व्यापार नीति की अवधारणा, 1991 से आगे व्यापार नीति | निर्यात निराशावाद (Export Pessimism)

व्यापार नीति की अवधारणा, 1991 से आगे व्यापार नीतिनिर्यात निराशावाद (Export Pessimism)

व्यापार नीति की अवधारणा, 1991 से आगे व्यापार नीति | निर्यात निराशावाद (Export Pessimism)


 

व्यापार नीति की अवधारणा

 

  • व्यापार नीति का विस्तृत विवरण देश में अपनाई गई विस्तृत व्यापार रणनीति पर निर्भर करता है। इसी क्रम में व्यापार रणनीति नियोजनकर्ताओं द्वारा अपनाई गई विकास की विस्तृत रणनीति पर निर्भर करती है। भारत में विस्तृत रूप से दो प्रकार की विकास रणनीतियाँ अपनाई गई हैं : अंत: उन्मुखी एवं बाह्योन्मुखी ।

 

  • 1991 से पूर्व व्यापार पर नियंत्रण भारत की व्यापार नीति का महत्त्वपूर्ण लक्षण रहा है। व्यापार पर नियंत्रण दो प्रकार के उपायों में विभाजित हैं तटकर उपाय एवं गैर-तटकर उपाय। 


  • तटकर उपाय आयातों एवं निर्यातों पर लगाए जाने वाले शुल्क एवं करों से संबंधित होते हैं। गैर-तटकर उपाए वे होते हैं जो व्यापार पर अभ्यं या अन्य परिमाणात्मक प्रतिबंधों संबंधित से होते हैं। उदाहरण के लिए, खाद्य पदार्थों के आयात में प्रमापों का निर्धारण भी एक प्रकार का व्यापार पर गैर-तटकर अवरोध है। किसी वस्तु का आयात करने के लिए लाइसेंस प्राप्त करने की आवश्यकता भी व्यापार पर गैर-तटकर अवरोध है।

 

1991 को विभाजन वर्ष मानते हुए भारत की व्यापार नीति को दो वृहत् अवधियों में विभाजित किया जा सकता है:

 

  • 1991 से पूर्व व्यापार नीति 
  • 1991 से आगे व्यापार नीति

 

  • 1991 से पूर्व अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, विशेष रूप से आयातों पर बहुत अधिक नियंत्रण थे। 1991 में बड़े उदारीकरण उपायों के पश्चात् अनेक नियंत्रण हटा दिए गए हैं। विश्व के अधिकांश देशों के समान भारत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) का एक सदस्य है। अतः इसकी व्यापार नीति डब्ल्यू.टी.ओ. के नियमों एवं नियमनों के अनुरूप होनेर की आवश्यकता होती है। डब्ल्यू.टी.ओ. का उद्देश्य कुछ विशेष परिस्थितियों में छोड़कर व्यापार पर परिमाणात्मक प्रतिबंधों को समाप्त करना एवं तटकरों में कमी करना होता है।

 

  • डब्ल्यू.टी.ओ. नियमों के अंतर्गत आयातों पर परिमाणात्मक प्रतिबंध केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में किए जाने होते हैं। जैसे यह अंदेशा हो कि निर्यातक देश अपने उत्पादों का राशिपातन (Dumping) करेंगे। राशिपातन होने में माना जाता है कि उत्पाद लागत से कम कीमत पर बेचे जा रहे हैं। किंतु लागतें निर्धारित करने में बड़ी समस्याएँ होती हैं। अतः राशिपातन की पहचान करने में समस्या होती है। लागत कीमतें निर्यातों में अपेक्षाकृत कम हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अतिरेक क्षमता की स्थिति में फर्में अतिरेक क्षमता का उपयोग करने के लिए लागत की अपेक्षा कम कीमतों पर बेच सकती हैं।


