इन्दौर का इतिहास प्राचीन इंदौर (इन्द्रपुर) के बारे में जानकारी
इन्दौर का इतिहास
इन्दौर मध्यप्रदेश का प्रमुख औद्योगिक महानगर
है। यह 22°43' उत्तर 75°52' पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। एक समय इसका समीपवर्ती भाग घने वनों से
आच्छादित था और वन्य प्राणी यहां विचरण करते थे।
इन्दौर नगर के रामबाग और डी. आर.
पी. लाइन को जोड़ने वाले फुट ब्रिज के पास नदी के कटाव से मिले नील गाय के जीवाश्म
उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं । निःसंदेह यह भू-भाग आदिमानव की गतिविधियों से
जुड़ा रहा। सुख निवास क्षेत्र से प्राप्त पूर्व पाषाण काल के उपकरण आदिमानव के
क्रीड़ा केन्द्र का सबल साक्ष्य हैं ।
पूर्व पाषाण संस्कृति के पश्चात ताम्राश्म
युगीन संस्कृति तक यहां का मानव विकास क्रम क्या रहा यह तो ज्ञात नहीं होता, परन्तु वर्ष 1973-74 में आजाद नगर के टीले पर किये गये
उत्खनन से ताम्राश्म युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
राज्य शासन के
पुरातत्त्व विभाग द्वारा वर्ष 1973-74
में यहां उत्खनन कार्य किया गया। यह स्थल इंदौर से बहने वाली खान नदी के उत्तरी
किनारे पर स्थित है और इस उत्खनन में प्रारंभिक काल के स्तरों से एक बालक का कंकाल
प्राप्त हुआ, जिससे इस युग की शवाधान संस्कृति का
ज्ञान होता है।
मिट्टी की आयताकार दीवारों से बने मकानों से गृह निर्माण तकनीक, आवास विधा और इसमें उपयोग में लाई जाने
वाली सामग्री का ज्ञान होता है। मिट्टी से बने उत्कृष्ट बर्तनों के अवशेष, शंख के तावीज, मिट्टी से बने मनके तथा खिलौने और
तांबे के तीर-फलकों से तत्कालीन जीवन पद्धति का भी ज्ञान होता है। इस उत्खनन में
आज से 4100 वर्ष पूर्व से 3300 वर्ष पूर्व तक के आवासीय स्तर एक
अनुक्रम में प्राप्तहुए हैं।
इन अवशेषों की प्राप्ति से उस युग की
विकसित ग्राम सभ्यता की जानकारी मिलती है। इन स्तरों के बाद मौर्य युग के अवशेष (2300 वर्ष पूर्व) प्राप्त हुए हैं। इन
दोनों काल खण्डों के मध्य किसी भी प्रकार की सभ्यता के कोई चिन्ह प्राप्त नहीं
हुए। स्पष्ट है कि इस अवधि में यह भू-भाग जन विहीन रहा।
मौर्य युग से शुंग काल तक आजाद नगर में मानव
निवास के सभी प्रमाण प्राप्त हुए हैं। पत्थरों से निर्मित दीवारों के अवशेष, ताप्र एवं लौह से निर्मित जीवनोपयोगी
वस्तुऐं, अंजन शलाकाऐं, ताप्र की आहत मुद्राऐं, सिलबट्टे शंख की चूड़ियां आदि मौर्य
युगीन संस्कृति की परिचायक हैं।
नदी के दक्षिणी तट पर एक अन्य निखात से मिट्टी
व ईंटों से बने स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए। इससे ज्ञात होता है कि ई.पू. प्रथम
शती में इस स्तूप का निर्माण किया गया।
शंख की चूड़ियों के टुकड़े तथा
अर्द्ध-निर्मित शंख के टुकड़ों की प्राप्ति यहां उस युग में चूड़ी उद्योग की
पुष्टि करते हैं।
यद्यपि दूसरी शती ई. के बाद यहां बस्ती होने के प्रमाण नहीं
मिलते तथापि चीनी यात्री ह्वेन सांग के यात्रा वर्णन से ज्ञात होता है कि जब वह
उज्जैन से महेश्वर (पुर) गया तब उसने “चिकिताओ"
नामक स्थान पर विश्राम किया था। इस ग्राम में उसने एक स्तूप होने का उल्लेख भी
