वैदिक संस्कृति अन्तर्देशीय
इन्डो योरोपियन भाषा थी। इसका प्रभाव व्यापक रुप से फारसी, लैटिन, ग्रीक भाषाओं को उत्पत्ति एवं विकास पथ पर
पड़ा।
भारत वर्ष छठी शती इसा पूर्व 16 महाजन पदों में विभाजित था। जनपदीय भाषा ने
वैदिक संस्कृति का स्वरुप ग्रहण किया तथा अन्तर्जनपदीय भाषा को प्रभावित करने लगी।
इसको व्यवस्थित करने हेतु व्याकरणाचार्य पाणिनी ने अष्टाध्यायी की रचना चौथी शती
ईसापूर्व में की। इस समय पाली एवं प्राकृत भाषाएं जन भाषा के रुप में प्रचलित थीं।
गौतम बुद्ध एवं महावीर स्वामी ने क्रमशः बौद्ध एवं जैन धर्म का प्रसार इन माध्यमों
से जन मानस में किया।
महाकाव्य काल के दो प्रसिद्ध
ग्रन्थ रामायण एवं महाभारत हैं। दोनों ग्रंथों के रचयिता बुन्देलखण्ड की धरती से
जुड़े हुए थे।
अतः"चित्रकूट गिरि रम्ये नाना शास्र विशारद:' उक्ति स्वभाविक थी। चेदि, दशार्ण एवं कारुष से
वर्तमान बुन्देलखण्ड आबद्ध था। यहां पर अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल,
निषाद, पुलिन्द, किराद,
नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी। जो
विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं।
संस्कृत विद्वानों की भाषा थी, अन्तर
जन्मपदीय भाषा "विन्ध्येली' थी जिसका अर्थ समृद्धवान,
महानता को धरण करने वाला है।
भरतमुनि के नाट्य शास्र में इस बोली का
उल्लेख प्राप्त है "शबर, भील, चाण्डाल,
सजर, द्रविड़ोद्भवा, हीना
वने वारणम् व विभाषा नाटकम् स्मृतम्' से बनाफरी का अभिप्रेत
है।
संस्कृत भाषा का स्वरुप प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ।
इनमें देशज शब्दों की बहुलता थी।
हेमचन्द्र सूरि ने पामर जनों
में प्रचलित प्राकृत अपभ्रंश का व्याकरण दशवी शती में लिखा। मध्यदेशीय भाषा का
विकास इस काल में हो रहा था।
हेमचन्द्र के कोश में "विन्ध्येली' के अनेक शब्दों के निघंटु प्राप्त हैं।
बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने
"उक्ति व्यक्ति प्रकरण' की रचना की। इसमें पुरानी अवधी
तथा शौरसेनी (ब्रज) के अनेक शब्दों का उल्लेख प्राप्त है। इसी काल में अर्थात एक
हजार ईस्वी में बुन्देली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं - डॉ. आर. मिशल
- इसमें देशज शब्दों की बहुलता थी।
पं. किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित
हिन्दी "शब्दानुशासन' के अनुसार "हिन्दी एक
स्वतंत्र भाषा है' उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से
भिन्न है।
बुन्देली की माता प्राकृत - शौरसेनी - तथा पिता संस्कृत भाषा है। दोनों
भाषाओं में जन्मने के उपरांत भी बुन्देली भाषा की अपनी चाल, अपनी
प्रकृति तथा वाक्य विन्यास को अपनी मौलिक शैली है।
हिन्दी प्राकृत की अपेक्षा
संस्कृत के निकट है। मघ्यदेशीय भाषा का प्रभुत्व अविच्छन्न रुप से ईसा की प्रथम
सहस्राब्दी के सारे काल में और इसके पूर्व कायम रहा।
नाथ तथा नाग पन्थों के
सिद्धों ने जिस भाषा का प्रयोग किया गया उसके स्वरुप अलग-अलग जनपदों में भिन्न
भिन्न थे। वह देशज प्रधान लोकीभाषा थी।
हिन्दी के आदि काल में भाषा महत्व है।
आदिकाल के काव्य भाषा में नाथपंथी की जो रचनाएं प्राप्त हैं वे भाषा काव्य की
प्रथम सीढ़ी को ज्ञापित करती हैं। इसके पूर्व भी भवभूति "उत्तर रामचरित'
के ग्रामीणजनों की भाषा "विन्ध्येली' - प्राचीन
बुन्देली - ही थी।
बुन्देलखण्ड की पाटी पद्धति
बुन्देलखण्ड की पाटी पद्धति
में सात स्वर तथा 45 व्यंजन हैं।
"कातन्त्र व्याकरण' ने संस्कृत के सरलीकरण प्रक्रिया में सहयोग दिया। बुन्देली पाटी की शुरुआत
"ओना मासी घ मौखिक पाठ से प्रारम्भ हुई।
विदुर नीति के श्लोक "विन्नायके'
तथा चाणक्य नीति "चन्नायके' के रुप में
याद कराए जाने लगे। "वणिक प्रिया' के गणित के सूत्र
रटाए गए। " नमः सिद्ध मने' ने श्री गणेशाय नमः का स्थान
ले लिया।
कायस्थों तथा वैश्यों ने इस भाषा को व्यवहारिक स्वरुप प्रदान किया,
उनकी लिपि मुड़िया निम्न मात्रा विहीन थी।
"स्वर बैया'
से अक्षर तथा मात्रा ज्ञान कराया गया। "चली चली बिजन वखों आई'। "कां से आई क का ल्याई' वाक्य विन्यास मौलिक
थे। प्राचीन बुन्देली "विन्ध्येली' के कलापी सूत्र
काल्पी में प्राप्त हुए हैं।
संभवतः चन्देल नरेश गण्डदेव (सन् 940 से 999 ई. - तथा उसके उत्तराधिकारी विद्याधर - 999 ई. से 1025 ई. के काल
में भाषा -बुन्देली का प्रारम्भिक रुप - में महमूद गजनवी की प्रशंसा की कतिपय
पंक्तियां "भाषा' में लिखी गई।
भाषा का विकास रासो
काव्य धारा के माध्यम से विकसित हुआ। जगनिक आल्हाखण्ड तथा परमाल रासो प्रौढ़
भाषा की रचनाएं हैं।
मुक्तक परम्परा की शुरुआत
कालान्त में हुई। वृजभाषा का उद्भव "बांगुरु' से हुआ।
देशी
भाषा "उपभयत उज्जवल' - कवि स्वायम्भू - कथा काव्य में
प्रयुक्त हुई। इनमें विष्णुदास कृत महाभारत कथा - पाण्डव चरित्र - मदन सिंह रचित
"कृष्ण लीला', सधारु रचित "प्रद्युम्न चरित'
आदिकाल की रचनाएं मानी जाती हैं।
भाषा काव्य की परम्परा दशवीं शती
से प्रारम्भ हो गई थी।
बुन्देली के आदि कवि के रुप में प्राप्त सामग्री के आधार पर
जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं जो बुन्देली की समस्त विशेषताओं से मण्डित हैं।
इन कवियों ने बुन्देलखण्ड में दो महत्वपूर्ण केन्द्रों को सुशोभित किया - व्रज -
और अवधी । युगीन अपेक्षाओं के अनुरुप काव्य रचना हुई।
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