स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824 ई. और आर्यसमाज 1883 ई.)
आप किसी दिन आर्य समाज के सत्संग में जाकर देखिए। आप वहाँ अनेक बहनों को सत्संग में भाग लेते देखेंगे। वे यज्ञ करती हुई और वेदपाठ करती हुई भी दिखाई देंगी। यह मूलशंकर के मौलिक योगदान का ही कमाल है जो गुजरात से धार्मिक सुधार आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि थे। बाद में वे दयानन्द सरस्वती (1824 ई. - 1883 ई.) जाने गए। उन्होंने 1875 ई. में आर्यसमाज की स्थाना की।
उत्तरी भारत में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सबसे प्रभावशाली धार्मिक और सामाजिक सुधार आन्दोलन का नेतृत्व किया। उनका मानना था कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने वेद रूपी ज्ञान मानव मात्र के लिए दिया और आधुनिक विज्ञान के सभी मूल तत्त्व वेदों में खोजे जा सकते हैं। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे, कर्मकाण्ड और पुरोहितवाद, विशेष रूप से प्रचलित जातिपांति के दुर्व्यवहार और ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित हिन्दूध र्म की कट्टरता की निन्दा करते थे। उन्होंने पश्चिमी विज्ञान के अध्ययन का समर्थन किया। इन्हीं सिद्धान्तों के प्रचार हेतु उन्होंने पूरे देश में भ्रमण किया और 1875 ई. में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की।
उनका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' है। उनके लेख और प्रवचन हिन्दी भाषा में होने के कारण सम्पूर्ण उत्तरी भारत में प्रचलित हो गए। आर्यसमाज के सदस्य बालविवाह का विरोध करते थे और विधवा विवाह का समर्थन यह आर्य समाज उत्तर प्रदेश, राजस्थान और में तीव्रता से लोकप्रिय होता चला गया। गुजरात समूचे उत्तरी भारत में शिक्षा के प्रचार और प्रसार कार्य के लिए बालकों और बालिकाओं के विद्यालयों और महाविद्यालयों का जाल बिछा दिया गया।
लाहौर दयानन्द ऐग्लो-वैदिक स्कूल शीघ्र ही पंजाब के एक प्रसिद्ध कालेज के रूप में विकसित हुआ। इन विद्यालयों में आधुनिक विधियों से हिन्दी और अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाई करवाई जाती थी। लाला हंसराज ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1902 में स्वामी श्रद्धानन्द ने हरिद्वार में शिक्षा के पारम्परिक शास्त्रों के अध्ययन के लिए गुरूकुल की स्थापना की। यह प्राचीन आश्रमों की परिपाटी पर बनाया गया था।
आर्यसमाज ने भारत की जनता में स्वाभिमान और आत्मविश्वास की भावना को भरने का प्रयत्न किया। इससे राष्ट्रीयता का विकास हुआ। इसी के साथ-साथ इसका एक प्रमुख उद्देश्य था हिन्दूओं के अन्य धर्मों में परिवर्तन को रोकना । जो हिन्दू मुस्लिम या ईसाई बन गए थे उनको वापिस हिन्दू धर्म में लाने के लिए शुद्धि संस्कार का भी विधान दिया गया।
रामकृष्ण मिशन और स्वामी विवेकानन्द
गदाधर चट्टोपाध्याय (1836 ई. - 1886 ई.) एक निर्धन ब्राह्मण पुजारी थे, जो बाद में रामकृष्ण परमहंस के नाम से जाने गये। उनकी शिक्षा प्रारम्भिक स्तर से आगे न बढ़ पाई। उन्होंने दर्शन तथा शास्त्रों में कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की। उन्होंने अपना जीवन ईश्वर को समर्पित कर दिया था। उनका विश्वास था कि परमात्मा तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं और मानव सेवा ही ईश्वर की सेवा है, क्योंकि मानव ईश्वर का ही मूर्त रूप है। उनकी शिक्षाओं में साम्प्रदायिकता का कोई स्थान न था। मानवता में ही दिव्यता दिखाई देती थी और मानवता की सेवा को ही वे मोक्ष का साधन मानते थे।
