विकासशील अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति की भूमिका | Role of Monetary Policy in a Developing Economy
विकासशील अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति की भूमिका (Role of Monetary Policy in a Developing Economy)
विकासशील अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति की भूमिका
एक विकासशील अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति साख की लागत तथा प्राप्यता को प्रभावित करके, स्फीति पर नियंत्रण करके तथा भुगतान शेष संतुलन को कायम रखकर आर्थिक वृद्धि की दर को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण काम करती है। अतः ऐसे देश में मौद्रिक नीति के मुख्य उद्देश्य स्फीति को नियंत्रित करने तथा कीमतों को स्थिर करने के लिए साख नियंत्रण करना विनिमय दर को स्थिर करना, भुगतान शेष में संतुलन प्राप्त करना तथा आर्थिक विकास बढ़ाना है।
1. स्फीतिकारी दबावों को नियंत्रित करना (To Control Inflationary Pressures )
- विकास की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाले स्फीतिकारी दबावों पर काबू पाने के लिए, मौद्रिक नीति को साख नियंत्रण के मात्रात्मक तथा गुणात्मक दोनों प्रकार के उपायों की आवश्यकता होती है।
- मौद्रिक नीति के उपकरणों में खुले बाजार प्रचालन (open) market operations), अविकसित देशों में स्फीति को नियंत्रित करने में सफल नहीं हैं क्योंकि बिल मार्किट छोटा और अविकसित होता है। कमर्शियल बैंक लोचशील नकद जमा (cash-deposit) अनुपात रखते हैं क्योंकि उन पर केंद्रीय बैंक का पूर्ण नियंत्रण नहीं होता।
- वे अपनी सापेक्षतया कम ब्याज दरों के कारण सरकारी प्रतिभूतियों में भी निवेश करने के अनिच्छुक होते हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश करने की बजाए वे अपने रिजव को तरल रूप जैसे स्वर्ण, विदेशी मुद्रा और नकदी में रखना पसंद करते हैं। कमर्शियल बैंक भी केंद्रीय बैंक से उधार लेने या पुनर्बट्टा करते रहना नहीं चाहते।
बैंक दर नीति भी निम्न कारणों से ऐसे देशों में उतनी प्रभावकारी नहीं होती है-
(i) बट्टे के बिलों की कमी;
(ii) बिल मार्किट का संकुचित आकार;
(iii) विशाल गैर-मौद्रीकृत क्षेत्र जहाँ वस्तु विनिमय होता है;
(iv) देशी बैंकों का अस्तित्व जो केंद्रीय बैंक के साथ बिलों का बट्टा नहीं करते हैं;
(v) विशाल नकद रिजर्व रखने की कमर्शियल बैंकों की प्रवृत्ति; और
(vi) विशाल असंगठित मुद्रा बाजार का होना ।
- मौद्रिक नीति के उपकरण के रूप में परिवर्तनशील रिजर्व अनुपात (Variable Reserve Ratio) का उपयोग LDCs में बैंक दर नीति और खुले बाजार प्रचालनों की अपेक्षा अधिक प्रभावकारी होता है। चूँकि प्रतिभूतियों का बाजार बहुत छोटा है इसलिए खुले बाजार प्रचालन सफल नहीं हैं। परंतु केंद्रीय बैंक द्वारा परिवर्तनशील रिजर्व अनुपात में वृद्धि या कमी प्रतिभूतियों की कीमतों पर बिना विपरीत प्रभाव डाले कमर्शियल बैंकों के पास उपलब्ध नकदी को बढ़ाते या घटा देते हैं।
- पुनः, कमर्शियल बैंक विशाल नकद रिजर्व रखते हैं जो केंद्रीय बैंक द्वारा घटाये नहीं जा सकते। परंतु नकद रिजर्व अनुपात को बढ़ाने से बैंकों की तरलता घटती है। LDCs में परिवर्तनशील रिजर्व अनुपात के उपयोग की कुछ सीमाएँ हैं- प्रथम चूँकि गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थ केंद्रीय बैंक के पास जमाओं को नहीं रखते हैं इसलिए वे इससे प्रभावित नहीं होते। द्वितीय वे बैंक जो अतिरिक्त तरलता नहीं रखते हैं, उनकी अपेक्षा जो इसे रखते हैं, अधिक प्रभावित होते हैं।
