चन्देल कालीन समाज और संस्कृति | Chnadel Kalin Samaj Aur Sanksrit

चन्देल कालीन समाज और संस्कृति

चन्देल कालीन समाज और संस्कृति | Chnadel Kalin Samaj Aur Sanksrit


 

चन्देल कालीन समाज और संस्कृति


  • चन्देल कालीन समाज और संस्कृति में बुंदेला शासन के प्रारम्भ होने के बीच एक ऐसा संधिकाल बुंदेलखंड में आता है जिसकी संस्कृति और समाज का चित्रण साहित्य के माध्यम से ही संभव है। 


  • जगनिककृत "आल्हाऔर विष्णुदास कृत "रामायन कथातथा "महाभारत कथाका आश्रय लेना श्रेष्ठकर है। विदेशी आक्रमणों का ऐसा सिलसिला चला कि राजनैतिक दृष्टि से भारत में स्थिरता नहीं रह पाई। तथापि धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश कठोर नियमों से अनुसासित होने लगा। 


  • समाज के चारों वर्णों को स्मृतियों के अनुसार चलने के निर्देश धार्मिक नेताओं ने दिए। स्मृतियों के अनुसारण में कट्टरता बढ़ी और जाति और उपजातियों की श्रृंखला बढ़ती ही गई। सवर्णों में पुनर्विवाह वर्जित था परन्तु शूद्रों में इसका प्रचलन था। दास-दासियों के रखने का चलन था। 


  • चन्देलों के समय धर्म का जो रुप था उसमें इस काल में कोई लक्षणीय अन्तर नहीं दिखता है। गुजरात के सोलंकी नरेश कुमारपाल के संरक्षण में जैन धर्म अवश्य ही उत्थान पा गया। 


  • उड़ीसा के जगन्नाथकोणार्क के सूर्य मन्दिर के नमूने तथा भुवनेश्वर समूहों का निर्माण इस समय हुआ। जैन मन्दिरों के नमूने आबू के दैलवाड़े मन्दिरों में दृष्टव्य हैं राजाओं की चिन्ता अपने राज्य को विजित होने से बचाने की थी। चारण युग का प्रारंभ यहां से होता हैचन्द और जगनिक आदि कवि इसके प्रमाण हैं।

 

  • पर्वती काल में फिरोज तुगलग के समय तक समाज की दशा अत्यंत खराब हो चुकी थी। शासन का संचालन संकीर्णतापूर्णपक्षपातयुक्त और साम्प्रदायिता के आधार पर होता था अत: धार्मिक पक्षपात स्वाभाविक थे। 
  • हिन्दी जी तोड़कर अपनी समाज व्यवस्था बनाने में लगे थे पर राज्य की ओर से हस्तक्षेप होते थे। समाज में दास प्रथा थी। तैमूरलंग के आक्रमण से असंतुलन उत्पन्न हुआ। रुढिवाद और अंध विश्वासों की सघनता बढ़ी। वर्णाश्रम धर्म की कट्टरता इतनी बढ़ी कि एक उपविभाग का व्यक्ति दूसरे उपविभाग के व्यक्ति तके यहां खानपानरोटी-बेटी का संबंध नही रखता था। 
  • विदेशी आक्रमणकारियों से जब भगवान जनता की रक्षा न कर सका तो धर्महीनता की स्थिति भी आने लगी। बुंदेलखंड के समाज को अब पूर्णत: धर्मसंस्कृति और सामाजिक व्यवस्थाओं के क्षेत्र में शासक का मुखापेक्षी होना पड़ा। राजा के निर्देश कवियों की वाणी का अभिव्यक्त हुए हैं। 


इस समय आल्हा और जल समाज के प्रचलित उपक्तियां इस प्रकार हैं -

 

1- बारा बरस लौं कूकर जीये ओ तेरा लौं जिये सियार । 

बरस अठारा छत्री जीये आँगे जीये तो धिक्कार ।। 

                        (मौखिक आल्हा परंपरा से)