नरेन्द्र नाथ दत्त (1863 ई. - 1902 ई.) रामकृष्ण परमहंस के सबसे प्रिय शिष्य थे जो बाद में विवेकानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने गुरू रामकृष्ण के सन्देश को पूरे संसार में, विशेष रूप से, अमेरिका और यूरोप में प्रसारित करने का प्रयत्न किया। विवेकानन्द स्वयं भारत की आध्यात्मिक विरासत पर गर्व का अनुभव करते थे परन्तु उनका विश्वास था कि कोई भी व्यक्ति या राष्ट्र दूसरों की संगति के बिना अलग थलग रह कर जीवित नहीं रह सकता। वे जाति प्रथा, कठोर कर्मकाण्ड तथा सदियों पुराने अन्धविश्वासों के सख्त विरोधी थे और स्वतन्त्रता, स्वतन्त्र चिन्तन और समानता के पक्षपाती थे।
विवेकानन्द हृदय की गहराइयों से सच्चे देशभक्त थे। उन्हें भारतीय संस्कृति के विकास में अगाध विश्वास था। भारतीय संस्कृति के महत्त्व और गौरव को पुनर्जीवित करने का अदम्य उत्साह था। उन्होंने भारतीय संस्कृति के उत्थान में हर सम्भव प्रकार से अपना योगदान किया। स्वामी विवेकानन्द ने सभी धर्मों में एकता के रामकृष्ण जी की शिक्षा का प्रचार करने में स्वयं को लगा दिया। उन्होंने वेदान्त दर्शन का प्रचार किया जिसे वे सबसे अधिक विवेकपूर्ण दर्शन मानते थे।
जनसाधारण के उत्थान पर अत्यधिक बल देना ही विवेकानन्द के सामाजिक दर्शन का मुख्य लक्षण था। उनके अनुसार निर्धन और दलित लोगों की सेवा ही सर्वोत्तम धर्म है। इसी सेवा को संगठित करने के लिए उन्होंने 1897 ई. में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। आज तक इस मिशन ने राष्ट्रीय आपदाओं के समय समाज सेवा जैसे बाढ़, अकाल और महामारी के समय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इसके द्वारा अनेक विद्यालय, अस्पताल और अनाथालय चलाए जा रहे हैं।
1893 ई. में उन्होंने अमेरिका में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन (धर्मों की संसद ) में भाग लिया। उन्होंने सिद्ध किया कि वेदान्त सभी लोगों से ही सम्बद्ध है न कि केवल हिन्दुओं से उनके भाषण का अन्य देशों के लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा, और इस तरह विश्व की दृष्टि में भारतीय संस्कृति के महत्व और गौरव में भी आशातीत वृद्धि हुई। यद्यपि उनका मिशन केवल धार्मिक प्रकृति का ही था लेकिन स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय जीवन के सभी पक्षों में सुधार करने में रूचि रखते थे। वह लोगों की निर्धनता और दयनीय दशा को सुधारने के लिए बहुत चिन्तित रहते थे और कहते थे कि जन साधारण की परवाह न करना एक पाप है। वह स्पष्ट रूप से कहते थे- हम स्वयं अपनी दु:खी और गिरी हुई स्थिति के लिए उत्तरदायी हैं। "वे लोगों का अपने मोक्ष के लिए स्वयं प्रयत्नशील होने की सलाह देते थे। इसी उद्देश्य से इस कार्य के लिए पूरी निष्ठा से जुड़े हुए कार्यकर्ताओं की टोलियों को रामकृष्ण मिशन की ओर से प्रशिक्षित किया गया। इस प्रकार विवेकानन्द ने सामाजिक अच्छाई या समाज सेवा पर बल दिया।
थियोसोफिकल सोसाइटी और एनी बेसेन्ट
आधुनिक भारतीय संस्कृति समाज, और धर्म के इतिहास में थियोसोफिकल सोसायटी ने एकअत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसकी स्थापना अमेरिका में एक रशियन अध्यात्मज्ञानी मैडम एच.पी ब्लेवेत्स्की और एक अमेरिकन कर्नल एच एस. आलकॉट ने 1875 ई. में की।
इसका मुख्य उद्देश्य था प्राचीन धर्म, दर्शन और विज्ञान का अध्ययन, मानव में अन्तर्निहित शक्तियों का विकास और एक सर्व व्यापी विश्वबन्धुत्व की भावना को प्रोत्साहित करना ।
