प्रबन्ध की प्रकृति | क्या प्रबन्ध एक विज्ञान है? | Kya Prabandh Vigyan Hai
क्या प्रबन्ध एक विज्ञान है?
सर्वप्रथम हमें विज्ञान का अर्थ जान लेना आवश्यक है। विज्ञान संगठित एवं सुव्यवस्थित ज्ञान का समूह है जो तथ्यों, अवलोकनों, परीक्षणों एवं प्रयोगों पर आधारित होता है। विज्ञान सम्बन्धित घटना के कारण एवं परिणाम में सम्बन्ध बताते हुए इसकी व्याख्या करता है। विज्ञान के सार्वभौमिक नियम, निष्कर्ष, एवं मूलाधार होते हैं जो कि प्रामाणिक एवं जांचे हुए होते हैं। विज्ञान, समस्या के अध्ययन हेतु वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करता है। वैज्ञानिक ज्ञान समूह का परीक्षण एवं हस्तातरण संभव होता है।
विज्ञान की विशेषताएं-
1. विज्ञान किसी भी विषय का उद्देश्यपरक अध्ययन है।
2. यह किसी विषय का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन है।
3. यह ज्ञान का वर्गीकरण है।
4. विज्ञान के सिद्धान्त शोध एवं परीक्षणों पर आधारित होते हैं।
5. विज्ञान के सिद्धान्त सार्वभौमिक होते हैं।
6. विज्ञान को सीखा एवं हस्तांरित किया जा सकता है।
7. विज्ञान प्रत्येक कार्य के कारण एवं परिणाम में सम्बन्ध दर्शाता है।
8. विज्ञान के द्वारा भावी परिणामों का अनुमान लगाना सम्भव है।
विज्ञान की उपर्युक्त विशेषताओं को ध्यान में रखकर प्रबन्ध के वैज्ञानिक स्वरूप की जांच की जा सकती है-
प्रबन्ध के वैज्ञानिक स्वरूप की जांच
1. सुव्यवस्थित ज्ञान
- आज प्रबन्ध का ज्ञान सुव्यवस्थित एवं संगठित है जिसका विधिवत् अध्ययन किया जा सकता है। प्रबन्ध का विकास क्रमबद्ध है। यह विभिन्न शाखाओं- उत्पादन प्रबन्ध, वित्त प्रबन्ध, विपणन प्रबन्ध, सेविवर्गीय प्रबन्ध, कार्यालय प्रबन्ध आदि में विभाजित है। प्रबन्ध पूर्णतः विशिष्टीकरण एवं अनुसंधान पर आधारित है।
2. सिद्धान्तों का प्रतिपादन
- विभिन्न प्रयोगों व अवलोकनों के पश्चात विद्वानों ने प्रबन्ध सिद्धान्तों, विधियों व तकनीकों का प्रतिपादन किया है। इस दिशा में फेयोल के प्रशासनिक सिद्धान्त, टेलर के वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त व इल्टन मेयो के हॉव्थोर्न प्रयोग, उर्विक के संगठन के सिद्धान्त सर्वमान्य एवं प्रतिष्ठित हैं।
3. कारण एवं परिणाम सम्बन्ध
- वर्तमान प्रबन्ध व्यवस्था प्रणाली विचारधारा पर आधारित है, जो प्रत्येक परिस्थिति के कारण एवं परिणाम पर बल देती है। अपने विभिन्न निर्णयों अभिप्रेरण, संतुष्टि, नियंत्रण, मनोबल सर्वेक्षण, कार्य निष्पादन लागत लाभ विश्लेषण आदि में प्रबन्धक कारण एवं परिणाम के सम्बन्ध को ध्यान में रखकर कार्य करता है।
4. सार्वभौमिकता
- प्रबन्ध के सिद्धान्त देशों व सभी संगठनों में समान रूप से लागू होते हैं | प्रबन्धकीय ज्ञान की समस्त कार्य समूहों व मानवीय समाज में आवश्यकता होती है। यह संगठित जीवन का सार्वभौमिक तत्व है।
5. औपचारिक शिक्षण
- आज विश्व सभी देशों में प्रबन्ध शास्त्र की औपचारिक शिक्षा प्रदान की जाती है। प्रबन्धकीय प्रशिक्षण प्राप्त करके अनेक व्यक्ति पेशेवर प्रबन्धक के रूप में कार्य कर रहे हैं। प्रबन्ध अब एक अर्जित प्रतिभा का विषय है।
6. वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग
