प्रबन्ध के कार्य | Work Of Management in Hindi
प्रबन्ध के कार्य | Work Of Management in Hindi
प्रबन्ध के कार्य
- प्रबन्ध विभिन्न कार्यों का निष्पादन करते हुए संस्था के लक्ष्यों को प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। प्रबन्ध कुछ मूलभूत कार्यों से मिलकर बनी एक प्रक्रिया है।
- पीटर ड्रकर लिखते हैं कि “ प्रबन्ध व्यावसायिक उपक्रम का एक विशिष्ट अंग है तथा अंगों की परिभाषा तथा वर्णन उनके कार्यों द्वारा ही श्रेष्ठ ढंग से हो सकता है। "
- प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों के द्वारा तथा उनके साथ मिलकर कार्य करवाने की प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में, प्रबन्धक को कार्य का निष्पादन करवाने एवं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए क्या कार्य करने होते है, यह जानना महत्वपूर्ण है। विभिन्न विद्वानों ने प्रबन्धकों के कार्यों की संख्या एवं नाम अलग-अलग बताये हैं, यद्यपि प्रबन्धक के मूलभूत कर्तव्यों के सम्बन्ध में वे एकमत हैं।
विभिन्न प्रबन्धक विद्वानों के मत के आधार पर प्रबन्ध कार्यों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बांटा जा सकता है
1 . प्रमुख कार्य: नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय, नियंत्रण,
2. सहायक कार्य: निर्णयन, कर्मचारी व्यवस्था, सम्प्रेषण, नवप्रवर्तन, प्रतिनिधित्व ।
3. आधुनिक कार्य: व्यक्तियों का विकास, सृजनता, उद्यमिता, ज्ञान का उत्पादन उपयोग, तथा समय प्रबन्धन
प्रबन्ध के इन कार्यों को समझने का प्रयास करते हैं
1. नियोजन-
- नियोजन प्रबन्ध का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक कार्य है। प्रबन्ध इसके द्वारा भविष्य में किये जाने वाले कार्यों का अग्रिम रूप से निर्धारण करता है। नियोजन, कार्यक्रमों नियमों, कार्यपद्धतियों, बजटों व व्यावसायिक व्यूहरचना का निर्माण करता है। नियोजन भविष्य में झांकने, भावी दशाओं का मूल्यांकन करने व वैकल्पिक गतिविधियों को खोजने की प्रक्रिया है।
- मैरी कुशिंग नाइन्स के अनुसार नियोजन एक उद्देश्य की पूर्ति हेतु श्रेष्ठ कार्यविधि का चयन एवं विकास करने की जागरूक प्रक्रिया है।”
- गोट्ज ने लिखा है कि “नियोजन एक मूल रूप से एक चयन प्रक्रिया है तथा नियोजन की समस्या का जन्म कार्य के वैकल्पिक तरीकों की खोज के साथ होता है।"
नियोजन के लिए सामान्यतः निम्न कदम उठाये जाते हैं -
• वातावरण तथा संस्था के साधनों का मूल्यांकन करना।
• उद्देश्यों का निर्धारण करना।
• नियोजन की आधारभूत मान्यताओं को निर्धारित करना।
• वैकल्पिक उपायों का चयन करना ।
• किसी श्रेष्ठ विकल्प का चयन करना।
• आवश्यक सहायक योजनाओं का निर्माण करना।
• योजना का क्रियान्वयन एवं अनुवर्तन करना।
नियोजन करने लिए अनेक तत्वों व घटकों को भी निर्धारित करना होता है। ये निम्नानुसार हैं
1. उद्देश्य 2. नीतियां 3. कार्यविधियां 4 प्रविधियां 5 नियम 6 बजट 7. व्यूहरचना 8. परियोजना 9. प्रमाप 10. समय-सूचियां ।
2. संगठन
- नियोजन के अंतर्गत प्रबन्धक उपक्रम के लक्ष्य निर्धारित करता है, किन्तु इनकी पूर्ति के लिए विभिन्न साधनों को एकत्रित करने तथा उनमें कार्यकारी सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य संगठन के अंतर्गत किया जाता है। संगठन विभिन्न कार्यों का समूहीकरण करने कार्यों का वितरण करने तथा सम्बन्धित व्यक्तियों को अधिकार एवं दायित्व सौंपने की प्रक्रिया है।
