खाद्य सुरक्षा की समस्या | सार्वजनिक वितरण प्रणाली | PDS in Hindi

खाद्य सुरक्षा की समस्या

सार्वजनिक वितरण प्रणाली PDS in Hindi

खाद्य सुरक्षा की समस्या सार्वजनिक वितरण प्रणाली PDS in Hindi



 खाद्य सुरक्षा की समस्या सामान्य परिचय 

  • " खाद्य सुरक्षा" की समस्या में दो पहलू सम्मिलित हैं : पहला, खाद्यान्नों की पर्याप्त उपलब्धता, दूसरा, सभी को उसकी सुलभता सुनिश्चित करने के लिए उसका प्रभावशाली वितरण। 
  • उपलब्धता को "हकदारी" के रूप में सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है, अर्थात् ऐसी दशाओं का निर्माण जिससे वास्तविक जरूरतमंदों को यह आसानी से सुलभ हो सके। इसका अभिप्राय है कि यदि गरीब की क्रयशक्ति खाद्यान्न खरीदने के लिए पर्याप्त नहीं है तो उन्हें या तो कम (सब्सिडी) कीमत पर अनाज सुलभ होना चाहिए या उनकी क्रयशक्ति उपयुक्त ढंग से बढ़ाई जानी चाहिए। 
  • पहला पक्ष वितरण नीति द्वारा प्राप्य है, तो दूसरा विशेष कार्यक्रमों के क्रियान्वयन द्वारा प्राप्त हो सकता है। 
  • वितरण का कार्य (प्रत्येक परिवार की देहरी तक खाद्य ले जाना, विशेषकर गरीबी की रेखा (BPL) से नीचे रहने वाले परिवारों तक) बहुत विशाल कार्य है जो भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) द्वारा किया जाता है।
  • PDS का क्रियान्वयन देशभर में स्थापित सस्ती उचित दर की दुकानों (FPS ) के संचालन द्वारा किया जाता है। ऐसे विशाल वितरण के कार्य से पहले "न्यूनतम समर्थन मूल्य" (MSP) नाम की मूल्य समर्थन की नीति के अधीन किसानों से "खाद्यान्नों का प्रापण किया जाता है। 
  • पिछले दशकों से ऐसी नीतियों के क्रियान्वयन से (अर्थात् प्रापण और FPS के माध्यम से खाद्यान्न का वितरण, काम के लिए अनाज कार्यक्रम चलाना आदि द्वारा सरकार लाखों गरीब लोगों को "खाद्य सुरक्षा" देने में सफल हुई है। 
  • इसका प्रभाव समय के चलते गरीब के घटते हुए अनुपात में देखा गया है। भारत में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के अनुमानों की यथार्थता का आकलन भिन्न-भिन्न वर्गीकरण तरीकों द्वारा किया गया है और यह चर्चाधीन है। परंतु UN रिपोर्ट के अनुसार केवल 1990 के दशक के सुधारोत्तर वर्षों में ही गरीबी की रेखा से नीचे के गरीबों का अनुपात 1990 में 51.3 प्रतिशत से घटकर 2010 में लगभग 26 प्रतिशत हुआ है।

सफलता के इस परिमाण के बावजूद तीन गंभीर समस्याएं हैं जो हमारी खाद्य सुरक्षा नीति की दक्षता पर गंभीर प्रभाव डालती हैं। ये हैं: 


  • (i) अपर्याप्त भंडारण के कारण "बफर स्टॉक" प्रभावित हो रहा है
  • (ii) PDS प्रणाली में त्रुटि से PDS लाभ से बहुत से वास्तविक गरीब वंचित हैं (और गैर-गरीब शामिल किए गए हैं) और सबसे गंभीर है
  • (iii) साहाय्य प्राप्त अधिशेष खाद्यान्न अन्य देशों को निर्यात किया जाता है जिसमें राजकोष को आये दिन बहुत मार पड़ती है।


  • यह विडम्बना है कि लाखों लोग गरीबी का सामना कर रहे हैं (5 वर्ष से कम आयु के बच्चों सहित), गंभीर कुपोषण से पीड़ित हैं (इसके फलस्वरूप शिशु मृत्यु दर अधिक होती है जिसका अनुमान UNICEF द्वारा 2009 में प्रति 1000 जीवित जन्म पर 66 लगाया गया था जो 1990 में 118 से घटकर हुआ है) किंतु हमारा बफर स्टॉक उन देशों को निर्यात किया जाता है जहाँ इसे पशु आहार निर्माताओं द्वारा प्रयुक्त किया जाता है, (जैसे मलेशिया, इंडोनेशिया, ओमान, इराक, फिलिपाइन्स, आदि) हमने 'खाद्य असुरक्षा' शब्द का प्रयोग उस दुखदायी अवस्था के लिए किया है जहां खाद्य आपूर्ति की प्रचुरता के बावजूद बाल कुपोषण की दशा गंभीर बनी हुई है। 


इस पृष्ठभूमि के विपरीत इस इकाई में कृषि विकास की समस्या के दो मुख्य मुद्दों पर विचार करने का प्रयास किया है: 

(i) "खाद्य सुरक्षा की उच्चतर दर प्राप्त करने के लिए सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियाँ, और 

(ii) भावी रणनीति, जो खाद्य सुरक्षा की नीतियाँ अधिक दक्ष बनाने के लिए अपनाई जानी आवश्यक है। 

 

19.2 संकल्पनात्मक रूपरेखा

 

हम पहले ही उन कई संकल्पनाओं का परिचय दे चुके हैं जिनका विस्तार से विवरण इस भाग में दिया जाएगा। हम दो शब्दों, अर्थात् खाद्य आत्मनिर्भरता और निवल उत्पादन के विभेद से आरंभ करेंगे ।