 

2- जाहि प्रान प्रिया लागिन सौ बैठे लिज धाम। 

जो काया पर मूछ वाई सो कर हैं संग्राम।।

 

3- बाई जित परमाल के बज्जे घोर निसान। 

सैन सहित गढ़ मिलियो मल्लखन बलवान।।

 

  • इनसे पता चलता है कि चन्देलों के समय से राजाओं को युद्धरत रहना पड़ता था। समाज का स्थान राज्य के बाद आता है अत: हिन्दू धर्म के अनुसार राजा के लिए मरना जन समाज का धर्म हो गया था। राजा की कल्पना ईश्वर के अंश के रुप में की गई। देशी राजाओं ने हिन्दु जनता की उन्नति के लिये जितने कार्य किये उससे कहीं अधिक अपने स्वार्थों की पूर्ति की।

 

  • बुंदेली समाज का प्रतिनिधित्व 12वीं शताब्दी में महोबा के द्वारापन्द्रहवीं शताब्दी में ग्वालियर के द्वारा तथा उसके बाद ओरछा और पन्ना के द्वारा होता था। पन्ना के शासकों का गौड़ों और मरठों से संबंध जुड़ता है तब बुंदेलखंड के समाज में वैविध्य आने लगता है। मुगल श्णासन का प्रभाव भी समाज की रुढियों और विविध सामाजिक जीवन मूल्यों में परिवर्तन लाता है। अंतिम विदेशी प्रभाव अंग्रेजी समाज का है जिसमें वर्तमान बुंदेली समाज की संरचना हुई इस प्रकार बुंदेली समाज सामन्तवाद के प्रभाव से प्रारंभ होकर साम्राज्यवाद की अतियों का शिकार भी बनता है।

 

  • महोबा बारहवीं शताब्दी के बुंदेलखंड का सर्वाधिक प्रसिद्ध केन्द्र रहा है। चन्दबरदाई कृत महोबा खण्ड और जन कवि जागनिक कृत आल्हाणखण्ड दोनों ही कृतियाँ महोबा की सामाजिकसांस्कृतिक दशाओं का वर्णन करती है। चन्देल साम्राज्य का अन्तपरमाल की मृत्यु और कलिं और महोबा की मुसलमानी शासकों द्वारा अधिग्रहण करने से हो जाता है। इसके बाद बुंदेलखंड का यह प्रदेश सोलहवीं शताब्दी तक प्रभावहीन हो जाता है। महोबा का शासक बहुत ही कमजोर और कायर माना गया है परन्तु उसके दो वीरों के माध्यम से इसकी ख्याति विशेष हुई है। शासक के व्यक्तित्व का पर्दाफाश होता है परन्तु इसके साथ ही समाज में स्मृतियों के शासन का आभास भी मिलता है। 


  • वर्णाश्रमराजा के प्रति प्रजा का कर्तव्यवीरों का जान देकर राज्य की रक्षा करना आदि इस समय की सामाजिक विशेषताएं हैं। चार वर्णों का विभाजन इस काल में अनेक जातियों और उपजातियों में हो गया था। इनके निर्माण में व्यवसाय का कर्मप्रधान कारण था। सोने का काम करने वाला सुनारलोहे का काम करने वाला लुहारलकड़ी का काम करने वाला बढ़ईचमड़े का काम करने वाला चमार और ताम्बूल का व्यवसाय करने वाला तंबोली आदि से स्पष्ट होता है। स्थान परक नामों से भी उपजातियां बनी - कनौजियासरयूपारीण। क्षत्रिय भी छत्ती कुरियों में बंटे। कायस्थ पृथक् जाति बन गई। कुलीनता का विचार अति को पंहुचा। ब्राह्मणों ने जपतप वाला रुप तिरोहित होने लगा और वे मन्दिरों में वेतन भोगी पुजारी तथा पाठशालाओं के संचालक और शिक्षक बने। अनेक ब्राह्मण शासक भी रहे। क्षत्रियों में बलस्वाभिमान का गौरव था परन्तु जिहि की बिटिया सुन्दर देखी तिहि पै जाय धरे तरवार की वृत्ति भी बन गई थी। सारत: अधिकांश राजपूत विलासप्रियदरबारी संस्कृति को अपनाने लगे। वैश्य पूर्णत: वाणिज्य पर आश्रित हो गया और अहीरोंग्वालों ने गोपालन अपनाया। इनमें भी अनेक जातियां बनी। छुआछूत का प्रसार हुआ। चांडाल आदि अस्पृश्यों को बस्ती के बाहर झोंपड़ियां बनानी पड़ीं।

