चन्देलकालीन सैनिक स्थापत्य कला | Chandela Military Architecture
चन्देलकालीन सैनिक स्थापत्य कला
चन्देलकालीन सैनिक स्थापत्य कला
- जिस युग में चन्देल सत्ता का उत्थान तथा पतन हुआ, वह मध्यकालीन शौर्य तथा पराक्रम का युग था। उस युग में देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य थे, जिनमें एक-दूसरे से बढ़ जाने की प्रतिद्वन्द्विता थी। उन दिनों विशाल एवं एकान्त दुर्गों का बड़ा महत्व था। उनमें किसी राज्य के बनाने तथा बिगाड़ने की सामर्थ्य थी।
- गुप्त तथा वर्द्धन नरेशों के बाद उत्तरी भारत में चन्देल अग्रणी बने, क्योंकि उनके पास कालिं सदृश अजेय दुर्ग थे, जिसकी ख्याति दूर-दूर फैली हुई थी। इसके अतिरिक्त चन्देलों के पास अन्य अनेक दुर्ग थे क्योंकि उनके राज्य की भौगोलिक स्थिति दुर्ग-निर्माण में सहायक थी।
- जनश्रुति के आधार पर चन्देलों के पास आठ प्रसिद्ध दुर्ग थे, किन्तु इनके अतिरिक्त और भी दुर्ग बुन्देलखण्ड में पाये जाते हैं। उनमें से कुछ सुरक्षित हैं, पर अधिकांश के भग्नावशेष मात्र हैं और जंगलों से भरे पड़े हैं, जिनमें पशु निवास करते हैं। कुछ प्रसिद्ध दुर्गों का विवरण नीचे दिया जाता है।
चन्देलों के मुख्य दुर्ग (चंदेल कालीन प्रमुख दुर्ग)
वारीगढ़, कालिंजर, अजयगढ़, मनियागढ़, मुड़फा, कालपी तथा गढ़ा में थे। उनके अतिरिक्त देवगढ़, महोबा, रावतपुर तथा जैतपुर के भी दुर्ग उल्लेखनीय हैं।
कलिं दुर्ग (कालिंजर-दुर्ग)
- समस्त चन्देल दुर्गों में कालिंजर-दुर्ग का विशिष्ट स्थान है। मध्य युगीन-भारत में यह अद्वितीय माना जाता है। यह इलाहाबाद से 90 मील दक्षिण-पश्चिम एक पहाड़ी की चौरस चोटी पर है।
- यह दुर्ग आयताकार है और इसकी लम्बाई एक मील तथा चौड़ाई आधा मील है। किले के दो मुख्यद्वार हैं, उनमें से प्रधान द्वार नगर की ओर उत्तराभिमुख है।
दूसरा द्वार दक्षिण-पूर्व के कोने में पन्ना की ओर है इनके अतिरिक्त इसमें सात द्वार और हैं:--
कालिंजर-दुर्ग के द्वारा के नाम
- आदम अथवा आलमगीर अथवा सूर्यद्वार
- गणेश द्वार
- चाँदी अथवा चाँद बुर्ज द्वार अथवा स्वर्गारोहण द्वार
- बुधभद्र द्वार
- हनुमान द्वार
- लाल दरवाजा
- बड़ा दरवाजा
- मूलतः इस दुर्ग में छह द्वार थे। बाद में आलगीर औरंगजेब के राजत्वकाल में "आलम-गीर दरवाजा' और जोड़ दिया गया था। इस दरवाजे में तीन पंक्तियों में फारसी का एक पद्यात्मक लेख है, जिसमें यह अंकित है कि इस द्वार का निर्माण राजकुमार मुराद ने सन् 1084 हि. अथवा 1673 में किया था।
- सबसे निचले अथवा आलमगीर द्वार तक पहुंचने के 200 फीट की चढ़ाई पार करनी पड़ती है। इसके बाद एक दुर्गम चढ़ाई है। उसको पार करने के उपरान्त द्वितीय द्वार अथवा गणेश द्वार मिलता है।
- कुछ और ऊपर चढ़ने पर सड़क के मोड़ पर चाँदी दरवाजा अथवा स्वर्गारोहण द्वार है। फिर ऊपर चढ़ने पर बुधभद्र द्वार तथा हनुमान द्वार मिलते हैं।
- हनुमान दरवाजे में एक पत्थर पर हनुमान की पत्थर में कटी हुई मूत्ति एक अन्य चट्टान के सहारे रक्खी हुई है। वहाँ हनुमान कुंड नामक एक तालाब भी है। छठा दरवाजा पुनः कुछ और ऊपर चढ़ने पर मिलता है। यह लाल पत्थर से निर्मित होने के कारण लाल दरवाजा कहलाता है।
- कुछ थोड़ी और चढ़ाई पार करने पर सातवाँ तथा अन्तिम दरवाजा मिलता है। यह बड़ा
- इस दुर्ग में पानी का उत्तम प्रबन्ध है। दुर्ग के अन्दर अनेक जलकुण्ड हैं। यथा: पाताल गंगा, पाण्डु-कुण्ड, बुढिया ताल, मृगधारा, कोटतीर्थ आदि। कालिं हिन्दुओं का तीर्थ स्थान भी है। वेदों में इसका निर्देश तपस्या-स्थान के रुप में हुआ है।
