मौद्रिक नीति का अर्थ |मौद्रिक नीति के उद्देश्य |मौद्रिक नीति के उपकरण |Meaning Aim and Instruments of Monetary Policy
मौद्रिक नीति का अर्थ, मौद्रिक नीति के उद्देश्यमौद्रिक नीति के उपकरण
मौद्रिक नीति सामान्य परिचय
मौद्रिक नीति केंद्रीय बैंक द्वारा अपनाए गए साख नियंत्रण उपायों से संबंध रखती है। ये दो प्रकार के होते हैं (i) मात्रात्मक ( quantitative) सामान्य अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण; (ii) गुणात्मक (qualitative) चयनात्मक अथवा प्रत्यक्ष नियंत्रण प्रथम श्रेणी के अंतर्गत बैंक दर में परिवर्तन खुले बाजार के प्रचालन तथा परिवर्तनशील आरक्षण आवश्यकताएँ सम्मिलित रहती हैं। उनका उद्देश्य कमर्शियल बैंकों के माध्यम से अर्थव्यवस्था में साख के संपूर्ण स्तर का नियमन करना है। इनमे परिवर्तनशील सीमा आवश्यकताएँ तथा उपभोक्ता साख नियमन शामिल रहते हैं।
मौद्रिक नीति का अर्थ (Meaning of Monetary Policy)
मौद्रिक नीति का अर्थ एक देश के केंद्रीय बैंक द्वारा अपनाए गए साख नियंत्रण उपायों से है।
जोनसन मौद्रिक नीति को इस प्रकार परिभाषित करता है-
“ सामान्य आर्थिक नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए केंद्रीय बैंक द्वारा मुद्रा की पूर्ति को नियंत्रित करने के औजार के रूप में यह नीति है। "
जी.के. शा इसे परिभाषित करता है
“ मुद्रा की मात्रा प्राप्यता या लागत को परिवर्तित करने के लिए मौद्रिक प्राधिकारी द्वारा कोई सचेत कार्य किया गया, "
मौद्रिक नीति के उद्देश्य (Objectives of Goals of Monetary
Policy )
1. पूर्ण रोजगार (Full Employment )
- पूर्ण रोजगार को मौद्रिक नीति के प्रमुख उद्देश्यों में रखा गया है। यह एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है क्योंकि बेरोजगारी से न केवल संभावित उत्पादन की हानि होती है बल्कि इससे सामाजिक प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान की भी हानि होती है। इनके अतिरिक्त यह गरीबी को उत्पन्न करती है। इसलिए, पूर्ण रोजगार प्राप्त करना परम आवश्यक होता है।
2. कीमत स्थिरता (Price Stability)
- कीमत स्तर में स्थिरता लाना मौद्रिक नीति का एक प्रमुख उद्देश्य है।
3. आर्थिक वृद्धि (Economic Growth )
- हाल के वर्षों में मौद्रिक नीति के अत्यंत महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक उद्देश्य यह रहा है कि अर्थव्यवस्था की तेजी से आर्थिक वृद्धि हो ।
4. भुगतान शेष (Balance of Payments )
- 1950 के दशक से मौद्रिक नीति का एक अन्य उद्देश्य कि भुगतान शेष संतुलन बनाए रखा जाए।
मौद्रिक नीति के उपकरण (Instruments of Monetary Policy )
मौद्रिक नीति केंद्रीय बैंक द्वारा अपनाए गए साख नियंत्रण उपायों से संबंध रखती है। ये दो प्रकार के होते हैं-(i) मात्रात्मक (quantitative) सामान्य अथवा अप्रत्यक्ष नियंत्रण; (ii) गुणात्मक (qualitative) चयनात्मक अथवा प्रत्यक्ष नियंत्रण प्रथम श्रेणी के अंतर्गत बैंक दर में परिवर्तन खुले बाजार के प्रचालन तथा परिवर्तनशील आरक्षण आवश्यकताएँ सम्मिलित रहती हैं। उनका उद्देश्य कमर्शियल बैंकों के माध्यम से अर्थव्यवस्था में साख के संपूर्ण स्तर का नियमन (regulate) करना है। इनमें परिवर्तनशील सीमा आवश्यकताएँ तथा उपभोक्ता साख का नियमन शामिल रहते हैं।
1. बैंक दर नीति (Bank Rate Policy)
- बैंक दर, केंद्रीय बैंक द्वारा उधार देने की वह न्यूनतम दर है जिस पर वह विनिमय की प्रथम श्रेणी हुण्डियों तथा कमर्शियल बैंक द्वारा धारित सरकारी प्रतिभूतियों को पुनः बट्टा (rediscount) करता है। जब केंद्रीय बैंक देखता है कि अर्थव्यवस्था के भीतर स्फीतिकारी दबाव प्रकट होने शुरू हो गए हैं, तो वह बैंक दर बढ़ा देता है। केंद्रीय बैंक से उधार लेना महँगा हो जाता है और कमर्शियल बैंक उससे अपेक्षाकृत कम उधार लेंगे। कमर्शियल बैंक आगे व्यापारियों को उधार देने की अपनी दरें बढ़ा देते हैं। इस कारण उधार लेने वाले कमर्शियल बैंकों से कम उधार लेंगे। साख का संकुचन होता है और कीमतें और आगे बढ़ने से रुक जाती हैं। इसके विपरीत, जब कीमतें गिर जाती हैं, तो केंद्रीय बैंक अपनी बैंक दर घटा देता है। कमर्शियल बैंकों को केंद्रीय बैंक से उधार लेना सस्ता रहता है, तब कमर्शियल बैंक भी अपनी उधार देने की दरें घटा देते हैं। इससे व्यापारियों को अधिक उधार लेने को प्रोत्साहन मिलता है। निवेश को प्रोत्साहन मिलता है। उत्पादन, रोजगार, आय तथा माँग बढ़ना शुरू करती हैं और कीमतों का गिरना रुक जाता है।
