भारत एवं विश्व व्यापार की परिवर्तित होती प्रवृत्ति |Changing trend of India and world trade

भारत एवं विश्व व्यापार की परिवर्तित होती प्रवृत्ति

भारत एवं विश्व व्यापार की परिवर्तित होती प्रवृत्ति |Changing trend of India and world trade


 

भारत एवं विश्व व्यापार की परिवर्तित होती प्रवृत्ति

  • प्रश्न यह उठता है कि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की फर्मे किस प्रकार विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बाजारों में प्रवेश का प्रबंधन करती हैंक्या उन्हें स्थानीय प्रतिस्पर्धा पर विजय प्राप्त होती हैजिस प्रकार से सिले- सिलाए वस्त्रों एवं जूतों जैसी वस्तुओं का विदेशी व्यापार विकसित हुआवह बाजार में बिक्री के माध्यम से नहीं हुआ जैसा कि चावल या चीनी के संबंध में हुआ। इसके बजाय विकासशील देशों की फर्मों ने विकसित देशों के क्रेताओं से ठेका किया गैपनाइकअडीडास जैसी फर्मों ने विनिर्माण । कार्य के विकासशील देशों की फर्मों से उप-ठेके किए। 


  • अतः विकासशील देशों की फर्मों को स्वतंत्र रूप से बाजारों की खोज नहीं करनी पड़ी। विकसित देशों की फर्मों ने डिजाइनब्राँड सृजन करने एवं विपणन की प्रमुख योग्यताओं को अपने पास रखा तथा पूर्वी एवं दक्षिण पूर्व एशिया की फर्मों को उप-ठेके प्रदान किए।

 

  • इसका अर्थ व्यापार की प्रकृति में अत्यधिक परिवर्तन से होता है। संपूर्ण वस्तुओं (कृषि) वस्तुओं बनाम विनिर्मित वस्तुओं) में व्यापार से अब व्यापार उत्पाद बनाने में निहित विशिष्ट कार्यों में एक हो गया है। उदाहरण के लिएसिले- सिलाए वस्त्रों में एव अपेक्षाकृत कम निपुणता वाले कार्य अर्थात् 'काटोबनाओ एवं छँटाई करो (Cut Make-Trim - CMT) का कार्यविकासशील अर्थव्यवस्था की फर्मों में किया जाता है जो संभवतः अनेक देशों से आयातित आगतों की सहायता से किया जाता है। जबकि डिजाइनब्राँड का सृजन करने एवं विपणन का कार्य विकसित अर्थव्यवस्था की फर्मों द्वारा किया जाता है।


  • इस प्रक्रिया में मध्यवर्ती उत्पाद एवं उनके मूल्य विदेशी व्यापार में एक से अधिक बार प्रवेश करते हैं जोड़ने वाले देश द्वारा आयातित मध्यवर्ती वस्तुओं के रूप में तथा उसके पश्चात् पुनः उसी देश द्वारा निर्यातित अंतिम उत्पाद की कीमत के अंग के रूप में होते हैं।

 

  • इस प्रकार के कार्य के बँटवारे पर आधारित व्यापार का बहुत अच्छा उदाहरण भारत में हीरे एवं रत्नों का है। भारत बहुत बड़ी मात्रा में हीरा एवं रत्नों को निर्यात करता है किंतु निर्यात की मात्रा भ्रमात्मक है। चूँकि कच्चा माल अर्थात् खुरदुरा माल पूर्ण रूप से भारत द्वारा आयात किया जाता है। ये खुरदरे माल उसके पश्चात् तराशे जाते हैं एवं उन पर पालिश की जाती है जिसमें इन कार्यों के लिए भारतीय श्रमिक का उपयोग किया जता है जो बहुत श्रम प्रधान होते हैं। 


  • भारत के व्यापार के आँकड़ों में तराशे हुए हीरों का पूर्ण मूल्य सम्मिलित होता है किंतु भारत को जो प्राप्त होता है वह मूलतः तराशने एवं पालिश करने की मजदूरी एवं इस कार्य पर लाभ होता है। उस देश में रोजगारयुक्त लाखों श्रमिकों के रूप में बहुत अधिक लाभ होता है। भारत का हीरे तराशने में 90 प्रतिशत से अधिक का अंश है। किंतु हमें यह ध्यान अवश्य देना चाहिए कि संपूर्ण क्षेत्र भारत में आधारित नहीं है। केवल कच्चे माल का ही आयात नहीं किया जाता बल्कि अधिकांश हीरे के आभूषण एवं हीरे के सेट के डिजाइन अन्य देशों में तैयार किए जाते हैं। यद्यपि अब भारतीय फर्मे अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए हीरे के आभूषण के न्यून एवं मध्यम कोटि के डिजाइन एवं विनिर्माण में प्रवेश कर रही हैं। तथापिव्यापार के खुलपने ने भारत में सिले- सिलाए वस्त्रों एवं चमड़े के उत्पादों में उसी प्रकार की प्रगति उत्पन्न नहीं कीयह व्यापार नीति से आगे की बात है किंतु इसका संक्षेप में उल्लेख इस प्रकार की जा सकता है कि 2000 के प्रारंभ तक निरंतर बनी रहने वाली लघु पैमाने की इकाइयों के लिए आरक्षण की ऐतिहासिक नीतिघटिया आधारभूत ढाँचा एवं मान लिए गए बेलोच श्रम नियमन इत्यादि सभी ने श्रम प्रधान उद्योगों में पर्याप्त रोजगार प्रदान करने के लिए व्यापार नीति में परिवर्तन की भूमिका निभाने का तर्क प्रस्तुत किया।

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