व्यापार नीति एवं कृषि एवं जीविकोपार्जन |Agriculture and livelihood in Hindi
कृषि एवं जीविकोपार्जन
कृषि एवं जीविकोपार्जन
- व्यापार नीति में अन्य विवादग्रस्त क्षेत्र कृषि का है। इस क्षेत्र में सहमति WTO मोलभाव के दोहा दौर के ढह जाने से रुक गयी है। यू.एस.ए. एवं यूरोपीय संघ (EU) दोनों ही अपने किसानों को बड़ी मात्रा में अनुदान देते हैं। किंतु इस प्रकार का सामान्य समर्थन भी अनुदान प्राप्त करने वाले किसानों का अपेक्षाकृत कम कीमतों पर निर्यात करने में सहायता करता है। इससे कृषि वस्तुओं की कीमतों में कमी हो जाती है तथा ये विकसित देशों को अपने कृषीय निर्यातों में वृद्धि करने में सक्षम बना देती है। विकसित देश कृषीय आयातों पर नियंत्रण कम करने या उन्हें समाप्त करने के लिए सहमति बनाने पर भी दबाव डालते रहे।
- भारत कृषीय आयातों, यहाँ तक कि निर्यातों पर भी नियंत्रणों को बनाए रखने में अड़ा रहा है। मूल रूप से तर्क यह है कि कृषि एक वस्तु का उत्पादन मात्र नहीं है बल्कि यह देश के करोड़ों लघु एवं मध्यम श्रेणी के किसानों की जीविकोपार्जन का साधन होती है। विशेष रूप से उन परिस्थितियों में जबकि न्यून निपुणता की अपेक्षा वाले विनिर्माण कार्य में नये रोजगार में वृद्धि तीव्र गति से न हो रही हो । भारत विकसित देशों के अनुदानों से प्रोत्साहित सस्ते निर्यातों से अपनी कृषि का संरक्षण करना चाहता है।
- इसी प्रकार भारत ने कृषीय वस्तुओं के स्वतंत्र निर्यात की अनुमति प्रदान नहीं की है। उच्च गुणवत्तायुक्त बासमती चावल का निर्यात स्वतंत्रतापूर्वक किया जा सकता है किंतु सामान्य चावल या गेहूँ तभी निर्यात किये जाते हैं जब FCI के गोदामों में भंडार बहुत अधिक हो जाते हैं। इससे अनिश्चित खाद्यान्न व्यापार उत्पन्न होता है। पड़ोसी देश नेपाल एवं बांग्लादेश दोनों ही अपनी जनसंख्या की भोजन व्यवस्था के लिए भारत से चावल आयात करने की अपनी क्षमता पर निर्भर करते हैं। वह इस प्रकार की अनिश्चित निर्यात नीतियों से विपरीत रूप में प्रभावित होते हैं।
- इसका परिणाम यह होता है कि नेपाल एवं बांग्लादेश से लगी हुई सीमाओं से चावल तथा उर्वरकों (जिनकी बिक्री भारत में अनुदान प्राप्त है) में भी बहुत बड़ी मात्रा में अनौपचारिक व्यापार होता है। अत्यधिक अनुदान प्राप्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का चावल भी इस सीमापार अनौपचारिक व्यापार में आता है।
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