 

  • सामाजिक मूल्यों में देव ॠणपितृ ॠणॠषि ॠण और मानव ॠण चुकाना जीवन का अनिवार्य लक्ष्य बना। बहुविवाह गौरव की बात हो गई। अतिथि सत्कारदानसाधु विद्वानों के सत्कार में जनमानस की रुचि थी। दास दासियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। शैव धर्मवैष्णव धर्मअभिचारजादू-टोना तो प्रचलित थेबौद्ध और जैन धर्म भी मान्य थे। व्यापक हिन्दु धर्म में वेद और पुराणों के साथ स्मृतियों की भी मान्यता थी परन्तु कर्मकाण्ड और बाह्योपचार के आधिक्य के कारण राजा महाराजाओं तथा धना व्यापरियों ने विशाल मन्दिर बनवाये। कलचुरी और परमरी ही नहीं चन्देल चौहान और गहिरवार आदि सभी शैव धर्मावलम्बी थे। योग और तन्त्र की शैव धर्म में प्रतिष्ठा हो चुकी थी। ज्ञानमार्ग के साथ सगुणवादियों को भी शिवपूजी में सिद्धियों की उपलब्धी माननीय हुई। वीरों ने शिवभाल में माथा दे वीरगति प्राप्त करना अन्यत्म धर्म माना। पंचमकार सम्प्रदायों के स्थान पर वैष्णव धर्म का पुनरुत्थानशंकराचार्य की उपासना से भिन्न भक्तिमार्ग का सूत्रपात वास्तव में सनातन धर्म का प्रबल समर्थन देने वाला हुआ। इन सबका साहित्य एवं कला के क्षेत्र में व्यापक प्रभाव हुआ। महोबा के विशाल भवनकालिं के किले और मंदिर के उत्कृष्ट नमूनों कें परवर्तीका में कुछ नया नहीं जोड़ा जा सका। महोबा का महत्व ही इसके बाद कभी न हो सका इसलिए बुंदेली साहित्य का प्रारम्भ भी वीर काव्य से होता है।

 

  • महोबा के उपरान्त ग्वालियर बुंदेलखंड का दूसरा महत्वपूर्ण राज्य है जिसमें साहित्यसंगीत और कला प्रेमी तोमर वंश का शासन रहा। इनके समय में समाजधर्मसंस्कृति और साहित्य में समृद्धि हुई। सुदूर अतीत में ग्वालियर हूण राजा तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल के हाथ में 6वीं शताब्दी तक रहा। 


  • 9वीं शताब्दी में कन्नौज के राज भोज ने (चतुर्भुज मन्दिर के प्रमाण से) अपनी   अधीन किया। १०वीं शताब्दी के मध्य में कछवाहा राजपूतों ने इस जीता और सन् 1128 में वे परिहारों द्वारा पराजित हुए। सन् 1169 में कुतुबद्दीन एबक ने मुहम्मद गौरी के लिए जीता। सन् 1210 में परिहारों ने फिर इसे अपने अधिकार में किया। सन् 1232 से 1398 तक यह अल्तमश के अधीन रहा। 