भारत में इस सोसायटी का आरम्भ सन 1879 ई. में किया गया और इसका मुख्यालय 1886 ई. में मद्रास के समीप अडयार में स्थापित किया गया था। 1893 ई. में एनी बेसेन्ट के नेतृत्व में इसका प्रभाव बढ़ता गया।
एनी बेसेन्ट ने देश के स्वतन्त्रता संग्राम में अहम भूमिका का निर्वाह किया था। उन्होंने तथा उनके साथियों ने हिन्दुओं के प्राचीन धर्म, जोरास्ट्रियनिज्म और बौद्ध धर्म के पुनरोद्धार और विकास के कार्य में अपने आप को समर्पित कर दिया। उन्होंने आत्मा के शरीर बदलने (पुनर्जन्म) के सिद्धान्त को भी स्वीकार किया। उन्होंने साथ ही सार्वभौमिक भ्रातृत्व भावना पर भी बल दिया। उन्होंने शिक्षित भारतीयों को अपने देश के प्रति गर्व अनुभव करने को प्रोत्साहित किया।
एनी बेसेन्ट का आन्दोलन ऐसे पाश्चात्य देशों के लोगों द्वारा चलाया जा रहा था जो भारत की धार्मिक और आध्यात्मिक परम्पराओं को बहुत महत्त्व देते थे। इससे भारतीयों को पुनः आत्म विश्वास प्राप्त करने में सहायता मिली।
वस्तुतः एनी बेसेन्ट द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण थे। उन्होंने बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू महाविद्यालय की स्थापना की जिसको बाद में मदन मोहन मालवीय जी को सौंप दिया। मालवीय जी ने इस महाविद्यालय को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया । यद्यपि थियोसोफिकल सोसायटी बहुत अधिक जन साधारण में लोकप्रिय नहीं हो पाई, परन्तु एनी बेसेन्ट के नेतृत्व में भारतीयों को जगाने के लिए जो कार्य किया गया वह उल्लेखनीय था। उन्होंने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास करने के लिए बहुत कार्य किया। थियोसोफिकल सोसायटी का अड्यार में मुख्यालय ज्ञान का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जिसके पुस्तकालय में संस्कृत के दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध थे।
इस सोसायटी ने अस्पृश्यता और महिलाओं के उद्धार के लिए बहुत संघर्ष किया। एनी बेसन्ट ने अपना सम्पूर्ण जीवन भारतीय समाज की सेवा में लगा दिया। उन्होंने अपने मिशन का इन शब्दों में वर्णन किया “भारत के प्राचीन धर्मों को पुनर्जीवित करना और सुदृढ़ करना ही प्रथम उद्देश्य है। इससे नया आत्म सम्मान अतीत के प्रति गौरव, और भविष्य में विश्वास उत्पन्न होगा जिसके फलस्वरूप देश प्रेम की भावना विकसित होगी और राष्ट्र के पुनर्निर्माण को बल मिलेगा।"
भारत में एनी बेसेंट की अनेक सफलताओं में से एक सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल की स्थापना है। एनी बेसेंट ने भारत को अपना स्थायी निवास बनाया और भारतीय राजनीति में सक्रिय भाग लिया। वे कहती थीं"- भारत की कई अन्य आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता है- राष्ट्रीय भावना का विकास और एक ऐसी शिक्षा जो भारतीय विचारों पर आधारित हो और पश्चिमी संस्कृति और विचारों से मुक्त होनी चाहिए।" उन्होंने सदा भारतीयों के लिए स्वशासन (Home) rule) का समर्थन किया और स्वशासन के संदेश के प्रसार के लिए होमरूल लीग की स्थापना की। पूरे भारत में थियोसोफिकल सोसाइटी की शाखाएँ स्थापित की गई। उन्होंने एक पत्रिका थियोसोफिस्ट भी निकाली जिसका व्यापक प्रसार था। सोसाईटी ने विशेषतः दक्षिणी भारत में सामाजिक और धार्मिक सुधारों में बहुत योगदान किया। इसके अधिकांश कार्य श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा ही प्रभावित थे।