- किंतु साख के आवंटन को प्रभावित करने और फलस्वरूप निवेश की पद्धति को प्रभावित करने में मात्रात्मक उपायों की अपेक्षा गुणात्मक साख नियंत्रण (qualitative control; measures ) उपाय अधिक प्रभावकारी होते हैं। LDCS(Least developed countries ) में कृषि, खादान प्लांटेशन और उद्योग में उपलब्ध वैकल्पिक उत्पादकीय स्रोतों की अपेक्षा स्वर्ण, आभूषण, मालसूचियों, वास्तविक संपदा आदि में निवेश करने की प्रबल प्रवृत्ति पाई जाती है। ऐसे अनुत्पादकीय उद्देश्यों के लिए साख सुविधाओं को नियंत्रित तथा सीमित करने के लिए चयनात्मक साख नियंत्रण अधिक उपयुक्त होते हैं।
- वे खाद्यान्नों तथा कच्चे माल के विषय में सट्टा क्रियाओं को नियंत्रित करने में लाभदायक होते हैं। वे अर्थव्यवस्था में अनुभागीय स्फीतियों (sectional inflations) को रोकने में अधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं। वे आयातकर्ताओं के लिए विदेशी मुद्रा के बराबर अग्रिम राशि में जमा करना अनिवार्य बनाकर आयात के लिए माँग में कटौती करते हैं। इसका यह प्रभाव भी पड़ता है कि बैंकों के आरक्षण घट जाते हैं यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में उनके जमा केंद्रीय बैंक को हस्तांतरित हो जाते हैं। चयनात्मक साख नियंत्रण उपाय निश्चित प्रकार के जमानत, उपभोक्ता साख नियमन और साख की राशनिंग की बजाए सीमा आवश्यकताओं के परिवर्तन के रूप में हो सकते हैं।
2. कीमत स्थिरता प्राप्त करना (To achieve Price Stability)
- कीमत स्थिरता प्राप्त करने के लिए मौद्रिक नीति एक महत्त्वपूर्ण औजार है। यह मुद्रा माँग तथा पूर्ति में समुचित समायोजन (adjustment) लाती है। इन दोनों में असंतुलन, कीमत स्तर में प्रतिबिम्बित हो जाएगा। मुद्रा पूर्ति में कमी वृद्धि को रोक देगी, जबकि इसकी अधिकता स्फीति लाएगी। जब अर्थव्यवस्था विकास की ओर अग्रसर होती है तो कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि से तथा गैर-मौद्रिक क्षेत्र के मौद्रिक क्षेत्र में धीरे-धीरे परिवर्तित होने से मुद्रा की माँग बढ़ती है। इससे लेन-देन तथा सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग भी बढ़ेगी। इसलिए मौद्रिक अधिकारी को स्फीति रोकने के लिए तथा कीमतों में स्थिरता लाने के लिए मुद्रा की पूर्ति को मुद्रा की माँग के अनुपात से अधिक बढ़ाना पड़ेगा।
3. भुगतान शेष घाटा कम करना (To Bridge BOP Deficit)
- ब्याज दर नीति के रूप में मौद्रिक नीति भुगतान शेष के घाटे को पूरा करने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। विकास के नियोजित लक्ष्यों को पूरा करने के लिए विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को गंभीर भुगतान शेष की कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। विद्युत, सिंचाई, परिवहन आदि जैसा बुनियादी ढांचा स्थापित करने तथा लोहा और इस्पात, उर्वरक, रसायन आदि प्रत्यक्षतः उत्पादकीय क्रियाओं के लिए ऐसे देशों को पूँजी उपकरण, मशीनरी, कच्चामाल, पुर्जे और उपस्कर आयात करने पड़ते है। जिससे उनके निर्यात में वृद्धि होती है। परंतु उनके निर्यात गतिहीन होते हैं और स्फीति के कारण निर्यात की कीमतें भी ऊँची होती हैं। परिणामस्वरूप, आयात और निर्यात में अंतर उत्पन्न हो जाता है, जिससे भुगतान शेष असंतुलित हो जाता है। मौद्रिक नीति ऊँची ब्याज दर द्वारा भुगतान शेष के घाटे को कम करने में सहायक हो सकती है। ऊँची ब्याज दर निवेशों के अंतर प्रवाह को प्रोत्साहन देकर भुगतान शेष के अंतर को कम करने में सहायक होती है।