  • तैमूर के आक्रमण के समय तोमरों ने इसे अपने अधिकार किया यद्यपि सन् 1404सन् 1416सन् 1429 में इस राज्य के निमित्त अनेक युद्ध हुए पर सन् 1518 तक तोमरवंशी शासकों ने इस भूमि पर राज्य किया।

 

  • तोमरवंशी राजा मानसिंह और उनके पूर्व डूँगरेन्द्र सिंह के समय में ग्वालियर एक सांस्कृति स्मृद्धि का केन्द्र था। साहित्य के क्षेत्र में रइधूपुष्पदन्तस्वयंभू और विष्णुदास जैसे कवियों ने यहाँ आश्रय पाया। मानसिंह के समय में अनेक कलाकृतियांवास्तुकला और स्थापत्य कला के सुन्दर नमूनों का निर्माण हुआ। 


  • तोमरवंशी राजपूत यद्यपि बुंदेला नहीं हैं पर बुंदेलखंड में इनका इन दो शताब्दियों में विशेष महत्व रहा है। सामाजिक दृष्टि से यह भूभाग ब्राह्मणक्षत्रियों और वैश्यों का प्रदेश था परन्तु विभिन्न आक्रमणों और शासकों की नीतियों के फलस्वरुप यहां मुसलमानमराठा और ईसाई सभी बसे हैं। 


  • बुंदेलों का शासन ओरछा में होते ही इस राज्य का महत्व धीमे-धीमे कम हो गया क्योंकि सन् 1526 में इसे बाबर ने तथा सन् 1542 में शेरशाह ने 1558 में अकबर ने अपनी सल्तनत के अधीन कर लिया। अन्य सामाजिक सांस्कृतिक दशाओं में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया। 


  • हिन्दुओं ने अपनी जाति व्यवस्थावर्णाश्रम को उत्तरोत्तर कठोर बनाया है। राजपूत संस्कृति का सर्वोत्कृष्ट आकर्षण गुजरात में उड़ीसामध्यभारत से पंजाब तक फैले हिन्दुबौद्धजैन मंदिरों की वास्तुकला है। अनेक कला समीक्षकों और इतिहासकारों की सम्मति में खजुराहो का कंटरिया महादेव का मंदिरभुवनेश्वर का लिंगराज मंदिरकोणार्क का सूर्य मंदिर तथा ग्वालियर का तेली का मन्दिर वास्तु की सर्वोत्तम उपलब्धियां हैं।


  • उदयादित्य परमार द्वारा उदयपुर (ग्वालियर) में 1059 और 1089 ईस्वी के भीतर निर्मित नीलकंठ अथवा उदयेश्वर मन्दिर अपेक्षाकृत अन्य प्रसिद्ध मध्ययुगीन मन्दिर हैंकिन्तु यह भारत के सुन्दरतम मन्दिरों में से एक है।

 

  • ओरछा राज्य की स्थापना और शासन से ही बुन्देला शासन की स्मृद्धि और प्रभुत्व का परिचय मिलता है। "बिन्दु दो दुर्गमेश:के मुद्रांक से ओरछा राज्य का शासन चलता था। समस्त राजन्य परिवार की एकमात्र देवी विन्ध्यवासिनी थी। उनके दो सिंहों के कारण उन्हें सिंहवासिनी भी कहा जाता था। 


  • ध्वज में सूर्य वंश का प्रतीक काला और स्लेटी और हरा मिश्रित (या) रंग तथा एक ध्वज पर अनुमान युद्ध के देवताशमीवृक्ष की शाखायें तथा देवी के आसन के नीचे सर (हेमकरन का) होना एक राजकीय मुद्रा की आवश्यकता थी। 


