समुदाय आधारित संगठन और ग्राम विकास | सीबीओ-दृष्टिकोण तथा आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम |Community Based Organization and Village Development

समुदाय आधारित संगठन और ग्राम विकास
सीबीओ-दृष्टिकोण तथा आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम

समुदाय आधारित संगठन और ग्राम विकास | सीबीओ-दृष्टिकोण तथा आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम |Community Based Organization and Village Development


 

समुदाय आधारित संगठन और ग्राम विकास

  • प्राकृतिक संसाधनों के न्यायसंगतकुशल और स्थायी प्रबंधन संबंधी मुद्दों ने ग्राम विकास में अपनी प्रमुख स्थिति प्राप्त कर ली है। इस भाग में हम ग्राम विकास के संदर्भ मेंप्राकृतिक संसाधनों के प्रभावकारी प्रबंधन में समुदाय आधारित संगठनों के महत्व प्रासंगिकता और भूमिका पर चर्चा करेंगे।

 

1 सीबीओज़ और प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन

 

  • जैसे-जैसे पूर्वकालीन ग्राम विकास कार्यक्रमों की सीमाबद्धताएं प्रत्यक्ष होती जा रही थींउसके साथ ही विकास से जुड़ी प्राथमिकताओं और पहलुओं में एक समकालिक परिवर्तन भी दिखाई देने लगा था।

 

  • प्रमुख प्राकृतिक संसाधन भूमिजल और वनों का संकटपूर्ण दर से अपकर्ष हो रहा था । इन साझा सम्पत्ति संसाधनोंसीपीआर (Common Property Resources) के प्रबंधन के लिए परंपरागत समुदाय आधारित संस्थाएं समाप्त हो रही थीं और नई संस्थाएं उनका स्थान ले पाने में विफल रही थीं। व्यक्तिगत प्रलोभनवश और बाज़ार शक्तियों से प्रेरित होकर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा था। इस पर किसी दीर्घावधि राष्ट्रीय योजना की कोई रोक-टोक नहीं थी। यहां तक कि पहले से स्थापित प्रथागत नियंत्रण और संतुलन उपाय भी अपर्याप्त सिद्ध होते जा रहे थे। इसने ग्रामीण भारत में लाखों लोगों की आजीविका के साधनों को खतरे में डाल दिया और इससे पर्यावरण ह्रास भी हुआ। ये चिंताएं ग्राम विकास कार्यक्रमों में प्राकृतिक संसाधनों के न्यायसंगतकुशलऔर स्थायी प्रबंधन संबंधी मुद्दों को केंद्रीय मंच पर ले आयीं जलभूमिऔर वनों के विकास और प्रबंधन के लिए अनेक सरकारी योजनाएं शुरू की गईं। तथापिउनकी रूपरेखा ऊपर से नीचे के स्वरूप में ग्राम समुदायों के शामिल होने के लिए शायद ही कोई स्थान था । इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में इन कार्यक्रमों को कोई सफलता नहीं मिली।
 

  • अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर पर्यावरण ह्रास विकसित देशों में एक बड़ा और प्रभावी मुद्दा बन चुका था। यह चिंता द्विपक्षीय और बहुपक्षीय (अंतरराष्ट्रीय विकास अभिकरणों की नीतियों और कार्यक्रमों में अभिव्यक्त हुई। 1980 के दशक तक यह भारत में एक गंभीर सार्वजनिक चिंता का विषय बन गई।

 

  • इस प्रकारएक ओरग्राम विकास कार्यक्रमों में प्रमुखता से समुदाय को शामिल करने की आवश्यकता को स्वीकार किया जा रहा था तो दूसरी ओरप्राकृतिक संसाधनों को विकसित और नियंत्रित करने के लिए कार्यक्रमखासकर साझा संपत्ति संसाधन (सीपीआर) महत्व पाते जा रहे थे। कार्यान्वयन के लिए कार्यक्रम विषय वस्तु (साझा संपत्ति संसाधन को केंद्र में रखकर) और कार्यतंत्र (सीबीओज़) के बीच एक अच्छी उपयुक्तता नज़र आती थी : (i) स्थानीय समुदाय का सीपीआर कार्यक्रमों के परिणामों में सीधा साझा होता हैयद्यपि संभव है कि इसके सभी सदस्य समान साझा न रखते हों; (ii) स्थानीय समुदाय स्थिति की भी सीधी जानकारी रखता हैयद्यपि संभव है कि इसके सभी सदस्य समान रूप से सूचित न हों। इसके अलावाजब समुदाय के सदस्य कार्यक्रम चलाते हैं तो उनकी निगरानी अधिक प्रभावशाली हो सकती है क्योंकि उनका ही समुदाय के साथ गहरा संबंध होता है। उनके लिए उल्लंघन-अनुशस्तियों की उपेक्षा करना करना कठिन होता क्योंकि वे उन्हीं लोगों में से आते हैं जिनसे वे विभिन्न तरह से जुड़े होते हैं और स्थायी संबंध रखते हैं। यद्यपि नया दृष्टिकोण 'प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन कार्यक्रमों में अत्यधिक विस्तृत और प्रबल रूप से अपनाया जाता है और यह उन्हीं तक सीमित नहीं रहता। उदाहरण के लिएसर्व शिक्षा अभियान - एक महत्वाकांक्षी शिक्षा कार्यक्रम है जिसके अंतर्गत ग्राम शिक्षा समितियां बनाई जाती हैं जो उस योजना के क्रियान्वयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखती हैं।