- आधुनिक प्रबन्धक की कार्य विधियां अन्तर्ज्ञान, तीर या तुछचे या परम्पराओं पर आधारित न होकर पूर्णतः प्रयोगों, परीक्षणों एवं अवलोकन पर आधारित है। प्रबन्धक अपने निर्णयों में तर्क, विश्लेषण एवं कई वैज्ञानिक विधियों जैसे क्रियात्मक अनुसंधान, अर्थमिति, सांख्यिकीय सूत्रों आदि का प्रयोग करता है। उपरोक्त विवेचन के आधार पर प्रबन्ध को विज्ञान की श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है।
7. उद्देश्यपूर्ण या विषयपरक अध्ययन
- प्रबन्ध निश्चित उद्देश्यों को लेकर किया जाता है। प्रबन्धकों के अधिकांश निर्णय भी सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं। 8. निरन्तर प्रयोग प्रबन्ध के क्षेत्र में लगातार शोध, प्रयोग एवं परीक्षण हो रहे हैं।
9. पूर्वानुमान संभव
- प्रबन्ध विज्ञान के द्वारा सीमित क्षेत्रों में परिणामों का पूर्वानुमान करना भी संभव है।
प्रबन्ध विज्ञान की प्रकृति
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रबन्ध भी एक विज्ञान है, यद्यपि इसे प्राकृतिक विज्ञानों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। वास्तव में, प्रबन्ध की वैज्ञानिक प्रकृति के सम्बन्ध में निम्न बातें महत्वपूर्ण हैं-
1. सामाजिक विज्ञान
- प्रबन्ध एक प्राकृतिक विज्ञान नहीं वरन् सामाजिक विज्ञान है, क्योंकि इसका सम्बन्ध मानवीय एवं सामाजिक घटनाओं से है। यह मानव व समाज के लक्ष्यों, आवश्यकताओं, दशाओं व मूल्यों से जुड़ा है।
2. व्यवहारवादी विज्ञान
- प्रबन्ध एक व्यवहारात्मक विज्ञान है क्योंकि यह मानवीय व्यवहार, वृत्तियों, आचरण, धारणाओं, भावनाओं एवं उनकी कार्यशैली से सम्बन्ध रखता है। यह कार्य व्यवहार प्रेरणा, संतुष्टि, असंतुष्टि, तनाव, नैराश्य, मनोबल आदि घटकों का प्रबन्ध करता है।
3. अनिश्चित विज्ञान
- प्रबन्ध मानव व्यवहार से सम्बन्ध रखता है जो निरंतर गतिशील एवं परिवर्तनशील है तथा जिसके बारे में कोई पूर्वानुमान करना संभव नहीं होता। अतः इसके परिणाम, भविष्यवाणी व प्रभाव निश्चित नहीं होते। कूंज एवं डोनेल के शब्दों में प्रबन्ध संभवतः सामाजिक विज्ञानों में सबसे अधिक अनिश्चित विज्ञान है। शायद इसी कारण टैरी ने प्रबन्ध को आभासी विज्ञान का दर्जा दिया है।
4. व्यवहारिक विज्ञान
- प्रबन्ध की अपनी मौलिक अवधारणायें एवं सिद्धान्त अभी तक पूर्णरूप से विकसित नहीं हो पाए हैं। प्रबन्ध ने अपने सिद्धान्त एवं तकनीकें दूसरे विषयों से ग्रहण किए हैं। प्रबन्ध में मनोविज्ञान, समाज विज्ञान, मानव शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों के ज्ञान का प्रयोग किया जा रहा है। यही कारण है कि इसे अन्तर्विषयक विज्ञान भी कहा जाता है।
5. विकासशील विज्ञान
- इसका विकास पिछले 50 वर्षों में ही हुआ है। यही कारण है कि प्रबन्ध की शब्दावली, अध्ययन पद्धति एवं सिद्धान्तों में निश्चितता नहीं पायी गयी। प्रबन्ध की विचारधाराओं एवं अर्थ के बारे में भी प्रबन्धशास्त्री एकमत नहीं हैं। प्रबन्ध अभी पूर्ण रूप से विज्ञान का स्वरूप ग्रहण नहीं कर सका है। इसके क्षेत्र में अभी निरंतर अध्ययन एवं प्रयोग किये जा रहे हैं। यह अभी पूर्णरूप से विकसित विज्ञान नहीं है।
6. सरल विज्ञान
- अर्नेस्ट डेल ने प्रबन्ध को एक सरल या मुलायम विज्ञान माना है जिसमें कोई कठोर नियम नहीं होते। इसके सिद्धान्त परिस्थिति एवं समय के अनुसार बदले या समायोजित किये जा सकते हैं। इसकी मान्यताएं व दृष्टि लोचशील होती है। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने प्रबन्ध को परिस्थितिगत विज्ञान भी कहा है।