संगठन कार्य
- स्थितियों का निर्माण करने व औपचारिक सह-सम्बन्धों का ढांचा तैयार करने की विधि है।
- जी.ई. मिलवर्ड के अनुसार, “कर्मचारी और उनके कार्यों में एकीकरण और सामंजस्य स्थापित करने की क्रिया को संगठन कहते हैं । " ई.एफ.एल. बैरच के शब्दों में “संगठन प्रबन्ध का ढांचा है।‘‘ चेस्टर बर्नार्ड के अनुसार “समन्वित क्रियाओं तथा शक्तियों की प्रणाली को संगठन कहते हैं। “
संस्था के संगठन के लिए प्रबन्धकों को निम्न कार्य करने पड़ते हैं
• क्रियाओं का निर्धारण करना।
• क्रियाओं का समूहीकरण करना।
• क्रिया समूहों को विभागों को सौंपना ।
• क्रियाओं के लिए अधिकारों व दायित्वों का निर्धारण करना ।
• आपसी कार्य सम्बन्धों का निर्धारण करना।
बर्नार्ड ने संगठन की प्रणाली के तीन आवश्यक तत्व बताये हैं
1. सदस्यों द्वारा सहयोग की इच्छा 2. सम्प्रेषण 3. सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति।
3. निर्देशन
- इस कार्य को लेखकों ने कई नामों से सम्बोधित किया है। जैसे, अभिप्रेरण, नेतृत्व, उत्प्रेरण, प्रभावीकरण, आदेश देना आदि। निर्देशन वह प्रबन्धीय कार्य है जिसके अन्तर्गत कर्मचारियों का पर्यवेक्षण, मार्गदर्शन एवं अभिप्रेरण किया जाता है ताकि संस्था के उद्देश्यों को अधिकतम कुशलता के साथ प्राप्त किया जा सके।
- टेरी के अनुसार निर्देशन में, "किसी कार्य को गति देना, व्यवहार में परिणित करना तथा गतिशील समूहों को प्रेरणात्मक शक्ति प्रदान करना शामिल है।
- “स्ट्रोंग के अनुसार निर्देशन में 1. अधीनस्थों को कार्य के बारे में निर्देश देना और 2. उन्हें कार्य करने के लिए आदेश देना शामिल है।
वास्तव में, निर्देशन का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है जिसमें निम्नलिखित कार्य शामिल होते हैं -
i. पर्यवेक्षण
ii.
iii. अभिप्रेरण
iv. नेतृत्व
i. पर्यवेक्षण
- यह कार्य प्रबन्धक द्वारा अपने अधीनस्थों के कार्यों का निरीक्षण करने से सम्बन्धित है। इसमें प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को कार्य करने के ढंग, प्रक्रिया एवं नियमों की जानकारी देते हैं। प्रबन्धक लक्ष्यों की प्राप्ति में कर्मचारियों का मार्गदर्शन करते हैं।
ii.सम्प्रेषण
- इस कार्य के अंतर्गत प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को कार्य के सम्बन्ध में आदेश-निर्देश प्रदान करते हैं, विभिन्न प्रकार की सूचनाएं प्रेषित करते हैं तथा उनकी शिकायतों व सुझावों को सुनते हैं। सम्प्रेषण सदैव ही विचारों व तथ्यों के आदान प्रदान की द्विमार्गीय व्यवस्था होती है। इसमें प्रबन्ध के उच्च स्तरों से निर्देशों तथा निम्न स्तरों से कार्य की प्रगति की रिपोर्ट, समस्याओं आदि का प्रवाह होता है।
iii अभिप्रेरण
- अभिप्रेरण के अंतर्गत प्रबन्धक अपने कर्मचारियों में कार्य भावना तथा संस्था के प्रति अपनत्व की भावना का विकास करते हैं। प्रबन्धक कर्मचारियों की भौतिक, सामाजिक व मानसिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करके इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उन्हें प्रेरित करते हैं। इस हेतु प्रबन्धक कर्मचारियों को वित्तीय प्रेरणाएं (अधिक वेतन, बोनस, अनुलाभ) तथा गैर-वित्तीय संतुष्टि (पदोन्नति, सम्मान, मान्यता, सहभागिता) आदि प्रदान करते हैं।