 

  • सीबीओज़ के लिए प्रयुक्त सामान्य शब्द हैं- पणधारी समूह और ग्राम स्तरीय संस्थाएंइन संगठनों को विभिन्न प्राकृतिक संसाधन प्रबंधनएनआरएम (Natural Resource Management) कार्यक्रमों और परियोजनाओं के तहत उनके विशिष्ट नामों से जाना जाता है। उदाहरण के लिएसहभागितापूर्ण सिंचाई कार्यक्रम के अंतर्गत सीबीओज़ को एक जल प्रयोगकर्ता संघडब्ल्यू यूए (Water User Association ) की संज्ञा दी जाती है। संयुक्त वन प्रबंधनजेएफएम (Joint Forest Management) कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे संगठन को एक संयुक्त वन प्रबंधन समितिजेएफएमसी (Joint Forest Management Committee ) कहा जाता है। वाटरशेड विकास कार्यक्रमडब्ल्यूडीपी (Watershed Development Programme) के तहत ऐसे संगठन को वाटरशेड संघडब्ल्यूए (Watershed Association) कहा जाता है। ऐसी विशिष्ट योजना अथवा परियोजना के आधार पर जिसके तत्त्वावधान में उसे बढ़ावा दिया गया होऐसे सीबीओज़ के कार्यकलाप और प्रकार्य भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। परंतु अनिवार्यतः वे सभी एक ही भूमिका निभाते हैं वे समुदाय की आवश्यकताओं का आकलन करते हैंउन्हें पूरा करने के लिए विकल्पों की खोज करनासर्वाधिक उपयुक्त विकल्प का चयन करनाउसे क्रिर्यान्वित करनाऔर कार्यक्रम / योजना द्वारा बनाई गई परिसंपत्तियों का रखरखाव करनाये सभी कार्य परियोजना के ढांचे में रहकर ही होंगे। सीबीओज़ से अधिक कुशलतापूर्वक और न्यायसंगत रूप से परियोजना के प्रबंधन की अपेक्षा की जाती है ताकि वे सरकारी विभागों की अपेक्षा अधिक स्थायी हों।


2 सीबीओज़ और संयुक्त वन प्रबंधन

 

  • वन किसी भी राष्ट्र के लिए एक अत्यधिक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन होते हैं। इनके उत्पादों का वृहद् व्यावसायिक महत्व होता है। अधिक महत्वपूर्ण है क्षेत्र विशेष की जलवायु के साथ-साथ वहां की मृदा पर भी उसका प्रभाव वनावरण का अवक्षय वायुमंडलीयपर्यावरणीयऔर पारिस्थितिक संतुलन को भंग कर देता है और जीवन के सभी रूपों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता हैजैसे मानव जीव-जन्तु और वनस्पति । इसीलिए वनों का परिरक्षण और संरक्षण अत्यावश्यक है। भारत में उनके महत्व में एक और आयाम जुड़ा हैक्योंकि जनजातीय समुदाय और ऐसे समुदाय जो वनों के हाशियों पर रहते हैंअपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन पर निर्भर करते हैंजैसे ईंधन की लकड़ीचारा और छोटे-मोटे इस्तेमाल की इमारती लकड़ी। वे अपनी आजीविका के लिए भी वनों पर ही निर्भर करते हैं। ये समुदाय वनों और वन उत्पादों से जुड़े कुछ प्रथागत अधिकारों और रियायतों के हकदार होते हैं।

 

  • सर्वप्रथम वन नीतिवर्ष 1894 में बनाई गई थी। लगभग एक शताब्दी तक भारतीय वन नीति देश के वनों के राष्ट्रीयकरण और वाणिज्यिक सदुपयोग पर जोर देती रही । स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात भी सरकार ने निजी क्षेत्र को सब्सिडी प्राप्त दरों पर लाखों एकड़ वनभूमि पट्टे पर दी क्योंकि वनों के औद्योगिक प्रयोग को प्राथमिकता दी जाती थी। अपनी विभिन्न दैनिक ज़रूरतों के लिए वनों पर निर्भर करने वाले समुदायों के अधिकार और उत्तरदायित्व धीरे-धीरे घटते ही रहे ।

 