2. खुले बाजार के प्रचालन (Open Market Operations )
- खुले बाजार के प्रचालन मुद्रा बाजार में केंद्रीय बैंक द्वारा प्रतिभूतियों के क्रय-विक्रय से संबंध रखते हैं। जब कीमतें बढ़ने लगती हैं और उन्हें रोकने की जरूरत होती है तो केंद्रीय बैंक प्रतिभूतियाँ बेचता है। कमर्शियल बैंकों के आरक्षण (reserve) घट जाते हैं और वे व्यापारी वर्ग को और उधार देने की स्थिति में नहीं रह जाते। आगे निवेश हतोत्साहित होता है और कीमतों में वृद्धि रुक जाती है। इसके विपरीत, जब अर्थव्यवस्था में सुस्ती (recession) की शक्तियाँ शुरू होती हैं, तो केंद्रीय बैंक प्रतिभूतियाँ खरीदता है। कमर्शियल बैंकों के आरक्षण बढ़ जाते हैं। वे अधिक उधार देते हैं, निवेश, उत्पादन, रोजगार तथा माँग बढ़ जाती है और कीमतों का गिरना रुक जाता है।
3. रिज़र्व अनुपातों में परिवर्तन (Changes in Reserve Ratios)
- इस औजार का सुझाव केन्ज़ ने अपनी पुस्तक Treatise of Money में दिया था और संयुक्त राज्य अमरीका पहला देश था जिसने इसे मौद्रिक तरीके के रूप में अपनाया। कानून के अनुसार प्रत्येक बैंक को अपनी कुल जमा का कुछ प्रतिशत अपने तहखानों में रिजर्व कोष में और कुछ प्रतिशत केंद्रीय बैंक के पास रखना पड़ता है। जब कीमतें बढ़ने लगती हैं तो केंद्रीय बैंक रिजर्व अनुपात बढ़ा देता है। बैंकों को केंद्रीय बैंक के पास अधिक राशि रखनी पड़ती है। उनके आरक्षण घट जाते हैं और वे कम उधार देते हैं। निवेश, उत्पादन तथा रोजगार की मात्रा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत स्थिति में जब रिजर्व अनुपात घटाया जाता है, तो कमर्शियल बैंकों के आरक्षण बढ़ जाते हैं। वे अधिक उधार देते हैं और आर्थिक क्रिया पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
4. चयनात्मक साख नियंत्रण (Selective Credit Control)
- विशिष्ट उद्देश्यों से विशेष प्रकार की साख को प्रभावित करने के लिए चयनात्मक साख नियंत्रण काम में लाये जाते हैं। अर्थव्यवस्था के भीतर सट्टा क्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए वे सामान्यतः परिवर्तनशील सीमा आवश्यकताओं (Changing margin requirements) का रूप ले लेते हैं। जब अर्थव्यवस्था में अथवा विशिष्ट क्षेत्रों में कुछ वस्तुओं में तेज सट्टा क्रिया होती है और कीमतें बढ़ना शुरू हो जाती हैं, तो केंद्रीय बैंक उन पर सीमा आवश्यकता बढ़ा देता है। परिणाम यह होता है कि उधार लेने वालों को विशिष्ट प्रतिभूतियों पर ऋण के रूप में कम मुद्रा दी जाती है। उदाहरणार्थ, सीमा आवश्यकता को बढ़ा कर 60 प्रतिशत कर देने का अर्थ है कि 10,000 रु. मूल्य की प्रतिभूतियों के प्राधिदाता (pledger) को उनके मूल्य का 40 प्रतिशत (4,000 रु.) ऋण के रूप में दिया जाएगा। विशिष्ट क्षेत्रों में सुस्ती की स्थिति में केंद्रीय बैंक सीमा आवश्यकताएँ घटाकर उधार ग्रहण को प्रोत्साहन देता है।
निष्कर्ष (Conclusion )
प्रभावशाली विश्लेषणात्मक मौद्रिक नीति के लिए आवश्यक है कि बैंक दर खुले बाजार के प्रचालन, रिजर्व अनुपात तथा विशिष्ट नियंत्रण उपायों को एक ही साथ अपनाया जाए। परंतु सभी मुद्रा सिद्धांतकारों ने स्वीकार किया हैं कि- (i) मंदी में जब व्यापार विश्वास अपनी क्षीणतम दशा में होता है, तब मौद्रिक नीति की सफलता शून्य होती है; और (ii) स्फीति के विरुद्ध वह सफल रहती है। मुद्रावादियों का कहना है कि राजकोषीय नीति के मुकाबले मौद्रिक नीति में अपेक्षाकृत अधिक लचीलापन होता है। उसे शीघ्र कार्यान्वित किया जा सकता है।
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