iv. नेतृत्व
- प्रबन्धक उचित नेतृत्व प्रदान करके कर्मचारियों को अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं। नेतृत्व में दो प्रमुख कार्य शामिल हैं। 1. प्रबन्धकों का यह व्यवहार एवं आचरण जिसके द्वारा वे अपनी संस्था के मूल्यों व आदर्शों को प्रकट करते हैं। इसमें संस्था निर्माण के कार्य आते हैं। 2. प्रबन्धक अपने गुणों, कार्यशैली एवं अन्तर्वैयक्तिक व्यवहार से भी कर्मचारियों को निश्चित लक्ष्यों की ओर बढ़ाने के लिए। प्रेरित करते हैं। वे अधीनस्थों के लिए अनुकरणीय बनकर उसमें कार्यनिष्ठा, लगन व परिश्रम की भावना का विकास करते हैं।
4. आदेश देना-
यह कार्य संगठन की गतिशीलता से सम्बन्धित है। इसमें आदेश निर्देश प्रदान करके कार्य का संचालन किया जाता है। इसका उद्देश्य कर्मचारियों के प्रयासों का अधिकतम उपयोग करना है।
5. नियंत्रण
- नियंत्रण प्रबन्ध का वह कार्य है जिसमें वास्तविक निष्पादन की निष्पादन प्रगति के साथ तुलना करके विचलन ज्ञात किया जात है ताकि सुधारात्मक कार्यवाही की जा सके। इसमें प्रबन्धक यह देखता है कि संस्था के समस्त कार्यों का निष्पादन निश्चित योजना के अनुसार हो रहा है या नहीं।
हेनरी फेयोल के अनुसार, " नियंत्रण का आशय
- यह जांच करने से है कि संस्था के सभी कार्य, अपनाई गयी योजनायें, दिये गये निर्देश, निर्धारित नियमों के अनुसार हो रहे हैं या नहीं। नियंत्रण का उद्देश्य कार्य की कमियों या त्रुटियों का पता लगाना है जिससे यथासमय उनमें सुधार किया जा सके तथा भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति रोकी जा सके। ’’
नियंत्रण प्रक्रिया के चार प्रमुख तत्व है-
1. लक्ष्यों एवं प्रमापों का निर्धारण करना,
2. कार्यों का मूल्यांकन करना,
3. वास्तविक प्रगति की निर्धारित प्रमापों से तुलना करना,
4. विचलन हेतु सुधारात्मक कार्यवाही करना।
6. समन्वय
- संगठन के भौतिक एवं मानवीय साधनों में समन्वय स्थापित करना प्रबन्धक का एक महत्वपूर्ण कार्य है। संगठन में कर्मचारियों की क्रियाओं, कार्यविधियों कार्य क्षमताओं व गुणों में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है। किन्तु प्रबन्धक को इनके प्रयासों में एकरूपता व सामंजस्य उत्पन्न करता होता है ताकि न्यूनतम लागत पर निश्चित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। यह सामूहिक प्रयासों में तालमेल बिठाने एवं उन्हें सुव्यवस्थित करने की प्रक्रिया है। कई लेखकों ने समन्वय को प्रबन्ध का एक पृथक् कार्य नहीं माना है, बल्कि उसे प्रबन्ध के उद्देश्य के रूप स्वीकार किया है। कून्टज तथा डोनेल का कथन है कि समन्वय प्रबन्ध का सार है।
- मैसी के शब्दों में ‘‘समन्वय अन्य प्रबन्धकीय कार्यों के उचित क्रियान्वयन का परिणाम है।“ मूने ने इसे संगठन का प्रथम सिद्धान्त माना है। उर्विक ने कहा है कि संगठन का उद्देश्य ही समन्वय करना होता है।'
- बर्नार्ड ने लिखा है कि ‘‘समन्वय किसी संगठन के जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण तथ्य है।
- " लूथर गुलिक ने समन्वय को प्रबन्ध का अनिवार्य कार्य मानते हुए लिखा है कि यदि प्रबन्ध में कार्य विभाजन के बिना कार्य नहीं चल सकता है तो समन्वय आवश्यक हो जाता है।”