  • बुंदेलों के गोत्र काश्यपशाखा जाबालिप्रवरवत्सअराअसितसूत्र कात्यान गायत्री सावित्रीदेव सूर्यआद्य देवी विमला या विन्ध्यवासिनी ॠषिवशिष्ठशिख-दक्षिणावर्तपक्ष सरयू और गरुड़वृक्ष पीपलसम्प्रदाय वैष्णव होते हैं।


  • ओरछा के साथ टीकमगढ़ का राज्येतिहास भी यही है। ओदछा का नाम ओंदो और को मिला कर ओरछा बना है। टीकमगढ़ का नाम त्रिविक्रम-टीकम - कृष्ण के नाम के आधार पर बना है। 




  • वस्तुत: बुंदेला शासन में हिन्दु धर्म का पुनरुत्थान हुआ है परन्तु उसका स्वर अत्यंत मद्धिम रहा है। राजपूत स्वयं को सर्वाधिक कुली रघुकुल तिलक मानते थे। अत: शीघ्र ही उनमें वंशाभिमानस्थीनीय देशभक्ति और संकुचित जातीयता की भावनायें घर कर गई। सामाजिक रुप से राजपूत-योद्धाओं ने अर्ध दैवी दर्जा अख्तियार करके स्वयं को शेष समाज से अलग कर लिया। इस प्रकार अब एक घमंडी और सैनिक अभिजात वर्ग का निर्माण हुआ। वे गायकों और चापलूसों से सदेव घिरे रहने लगे। जिन्होंने राजपूतों की पृथकत्व और अपने को बड़ा समझने की भावना को कृत्रिम रुप से और बढ़ाया। इसकी प्रतिक्रिया शीघ्र ही संपूर्ण समाज पर हुई।


  • भारतीय संस्कृति को अवनति की ओर ले जाने वाली दो भयंकर सामाजिक कुरीतियां युद्ध कुशल राजपूतों की देन हैं। ये कुरीतियां हैं जन्म के आधार पर वर्ण विभाजन और जीवन के उच्चतर क्षेत्र से स्रियों को निकाल देना। इसी प्रकार जातीय बन्धनखानपान निषेधपर्दाप्रथाउच्च वर्णों की स्रियों को घर की चारदीवारी में बंद रखने में कट्टरता आई। कम उम्र के विवाहसती प्रथा मुसलमानों के आक्रमण के बहुलता के सामने आये। समाज की चातुर्वण्य व्यवस्था इस काल में आकर लचीली न होने से टूट गई। सम्पूर्ण समाज विभिन्न कटघरों में रहकर सामन्तों का मुखायेक्षी हुआ। 


  • ब्राह्मण अपनी जीविका राजदरबारोंमंदिरों और शिक्षालयों में जाकर कमाने लगे। क्षत्रियों कि विभिन्न श्रेणियां सेना मेंवैश्य कृषि अथवा व्यापार तथा शेष वर्ग सेवा में बद्ध हुए। पगड़ी रखनादुपट्टा रखनाचादर ओढ़ना अभिजात्य की निशानी बना। दशहरादिवालीहोलीरक्षाबंधनकंजलियाँ आदि त्यौहारों को विशेष तौर से मनाया जाने लगा। ओरछा मे पहले विष्णु की पूजा होती थी। बाद में राम मंदिर बना और उनके साथ हनुमानसीतालक्ष्मण आदि की मूर्तियों की स्थापना की गई। शिवपूजा इस प्रदेश में पहले से चली आ रही थी। ओरछा के राजाओं की उत्तरोत्तर अवनति भी हुई। मधुकर शाह और वीरसिंह देव प्रथम के समय दो महत्वपूर्ण राम राजा का मन्दिर और जहांगीर महल बनाये गये। परन्तु त्यागी और ईमानदार हरदौल का विषपान करके प्राणापंण करना इनकी आपसी कटुता का प्रतीक है। हरदौल अब भी ग्रामों में देवता की भाँति पूजे जाते हैं।

 