  • परिणामस्वरूप वास्तव में यह निर्धारित करना कठिन है कि क्या राशिपातन हो रहा है? सामान्य व्यवहार लागत अनुमानों पर विश्वास करना नहीं बल्कि व्यापार की संख्याओं पर आधारित होता है। यदि किसी विशिष्ट देश के आयातों में तीव्र गति से एवं अचानक वृद्धि होती है, तो यह संदेह किया जाता है कि इसमें राशिपातन निहित है। तथापि, कुल मिलाकर, व्यापार पर परिमाणात्मक प्रतिबंधों से हटकर परिवर्तन हुए हैं।

 

1991 से पूर्व व्यापार नीति

 

  • स्वतंत्रता के समय से लेकर 1980 के दशक के मध्य तक तथा अधिक स्पष्ट रूप से 1991 तक भारतीय व्यापार नीति आत्मनिर्भरता की नीति के आधार पर प्राप्त की जाती थी। नियोजित विकास का उद्देश्य एक ऐसे औद्योगिक समूह की स्थापना करना होता था जो कि वस्त्र जैसी अंतिम वस्तुओं के उत्पादन में ही नहीं बल्कि मशीनों एवं उपकरणों का भी उत्पादन करने में सक्षम हो। इसका उद्देश्य केवल उपभोक्ता वस्तु उद्योग स्थापित करना ही नहीं बल्कि पूँजीगत वस्तुओं का उत्पादन करने वाले उद्योग स्थापित करना था।

 

  • व्यापार नीति का उद्देश्य आत्मनिर्भर उत्पादन संरचना के लक्ष्य को प्राप्त करने पर आधारित था। आयातों पर बहुत अधिक तटकर होते थे। अधिक तटकरों के भावना देश में उत्पादित वस्तुओं की अपेक्षा आयातित वस्तुओं को अधिक महँगी बनाने के द्वारा घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करना था। इसे ही आयात प्रतिस्थापन का नाम दिया जाता है। इसमें केवल आयात शुल्क ही नहीं बल्कि आयात करने से पूर्व विभिन्न अनुमति प्राप्त करनी होती थी। उदाहरण के लिए, एक कंप्यूटर के लिए कई अनुमति एवं लाइसेंस की आवश्यकता पड़ती थी। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए उसके महत्त्व के मूल्यांकन के आधार पर केंद्रीय सरकार उसके आयात का निर्णय लेगी।

 

  • आयात प्रतिस्थापन का दूसरा पक्ष निर्यातों को हतोत्साहित करना था निर्यातों को हतोत्साहित करने की कोई सक्रिय नीति नहीं थी किंतु आयात तट करों का अभिप्राय यह होता था कि आयात प्रतिस्थापन उत्पादन में विनियोग से होने वाले लाभ निर्यातों के लिए उत्पादन में विनियोग लाभ की अपेक्षा अधिक हों। भारत में उत्पादन लागतों को बहुत अधिक न मानते हुए कीमत अधिक होने पर लाभ भी अपेक्षाकृत अधिक होंगे। दूसरी ओर निर्यातों में भारतीय उत्पादकों को अन्य देशों के उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा करनी होगी तथा निर्यातकों को अधिक लाभ नहीं होंगे। 


  • इस प्रकार अधिक आयात शुल्क की नीति ने निर्यातों में विनियोग को हतोत्साहित करने का काम किया। जैसा कि उसमें कहा गया था कि अधिक आयात शुल्क बाजार कीमत संकेतों को निर्यातों से हटाकर आयात प्रतिस्थापन की ओर विकृत कर देते थे।

 

  • आर्थिक नीतियों की रचना मात्र हवाई बातों से नहीं होती है बल्कि वे अनिवार्य रूप से कुछ ऐसे सिद्धांतों पर आधारित होती है कि अर्थव्यवस्था किस प्रकार कार्य करती है। आयातों पर इस प्रकार के नियंत्रण के पीछे कौन-सा सिद्धांत था यह सिद्धांत भारत नियोजित विकास से प्रारंभ होता है जो द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1961-65 ) के निर्माण के एक अंग के रूप में था। यह सिद्धांत निर्यात निराशावाद' (Export Pessimism) के नाम से जाना जाता है।

 

निर्यात निराशावाद (Export Pessimism)

 