7. निर्णयन
- प्रबन्धक जो कुछ भी करते हैं, निर्णयन के द्वारा ही करते हैं। अतः यह प्रबन्धकीय कार्य प्रबन्ध के प्रत्येक कार्य में अन्तर्व्याप्त होता है। अतः कुछ विद्वान इसे प्रबन्ध का एक पृथक् कार्य नहीं मानते हैं।
- किन्तु निर्णयन प्रबन्धकों का एक आधारभूत कार्य होता है। यह कार्य के वैकल्पिक उपायों में से एक श्रेष्ठ विकल्प के चयन की प्रक्रिया है। कुछ विद्वानों ने निर्णयन को अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य माना है। रोस मूरे के अनुसार “प्रबन्ध का आशय निर्णयन है।” कौपलेण्ड के शब्दों में प्रशासन मूलतः एक निर्णयन है। हरबर्ट साइमन ने तो यहां तक लिखा है कि निर्णयन एवं प्रबन्ध समानार्थक हैं।
- कूंज तथा वीहरिच के शब्दों में निर्णयन किसी क्रियाविधि के विभिन्न विकल्पों में से किसी एक का चयन करना है। पेटरसन लिखते है कि प्रबन्धक वह व्यक्ति है जो निर्णय लेता है। कभी वह सही निर्णय लेता है किन्तु निर्णय सदैव लेता है।
8. कर्मचारी व्यवस्था
- संगठन संरचना के दो महत्वपूर्ण पहलू है- 1. भौतिक संरचना तथा 2. मानवीय संरचना | भौतिक संरचना में यंत्र, उपकरण, मशीनें, भवन, वित सामग्री आदि साधनों का एकीकरण सम्मिलित है जबकि मानवीय संरचना में योग्य कर्मचारियों की प्राप्ति एवं विकास के कार्य आते हैं। प्रबन्धक उचित व्यक्ति का चयन करके उचित स्थान पर उसकी नियुक्ति करता है।
- नियुक्ति के कार्य में कर्मचारियों को प्रशिक्षण देना, पदोन्निति करना, मूल्यांकन करना, पारिश्रमिक देना, निवृत्ति देना आदि क्रियाएं भी सम्मिलित हो जाती हैं। संगठन को योजनाओं व लक्ष्यों में परिवर्तन हो जाने, कर्मचारियों में परिवर्तन होते रहने के कारण नियुक्ति का कार्य सतत चलता रहता है।
- अच्छे कर्मचारी संस्था की सम्पत्ति होते हैं। संस्था उसके गुणी कर्मचारियों से जानी जाती हैं, पूंजी व संयंत्र से नहीं। ड्रकर ने उचित ही कहा है कि “व्यवसाय व्यक्तियो से बनता है।”
9. सम्प्रेषण
- सम्प्रेषण प्रबन्ध व कर्मचारियों के मध्य पारस्परिक विचारों, तथ्यों, सूचनाओं एवं भावनाओं का आदान प्रदान है।
- कीथ डेविस के अनुसार, “सम्प्रेषण वह प्रक्रिया जिसमें संदेश व समझ को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाया जाता है।" इस प्रकार सम्प्रेषण प्रबन्ध के विभिन्न स्तरों पर संदेशों, सम्मतियों व सूचनाओं का प्रसारण है ताकि कर्मचारी वर्ग कुशलतापूर्वक कार्य का निष्पादन कर सके।
- पीटर्स ने कहा है कि “अच्छा संदेशवाहन सुदृढ़ प्रबन्ध की नींव है।" चेस्टर आई. बनार्ड ने लिखा है कि “सम्प्रेषण प्रणाली का विकास करना प्रबन्ध का पहला कार्य है। "
- चार्ल्स ई. रैडफील्ड ने तो यहां तक कहा है कि सम्प्रेषण संगठन को सुदृढ़ बना सकता है अथवा उसके विनाश का कारण बन सकता है। "
- सम्प्रेषण के लिए प्रबन्धक लिखित, मौखिक, सांकेतिक एवं दृश्य-श्रव्य संचार साधनों का उपयोग करता है | सम्प्रेषण की कई प्रमुख विधियां हैं जैसे परामर्श, सभाएं, सम्मेलन, गोष्ठियां, व्यक्तिगत सम्पर्क, कर्मचारी सहभागिता आदि। इन विधियों के द्वारा भ्रम, मनमुटाव, दुर्भावनाओं, संचार, दूरी, अफवाओं आदि को दूर किया जा सकता है।
10. नवप्रवर्तन