किया है। संभव है यह "चिकिताओ" ग्राम आजाद नगर का ही वह भाग हो जहाँ
उत्खनन में प्राचीन बस्ती के अवशेष प्राप्त हुए हैं ।
संभवत: उस समय यह बौद्ध धर्म का केन्द्र था और
इसका संबंध कसरावद से अवश्य रहा होगा। वर्ष 1936-1937 में कसरावद व ईटबर्डी में किये गये पुरातात्विक उत्खननों में बौद्ध स्तूप व बौद्ध मठों के अवशेष मिले हैं।
यहाँ के
मृणपात्रों पर तीसरी शती ई. पू. की ब्राह्मी लिपि में लेख उत्कीर्ण है स्पष्ट है
कि आजादनगर के उत्खनन में प्राप्त स्तूप का निर्माण ई. पूर्व की पहली दूसरी
शताब्दी में किया गया होगा।
यह अनुमान भी असंगत नहीं कि बौद्ध धर्म के प्रमुख
केन्द्र सांची से बाघ के मार्ग पर प्राचीन चितावर एवं कसरावद अवस्थित थे। निश्चित
ही यह मार्ग सांची से उज्जैन चितावर-महेश्वर-कसरावद होते हुए बाघ को जाता था ।
अनुश्रुतियों के अनुसार 810 शती ई. में राष्ट्रकूट प्रतिहार और
पाल राजवंशों के त्रिकोणात्मक संघर्ष में मालवा का यह भू-भाग राष्ट्रकूट नरेशों के
आधिपत्य में आया।
इन्द्रेश्वर मंदिर और इंदौर
राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र ने यहां एक मंदिर का निर्माण कराया, जो इन्द्रेश्वर मंदिर के नाम से जाना
जाने लगा। यहां बसे ग्राम का नाम इन्द्रपुर रखा गया, जो वर्तमान में इंदौर है।
इस मंदिर का पुनर्निर्माण 18वीं शती में होलकर नरेश द्वारा किया
गया। चूंकि मंदिर का गर्भगृह राष्ट्रकूट शैली का है, इससे उपर्युक्त अनुश्रुति को आधार मिलता है।
इंदौर एवं समीपवर्ती
स्थानों से प्राप्त परमार युगीन मंदिर एवं मूर्तियां, शिलालेख एवं मुद्राऐं इस भू-भाग पर
परमार वंश के आधिपत्य की पुष्टि करते हैं ।
मुस्लिम आक्रमण के समय इंदौर
1283 ई.
के लगभग इस क्षेत्र में मुस्लिम आक्रमण प्रारंभ हो गये और सन् 1305 ई. में यह भू-भाग सुल्तानों के अधीन
हो गया। 1325 ई. से 1401 ई. तक यह तुगलक वंश के आधिपत्य में बना रहा। इसी वंश के मालवा स्थित
सूबेदार दिलावर खाँ गौरी ने अपनी स्वतंत्रता घोषित करते हुए धार को राजधानी बनाया।
इसी के पुत्र आलप खान, जो होशंगशाह के नाम से जाना जाता है, ने राजधानी धार से माण्डू स्थानान्तरित
कर दी। इस प्रकार 1436 ई. तक यह क्षेत्र माण्डू सुल्तानों के
शासन में रहा।
1436 ई. में महमूद खिलजी के स्वयं को शासक
घोषित करने पर यह क्षेत्र माण्डू के खिलजी सुल्तानों के अधीन हुआ।
1531 ई. में गुजरात के बहादुर शाह ने
आक्रमण कर मालवा पर अपना कब्जा स्थापित किया और सन् 1535 ई. में हुमायूँ के आक्रमण तक यह गुजरात सुल्तानों के साम्राज्य का
अंग बना रहा।
ग्राम इन्द्रपुर (इंदौर) और उसका समीपवर्ती भू-भाग का इस समय तक
सैनिक पड़ावों के रूप में ही उपयोग होता रहा। कुछ समय के लिये यह क्षेत्र शेरशाह
के अधीन रहा जिसने शुजातखान को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया।
सन् 1555 ई. में शुजातखान की मृत्यु के बाद
उसका पुत्र बाजबहादुर शासक बन गया सन् 1561 ई.
अकबर के सेनापतियों आदम खाँ एवं पीर मोहम्मद ने बाजबहादुर को पराजित कर मालवा पर
मुगलों का प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
विजय के उपरान्त आदम खाँ ने घोर अत्याचार
किए। फलस्वरूप अकबर ने उसे दण्ड देकर 1562 ई.