  • बुंदेला शासकों की स्वाधीन राज्य के प्रति संघर्षशीलता और बादशाह की अधीनता में युद्धों में सहायता से बुंदेलखंड के समाज में वीरतात्यागबलिदानधर्मपरायणता और सांस्कृतिक उत्सवों की भरमार अधिक रही है। एक हिन्दु राष्ट्र (संकीर्ण अ-- में) की कल्पना में समस्त जनसमाज को संघर्षरत रहना पड़ा है। फलत: यह प्रदेश अपनी अतीत से ही प्रगतिशील नहीं बन सका। सांस्कृतिक दृष्टि से निश्चित ही बुंदेलों के छोटे-छोटे राज्यों में निहितसंगीत धर्म की समृद्धि होती रही है और उत्तर भारत के अन्य राज्यों की भांति मुसलमान प्रभाव न्यून ही रहै हैं।

 

  • ओरछा के बाद बुंदेला शासन पन्ना से संचालित होता है। महाराज छत्रसाल इसके शीर्ष नेता माने जाते हैं। छत्रसाल मधुकर शाह के भाई उदोतसिंह के पौत्र चम्पतराय के पुत्र थे। चम्पतराय ने औरंगजेब के समय बुंदेलों की पहली राजधानी कलिं (महोबा के पास) ही थी बाद में वह पन्ना बना दी गई। बुंदेलखंड में अब तक मुसलमानों का वास भी प्रारंभ हो गया। इम्पीरियल गजेटियर के अनुसार ब्राह्मणक्षत्रियलोधअहीरकुरमी और चमारों की जनसंख्या इस राज्य में विशेष रही है। वस्तुत: छत्रसाल तक वैष्णव धर्म की ही उन्नती हो रही थी। प्राणनाथ सम्प्रदाय को भी छत्रसाल के समय में प्रक्षय मिला। राजदरबार के कवियों ने वैष्णव भक्ति और घासी सम्प्रदाय (प्राणनाथ का दूसरा नाम) भक्ति दोनों के प्रभाव में काव्य रचनायें की हैं। कतिपय कबीरपंथी मार्ग का अनुसरण करने वाले (अक्षर अनन्य का विशेष संदर्भ) व्यक्तियों ने धर्म के बाह्यचारों का खण्डन करने का प्रयत्न किया है। 


  • छत्रसाल का शासन काल राष्ट्रीय उन्मेष का युग था। लाल कवि एक योद्धा कविसलाहकार की भांति छत्रसाल के जीवन की सत्य घटनाओं का चित्रण अपने काव्य में करते हैं जब भूषण शिवाजी को उद्बुद्ध कर रहे थेलाला कवि का छत्रसाल के प्ति वही कार्य था। धार्मिकसामाजिकसांस्कृतिक दृष्टि से यह समस्त काल उन्मेष का था। हिन्दु संस्कृति और समाज दोनों में कट्टरता से नियमों का पालक किया गया। जाति प्रथा अत्यंत रुढ़ हो गई थी। छत्रसाल के वैभव एवं शौर्य की चर्चा शिवाजी के समानान्तर की जाती है। 


  • छत्रप्रकाश और छत्रविलास में छत्रसाल के जीवन और नीतियों का पूर्ण विवरण मिलता है। छत्रसाल के समय से ही बुंदेलखंड में मराठों का प्रवेश होता है जबकि बुंदेला शासको ने गौंडवाने के शासकों की कन्याओं से विवाह प्रारंभ कर दिये थे। छत्रसाल के राज्य का तीसरा हिस्सा बाजीराव पेशवा का मुहम्मद वंश हो बुन्देलखंड से निकालने सहायता के पुरस्कार में दिया गया था।

 

  • यहां से बुंदेलखंड का शासन सूत्र मराठों और छोटे जागीरदारों में बँट जाता है। सामन्तवाद की समस्त कमियाँ और खूबियाँ इस काल के समाज को प्रभावित करती हैं।

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