  • औपनिवेशीय उत्तर स्थिति के बाद 1950 के दशक में यह माना जाता था कि अल्पविकसित देशों की निर्यात आय अत्यधिक सीमितताओं पर निर्भर होती थी। विश्व विनिर्माण औद्योगीकृत या विकसित देशों में संकेंद्रित था जब कि अल्पविकसित देश अधिकांशतः कृषीय प्रकृति के थे। विश्व व्यापार की संरचना इस विभाजन को प्रतिबिंबित करती थी। अल्पविकसित देश कॉफी, चाय, कच्ची कपास या खनिज जैसे कच्चे माल एवं प्राथमिक वस्तुएँ निर्यात करते थे। विकसित देश विनिर्मित उत्पाद निर्यात करते थे। विश्व व्यापार औद्योगीकृत देशों के विनिर्मित उत्पादों का कृषीय एवं प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादक देशों की कृषीय वस्तुओं एवं प्राथमिक वस्तुओं से विनिमय था।

 

  • विनिर्मित वस्तुएँ प्रायः बड़ी कंपनियों द्वारा उत्पादित की जाती हैं। एकाधिकारी बाजार स्थिति होने के कारण कंपनियाँ अपने उत्पादों की कीमत निर्धारित कर सकती थीं अर्थात् वे कीमत निर्माता थी। कृषीय वस्तुएँ बहुत बड़ी संख्या में छोटे उत्पादकों द्वारा उत्पादित की जाती हैं। इन छोटे उत्पादकों के पास बाजार शक्ति नहीं होती है तथा अपने उत्पादों की कीमतें निर्धारित नहीं कर सकते हैं अर्थात् वे कीमत स्वीकार करने वाले होते हैं। दूसरी ओर विकसित देशों से कृषीय वस्तुओं के क्रेता बहुत कम संख्या में होते हैं। इस स्थिति को हम क्रेता एकाधिकार की स्थिति कहते हैं जिसमें किसी उत्पाद के कुछ या केवल एक ही क्रेता होता है। वह क्रेता अथवा कुछ क्रेता उस प्राथमिक वस्तु विशेष के कीमत निर्माता हो सकते हैं। मान लीजिए, यदि कॉफी की कीमतों को कम रखा जाता है अतः प्राथमिक वस्तुओं के लाखों उत्पादकों को प्रतिफल भी कम प्राप्त होगा।

 

  • हमें इस चित्र को पूरा करने के लिए विश्व व्यापार की संरचना के एक तीसरे आयाम को जोड़ने की आवश्यकता है। वह महत्त्वपूर्ण खनिज संसाधनों का औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं के बहुराष्ट्रीय निगमों ( MNCs), कभी-कभी राष्ट्र पार निगमों (Trans national Corporations TNCs) का नियंत्रण होता है। बहु-राष्ट्रीय निगमों के एक से अधिक देशों में कार्यकलाप होते थे तथा वे विकासशील देशों के अधिकांश खनिजों एवं कच्चा माल संसाधनों का नियंत्रण करते थे। पश्चिमी एशिया में मुख्य रूप से उत्पादित कच्चे तेल का एक प्रतिष्ठित उदाहरण है किंतु इसका नियंत्रण अंग्रेजी अमरीकी बड़ी कंपनियों द्वारा किया जाता था। कच्चे तेल के इस नियंत्रण का परिणाम यह था कि तेल की बड़ी कंपनियाँ कच्चे तेल की कीमत कम रखती थीं तथा पूर्तिकर्ता देशों की सरकारों को थोड़ी धनराशि रॉयल्टी के रूप में भुगतान करती थी।
  • तब विश्व व्यापार में अल्पविकसित देशों की भूमिका कृषि वस्तुएँ, खनिज एवं विभिन्न गैर-निर्मित वस्तुओं के निर्यात की होती थी। एक प्रतिस्पर्धी बाजार में कृषीय वस्तुओं की माँग सापेक्षिक रूप में कम होने के कारण उनके उत्पादन में वृद्धि होने से कीमतों के गिर जाने की संभावना होती है। अतः कृषीय वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि होने पर भी निर्यात - आय में वृद्धि की संभावना नहीं होती क्योंकि कीमतें गिर सकती हैं।