  • 1980 के दशक तक प्राकृतिक संसाधनों के अपक्षीणन और रिक्तीकरण तथा बिगड़ते हुए पर्यावरण की चिंता इस हद तक पहुंच गई कि समुचित नीतिगत उपाय लागू करने पड़े। एक पृथक पर्यावरण और वन मंत्रालय बनाया गया। वन संरक्षण अधिनियम पारित किया गयाजिसने वृक्ष कटाई पर यथेष्ट प्रतिबंध लगाए। फिर राष्ट्रीय वन नीति, 1988 लागू की गई जिसने वन प्रबंधन के उद्देश्यों को पुनः परिभाषित तो किया परंतु अपने दिन-प्रतिदिन के प्रबंधन कार्य में लोगों के लिए किसी प्रत्यक्ष भूमिका की कल्पना नहीं की। इस नीति के मुख्य उद्देश्य थे: परिरक्षण के माध्यम से पर्यावरणीय स्थिरता को कायम रखनापारिस्थितिक संतुलन का पुनः स्थापित करनासामान्य संसाधनों का संरक्षणजनजातीय लोगों और वे ग्रामीण समुदाय जो वनों के आस-पास रह रहे हैंउनकी बुनियादी ज़रूरतों ( ईंधन लकड़ीचारा और साधारण इमारती लकड़ी) को पूरा करना तथा उनके प्रथागत अधिकारों और उत्तरदायित्वों की रक्षा करना आदि। उक्त नीति के उद्देश्यों का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन करने के लिए राज्य वन विभाग व उनके कर्मीवर्ग की अभिवृत्ति में बदलाव लाना जरूरी था वनों के विकाससंरक्षण और प्रबंधन में उनकी सक्रिय भागीदारी के लिए समुदायों को प्रेरित करना भी आवश्यक था। यह महसूस किया गया कि वनों के लिए सरल पहुंच अनुशासनहीनता और हमारी सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति के चलते राज्य वन विभाग के लिए वनों पर अपने संपत्ति अधिकार लागू करना संभव नहीं हो पाएगा। इस वजह से जून 1990 में एक लीक से हटकर नीति निर्णय लिया गया। यह नीति अपक्षीण वनों के प्रबंधन में वन समुदाय को शामिल करने और इस तरह संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) को लागू करने के लिए बनाई गई। इस नीति ने पहली बार संरक्षी समुदायों के लिए अधिकार विनिर्दिष्ट किए। बाद मेंसरकार ने भी उपयोगी वनों के प्रबंधन के लिए ऐसे ही आदेश जारी किए।

 

  • संयुक्त वन समिति के लिए वन क्षेत्रों को मुक्त कराने के लिएवन विभाग के माध्यम से राज्य और ग्राम वन प्रबंधन समिति (एफएमसी या वीएफसी या वीएफएमसी आदि विभिन्न नामों से जानी जाती है) के बीच एक समझौता किया जाता है। ग्राम वन समिति अथवा वन प्रबंधन समिति (एफएमसी) मूलतः एक समुदाय आधारित संगठन (सीबीओ) होती है। वन प्रबंधन समिति (एफएमसी) को एक निश्चित और निर्दिष्ट वन क्षेत्र को नियंत्रित करना होता है जो कार्य पहले राज्य वन विभाग द्वारा किया जाता था। प्रत्येक राज्य वन प्रबंधन समिति को गठित और संचालित करने के लिए विस्तृत कार्यविधियां और मानदंड तय करता है, जैसे प्रबंधन इकाई और सहभागियों, कार्यकारी समिति का गठन, कार्यकारी समिति के अधिकारों और इमारती लकड़ी और गैर-इमारती लकड़ी वन उत्पाद एनटीएफपी (National Timber Forest Produce) के परस्पर वितरण के लिए मानदंडों को परिभाषित करना। ये सहभागी समस्त गांव अथवा ग्राम कुटुंब, समूह, बस्तियां, और प्रयोगकर्ता समूह हो सकते हैं। अधिकांश वन प्रबंधन समितियां समिति पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत पंजीकृत होती हैं। कार्यकारी समिति के तीन घटक होते हैं वन विभाग प्रतिनिधिगण, जन प्रतिनिधिगण, व अन्य जन प्रतिनिधिगण व अन्य दोनों निर्वाचित चयनित, अथवा पदेन नियुक्त हो सकते हैं। कार्यकारी समिति के पास नियम बनाने, सदस्यताएं स्वीकार और निरस्त करने, उल्लंघन कर्ताओं को पकड़ने व उन्हें दंडित करने, आदि संबंधी अधिकार होते हैं। समिति यह भी तय करती है कि 'गैर-इमारती लकड़ी वन उत्पाद और इमारती लकड़ी का किस प्रकार परस्पर वितरण किया जाए। बहुधा ग्राम विकास कोष को प्राप्ति का अंश आवंटित करने की व्यवस्था बनी हुई होती है।

 

  • संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) के लिए काम करते हुए ग्राम वन समितियों ने पाया है कि उनके समक्ष कुछ समान समस्याएं आती हैं, जैसे किसी वन उत्पाद सहकारी के पंजीकरण में और राज्य वन विभाग से अनुज्ञप्ति पत्र प्राप्त करने में विलम्ब । सरकारी विभागों और अभिकरणों के साथ-साथ एनजीओज़ के साथ भी उनके संबंधों को स्पष्ट किए जाने की आवश्यकता देखी जाती है। कभी-कभी ऐसे गांव के भीतर या गांवों के बीच विवाद जन्म ले लेते हैं जो एक ही वन के हाशिए पर पड़ते हों। इन समस्याओं को सामंजस्य बनाकर और कुशल तरीके से हल करने के लिए एनजीओज़ ग्राम वन प्रबंधन समितियों के संघों को बढ़ावा देते रहे हैं। जो बात ग्राम वन प्रबंधन समितियों के लिए मान्य होगी, समानरूप से सभी समुदाय आधारित संगठनों के लिए भी मान्य होगी।