- नवप्रवर्तन का आशय संगठन में नये विचारों, नई वस्तुओं, नई किस्मों, नई डिजायनों, नई कार्य प्रणालियों व नई योजनाओं को स्थान देना है। सृजनात्मक तथा नवप्रवर्तन एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। सृजनात्मक नये विचारों के सृजन हेतु चिन्तन की प्रक्रिया है जबकि नवप्रवर्तन किसी कार्य को श्रेष्ठ अथवा मितव्ययतापूर्वक करने लिए इन विचारों का व्यावहारिक प्रयोग है।
- नवप्रवर्तन सृजनात्मकता का व्यापारिक अथवा तकनीकी परिणाम है। नवप्रवर्तन का प्रयोग व्यवसाय के विभिन्न क्षेत्रों-उत्पादन, विपणन, वित्त, प्रबन्ध कार्यालय, आदि में किया जा सकता है।
- आधुनिक प्रतियोगी युग में नवप्रवर्तन का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अर्नेस्ट डेल का कथन है कि नवप्रवर्तन प्रबन्धक के वास्तविक कार्यों में गिना जान चाहिए। पीटर ड्रकर लिखते हैं कि व्यवसाय करना एक नौकरशाही, प्रशासनिक अथवा नीति निर्धारण कार्य नहीं हो सकता । यह एक रचनात्मक कार्य होना चाहिए, न कि एक समायोजन कार्य। कुछ विद्वान इस कार्य का नियोजन व सृजनात्मक का अंग मानते हैं।
11. प्रतिनिधित्व
- व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व का महत्व बढ़ने के साथ ही प्रबन्ध के इस कार्य का महत्व बढ़ गया है। प्रबन्धक को विभिन्न बाहरी समूहों- सरकारी अधिकारियों, स्थानीय समुदाय आदि के साथ व्यवहार करते समय अपनी संस्था का प्रतिनिधित्व करना होता है।
- प्रबन्धक को इन सभी पक्षकारों के साथ अच्छे सम्बन्धों का निर्माण करना तथा उन्हें बनाये रखना होता है। प्रबन्धक का इन पक्षों के साथ विभिन्न समझौते, वार्तालाप, एवं विचार गोष्ठियां करके संस्था के हितों को सुरक्षित करना होता है। आधुनिक व्यवसाय एक खुली प्रणाली है, अतः प्रबन्ध में प्रतिनिधित्व कार्य का महत्व भी दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
12. व्यक्तियों का विकास
- आधुनिक प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य व्यक्तियों (कर्मचारियों) में कार्य योग्यताओं, गुणों, कार्य कौशल का विकास करके उन्हें पूर्ण मानव बनाना है। प्रबन्ध कर्मचारियों की दक्षता, कार्य-निष्ठा, निपुणता, कार्य अभिरूचि आदि को विकसित करके संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति में उन्हें सहायक बनाता है। प्रबन्ध कर्मचारियों की संभावनाओं को यथार्थ में बदलता है। वह कर्मचारियों को परिपक्व बनाता है।
- प्रबन्धक व्यक्तियों की सृजनात्मकता, कल्पनाशक्ति एवं बौद्धिक क्षमताओं का अधिकतम उपयोग करता है। वह उद्योगों में मानवीय तत्व की गरिमा स्थापित करता है। यह तकनीकी श्रेष्ठता के साथ-साथ मानवीय उत्कृष्टता पर ध्यान देता है। कर्मचारियों के विकास के लिए प्रबन्ध अभिप्रेरण, प्रशिक्षण, पदोन्निति, उत्तरदायित्व, परामर्श, कार्य समृद्धि, कार्य विस्तार, नेतृत्व, सहभागिता जैसी विधियों को अपनाता है।
13. सृजनता
- आधुनिक प्रबन्ध नवीन कार्य पद्धतियों, नये उत्पादों, नई कल्पना शक्ति, नये व्यवसायों के विकास पर निर्भर करता है। अतः प्रबन्ध का यह एक महत्वपूर्ण कार्य है कि उद्योग के प्रत्येक क्षेत्र में सृजनात्मकता का उपयोग करके संगठन में लाभ के नये-नये अवसर उत्पन्न करे। प्रबन्धक अपनी भावी तीक्ष्ण दृष्टि से आने वाले समय की पहचान करके नये उत्पादों, नई आवश्यकताओं, नई मांगों का निर्धारण करता है। वह समय की परख करके प्रतिस्पर्धा में जीतने, संगठन को शिखर पर ले जाने के नये मार्ग ढूंढता है। वह किसी भी सृजनात्मक अवसर का व्यर्थ नहीं गंवाता है। वह मिट्टी से सोना पैदा करने की कला जानता है। आधुनिक प्रबन्ध सृजनशील हुए आधुनिक युग की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता है।