में पीर मोहम्मद को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया।
बाजबहादुर ने मालवा पर पुनः
अपना अधिकार कर लिया, और 15 वर्ष बाद अकबर की अधीनता स्वीकार की। इस तरह मालवा का यह भू-भाग
मुगल साम्राज्य का अंग बन गया।
अकबर का मालवा प्रशासन
अकबर ने मालवा को प्रशासन के लिये 12 सरकारों में विभक्त किया, जिनमें उज्जैन सरकार के प्रशासनिक
नियंत्रण में देपालपुर एवं सांवेर महालों के रूप में रहे। इनमें इन्द्रपुर बस्ती
उज्जैन सरकार के देपालपुर महाल के अन्तर्गत कम्पेल परगने के रूप में विद्यमान थी, और उस पर कम्पेल के जागीरदार मंडलोई
परिवार का शासन था।
मालवा का यह भू-भाग अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बरार, अहमदनगर, खानदेश और दक्कन राज्यों के विरुद्ध किये गये सामरिक अभियानों में
मुग़ल सेना का केन्द्र बन गया था।
मुगल सम्राट जहांगीर के शासन काल में 1623 ई. में शाहजहान के विद्रोह के समय यह
क्षेत्र शत्रु सेनाओं से आक्रान्त रहा। इस समय यह क्षेत्र शाहजहां के आधिपत्य में
था। शाहजहां के शासन अंतिम वर्षों में उत्तराधिकार के युद्ध में यह भू-भाग में
औरंगजेब के भयंकर आक्रमणों और सामरिक तैयारियों का केन्द्र बन गया।
उस समय
इन्द्रपुर ग्राम का महत्व सैनिक पड़ाव के रूप में स्थापित हो गया जो इसके दक्षिण
की ओर जाने वाले मार्ग पर स्थित होने के कारण ही था।
1658 ई. में औरंगजेब के राज्यारोहण के
पश्चात शान्ति की स्थापना हुई, और
शनैः शनैः ग्राम इन्द्रपुर का विस्तार व विकास होना प्रारंभ हुआ।
मराठों का आक्रमण और इंदौर
17
वीं शती के अंत और 18 वीं शती के प्रारंभ में कमजोर मुगल
सत्ता ने मालवा में अराजकता की स्थिति पैदा कर दी। फलस्वरूप मालवा पर मराठों के
आक्रमण प्रारंभ हो गये ।
अक्टूबर, 1703
में नीमा सिन्धिया के नेतृत्व में मराठों ने आक्रमण किया। मराठों ने हण्डिया में
नर्मदा को पार कर सिरोंज तक सफल अभियान किया। इस अभियान से घबराकर मुगल सम्राट
औरंगजेब ने अपने पौत्र बीदर बख्त को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया।
अक्टूबर, 1710 में मराठे पुनः सक्रिय हुये। उन्होंने
गंगाराम खाण्डेराव दमा कान्हो जी भोंसले एवं चिमनाजी दामोदर के संयुक्त नेतृत्व
में मालवा पर आक्रमण किया,जिसमें अधिक सफलता न मिली।
तीन वर्ष
बाद 1713 में गंगाराम और कान्होजी भोंसले ने 30,000 घुड़सवारों के साथ पुनः आक्रमण किया।
इसमें वे आष्टा होकर उज्जैन तक पहुंचे। सन् 1715
में मराठों ने बड़वानी एवं धर्मपुरी से चौथ एवं सरदेश मुखी वसूल की ।
माण्डू एवं
महेश्वर में पड़ाव डालकर शेष भागों को भी लूटा। उन्होंने बड़वाह को भी लूटा एवं
कम्पेल के जमींदार नंदलाल मण्डलोई से चौथ वसूल की मुगल सम्राट द्वारा जयसिंह को
मालवा में मराठों के दमन हेतु भेजा गया और कुछ समय यह क्षेत्र शान्त रहा।
अप्रैल, 1717 में खाण्डेराव दमाड़े के नेतृत्व में मराठों ने मालवा पर आक्रमण
किया। इस अभियान के प्रमुख केन्द्र सीहोर एवं आष्टा रहे।
मुगल सम्राट ने निजाम को 1719 में मालवा का सूबेदार नियुक्त किया।
पेशवा बालाजी विश्वनाथ को मालवा एवं खानदेश की चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार
प्राप्त हुआ।
पेशवा ने अक्टूबर, 1722
में मालवा की ओर प्रस्थान किया, और 18 जनवरी, 1723 को बुरहानपुर पहुंचा। जलगांव पड़ाव से पेशवा ने ऊदा जी पंवार को धार
एवं झाबुआ जिलों का चौथ वसूलने का कार्य सौंपा। इसी अभियान में पेशवा और निजाम की 13 फरवरी, 1723 को झाबुआ में भेंट हुई। पेशवा धार, अमझेरा, अकवरपुर होकर खानदेश चला गया।
पेशवा बाजीराव ने 27 जनवरी, 1724 को पुनः मालवा पर आक्रमण करने के लिये प्रस्थान किया। इस अभियान में
ऊदाजी पंवार, मल्हारराव होलकर, रनोजी सिन्धिया प्रमुख सहयोगी थे।
18 मई, 1724 को धार के समीप नालछा में निजाम व पेशवा की भेंट हुई, जिसमें पेशवा ने दक्कन के 6 सूबों की चौथ एवं सरदेशमुखी की मांग
की। इस अभियान में पेशवा ने ऊदाजी पंवार को धार, मल्हारराव होलकर को इंदौर एवं रनोजी सिन्धिया को उज्जैन क्षेत्र से
वार्षिक अंशदान वसूलने के लिये नियुक्त किया ।
इंदौर में होलकर राजवंश की नींव
सन् 1727 ई.