 

सीबीओज़ और वाटरशेड विकास

 

  • प्राकृतिक संसाधनों के ह्रास पर रोक लगाने के लिए वाटरशेड विकास योजना एक राष्ट्रव्यापी योजना है। वाटरशेड या जलसंभर एक भूजल वैज्ञानिक इकाई अथवा एक ऐसा क्षेत्र होता है जिसका निकास एक साझा स्थान पर होता है। विकास के वाटरशेड दृष्टिकोण का उद्देश्य स्थायी उत्पादन के लिए वाटरशेड क्षेत्र के भीतर आने वाले भू और जल संसाधनों का प्रबंधन करना होता है। केंद्र सरकार प्रायोजित वाटरशेड विकास परियोजनाएं डब्ल्यूडीपीज़ (Watershed Development Projects) चार प्रमुख कार्यक्रमों के तहत चलाई गई हैं : सूखा-संभावित क्षेत्र कार्यक्रमः मरुस्थल विकास कार्यक्रम समेकित बंजर भूमि विकास परियोजनाएं; तथा वर्षा-पोषित क्षेत्रों में राष्ट्रीय वाटरशेड विकास कार्यक्रम | इसके अतिरिक्त, अन्य भारतीय और विदेशी विकास और सहायता अभिकरण और संस्थाएं भी हैं जिन्होंने अपने विकास कार्य में वाटरशेड दृष्टिकोण को अपनाया है। ये विभिन्न कार्यक्रम अलग-अलग समय पर शुरू किए गए, और इनमें से अधिकतर 1980 के दशक में शुरू हुए। इस वास्तविकता के साथ कि ये विभिन्न कार्यक्रम सहज ही एक सामान्य विषय के विविध रूप हैं। एक वाटरशेड विकास परियोजना के लिए परिचालन संबंधी दिशानिर्देशों, उद्देश्यों, कार्यनीतियों, और व्यय मानदंडों का एक साझा सेट निरूपित करने का निर्णय लिया गया। परिणामतः, वर्ष 1994 में, ग्राम विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने वाटरशेड विकास के लिए दिशानिर्देश प्रस्तुत किए।


  • इन दिशानिर्देशों के अनुसार, गांव समुदायों को समुदाय आधारित संगठनों की प्रकृति के अनुकूल विशेषताओं वाले वाटरशेड संघों (डब्ल्यूएज़) अथवा वाटरशेड समितियों (डब्ल्यूसीज़) का गठन करना था। किसी भी वाटरशेड समिति का गठन सभी ग्रामसभा सदस्य (अर्थात गांव में प्रत्येक वयस्क ) करते हैं, जो परियोजना के प्रबंधन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वाटरशेड समिति का एक वाटरशेड विकास दल, डब्ल्यूडीटी (Watershed Development Team) द्वारा पथप्रदर्शन किया जाएगा, जिसके पास कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में विशेषज्ञता होगी। डब्ल्यूडीटी परियोजना क्रिर्यान्वयन अभिकरण, पीआईए (Project Implementing Agency) द्वारा गठित किया जाता है और इसमें "बाहरी विशेषज्ञ" होते हैं, न कि ग्रामवासी जन वाटरशेड विकास कार्यक्रम किए जाने वाले कार्यकलापों के स्वरूपों, बनाई (और बाद में अनुरक्षित की) जाने वाली परिसंपत्तियों के स्वरूपों, विभिन्न कार्यकलापों के लिए बजट, और समय सीमा, आदि का विवरण प्रस्तुत करता है। परियोजना क्रियान्वयन अभिकरण के लिए इस आशय के साथ एक निकास नयाचार भी होता है कि सीबीओ (इस उदाहरण में वाटरशेड संघ) किसी परियोजना द्वारा बनाई गई भौतिक परिसम्पत्तियों के रखरखाव का संपूर्ण प्रभार लेगा। यह योजना ग्राम समुदाय के क्षमता निर्माण पर केंद्रित की गई है ताकि वह अपने संसाधनों पर नियंत्रण रख सके। प्रशिक्षण, इसी कारण इस योजना का एक बहुत महत्वपूर्ण तत्त्व है। वाटरशेड योजना सामुदायिक सहभागिता और सीबीओ-दृष्टिकोण के अनुप्रयोग के संबंध में एक सर्वाधिक प्रगतिशील योजना के रूप में सामने आई है।

 

