लोक प्रशासन के सिद्धांत का व्यवहारवादी उपागम: हर्बर्ट साइमन | Herbert Siman Decision Theory
लोक प्रशासन के सिद्धांत का व्यवहारवादी उपागम
6. व्यवहारवादी उपागम: हर्बर्ट साइमन
- हर्बर्ट साइमन ने संरचनात्मक उपागम पर कड़ा प्रहार किया तथा निर्णय प्रक्रिया में मूल्य प्रक्रियाओं के संदर्भ में मानव व्यवहार का विश्लेषण किया।
- साइमन के लिए प्रशासन "कार्य कराने" की कला है। उन्होंने उन प्रक्रियाओं तथा विधियों पर बल दिया जिनसे कार्यवाही सुनिश्चित हो। वह कहते हैं कि प्रशासनिक विश्लेषण में उस चयन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है जो कार्यवाही से पहले किया जाता है। 'वस्तुतः कार्यवाही की अपेक्षा 'क्या करना है' के प्रश्न निर्धारण पर उचित ध्यान नहीं मिला निर्णय लेना चयन की वह प्रक्रिया है जिस पर कार्यवाही आधारित होती है। साइमन इस ओर ध्यान दिलाया है कि ने इस आयाम को भली प्रकार समझने के अभाव में, प्रशासन का अध्ययन अधिकांश रूप में अपर्याप्त रहेगा। क्योंकि यही संगठन में व्यक्ति के व्यवहार को सुस्थिर करता है।
हर्बर्ट साइमन निर्णय
- व्यवहारवादी उपागम में, कार्यवाही से पूर्व की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया जाता है। इसे निर्णय लेने की प्रक्रिया के नाम जाना जाता है। निर्णय लेने की आवश्यकता उस समय उत्पन्न होती है जब व्यक्ति के पास किसी कार्य को करने के लिए बहुत विकल्प होते हैं। से परन्तु व्यक्ति को छंटनी की प्रक्रिया के माध्यम से केवल एक ही विकल्प चुनना होता है। अतः निर्णय निर्माण अनेक विकल्पों को लेकर एक विकल्प पर लाने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है। मानव की बुद्धिमता इसमें है कि वह ऐसे विकल्प का चुना करे जिससे अधिकतम सकारात्मक तथा न्यूनतम नकारात्मक परिणाम निकले।
- साइमन के अनुसार किसी भी संगठन में कार्योत्पाद स्तर से ऊपर (अर्थात् प्रबन्धक) के लोग महत्वपूर्ण समझे जाते हैं क्योंकि उन्हें निर्णय लेने के अधिक महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करने पड़ते हैं। उन्हें संगठनात्मक लक्ष्यों या उद्देश्यों को प्राप्त करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, सिपाही युद्ध के मैदान में लड़ते हैं और अपने स्तर पर कुछ निर्णय भी लेते हैं परन्तु जनरल द्वारा बनायी गयी व्यापक रणनीति ही युद्ध का परिणाम निर्धारित करती है।
- संगठन में कर्मचारी स्तर से ऊपर के प्रबन्धक अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। वे निर्णय तथा योजना बनाते हैं एवं कर्मचारी वर्ग का निर्देशन करते हैं। छोटे संगठनों में, पर्यवेक्षक वर्ग का प्रभाव सीधा होता है जबकि बड़े तथा जटिल संगठनों में प्रभाव अप्रत्यक्ष होता है। इसलिए साइमन कहते हैं कि एक प्रभावी संगठन में कर्मचारी वर्ग की स्थापना होती है तथा उसके ऊपर प्रशासक वर्ग (प्रबन्धक) स्थापित होता है जो कर्मचारी वर्ग को समन्वित कर सके। उनका यह भी कहना है कि संगठनों का कार्य उस विचार शैली पर निर्भर करता है जिसके द्वारा कर्मचारियों के निर्णय तथा व्यवहार प्रभावित होत हैं। इन्हीं कारणों से व्यवहारवादी उपागम इस बात पर बल देता है कि किसी संगठन की संरचना एवं कार्य का व्यावहारिक ज्ञान सर्वोत्तम तरीके से प्राप्त किया जा सकता है, यदि संगठन की गहरी जानकारी और उसके द्वारा इन कर्मचारियों के निर्णय तथा व्यवहार को प्रभावित करने के ढंग का विश्लेषण कर लिया जाए।