में मल्हारराव होलकर को सूबे के पांच महालों की पहली सनद प्राप्त हुई । मल्हारराव
की नियुक्ति उदाजी पंवार की बढ़ती शक्ति को रोकने के उद्देश्य से की गई थी ।
सितम्बर, 1730 में सूबेदार मल्हारराव होलकर ने कदम
बाण्डे की सलाह पर पेशवा से प्रार्थना की कि उनके परिवार के स्थाई निवास की
व्यवस्था की जावे।
पेशवा ने सूबेदार मल्हारराव की पत्नी गौतमाबाई को खाजगी के नाम
पर देपालपुर और उसके आसपास के 74
गांव जागीर के रूप में दिये । यह घटना 3
अक्टूबर, 1730 की है। इस प्रकार इंदौर में होलकर
राजवंश की नींव पड़ी ।
मुगल सम्राट मुहम्मदशाह ने गिरधर बहादुर को
मालवा का सूवेदार नियुक्त किया। उसने मराठों के दमन के प्रयास किये, किन्तु मराठों के जमते चले गये। पेशवा
ने पालखेड़ा के युद्ध में निजाम को पराजित कर अपने भाई चिमना जी अप्पा के नेतृत्व
में मालवा पर विजय के उद्देश्य से सैन्य दल भेजा। इस में मल्हारराव होलकर, रनोजी सिन्धिया, एवं ऊदा जी पंवार थे।
मराठा सेना के
समक्ष दया बहादुर ने विरला में आत्मसमर्पण किया। इस प्रकार 1729 में उज्जैन व सिरोंज को छोड़कर मालवा
का शेष भाग मराठों के आधिपत्य में आ गया।
29
जुलाई, 1732 के अपने पत्र में पेशवा ने मालवा का
बंटवारा करते हुए इन्दौर मल्हारराव होलकर को, ग्वालियर
सिन्धिया को एवं धार व देवास ऊदा जी पंवार को दिये ।
इन्द्रपुर को अब इन्दूर के नाम से जाना जाने
लगा, और अब यह विकसित रूप परगना का मुख्यालय
बन गया।
2
नवंबर, 1731 को पेशवा ने मालवा प्रान्त से चौथ और
सरदेशमुखी वसूलने के अधिकार होलकर और सिन्धिया को सौंप दिये और सूबे के समस्त
प्रशासनिक कार्यों में उपयोग के लिये अपनी राजमुद्रा भी सौंप दी।
सन् 1732 ई. में बाजीराव ने एक दस्तावेज द्वारा
मालवा के जिलों का विभाजन कर दिया। इस बन्दोवस्त द्वारा ही मराठों के राज्यों की
वास्तविक नींव पड़ी, जो होलकर (इंदौर), सिन्धिया (ग्वालियर), आनंदराव (धार) तुकोजी पवार (देवास बड़ी
पांती), जीवाजी (देवास छोटी पांती) द्वारा
शासित थे।
सन् 1734 में मल्हारराव को उसके परिवार के नाम
दौलत जागीर की खिलअत प्रदान कर दी गई। उसे इंदौर के 9 ग्रामों सहित महेश्वर सूवा प्रदान
किया गया। यह उल्लेखनीय तथ्य है कि इस समय तक इंदौर की स्थापना सूबे के रूप में
नहीं हुई थी।
वर्ष 1741 ई. में मुगल-मराठा संघर्ष समाप्त होकर
मालवा भू-भाग में इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ। 1761 में पानीपत के युद्ध में अहमद शाह
अब्दाली के हाथों मराठों की भयंकर पराजय हुई।1766 ई.
में मल्हारराव की मृत्यु हो गई।
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