  • डब्ल्यूए अथवा डब्ल्यूसी वाटरशेड कार्यकलापों की योजना तैयार करती है, बनाई जाने वाले प्राधारों की अवस्थितियों का निर्धारण करती है, और उनके निर्माण का पर्यवेक्षण करती है। उपर्युक्त कार्यों के लिए उसे तकनीकी सहायता, मार्गदर्शन और प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। प्राधारों को ग्राम समुदाय से प्राप्त स्थानीय श्रम के प्रयोग से बनाना होता है। संभावी लाभार्थियों को इन प्राधारों को बनाने में योगदान नकद में, वस्तु अथवा श्रम के रूप में देना होता है। एक बार बन जाने के बाद प्राधारों का रखरखाव प्रयोगकर्ता समूहों द्वारा किया जाता है। प्रयोगकर्ता समूह समुदाय के ऐसे सदस्यों से गठित होते हैं जो इस प्रधार से लाभान्वित होते हैं। इस प्रकार, एक वाटरशेड में जितने प्राधार हों उतने ही प्रयोगकर्ता समूह हो सकते हैं, जहां प्रायः अधिव्यापी सदस्य होते हैं। इन व्यवस्थाओं का आधार सीबीओ-दृष्टिकोण में अंतर्निहित मुख्य सिद्धांतों में देखा जा सकता है: (i) किसी भी वाटरशेड परियोजना के अभिकल्पन के लिए समुदाय की स्थानीय जानकारी पर भरोसा किया जाता है; (ii) प्रयोगकर्ता समूहों को प्राधारों के रखरखाव के लिए उत्तरदायी बनाया जाता है; (iii) स्थानीय निगरानी अर्थात पणधारियों के हित कार्यक्रम के प्रबंधको की निगरानी स्वयं उन ग्रामवासियों द्वारा की जाती है जिनके साथ वे अनेक संबंधों के चलते शामिल होते हैं। ग्राम विकास के इतिहास में पहली बार वाटरशेड विकास परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए ग्राम समुदाय को सीधे धन प्रदान किया गया था।

 

सीबीओ और सहभागितापूर्ण सिंचाई प्रबंधन

 

  • वाटरशेड विकास परियोजनाएं जो अपेक्षाकृत नयी हैं, वर्षा-पोषित क्षेत्रों अथवा बहुत कम सिंचाई वाले क्षेत्रों में लागू की जाती हैं। सहभागितापूर्ण सिंचाई प्रबंधन, पीआईएम (Participatory Irrigation Management) नहर सिंचित क्षेत्रों के लिए है। राज्य सिंचाई विभाग, एसआईडी (State Irrigation Department ) जल भंडारण (जलाशय और बांध) सुविधाओं और नहरों का निर्माण और रखरखाव करते हैं; उन किसानों को जल की आपूर्ति करते हैं जिनकी भूमि उस सिंचाई परियोजना के नियंत्रण क्षेत्र में पड़ती हो; और जल शुल्क निर्धारित और वसूल करते हैं।
  • ब्रिटिश शासन काल में भी किसानों को सिंचाई क्षमता बढ़ाने की प्रक्रिया में भाग लेने को प्रोत्साहित किया जाता था। तथापि, भारतीय सिंचाई व्यवस्था का अपेक्षा से कम प्रयोग ही होता रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से विभिन्न सिंचाई आयोग और समितियां सिंचाई प्रबंधन में किसानों की भागीदारी की आवश्यकता को बार-बार कहती रही हैं। अनेक नीतियां सिंचाई प्रबंधन हस्तांतरण, आईएमटी (Irrigation Management Transfer) के लिए बनाई गईं। इस हस्तांतरण का अर्थ है- प्रयोगकर्ता अर्थात किसानों के लिए सिंचाई प्रबंधन की सुपुर्दगी, ताकि नहरों के रखरखाव और जल वितरण के प्रबंधन में सुधार लाया जा सके। निरूपित की गई नीतियों में नवीन थी राष्ट्रीय जल नीति, 1987, जो सिंचाई - के लिए जल के कुशल वितरण के लिए कृषक संगठनों को सिंचाई नहरें हस्तांतरित किए जाने की सिफारिश करती है। इस बढ़ते अहसास के साथ कि कोई भी विकास प्रयास पणधारियों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकता, देश में अनेक राज्यों ने 1987 नीति की सिफारिशों को लागू करना शुरू कर दिया।

 

  • वर्ष 1997 में आंध्र प्रदेश सरकार ने एक साहसिक कदम उठाया और सिंचाई नहरों का प्रबंधन जल प्रयोगकर्ता संघों (डब्ल्यूयूएज़ ) को हस्तांतरित किए जाने संबंधी एक कानून लागू कर दिया। इस तरह सरकारी कार्यकर्ताओं / अधिकारियों की भूमिका बहुत कम हो गई। अन्य राज्यों, जैसे राजस्थान, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश ने भी इसका अनुसरण किया। वर्ष 1995 में, गुजरात ने एक विश्वासजनक, गैर-बाध्यकारी दृष्टिकोण के साथ सहभागितापूर्ण सिंचाई प्रबंधन योजना अपनायी। उसने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, एनआरएम (Natural Resource Management ) के क्षेत्र में कार्यरत एक प्रतिष्ठित एनजीओ की सहायता से जल प्रयोगकर्ता संघों को बढ़ावा देने के लिए 13 प्रायोगिक परियोजनाएं शुरू करी। सिंचाई के क्षेत्र में डब्ल्यूयूएज़ समुदाय आधारित संगठनों का एक अन्य नामरूप है। आंध्र प्रदेश की भांति गुजरात में भी किसानों के लिए यह अनिवार्य होने जा रहा है कि वे डब्ल्यूयूएज़ बनाएं ताकि नहर से सिंचाई के लिए जल प्राप्त कर सकें। नर्मदा परियोजना से सिंचाई के लिए कोई भी किसान तब तक जल प्राप्त नहीं कर सकेगा जब तक कि वह किसी डब्ल्यूयूए का सदस्य न हो।