अलीगढ़ आन्दोलन और सैयद अहमद खाँ
अभी आपने हिन्दूधर्म की प्रथाओं और सामाजिक संस्थाओं में सुधार के विषय में पढ़ा। ऐसा ही एक सुधारवादी आन्दोलन इस्लाम धर्म में भी शुरू हुआ था। उच्च वर्गीय मुसलमान पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति के सम्पर्क में आने से बचते रहे और सन 1857 ई. के विद्रोह के बाद ही उनमें धार्मिक सुधार के आधुनिक विचार पनपने प्रारम्भ हुए।
इस दिशा में नवाब अब्दुल लतीफ (1828-1893 ) द्वारा कलकत्ता में 1863 ई. में स्थापित मुहम्मदन लिटरेरीसोसायटी के बाद ही हुआ। इस सोसाइटी ने आधुनिक विचारों की रोशनी में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर विचार विमर्श को प्रोत्साहन दिया और साथ ही उच्च और मध्य वर्ग के मुसलमानों को पश्चिमी शिक्षा (अंग्रेजी शिक्षा) अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।
मुस्लिम जनता पर चिश्ती सूफी सन्तों के आन्दोलनों का भी प्रभाव पड़ा जिन्होंने न केवल परमात्मा को समर्पण कर देने की शिक्षा दी अपितु संतों की भी पूजा को भी प्रोत्साहित किया। एक अन्य आंदोलन दिल्ली में शाह वली उल्लाह से संबंधित है, जिन्होंने कट्टर धार्मिक प्रथाओं का विरोध किया और शिया सम्प्रदाय को तथा एकेश्वरवाद को पुनर्जीवित किया।
लखनऊ में फिरंगीमहल की दार्शनिक और ज्ञानमयी परम्परा को नये शैक्षिक पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया और सम्पूर्ण भारत में 18वीं और 19वीं शताब्दी में इसका प्रचार भी किया गया।
सैयद अहमद खान द्वारा किए गए सामाजिक सुधार
मुस्लिम सुधारकों में सबसे ज्यादा उल्लेखनीय नाम उत्तर प्रदेश में रायबरेली के सैयद अहमद का था। उन्होंने बुनकरी उद्योग नगरी इलाहाबाद और पटना उद्योग की गिरती स्थिति के कारण मुस्लिम कलाकारों को आकर्षित किया और उन्हें सामाजिक अस्थिरता के वातावरण में एक दृढ़ विश्वास के साथ सम्मान प्राप्त करने की सलाह दी।
उन्होंने अनुभव किया कि जब तक मुस्लिम ब्रिटिश राज्य के परिवर्तित वातावरण के अनुसार अपने को न ढालेंगे, तब तक वे सम्मान और सम्पन्नता के नये अवसरों से वंचित ही रहेंगे।
वे आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से बहुत अधिक प्रभावित थे और सारे जीवन इस्लाम के साथ उनका सांमजस्य स्थापित करने के लिए काम करते रहे। उन्होंने कुरान की व्याख्या बुद्धिवाद और विज्ञान की रोशनी में की। उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे आलोचनात्मक दृष्टिकोण और विचारों की स्वतन्त्रता को अपनाएँ।
उन्होंने धर्मान्धता, संकीर्णता और अलगथलग रहने की प्रवृत्ति के विरूद्ध भी लोगों को सावधान किया। उन्होंने लोगों को उदारवृत्ति वाला और सहनशील बनने का उपदेश दिया। 1883 ई. में उन्होंने कहा “ अब हम दोनो ही ( हिन्दू और मुस्लिम) भारत की हवा में ही सांस लेते हैं, गंगा और यमुना का पवित्र जल पीते हैं, और यहीं की पैदावार खाकर जीवित है। हम एक राष्ट्र हैं और देश की प्रगति और भलाई हमारी एकता, पारस्परिक सहानुभूति और प्रेम पर निर्भर है जबकि पारस्परिक असहमति जिद और विरोध तथा पारस्परिक दुर्भावनाएँ निश्चय ही हमारा सर्वनाश कर देंगी। "
सैयद अहमद खां का सही विश्वास था कि अकेलेपन की प्रवृत्ति मुसलमानों को बर्बाद कर देगी और इसको रोकने के लिए उन्होंने बाहरी दुनिया की सांस्कृतिक शक्तियों से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने ब्रिटिश शासकों की मुस्लिमों के प्रति दुर्भावना को भी दूर करने का प्रयत्न किया जिन्हें वे अपना असली शत्रु समझते थे।
