1991 की व्यापार नीति सुधार उस बाह्य ऋण संकट की परिणाम थी जिसका सरकार ने सामना किया। उस समय सरकार के पास देय बाह्य ऋण भुगतानों को पूरा करने के लिए पर्याप्त विदेशी विनिमय नहीं था। अपनी अंतर्राष्ट्रीय ऋण देनदारी का भुगतान न कर सकने से बचाव के लिए सरकार अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से ऋण प्राप्त करने के उद्देश्य से संपर्क करने के लिए बाध्य थी।
आई.एम.एफ. सामान्यतः तथा शरारतपूर्ण रूप से संबंधित शर्तों के साथ ऋण प्रदान करती है। ये शर्ते सुधारों से संबंधित होती हैं जिन्हें उधार लेने वाली सरकार को लागू करने का वायदा करने की आवश्यकता होती है। भारत सरकार के लिए आवश्यक बड़े सुधार व्यापार नीति का उदारीकरण करने, मूल रूप से आयातों पर नियंत्रण हटाने तथा उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं को यह निर्णय करने कि किन वस्तुओं का आयात एवं किन वस्तुओं का निर्यात किया जाए इत्यादि से संबंधित थे ।
यद्यपि आई.एम.एफ. से ऋण के लिए व्यापार नीति में परिवर्तन करना एक शर्त थी किंतु उत्तर के लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह परिवर्तन भारत के स्वयं के विकास के लिए आवश्यक या लाभकारी था। यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर हम बाद में आएँगे। किंतु इस बिंदु पर यह विचार विमर्श करेंगे कि भारत की व्यापार नीति में परिवर्तन क्यों हुआ? क्या अंतर्राष्ट्रीय अनुभव में कुछ ऐसी बात थी जो व्यापार नीति के निर्यात निराशावाद' दृष्टिकोण के विरुद्ध हुआ?
1960 के दशक में दक्षिण कोरिया एवं ताइवान अल्प विकसित देशों से बहुत भिन्न नहीं थे। वे अधिकांशतः कृषीय अर्थव्यवस्थाएँ थीं तथा उनके निर्यात चावल या कसावा जैसी कृषीय वस्तुएँ थीं। किंतु 1960 के दशक के अंत एवं 1970 के दशकों में वे हांगकांग एवं सिंगापुर के साथ, जिन्हें एक साथ'नवीन औद्योगीकरण करने वाली अर्थव्यवस्थाएँ (NIEs) कहा जाता है तथा बाद में दक्षिण पूर्व एशियाई देश (विशेष रूप से थाईलैंड एवं मलेशिया) ने अपने निर्यातों की संरचना में परिवर्तन करना प्रारंभ कर दिया। वे अधिकांशतः कृषीय वस्तुओं के निर्यात से हल्की विनिर्मित वस्तुओं के निर्यातकों के रूप में तीव्र गति से बढ़ गए। जैसे- सिले- सिलाए वस्त्र, जूते, कोमल खिलौने एवं प्लास्टिक की वस्तुओं जैसी हल्की विनिर्मित वस्तुएँ। ये हल्की विनिर्मित वस्तुएँ श्रम-प्रधान होती थीं। चूँकि इन एन.आई.ई. में मजदूरी दर यूरोप, उत्तरी अमेरिका या जापान की अपेक्षा कम थी अतः ये देश स्वयं को श्रम प्रधान वस्तुओं के विनिर्माता एवं निर्यातक के रूप में स्थापित करने में सक्षम हुए।
1970 के दशक के अंत एवं 1980 के दशक के प्रारंभ में चीन की सुधार प्रक्रिया के पश्चात् चीन की अर्थव्यवस्था ने भी श्रम-प्रधान विनिर्मित वस्तुओं में मजबूत उपस्थिति स्थापित करने की प्रक्रिया में प्रवेश किया। वास्तव में इस क्षेत्र में चीन की प्रगति को इस तथ्य से सहायता प्राप्त हुई कि एन.आई.ई. में मजदूरियों में वृद्धि प्रारंभ की गई जिसने वहाँ के पूर्तिकर्ताओं को उत्पादन के श्रम प्रधान भाग को चीन में परिवर्तित कर दिया।