7. आदर्श विज्ञान
- यह सामाजिक उत्तरदायित्वों उच्च नैतिक स्तर, न्यायोचित लाभ, सामाजिक हितों, मधुर श्रम सम्बन्धों व सांस्कृतिक मूल्यों पर अधिक बल देता है।
8. प्रबन्ध शुद्ध विज्ञान नहीं
प्रबन्ध एक विज्ञान है, किन्तु इसे भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, गणित आदि प्राकृतिक विज्ञानों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। प्रबन्ध शुद्ध अथवा वास्तविक विज्ञान नहीं है क्योंकि यह मानवीय व्यवहार से सम्बन्धित है। प्रबन्ध की विषय सामग्री मनुष्य है, जिसके व्यवहार एवं स्वभाव के बारे में ठीक-ठीक अनुमान करना कठिन होता है। फिर प्रबन्धक को निरन्तर बदलते हुए मूल्यों, नये सामाजिक परिवेश एवं परिवर्तित दशाओं में कार्य करना होता है। अतः उसकी प्रबन्धकीय शैली एवं पद्धति स्थिर नहीं वरन् परिस्थितिजन्य होती है। अतः प्रबन्ध एक सामाजिक एवं व्यावहारिक विज्ञान है। पीटर ड्रकर ने लिखा है कि प्रबन्ध कभी विज्ञान नहीं हो सकता।
प्रबन्ध विज्ञान को निम्नलिखित कारणों से एक शुद्ध विज्ञान नहीं माना जा सकता
1. प्रबन्ध विज्ञान मानव से सम्बन्धित है। मानवीय व्यवहार एवं स्वभाव प्रत्येक परिस्थिति में भिन्न होता है। अतः व्यक्ति की परिवर्तनशीन मनोदशा के कारण प्रबन्धकीय शैली भी एक समान नहीं होती।
2. प्रबन्ध के सिद्धान्त लोचपूर्ण होते हैं। वे स्थिर एवं निरपेक्ष नहीं होते। उनके क्रियान्वयन में पर्याप्त विवके एवं विश्लेषण की आवश्यकता होती है। हेनरी फेयोल ने लिखा है कि प्रबन्ध के सिद्धान्त लचीले होते हैं। ये प्रबन्ध के लिए मार्गदर्शक तत्व मात्र होते हैं।
3. प्रबन्धशास्त्र में प्रयोग एवं परीक्षणों के आधार पर प्राप्त परिणामों की पुनरावृत्ति सम्भव नहीं है। मानवीय व्यवहार पर नियंत्रण न होने के कारण प्रत्येक प्रयोग के परिणाम भिन्न-भिन्न होंगे, प्रयोगशाला के निष्कर्षों की भांति एक जैसे नहीं।
4. प्रबन्ध विज्ञान प्रत्येक घटना के कारण एवं परिणाम के सम्बन्ध की पूर्णतया व्याख्या नहीं करता। अतः इसमें निश्चित एवं सही भविष्यवाणीयां करना अत्यन्त कठिन होता
5. प्रबन्धकीय निर्णयों एवं पद्धति पर प्रत्येक राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है। दूसरे शब्दों में, प्रबन्ध विज्ञान में सार्वभौमिकता का तत्व विद्यमान होने के बावजूद भी प्रबन्ध संस्कृति बद्ध एवं परिस्थितिजन्य होता है। प्रत्येक प्रबन्धकीय शैली एवं तकनीक सांयोगिक होती है।
6. प्राकृतिक विज्ञानों की भांति प्रबन्धकीय कार्य का यथार्थ माप एवं परिशुद्ध मूल्यांकन करना संभव नहीं है। अदृश्य शक्ति होने के कारण प्रबन्ध की सफलता का कोई निश्चित मापन नहीं किया जा सकता, किन्तु उसके प्रयासों के परिणाम देखे जा सकते हैं।
7. प्रबन्धक को सदैव गतिशील परिवेश में कार्य करना होता है। उसके दृष्टिकोण एवं चिन्तन को व्यावसायिक गतिशीलता प्रभावित करती है।
