्धी न्याय देने का काम एक ही अधिकारी द्वारा किया जाता है। इस प्रक्रिया के अनुसार हम राजनैतिक व्यवस्था में विभेदीकरण की स्थिति को देखते हैं। उदाहरणस्वरूप विकासशील देशों में जिला मजिस्ट्रेट के स्तर पर विभेदीकरण का अभाव हमें अंग्रेजों से विरासत में मिला है। जिला मजिस्ट्रेट का कानून और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, राजस्व इकट्ठा करने के लिए योजना बनाने और विकास के लिए विभागों में तालमेल बनाये रखने तथा उन्हें नियन्त्रण में रखने के लिए उत्तर दायी है। इस प्रकार जिला मजिस्ट्रेट का कार्यालय अविभेदित संरचना का उदाहरण है।
2. प्रशासकीय कार्यों का विकास और विस्तार
- विकासशील देशों में प्रशासकीय कार्यों का भार कम होता है, क्योंकि ऐसे देशों में औद्योगीकरण तीव्र गति से नहीं होता। अधिकांश जनसंख्या ग्रामों में रहती है। बेशक विकासशील देशों में नगरीकरण हो रहा है, लेकिन यह नगण्य है। इसकी तुलना में विकसित देशों और प्रशासकीय क्षेत्र में बहुत अधिक विकास और विस्तार हो गया है। इसका कारण पर्याप्त सीमा तक औद्योगीकरण, नगरीकरण, लगभग प्रत्येक उन्नति के क्षेत्र में वैधानिक खोज तथा प्रत्येक क्षेत्र में नये उपकरणों की सहायता से कार्य सम्पादन करना इसके साधन हैं। इन देशों में प्रजा पर प्रशासन करने के बहुत आसान तरीके विकसित किये गये हैं। हर सम्भव प्रयत्न किया जा रहा है कि जटिलताओं और प्रशासकीय प्रक्रिया में इसको कम किया जाये, परन्तु विकाशील देशों में ऐसी अवस्था का विकास नहीं हुआ।
3. लोक प्रशासन का प्रतिमान
- विकासशील देशों में लोक प्रशासन का प्रतिमान अधिकतर पश्चिम की नकल है। अक्सर ये देश अपने पूर्व प्रशासकों की प्रशासन पद्धति को अपनाते हैं। इन देशों में प्रशासन पद्धति देशी उपज नहीं होती, बल्कि यह अधिकतर विकसित देशों से ली जाती है। विकसित देशों में कुछ समय पश्चात अपने लिये ऐसे प्रशासकीय ढाँचे बना लिये हैं जो केवल उन्हीं देशों के अनुकूल हैं। परन्तु दुर्भाग्य से विकासशील देशों ने इन ढाँचों को बिना किसी प्रकार के सोच विचार के अपनी प्रशासन पद्धति के रूप में अपना लिया है। पश्चिम से अथवा अपने पूर्व प्रशासकों से लिये गये प्रशासकीय ढाँचों के बड़े हानिकर परिणाम निकले हैं।
4. नौकरशाही का स्तर
- विकासशील देशों की नौकरशाही में कुशल जन-शक्ति की कमी होती है। यदि विकासशील देश अपने विकास कार्यक्रमों में तेजी लाना चाहते हैं, तो उन्हें कुशल जन शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी। वास्तव में समस्या नियुक्ति और योग्य जन-शक्ति की नहीं है, क्योंकि अधिक बेरोजगारी अथवा कम रोजगारी की स्थिति रहती है। निम्न स्तर के लोगों की उदाहरणस्वरूप सहायकों, टाइपिस्टों, चपरासियों की भर्ती विश्व स्तर पर ही आवश्यकता से अधिक है, कमी तो प्रशिक्षित प्रशासकों की है।
- भारत में भी शिक्षित नवयुवकों में भी अत्यधिक बेरोजगारी होने के बावजूद प्रशिक्षित प्रबन्धों की कमी है। आजकल प्रबन्धकीय कौशल का विकास किया गया है और हमें वित्तीय प्रबन्ध, कर्मचारी प्रबन्ध सामान-सूची प्रबन्ध इत्यादि के लिए विशेषज्ञों की आवश्यकता है। लेकिन विकसित देशों में इस प्रकार की अवस्था नहीं होती। इन देशों में प्रशासनिक व्यवस्था से नीति निर्माण की प्रक्रिया, इसके सदस्यों तथा अन्य भागीदारों द्वारा व्यावसायिक कार्य समझा जाता है। इन देशों में नौकरशाही लोगों में व्यवसायीकरण को विशेषीकरण का ही चिन्ह माना जाता है।
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