 

  • मान लीजिए, कॉफी के किसानों द्वारा अधिक उत्पादक विधियों को अपनाने से उत्पादकता में वृद्धि होती है। क्या बढ़ी हुई उत्पादकता का लाभ उत्पादकों को प्राप्त नहीं होगा? यह तभी होगा यदि केवल कुछ उत्पादकों (प्रगतिशील किसान) ने अकेले बेहतर तकनीक अपनाई जबकि अधिकांश किसानों ने नहीं अपनाया। तब प्रगतिशील किसानों को अपेक्षाकृत अधिक उत्पादकता का लाभ प्राप्त होगा। उनकी उत्पादन लागतें कम हो जाएँगी। कीमत स्थिर होने पर प्रगतिशील किसानों की अधिक उत्पादकता उन्हें अपेक्षाकृत अधिक निर्यात आय प्रदान करेगी। किंतु किसानों द्वारा उत्पादकता में सुधार एक समूह या देश के भी बाहर फैल सकता है। यदि कॉफी के सभी उत्पादक सुधरी हुई तकनीक को अपनाते हैं तब एकाधिकारी क्रेता विक्रेताओं में प्रतिस्पर्धा की स्थिति का उपयोग कीमतों को नीचे लाने में कर सकता है। ऐसी स्थिति में बढ़ी हुई उत्पादकता का प्रीमियम उपभोक्ताओं को हस्तांतरित भी कर सकते हैं अथवा नहीं भी। दूसरी ओर, औद्योगीकृत देशों के बहु-राष्ट्रीय निगम उत्पादकों को बढ़ी हुई उत्पादकता के लाभ हस्तांतरित करना नहीं होता है। उनकी एकाधिकारी स्थिति विनिर्मित वस्तुओं की कीमतें निर्धारित करने की उन्हें अनुमति प्रदान करती है ।

 

  • उपरोक्त दो प्रस्तावों का अभिप्राय यह है कि अल्पविकसित देश की व्यापार की शर्तें (अर्थात् एक देश से बेची जाने वाली वस्तुओं एवं खरीदी जाने वाली वस्तुओं की कीमतों के अनुपात या प्राथमिक वस्तु कीमतों के विनिर्मित वस्तु कीमतों से अनुपात) खराब हो जाएँगी। संक्षेप में, यह शक्तिशाली विश्लेषण था जो प्रबिश सिंगर परिकल्पना के नाम से जाना जाता है। 'निर्यात निराशावाद' की यही समझ थी कि एक अल्पविकसित देश निर्यात बाजार में कितनी धनराशि अर्जित कर सकता है, उसकी एक दृढ़ सीमा होती थी।

 

  • निर्यात निराशावाद का अन्य पक्ष आयात राशन व्यवस्था थी। चूँकि भारत को स्वयं के उद्योग विकसित करने की आवश्यकता थी, अतः उसे प्रमुख रूप से उद्योगों के लिए उपकरण एवं मशीनें आयात करने के लिए दुर्लभ विदेशी विनिमय की आवश्यकता थी। खाद्यान्न दुर्लभता की स्थिति में खाद्यान्न का भी आयात करना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में सीमित विदेशी विनिमय आयों के राशन व्यवस्था की आवश्यकता थी। सापेक्षिक कीमतों के आधार पर आयात की जाने वाली अथवा आयात न की जाने वाली वस्तुओं के विषय में निर्णय सरकार करती थी, बाजार के खिलाड़ी नहीं सभी आर्थिक रूप से लाभकारी होने वाली आयातित वस्तुओं में से सरकार सीमित विदेशी विनिमय के सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोगों के विषय में निर्णय करेगी।

 

  • अतः स्वतंत्रता के पश्चात् प्रारंभ के दशकों में भारतीय व्यापार नीति के लक्षण निर्यात निराशावाद एवं आयात नियंत्रण थे। इसमें 1980 के दशक के मध्य से परिवर्तन प्रारंभ हो गया तथा 1991 के उदारीकरण के साथ इसका परित्याग कर दिया गया।

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