 

  • राज्य सिंचाई विभाग सिंचाई के लिए वर्षाजल संग्रहण के बांधों और जलाशयों का निर्माण करवाता है। परियोजना निरूपण के समय नहर जल से सिंचित होने वाला क्षेत्र - कमान या नियंत्रण क्षेत्र - सीमांकित कर दिया जाता है। ऐसे सभी किसान जिनके खेत इस नियंत्रण क्षेत्र में पड़ते हों, अपने खेतों को सींचने के हक़दार होते हैं।

 

  • मुख्य नहर में अनेक शाखाएं हो सकती हैं, जिनमें फिर अनेक जल-वितरिकाएं हो सकती हैं। एक वितरिका लघु से लघुतर वितरिकाओं में विभाजित हो सकती है, जो आगे उप वितरिकाओं में विभाजित हो सकती हैं। आमतौर से किसानों के खेतों में पानी खेत में बनी नालियों द्वारा पहुंचता है, जो पहले उप-वितरिका से जुड़ी होती हैं और इससे एक निकास द्वारा नालियों में जल प्रवाहित होता है। जल प्रयोगकर्ता संघ प्रायः उप वितरिका स्तर पर ऐसे सभी किसानों को लेकर बनाया जाता है जिनके खेत / भूखंड उक्त उप-वितरिका के नियंत्रण में पड़ते हों।

 

  • वे कार्य जो पहले राज्य सिंचाई विभागों द्वारा (एसआईडीज़ ) निष्पादित किए जाते थे, अब जल प्रयोगकर्ता संघों (समुदाय आधारित संगठन) द्वारा किए जाते हैं,  के सभी किसान आते हैं, अर्थात वे किसान जो किसी डब्ल्यूयूए से जल प्राप्त करने के पात्र हों । नहरों की मरम्मत और रखरखाव तथा उन्हें साफ़ रखने की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर होती है ताकि जल निर्बाध प्रवाहित हो सके। चूंकि नहरें निरंतर सरकारी संपत्ति बनी रहती हैं और एक ही परियोजना की सभी नहरें एक प्रणाली का हिस्सा होती हैं, एसआईडी प्रमुख मरम्मत कार्यों के लिए ज़िम्मेदार होता है । डब्ल्यूडीए एक कार्यकारी समिति का निर्वाचन या चयन करता है; बैठकें करवाने के लिए नियम विनिमय तय करता है; पदाधिकारियों को नियुक्त करता है; जल वितरण करता है; जल-शुल्क तय करता है; जल-शुल्क वसूल करता है और नियमों और मानदंडों का पालन न करने वालों को अनुशासन में रखता है। डब्ल्यूयूएज़ की रचना और कार्यप्रणाली किसी भी अन्य समुदाय आधारित संघ की ही भांति होती है।

 

सीबीओ-दृष्टिकोण तथा आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम

 

  • हमने पिछले भागों में स्पष्ट किया कि किस प्रकार अधिकांश समुदाय आधारित संगठन (सीबीओज़) राज्यीय संस्थाओं अथवा अन्य विकास अभिकरणों से प्राप्त बाह्य सहायता से स्थापित किए जाते हैं। कोई भी बाह्य अभिकरण समुदाय को एक समुदाय आधारित संगठन बनाने के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन प्रदान करता है। यह अभिकरण सीबीओ को तकनीकी और प्रशासनिक कौशल प्रदान करता है। यह सभी अवस्थाओं में सीबीओ के सक्रिय रूप से शामिल होने का प्रयास करता है, अर्थात एक ग्राम विकास कार्यक्रम के प्रारंभ और योजना निर्माण से लेकर उसके क्रियान्वयन तक । क्रियान्वयन के बाद की अवस्था में, सम्बद्ध विकास अभिकरण सीबीओ को ग्राम विकास कार्यक्रम के माध्यम से बनाई गई परिसम्पत्तियों के स्वामी / प्रबंधक बनने के लिए प्रोत्साहित करता है। ग्राम विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए अधिकाधिक विकास अभिकरण सीबीओ-दृष्टिकोण अपनाते जा रहे हैं। इस भाग में हम आपको आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम, एकेआरएसपी (Aga Khan Rural Support Programme) के बुनियादी पहलुओं और उसकी विकास गतिविधियों में सीबीओ-दृष्टिकोण के आविर्भाव से अवगत कराएंगे, जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय समुदायों के बीच आत्मनिर्भरता, कौशल विकास और ग्रामीण परिसम्पत्तियों के सृजन से संबंधित हैं।

 

1 आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम और ग्राम स्तरीय संस्थाएं

 

  • आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम (एकेआरएसपी) आगा खां प्रतिष्ठान (Aga Khan Foundation) द्वारा प्रेरित विकास अभिकरण है। यह गुजरात में स्थित है। 1980 के दशक के शुरू के वर्षों से ही यह पश्चिमी और मध्य भारत में प्राकृतिक संसाधनों के स्थायी प्रबंधन के माध्यम से ग्रामीण आजीविकाओं के वर्धन के प्रति समर्पित रहा है। इसके प्रयास मात्र खाद्य आत्मनिर्भरता संबंधी समस्याओं तक ही सीमित नहीं रहे हैं, अपितु यह ग्रामीण समुदायों में गरीबी उन्मूलन और जीवन स्तर सुधार आदि व्यापक मुद्दों पर भी ध्यान देता रहा है। इसके कार्यक्रमों में ग्रामीण क्षेत्रों में स्थायी सामाजिक-आर्थिक विकास लाने के लिए प्रयास किया गया है। इस कार्यक्रम की अनिवार्य भावी दृष्टि यह है कि ग्रामीण सामाजिक आर्थिक विकास किया जाए और उसे स्थायी बनाया जाए और यह ग्राम स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) को शामिल करके ही प्राप्त किया जा सकता है। ये सीबीओज़ अपनी कार्यप्रणाली में स्वशासी और पारदर्शी होती हैं। ग्राम विकास से जुड़ी कार्यनीतियों के क्रियान्वयन के लिए आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम ग्राम स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) के साथ गहरी साझेदारी निभा रहा है। यह कार्यक्रम अपनी प्रभावकारिता और स्थायित्व बढ़ाने के लिए ग्राम स्तरीय और समुदाय-साधित संस्थाओं को सहायता प्रदान करता रहा है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय विकास गतिविधियों के प्रभावशाली नियोजन, क्रियान्वयन और रखरखाव के लिए सीबीओज़ को प्रबंधन और तकनीकी कौशल प्रदान करता रहा है। 

आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रमों और स्थानीय ग्रामीण समुदायों के बीच साझेदारी निम्न के लिए प्रयास है. 

 

  • प्राकृतिक संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन के माध्यम से परिसंपत्तियां बनाना जैसे जल भंडारण, सिंचाई अधिरचना, मृदा परिरक्षण और वानिकी;
  • उन्नत कृषि उत्पादकता और खेती-बाड़ी विधियों के माध्यम से आय वृद्धि भूमि विकास और प्रबंधन; तथा ग्रामीण समुदायों के बीच लघु उद्यम को समर्थन देना
  • बचत को बढ़ावा देकर और ग्राम स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) को वित्तीय सेवाएं प्रदान कर स्थानीय वित्तीय संसाधनों को संघटित करना; 
  • पर्यावरण ह्रास को रोकने के लिए ग्रामीण समुदायों के बीच तकनीकी नवप्रवर्तनों को बढ़ावा देना; और ग्रामीण लोगों, खासकर महिलाओं के निकृष्ट कार्यों को घटाने में मदद करना; तथा 
  • सामाजिक विकास, विशेष ग्रामीण समुदायों में न्यायसंगत, सामाजिक न्याय और महिला सशक्तीकरण को प्रोत्साहन देना ।

 

इसका परम उद्देश्य, स्थानीय समुदायों को इतना सबल बनाना है कि वे स्थायी और न्यायोचित विकास लाने के लिए संसूचित निर्णयों को लेने में आत्मविश्वास और सक्षमता अर्जित कर पाएं। ग्राम-स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) के साथ साझेदारियों के माध्यम से लघु वाटरशेड का स्थानीय प्रबंधन सुधारने और ग्रामीण क्षेत्रों में विविध जल संग्रहण प्राधार बनाने में विशेष सफलता मिली है। आगे हम आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम द्वारा चलाई जा रही गतिविधियों में सीबीओ-दृष्टिकोण के आविर्भाव की संक्षिप्त रूप से जांच करेंगे जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता, कौशल विकास और स्थानीय समुदायों के बीच परिसंपत्तियों के सृजन आदि से संबंधित है।

 

i) आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहन

 

  • ग्रामीण आजीविका संबंधी आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम की कार्यनीति में समुदाय को विकास के केंद्र में रखा है। इससे विकास सहायता की प्रभावशीलता बढ़ती है, और इससे गरीबी में कमी होती है। सामुदायिक संगठनों में गरीबों को शामिल करने से स्थानीय नेतृत्व ( महिला नेतृत्व समेत) की उत्पत्ति होती है। ये स्थानीय नेतागण स्थानीय समुदाय के संगठन के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन और स्थायी विकास लाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्राम-स्तरीय संस्थाएं (सीबीओज़) ही सामुदायिक संगठन का आधार बनती हैं। गांव में सभी समुदायों के प्रतिनिधियों (कम से कम 30 प्रतिशत महिलाओं के प्रतिनिधियों समेत) वाली ग्राम विकास समितियां गठित की जाती हैं। ये समितियां ग्राम विकास योजनाएं विकसित करती हैं और पंचायतों के घनिष्ठ सहयोग में कार्य करती हैं।

 

  • समुदाय आधारित संगठन जैसे कृषक संघ और महिला स्व-सहायता समूह समुदाय प्रेरित विकास की प्रक्रिया को सरल बनाते हैं। समुदाय आधारित संगठन को लघु ऋण योजनाओं से परिचित करा कर उन्हें सबल बनाया जाता है। कृषक समूहों के संघों ने सदस्य सीबीओज़ की मांगों के आधार थोक खरीद के माध्यम से यथेष्ट रूप से कृषि संबंधी निवेश लागतों (जैसे बीज, खाद और कीटनाशकों) को घटा दिया है। सीबीओज़ ने उन्नत फसल कटाई तकनीकों, उर्वरकों के तर्कसंगत प्रयोग, और उपयुक्त निम्न-लागत प्रौद्योगिकियों के अंगीकरण आदि के लिए भी योगदान दिया है।