- महाभारत में यह उल्लेख है कि जो व्यक्ति कालिं में स्नान करता है उसे सहस्त्र गोदान का फल मिलता है। पद्मपुरान में यह वर्णन है कि कालिंजर उत्तर भारत के नौ तीर्थों में से एक है और अब भी वहां अनेक यात्री जाते हैं।
अजयगढ़ दुर्ग की जानकारी
- यह कालिंजर से 20 मील दक्षिण-पश्चिम एक पहाड़ी की चोटी पर बना हुआ है। यह उत्तर से दक्षिण एक मील लम्बा और लगभग इतना ही पश्चिम से पूर्व को चौड़ा है। यह त्रिभुजाकार है और इसका घेरा लगभग 3 मील है।
- कहा जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण किसी राजा अजयपाल ने करवाया था, किन्तु इस तथ्य के पुष्टीकरण का कोई प्रमाण नहीं है। शिलालेखों में इसका उल्लेख जयपुर दुर्ग के नाम से मिलता है।
अजयगढ़ दुर्ग के द्वार
- इस दुर्ग में केवल दो द्वार हैं। प्रथम द्वार तरोहनी द्वार कहलाता है, क्योंकि वहां से पहाड़ी के नीचे स्थित तरोहनी ग्राम को मार्ग जाता है।
- दूसरा द्वार केवल दरवाजा कहलाता है। संभवतः यह शिलालेखों में उल्लिखित कालिं दरवाजा हो, क्योंकि वहां से कालिं दुर्ग को रास्ता जाता है। इस दुर्ग में भी पानी का उत्तम प्रबन्ध है।
मड़फा दुर्ग की जानकारी
- यह विशाल दुर्ग एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है और कालिंजर से उत्तर-पूर्व 12 मील की दूरी पर है। इस किले का उल्लेख किसी भी मुस्लिम इतिहासकार ने नहीं किया। इस तथ्य के आधार पर कनिंघम का अनुमान है कि कलिं के पतन के पश्चात् ही इसकी ख्याति हुई। अब यह दुर्ग निर्जन है और वहां जंगल है।
मनियागढ़
- केन नदी के पश्चिमी तट पर 600 फीट से 700 फीट की ऊंची एक छोटी पहाड़ी के ऊपर यह दुर्ग बना हुआ है। यह एक प्राचीन दुर्ग है और वहीं चन्देलों की कुलदेवी मनिया देवी का मंदिर है। अब वह भग्नावशेष मात्र है और जंगलों से भरा पड़ा है।
कालपी दुर्ग
- इस दुर्ग की स्थिति बड़ी महत्वपूर्ण थी। इतिहासकार फरिश्ता का अनुमान है कि कन्नौज के राजा वासुदेव ने इसका निर्माण करवाया था, किन्तु स्थानीय जनश्रूतियों में यह प्रचलित है कि इसका निर्माण किसी प्राचीन राजा कालिदेव ने करवाया था।
- यह बाहर से 125फीट और इसकी ऊंचाई 80 फीट है। यह सम्पूर्ण दुर्ग शतरंज की गोट की भांति है और इसकी छत चौरस है। इसके मध्य के चार स्तम्भ भी नहीं हैं और इस प्रकार जो जगह बची है वह विशाल गुम्बज से ढ़की हुई है।
- यह गुम्बज मुख्य इमारत की छत से लगभग 62 फीट ऊंचा है। इसके चारों कोनों पर चार छोटे-छोटे बुर्ज हैं। मध्य का बुर्ज छत से लगभग 40 फीट ऊंचा है।
महोबा दुर्ग
- चन्देल राजधानी महोबे का प्राचीन दुर्ग मदनसागर से उत्तर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। इसकी लम्बाई 1625 फीट तथा चौड़ाई लगभग 600 फीट है। इसके दो मुख्य द्वारों में भैंसा दरवाजा पश्चिम की ओर है और दरीवा-दरवाजा पूर्व की ओर है। इसकी दीवार कटे हुए चौकोर पत्थरों से बनी है।
हाटा दुर्ग
- इसकी निर्माण शैली अन्य दुर्गों की ही भाँति है, किन्तु इसके शिखर बहत हैं, जो ऊपर की ओर नुकीले होते चले गए हैं। शिखर तथा दीवारें (युद्धक चहारदीवारी) से ढकी हुई हैं और गारे तथा बटियों के पत्थर से बनी है। इस दुर्ग के अन्दर एक राज-प्रसाद का भग्नावशेष भी है।
गढ़ा दुर्ग
- बहुत दिन पूर्व यह दुर्ग गिरा दिया गया था और इसकी सामग्री रेलवे कम्पनी ने इस्तेमाल कर ली है। इन दुर्गों के अतिरिक्त रावतपुर, जैतपुर, राजगढ़, कुंडलपुर तथा अन्य स्थानों पर भी चन्देल दुर्गों के चिह्म पाये जाते हैं, जो चन्देलों की सैनिक प्रवृत्ति के प्रतीक हैं।
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