निर्णय लेने की प्रक्रिया में तीन चरण गतिविधियों के रूप में सम्मिलित होते हैं। वे हैं-
- बौद्धिक क्रिया, संरचना क्रिया तथा चयन क्रिया। बौद्धिक क्रिया में निर्णय लेने के अवसर ढूंढ़ना शामिल है।
- दूसरा चरण संरचना क्रिया है जिसमें कार्य विशेष को करने के विभिन्न विकल्नों का विकास सम्मिलित है। कार्यकारी को प्रत्येक विकल्प के गुण-दोष एवं उनमें निहित समस्याओं की पहचान करनी पड़ती है।
- अन्तिम चरण चयन क्रिया है। इसमें निर्णयकर्ता को संगठन के ध्येयों को ध्यान में रखकर विभिन्न विकल्पों में से एक विकल्प का चयन करना होता है।
- साइमन के अनुसार सही विकल्प का चयन व्यक्ति के कार्य निष्पादनों से जुड़ा है। इसका सम्बन्ध मूल्यों के प्रश्न से हें मूल्य वरीयता की अभिव्यक्ति होती है इसलिए यह तथ्य पर आधारित नहीं होती है। दूसरी तरफ तथ्य सच्चाई की अभिव्यक्ति है, इसे दर्शनीय साधनों द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। विकल्प या निर्णय में तथ्य तथा मूल्य दोनों शामिल होते हैं। ये किसी निर्णय में सम्मिलित नेतिक एवं तथ्यपरक शब्दों के विश्लेषण की कसोटियों को स्पष्ट करते हैं।
- साइमन का तर्क है कि संगठन के सदस्यों का व्यवहार आंशिक रूप से संगठन के उद्देश्यों से निर्धारित होता है। उद्देश्य शीलता व्यवहार के स्वरूप में एकीकरण लाती है। उद्देश्य की अनुपस्थिति संगठन को अर्थहीन बना देती है। उद्देश्य निदेशन व सन्दर्भ को वह ढांचा प्रदान करता है जो यह निर्धारित करता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए |
- साइमन संयोजित व असंयोजित निर्णयों में स्पष्ट भेद करते हैं। पहले निर्णय वे हैं जो स्वरूप से दुहराए जाने वाले व आम होते हैं। ऐसे निर्णयों के लिए निश्चित प्रक्रिया बनायी जा सकती है। संयोजित निर्णय में आदतें, कौशल तथा समस्या के विषय में ज्ञान महत्वपूर्ण है। ऐसे निर्णय में गणितीय मापांक तथा कम्प्यूटर निर्णयकर्ता को तार्किक निर्णयों को लेने में मदद कर सकते हैं। इसके विरूद्ध असंयोजित निर्णय नए तथा अनबद्ध होते हैं। कोई पहले से तैयार पद्धतियां उपलब्ध नहीं होती तथा प्रत्येक प्रश्न या मसले पर अलग से विचार करना होता है। उचित संगत निर्णय लेने की क्षमता का विकास करने के लिए कार्य संगत कौशलों में प्रशिक्षण तथा नवीन खोजों का विकास महत्वपूर्ण है।
संक्षेप में, व्यवहारवादी उपागम के अनुसार प्रशासनिक क्रिया समूह की क्रिया होती है। संगठनों में निर्णय निर्माण एक व्यक्ति या परिवार के मामले से भिन्न अधिक व्यवस्थित प्रक्रिया होती है।
इस प्रक्रिया में साइमन के अनुसार, तीन महत्वपूर्ण चरण होत हैं। वे हैं-
- निर्णय निर्माण प्रक्रिया में के तत्वों को पृथक् करना, इन तत्वों को चुनने या निर्धारित करने की प्रक्रिया तथा संगठन सदस्यों को इन तत्वों की जानकारी देना। संगठन व्यक्ति से उसकी निर्णय लेने की स्वायत्तता का एक भाग ले लेता है तथा उसके स्थान पर संगठनात्मक निर्णय निर्माण प्रक्रियाओं का अधिकार दे देता है, सत्ता का निर्धारण करता है तथा इसके चयन पर सीमाएं भी लगाता है।
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