उनका विश्वास था कि मुस्लिमों का धार्मिक और सामाजिक जीवन आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान और संस्कृति की सहायता से सुधारा जा सकता है। इसलिए आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देना उनका पहला कार्य था। एक सरकारी अधिकारी होने के कारण उन्होंने कई स्थानों पर विद्यालय खोले। उन्होंने कई पश्चिमी पुस्तकों का उर्दु में अनुवाद करवाया। उन्होंने अलीगढ़ में मुहम्मदन ऐंग्लो-ओरियन्टल कालेज की 1875 ई. में स्थापना की। यह कालेज पाश्चात्य विज्ञानों और संस्कृति का प्रचार करने के लिए बनाया गया था। बाद में यही कालेज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नाम से विकसित हुआ।
सैयद अहमद खाँ द्वारा मुसलमानों के बीच शुरू किया गया उदार सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलन अलीगढ़ आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ क्योंकि यह आन्दोलन अलीगढ़ से ही प्रारम्भ हुआ। इस आन्दोलन का केन्द्र एंग्लो-ओरियन्टल कालेज ही था। यह आन्दोलन मुस्लिमों में आधुनिक शिक्षा के प्रसार हेतु चलाया गया था यद्यपि इसका उद्देश्य इस्लाम से नाता तोड़ना कतई भी न था। यह भारतीय मुस्लिमों के लिए एक केन्द्रीय शैक्षिक संस्था बन गया था। इसके बाद मुस्लिमों में जो भी जागृति आई, वह सब अलीगढ़ आन्दोलन के ही कारण थी, देश के विभिन्न भागों में बिखरी हुई मुस्लिम जनता के लिए एक केन्द्रीय स्थल प्रदान किया। इसने उन सब के विचारों को एक सामान्य भावस्थल प्रदान किया और एक समान भाषा उर्दु प्रदान की। उर्दू में ग्रन्थों को सम्पादित करने के लिए एक मुस्लिम प्रेस भी विकसित किया गया।
सैयद अहमद के प्रयत्नों से सामाजिक वातावरण में भी इसी के साथ विस्तार हुआ। उन्होंने सामाजिक सुधारों के लिए भी कार्य किया। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा की ओर भी ध्यान दिया और पर्दा प्रथा के बहिष्कार पर भी बल दिया। वह बहुविवाह के भी विरूद्ध थे। इसी के साथ अनेक अन्य सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन भी हुए जिन्होंने किसी न किसी रूप में मुस्लिम जनता में राष्ट्रीय जागृति लाने का प्रयत्न किया। मिर्जा गुलाम अहमद ने 1899 ई. में अहमदिया आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आन्दोलन के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश में अनेक विद्यालय और महाविद्यालय खोले गए जो आधुनिक शिक्षा देते थे। धर्म के क्षेत्र में भी इस आन्दोलन के अनुयायी इस्लाम की सार्वभौमिक और मानवतावादी प्रकृति पर बल देते थे। वे हिन्दू और मुस्लिम एकता के भी पक्षपाती थे।
आधुनिक भारत के महान कवियों में से एक मुहम्मद इकबाल ( 1876 ई. भी अपनी कविता के माध्यम से मुस्लिम युवा पीढ़ी और हिन्दुओं के दार्शनिक और धार्मिक 1938 ई.) ने दृष्टिकोण को अत्यधिक प्रभावित किया। उन्होंने ऐसा गतिशील दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया जो पूरे विश्व को बदल कर रख सकता है। वह मूलतः एक मानवतावादी थे।
पारसियों में सुधार आन्दोलन