14. उद्यमिता
- आधुनिक प्रबन्धक साहसी एवं उद्यमशील प्रकृति हो होता है। उद्यमिता आधुनिक प्रबन्ध का एक गुण ही नहीं, वरन् एक महत्वपूर्ण कार्य भी है। आधुनिक व्यवसाय को जोखिमें झेलना, नव-प्रवर्तन की समस्याओं एवं चुनौतियों को स्वीकार करना, नये अवसरों की खोजबनी करना, संगठन के भावी खतरों का पूर्वानुमान करना, जटिल व गतिशील वातावरण का आकलन करना, बाजार दशाओं का लाभप्रद मूल्यांकन करना, श्रम, सूचना व भौतिक एवं वित्तीय संसाधनों की कठिनाओं को वहन करना आदि प्रबन्धक के उद्यमीय कार्य हैं। संगठन एवं नेतृत्व एवं प्रभुत्व स्थापित करना होता है। उद्यमी के रूप में प्रबन्धक उद्योग को साधन प्रदान करने वाला, अवसरों का विदोहन करने वाला, आशावादी दृष्टिकोण रखने वाला, व्यावसायिक अनुसंधान करने वाला होता है। वह विकास की गति का प्रवर्तक होता है।
15. ज्ञान का उत्पादक उपयोग
- प्रबन्ध का एक आधुनिक कार्य ज्ञान को उत्पादन बनाना है। प्रबन्धक को अपने तकनीकी, मानवीय, प्रबन्धकीय, एवं सामाजिक ज्ञान में वृद्धि करके इसका संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग करना चाहिए। परम्परागत प्रबन्ध ने अपने ज्ञान का सृजनात्मक एवं उत्पादक उपयोग नहीं किया।
- प्रबन्ध विषय के महान दार्शनिक पीटर एफ ड्र लिखते हैं कि इस शताब्दी का महानतम प्रबन्ध कार्य ज्ञान को उत्पादक बनाना है, जैसा कि पिछली शताब्दी का महत्वपूर्ण कार्य शारीरिक कार्य को उत्पादक बनाना था। प्रबन्धक का महत्वपूर्ण कार्य आधुनिक प्रौद्योगिकीय सूचनाओं व ज्ञान का उत्पादक करके संगठन के लाभों में वृद्धि करना है।
16. समय प्रबन्धन
- प्रबन्ध का यह सबसे महत्वपूर्ण कार्य है कि वह जो कुछ करे समय की पाबन्दी, सीमा, मांग को ध्यान में रखकर समय रहते करे समय के अनुकूल किए गए कार्य ही संगठन के लिए उपयोगी होते हैं।
- प्रबन्धक को अपने व्यस्त समय का विभाजन सभी जरूरी कार्यों के लिए करना होता है। अतः प्रबन्धक को समय का उचित नियोजन (उपयोग) करना होता है ताकि उसका अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके।
- प्रबन्धक को समय के प्रति चेतनशील होना चाहिए। उसे स्वयं को समय के अनुकूल ढाल लेना चाहिए। संगठन के लक्ष्य, नीतियां, योजनाएं, कार्य-शैली एवं व्यूहरचना के समय के अनुकूल होनी चाहिए।
- प्रबन्धक हो समय एवं कार्यों में सामंजस्य स्थापित करके समय का अधिकतम उपयोग करना चाहिए। आधुनिक प्रबन्धक अपने कार्यों के निष्पादन में समय के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करता है। वह समय के साथ न्यूनतम विरोध की नीति अपनाता है। वह कभी समय नहीं गवांता।
- पीटर ड्रकर लिखते हैं कि समय प्रबन्धक का सबसे दुलर्भ संसाधन है। अतः खर्च करने में प्राथमिकताओं का आधार निर्मित किया जाता चाहिए। समय सभी का होता है। वह सबसे पास होता है, चाहे व्यक्ति कितना भी साधनहीन क्यों न हो। समय से रहित कोई भी नहीं हो सकता। किन्तु एक सफल प्रबन्धक ही समय का उपयोग करना भलीभांति जानता है।
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