हम बाद में उस वैश्विक उत्पादन एवं व्यापार प्रणाली की प्रकृति के विषय में विचार विमर्श करने के लिए वापस आएँगे जो सृजित की जा रही है।इस बिंदु पर यह ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि एन.आई.ई., दक्षिण पूर्व एशियाई अर्थव्यवस्थाएँ एवं सबसे अधिक चीन का अपने प्रमुख भागीदारों यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका के साथ विशाल व्यापार अतिरेक होना प्रारंभ हो गया। यह निर्यात निराशावाद' दृष्टिकोण का एक महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक खंडन था। जिस निर्यात निराशावाद ने मत व्यक्त किया था कि अल्पविकसित देशों के निर्यातों की दृढ़ सीमाएँ हैं। वस्तुतः जो परिवर्तन हुआ वह यह है कि ये अर्थव्यवस्थाएँ कृषीय एवं अन्य प्राथमिक वस्तुओं के निर्यातक होने से परिवर्तित होकर श्रम प्रधान हल्की निर्मित वस्तुओं के निर्यातक हो गईं।
भारत एन.आई.ई., एस. ई. एशिया एवं चीन के समान बदलाव क्यों नहीं कर सका, जिसने एशिया को विश्व का विनिर्माण केंद्र बना दिया। किसी भी स्थिति में इन देशों के अनुभव ने निर्यात निराशावाद को समाप्त कर दिया तथा एक नई अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नीति की आवश्यकता को रेखांकित किया। इसने एक ऐसी व्यापार नीति को आवश्यक किया जो श्रम प्रधान विनिर्मित वस्तुओं के निर्माण में अब विकासशील अर्थव्यवस्था नामक पूर्व अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं के तुलनात्मक लाभ पर ध्यान दे। पूर्वगामी निर्यात निराशावाद दृष्टिकोण कृषीय वस्तुओं के उत्पादन में भूमि अतिरेक देशों के परंपरागत तुलनात्मक लाभ पर आधारित था। नवीन दृष्टिकोण ने एक ऐसी व्यापार नीति को आवश्यक बना दिया जो विकासशील देशों के केवल भूमि प्रधान कृषि में ही नहीं बल्कि श्रम-प्रधान विनिर्मित वस्तुओं के तुलनात्मक लाभ पर आधारित हो ।
इसे निरंतर करने के पूर्व उन दशाओं का अवलोकन करना उपयोगी होगा जिन्होंने विश्व विनिर्माण व्यापार में इस प्रकार के तीव्रगति से परिवर्तन को उत्पन्न किया। प्रथम, कई विकासशील देशों में विनिर्माण एवं प्रबंधन क्षमताओं का विकास हुआ। अपने स्वयं का विकास करने के प्रयास में, वह चाहे आयात प्रतिस्थापन में हो अथवा नहीं, एशियाई देशों ने श्रमिकों एवं प्रबंधकों में पर्याप्त निपुणता विकसित कर ली विश्व बाजार में हल्के विनिर्माण के इस विस्तार के लिए उच्च स्तर की मूल शिक्षा आवश्यक थी ।
भारत की व्यापार नीति में एक बड़ी बात कुछ प्रतिबंधों की अनिश्चित प्रकृति है। उदाहरण के लिए, कच्ची कपास के एक मौसम में निर्यात करने की अनुमति है किंतु अगले मौसम में नहीं। या जब फसल बहुत अच्छी होती है तो चावल निर्यात की अनुमति हो सकती हैं तथा अनाज के संचय की समस्याएँ हो सकती हैं। वर्तमान में भारत चावल का सबसे बड़े निर्यातक के रूप में उभर कर आया है किंतु इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अगले वर्ष भी चावल निर्यात करने में निरंतर सक्षम होगा। इस प्रकार की अनिश्चित व्यापार नीति प्रस्तुत करने में विभिन्न घरेलू दबाव कार्य करते हैं। किंतु एक सतत् व्यापार ढाँचा बनाने के लिए यह उपयुक्त नहीं है।
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