4. ब्याज दर नीति (Interest Rate Policy )
- एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए ऊँची ब्याज दर नीति अधिक बचत को प्रोत्साहित करती है, बैंकिंग आदतें विकसित करती है तथा अर्थव्यवस्था के मुद्रीकरण को तीव्रता प्रदान करती है, जो पूँजी निर्माण और आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक है। ऊँची ब्याज दर नीति स्फीति को दूर करने वाली भी है क्योंकि यह सट्टे तथा करेन्सियों के लिए उधार लेने और निवेश करने को हतोत्साहित करती है। फिर, यह नीति दुर्लभ पूँजी संसाधनों के आवंटन को अधिक उत्पादकीय स्त्रोतों में बढ़ावा देती है। कुछ अर्थशास्त्री ऐसे देशों में नीची ब्याज दर नीति के समर्थक हैं क्योंकि ऊँची ब्याज दरें निवेश में बाधक होती हैं परंतु आनुभविक प्रमाण यह बताते हैं कि विकासशील देशों में व्यवसाय तथा उद्योग में निवेश ब्याज-बेलोच होते हैं क्योंकि निवेश की कुल लागत में ब्याज का बहुत कम अनुपात होता है। इन विपरीत मतों के बावजूद, मौद्रिक अधिकारी के लिए विभेदक (discriminatory) ब्याज दरों की नीति का अनुसरण करना उचित है। इस नीति के अनुसार, अनावश्यक तथा अनुत्पादकीय प्रयोगों के लिए ऊँची ब्याज दरें और उत्पादकीय प्रयोगों के लिए नीची ब्याज दरें होनी चाहिए।
5. बैंकिंग और वित्तीय संस्थाएँ स्थापित करना (To Create Banking and Financial Institutions )
- LDCs में मौद्रिक नीति का एक उद्देश्य पूँजी निर्माण के लिए बचतों को जुटाने प्रवाहित करने और प्रोत्साहित करने के लिए बैंकिंग और वित्तीय संस्थाओं की स्थापना तथा विकास करना होता है। मौद्रिक अधिकारी को ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में शाखा बैंकिंग की स्थापना को प्रोत्साहन देना चाहिए। ऐसी नीति गैर-मौद्रीकृति क्षेत्र के मुद्रीकरण में सहायक होगी और पूँजी निर्माण के लिए बचत और निवेश को प्रोत्साहित करेगी। यह मुद्रा और पूँजी बाजार को भी संगठित और विकसित करेगी। विकासोन्मुखी मौद्रिक नीति की सफलता के लिए ये आवश्यक हैं, जिसमें ऋण प्रबंध भी शामिल है।
ऋण प्रबंधन (Debt Management)
- एक विकासशील देश में सार्वजनिक ऋण का प्रबंधन करना मौद्रिक नीति के महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक है। इसका लक्ष्य है सरकारी बाँडों का उचित समय पर जारी करना, उनकी कीमतों को स्थिर करना और सार्वजनिक ऋण की सेवा लागत को न्यूनतम बनाना ऋण प्रबंधन का प्रधान लक्ष्य ऐसी स्थितियों को उत्पन्न करना है जिनमें सार्वजनिक ऋण वर्ष प्रतिवर्ष बढ़ता जाए। ऐसे देशों में सार्वजनिक ऋण मुद्रा पूर्ति को नियंत्रित करने और विकास प्रोग्रामों को वित्त प्रदान करने के लिए आवश्यक होता है। किंतु सार्वजनिक ऋण अवश्य ही सस्ती दरों पर होना चाहिए। निम्न ब्याज दर सरकारी बांडों की कीमतें बढ़ाती और उन्हें लोगों के लिए अधिक आकर्षक बनाती है। वे ऋण का भार भी कम महसूस करते हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
इस प्रकार समुचित मौद्रिक नीति जैसी कि ऊपर बताई गई है, स्फीति को नियंत्रित करने, भुगतान शेष अंतराल कम करने, पूँजी निर्माण को प्रोत्साहित करने तथा आर्थिक वृद्धि को बढ़ाने में सहायक होती।
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