पारसियों में धार्मिक सुधार 19वीं शताब्दी के मध्य मुम्बई में प्रारम्भ हुए। 1851 ई. में रहनुमाई मजदायसन सभा अर्थात धार्मिक सुधार संघ की स्थापना नारोजी फरदौनजी, दादाभाई नरोजी, एस एस बंगाली तथा अन्यों द्वारा की गई। उन्होंने रस्त गुफ्तार नामक एक जर्नल भी पारसियों में सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए प्रारम्भ किया। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में गहरी रूढ़िवादिता के विरूद्ध प्रचार किया और लड़कियों की शिक्षा, विवाह और सामान्य रूप से महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार लाने के लिए पारसी सामाजिक रीतिरिवाजों के आधुनिकीकरण का कार्य आरम्भ किया। समय के साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से पारसी भारतीय समाज का सबसे अधिक पश्चिमी सभ्यता में रंगा हुआ वर्ग बन गए।
सिखों में धार्मिक सुधार
सिखों में धार्मिक सुधारों का प्रारम्भ 19वीं शताब्दी के अन्त में अमृतसर में खालसा कालेज की स्थापना से हुआ। सिंह सभाओं के प्रयत्नों से (1870 ई.) और ब्रिटिश सहायता से अमृतसर में 1892 ई. में खालसा कालेज की स्थापना हुई। इसी प्रकार के प्रयत्नों से गुरूमुखी भाषा, सिख शिक्षाओं और पंजाबी साहित्य का विकास किया।
1920 ई. के बाद, सिखों में जोश आया जब पंजाब अकाली आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य था गुरुद्वारों और सिख संस्थाओं के प्रबन्धान में सुधार करना। सब पुरोहितो / महन्तों के अधीन थे जो उन्हें अपनी व्यक्तिगत जागीर समझते थे। 1925 में एक कानून पास हुआ जिसने गुरूद्वारों के प्रबन्ध का अधिकार शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबन्धक समिति को सौंप दिया।
धार्मिक सुधार आन्दोलनों का प्रभाव
अंग्रेज समाज के रूढ़िवादी उच्च वर्ग को प्रसन्न करना चाहते थे। परिणामतः केवल दो ही आवश्यक कानून बन पाए। महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए भी कुछ कानूनी कदम उठाए गए। उदाहरणतया सती प्रथा को 1829 ई. में गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। भ्रूण हत्या भी गैर कानूनी घोषित कर दी गई।
1856 ई. में विधवा पुनर्विवाह का कानून भी पास हुआ। 1860 ई. में पास किए गए एक कानून के द्वारा लड़कियों की शादी की उम्र 10 तक बढ़ा दी गई।
1872 ई. में पास हुए एक कानून के द्वारा अन्तर्जातीय और अन्त:साम्प्रदायिक विवाहों को भी सहमति प्रदान कर दी गई। 1891 ई. में पास किए गए एक कानून से बालविवाह को निरुत्साहित किया गया।
बाल विवाह रोकने के लिए शारदा एक्ट 1929 ई. में पास किया गया। हज कानून के द्वारा 14 साल से कम उम्र की बालिका और 18 साल से कम उम्र के बालक का विवाह गैर कानूनी है।
20वीं शताब्दी में विशेष रूप से 1919 ई. के बाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन समाज सुधार का प्रभुत्व प्रतिपादक बन गया। धीरे धीरे सुधारकों ने प्रचार कार्य भारतीय भाषाओं में प्रारम्भ किया जिससे उनकी आवाज जन-जन तक पहुँच सके। उन्होंने उपन्यासों नाटकों, लघु कथाओं, कविताओं और प्रेस को माध्यम बनाया और 1930 ई. से सिनेमा द्वारा भी उनके विचारों का प्रसार किया गया।
अनेक व्यक्तियों, सुधार समाजों और धार्मिक संगठनों ने महिलाओं में शिक्षा के प्रसार के लिए, बाल विवाहों को रोकने के लिए, पर्दे से नारियों को बाहर लाने के लिए, एक पत्नी धर्म के निर्वाह के लिए और मध्य वर्ग की महिलाओं को रोजगार करने या सरकारी नौकरी करने के लिए प्रचार हेतु बहुत अधिक परिश्रम किया। इन्हीं प्रयत्नों के फलस्वरूप भारतीय महिलाओं ने देश के स्वतन्त्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। फलस्वरूप अनेक अन्ध विश्वास दूर हो गए और कुछ अन्य दूर होने के मार्ग पर ही थे। अब विदेशों में भ्रमण के लिए जाना कोई पाप नहीं समझा जाता।
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