8. प्रबन्ध का अध्ययन आत्मपरक है, वस्तुपरक नहीं। प्राकृतिक विज्ञानों की विषय-वस्तु निर्जीव होने के कारण मानवीय भावनाओं से अछूती रहती है, जबकि प्रबन्ध कार्य पर मानवीय उद्वेगों, उत्तेजनाओं, भावनाओं, आवेशों, अभिलाषा, क्रोध, प्रेम आदि का गहरा प्रभाव पड़ता है।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि प्रबन्ध एक प्राकृतिक एवं विशुद्ध विज्ञान नहीं है, वरन् इसे एक सामाजिक एवं व्यावहारिक विज्ञान के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। प्रबन्ध सर्जन अथवा मनोचिकित्सक के लिए व्यावहारिक ज्ञान, मानवीय कौशल एवं सूझ-बूझ का होना अत्यन्त आवश्यक होता है, मात्र पुस्तकीय ज्ञान से रोग का निदान करना सम्भव नहीं होता। इसी प्रकार एक सफल प्रबन्धक के लिए सैद्धान्तिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता, उसमें व्यावहारिक समझ, सृजानात्मक कौशल एवं व्यक्तिगत निपुणता का भी होना आवश्यक है। उसे सदैव व्यावहारिक यथार्थताओं को ध्यान में रखकर कार्य करना होता है। अतः प्रबन्ध को एक व्यावहारिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है।
प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों रूपों में
- उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रबन्ध में कला - और विज्ञान दोनों के लक्षण विद्यमान हैं। स्टेनले टीली के अनुसार वर्तमान में प्रबन्ध 10 प्रतिशत विज्ञान एवं 90 प्रतिशत कला है तथा आधुनिक युग में विज्ञान दिन-प्रतिदिन विकास कर रहा है। प्रबन्ध अगली पीढ़ी तक निश्चित रूप से 80 प्रतिशत विज्ञान एवं 20 प्रतिशत का हो जाएगा। टेलर ने प्रबन्ध को 75 प्रतिशत विश्लेषण (विज्ञान) एवं 25 प्रतिशत सामान्य ज्ञान (कला) माना है। वस्तुतः प्रबन्ध कला एवं विज्ञान का सम्मिश्रण है, अनुपात तो परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। जार्ज टैरी ने कहा है कि एक प्रबन्धक वैज्ञानिक एवं कलाकार दोनों है। किसी विशेष परिस्थिति में प्रबन्ध विज्ञान प्रबन्धीय कला की मात्रा को कम कर सकता है, किन्तु यह कला की आवश्यकता को समाप्त नहीं कर सकता। प्रबन्ध में कला सदैव विद्यमान रहती है। कई बार प्रबन्धक को समस्याओं के सामाधान में विज्ञान नहीं, अपितु प्रबन्धक कला- सृजनात्मक, अनुमान, विश्वास, ज्ञान के चातुर्यपूर्ण प्रयोग आदि की आवश्यकता होती है।
- यहां यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि कला एवं विज्ञान अलग-अलग नहीं हैं, वरन् दोनों अन्योन्याश्रित एवं एक दूसरे पूरक हैं। विज्ञान में वृद्धि होने से कला भी विकसित होती है, राबर्ट एन. हिलकर्ट ने कहा है कि प्रबन्ध क्षेत्र में कला एवं विज्ञान दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कून्टज एवं ओ डोनेल लिखते हैं कि बिना विज्ञान के चिकित्सक केवल ओझा बनकर ही रह जाता है किन्तु वैज्ञानिक ज्ञान से वह कुशल सर्जन बन जाता है। इसी प्रकार बिना सिद्धान्तों के कार्य करने वाले प्रबन्धक को भाग्य, अन्तर्ज्ञान व भूतकालीन कार्यों पर निर्भर रहना होता है। किन्तु संगठित ज्ञान से वह प्रबन्धकीय समस्या का व्यावहारिक एवं सुदृढ़ हल खोज सकता है । प्रबन्धक को ज्ञान का कौशलपूर्ण उपयोग करना जानना चाहिए
- अक्सर यह कहा जाता है कि ज्ञान शक्ति है। किन्तु यह पूर्णतः सत्य नहीं है क्योंकि कुशल उपयोग के बिना ज्ञान का कोई मूल्य नहीं होता। अतः यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि व्यावहारिक ज्ञान ही शक्ति है। स्पष्ट है कि प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों का सम्मिश्रण है। रीस, मिन्ट्जबर्ग आदि ने ठीक ही कहा है कि प्रबन्ध कला एवं विज्ञान का व्यावहारिक संयोजन है, जो निरंतर किसी के रचनात्मक संसाधनों को नई पहेलियों के साथ हल करने की चुनौती देता रहता है ।
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