 

  • अनेक समुदाय आधारित संगठन खंड (ब्लाक) और तालुका स्तर पर मिलकर शीर्ष संस्थाएं ( विभिन्न सीबीओज़ का संघ) बनाते हैं। ये संस्थाएं ऐसे मंचों के रूप में काम करती हैं जहां क्षेत्रीय मुद्दों पर चर्चा होती है और समाधान निकाले जाते हैं। वे सरकार व अन्य अभिकरणों (बैंकों समेत) के साथ भी परस्पर क्रिया करते हैं और विभिन्न योजनाओं की जानकारी और लाभों का प्रचार करते हैं। ये संघ कृषि विस्तार अभिकर्ताओं के रूप में भी काम करते हैं। वे फसल बुआई / कटाई कार्यों विषयक जानकारी प्राप्त कर उसे दूरवर्ती क्षेत्रों में कृषक समूहों तक पहुंचाते हैं। वे कृषि संबंधी उत्पाद के सामूहिक विपणन के द्वारा सर्वोत्तम मूल्य पर अपने उत्पाद बेचने में भी सदस्य ग्राम-स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) की मदद करते हैं। कृषक संघों और महिला संघों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक जागरूकता अभियान भी चलाए जाते हैं। इन अभियानों का उद्देश्य सामाजिक रीति-रिवाज़ों पर फिजूलखर्ची कम करना, बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देना, मद्यनिषेध के प्रति चेतना जगाना, जैव कृषि को प्रोत्साहन देना, आदि होता है।

 

ii) कौशल विकास

 

  • आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम की ग्राम विकास गतिविधियों में मानव संसाधन विकास भी शामिल है। ग्रामीण समुदायों के बीच कौशल आधार बनाने के प्रयास किए गए हैं। ग्रामीण समुदायों को संगठन निर्माण और वित्तीय प्रबंधन संबंधी प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। उद्देश्य होता है - ग्राम स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) की प्रभावशीलता और स्थायित्व के लिए सहायता करना। मुख्य संसाधन कर्ताओं को विकास गतिविधियां नियोजित करने, लागू करने और रखरखाव संबंधी तकनीकी कौशल प्रदान किया जाता है। इसका उद्देश्य होता है ग्रामीण समुदायों को वांछित क्षमता (पहुंच, आत्मविश्वास और सक्षमता) अर्जित करने योग्य बनाना ताकि वे ग्राम विकास से संबंधित उपलब्ध विभिन्न विकल्पों से संसूचित विकल्प चुन सकें। ग्राम-स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) के बीच बचत और ऋण योजनाओं के विषय में चेतना जगाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाते हैं। ग्रामीण समुदायों को प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के सिद्धांतों संबंधी जानकारी भी प्रदान की जाती है।

 

iii) ग्रामीण परिसंपत्तियों का सृजन

 

  • आगा खां ग्रामीण सहयोग कार्यक्रम ने प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल भंडारण, उन्नत जल प्रयोग क्षमता, सिंचाई व्यवस्था, सामाजिक संरक्षण और वानिकी के कुशल प्रबंधन के द्वारा ग्राम-स्तरीय संस्थानों (सीबीओज़) और सामुदायिक पूंजी के निर्माण में समर्थ बनाया है, छोटे स्तर के बुनियादी ढांचे बनाने के प्रयास किए गए हैं, जैसे नियंत्रण बांध, सिंचाई नहरें और जल संग्रहण प्राधार तथा कृषि भंडारण सुविधाएं संस्थागत इमारतें ग्राम स्तर पर बनाई जाती हैं जिनके माध्यम से ग्रामीण गरीब लोग सामान्य संसाधनों के प्रबंधन में भागीदारी निभा सकते हैं।

 

  • आय वृद्धि को ग्रामीण समुदायों के बीच कृषि उत्पादकता बढ़ाकर बढ़ावा दिया जाता है। उन्नत कृषि विधियों के द्वारा ग्राम स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) को समर्थ बना कर इस आय वृद्धि की कल्पना की जाती है, जैसे ड्रिप सिंचाई प्रयोग में लाना, बेहतर बीजों की व्यवस्था, बाजार का सृजन व उनमें सुधार लाना, भूमि विकास, लघु ऋण, और उद्यम विकास | ग्राम स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) के बीच बचत को बढ़ावा देकर और ऋण के लिए पहुंच बनाने में स्थानीय समुदायों को समर्थ बनाने के लिए वित्तीय सेवाएं प्रस्तुत कर स्थानीय पूंजी संघटित की जाती है ।

 

  • आगा खां ग्रामीण सहायता कार्यक्रम ग्राम स्तरीय संस्थाओं (सीबीओज़) को सक्रिय रूप से शामिल कर के और गहरी साझेदारी के साथ विभिन्न विकास गतिविधियों का अभिकल्पन, क्रियान्वयन और प्रबंधन करता रहा है ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थायी सामुदायिक परिसंपत्तियां बनाई जा सकें।

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