 

खाद्य आत्मनिर्भरता क्या है 

 

  • उस देश को खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर" कहा जाता है जिसमें जनता की खाद्य आवश्यकता से उसके खाद्य उत्पादन का स्तर मेल खाता है। दूसरे शब्दों में, देश अन्य देशों से खाद्यान्न के आयात पर निर्भर रहे बिना अपने स्वयं के घरेलू उत्पादन से अपने लोगों को खिलाने की स्थिति में होता है। 


  • दूसरी ओर, अर्थव्यवस्था को खाद्य उत्पादन में अपूर्ण कहा जाता है जब उसका घरेलू उत्पादन उसकी आवश्यकता से कम होता है। यदि कमी अधिक हो तो अन्य देशों से सहायता के अभाव में, अर्थव्यवस्था में भुखमरी फैल सकती है। तथापि यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि "खाद्य सुरक्षित" होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि देश अपने स्वयं का कृषि उत्पादन विकसित करें। 

 

निवल उत्पादन का आशय  

  • देश में उत्पादित कुल खाद्यान्न मानव उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं है। उसका एक भाग उसकी अनुवर्ती जोताई के लिए बीजों के रूप में प्रयुक्त होगा जबकि एक अन्य भाग खराब भंडारण के कारण नष्ट हो सकता है। खाद्यान्न उत्पादन का एक भाग पशु आहार के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है। शेष भाग जो मानव उपभोग के लिए उपलब्ध है, उसे "निवल उत्पादन" कहा जाता है।
  • कुल उत्पादन में निवल उत्पादन का अनुपात विभिन्न कारकों, जैसे खेती की विधि, खाद्यान्नों का भंडारण और विपणन पर निर्भर करता है। यह अनुपात एक देश से दूसरे में भिन्न-भिन्न हो सकता है। भारत में कुल खाद्यान्न उत्पादन का 87.5 प्रतिशत निवल उत्पादन के रूप में लिया जाता है।

 

खाद्य सुरक्षा बनाम खाद्य असुरक्षा

 

राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा की परिभाषा

  • राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा की परिभाषा सभी व्यक्तियों को "अपेक्षित मात्रा और गुणवत्ता में खाद्य की उपलब्धता के रूप में की गई है। उपलब्धता ऐसे तरीके से होनी चाहिए, जो "स्वस्थ और सक्रिय जीवन यापन के लिए पर्याप्त हो । 
  • खाद्य सुरक्षा की अगली शर्त के लिए यह भी आवश्यक है कि उपलब्धता स्थायी या अविछिन्न आधार पर जारी रहनी चाहिए। इस प्रकार सिद्धांत रूप से, खाद्य सुरक्षा परिवार, समुदाय, राष्ट्रीय और यहाँ तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक फैले हुए कारकों के संयोजन द्वारा प्राप्त की जाती है। परंतु प्रचालन की दृष्टि से यह व्यक्तिगत स्तर पर लागू की जाती है।
  • इसे ध्यान में रखकर राष्ट्रीय स्तर पर "खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता" न तो आवश्यक है और न ही व्यक्तिगत स्तर पर "खाद्य सुरक्षा" की पर्याप्त गारंटी है। यह तब स्पष्ट होता है जब हम सिंगापुर और हांगकांग जैसे देशों का उदाहरण लेते हैं जो खाद्य आत्मनिर्भर नहीं हैं परंतु उनके लोग खाद्य सुरक्षित हैं जब कि देश के रूप में भारत खाद्य सुरक्षित है परंतु इसके सभी लोग नहीं हैं। 
  • इस प्रकार, यद्यपि खाद्य के सभी चार तत्व, अर्थात् उपलब्धता, सुलभता, उपयोग और सुलभता की स्थिरता खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण है, व्यावहारिक रूप में यह उस सीमा पर निर्भर करता है जिस तक व्यक्ति खाद्य के लिए अपनी "हकदारी" प्राप्त कर सकता है। इसके अलावा, "स्वस्थ और सक्रिय जीवन यापन करने के लिए खाद्य की उपयोगिता की स्थिति में खाद्येत्तर मदों (जैसे पर्याप्त आहार, स्वच्छ जल, सफाई और स्वास्थ्य देखभाल) का भी महत्त्व उत्पन्न रहता है। 
  • इसलिए, यदि व्यक्ति खाद्य का प्रयोग करने में असमर्थ है क्योंकि वह बीमार है, सहायता का कोई साधन नहीं है तो खाद्य उपयोग" स्थिति असंतोषजनक रहती है। खाद्य उपलब्धता के बारे में भी इसी प्रकार का मामला है। प्रश्न केवल खाद्य की उपलब्धता के बारे में नहीं है बल्कि क्या कोई ऐसी क्रियाविधि है जिससे यह प्रभावी ढंग से उन सभी गरीब व्यक्तियों को वितरित हो पाती हो इसी प्रकार "सुलभता का स्थायित्व" गरीबों की "संवेदनशीलता" की संभावना को रेखांकित करता है जो अपने आपको उस दिन भोजन के बिना पाते हैं जिस दिन वे रोजगार पाने में असफल रहते हैं। 


सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS)

 

  • परिवारों की आय में असमानताओं से भरी मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में बहुत ऐसे गरीब परिवार होते हैं जो वर्तमान बाजार कीमत पर पर्याप्त खाद्य खरीदने की स्थिति में नहीं होते। इसलिए ऐसे परिवार खाद्य असुरक्षाग्रस्त रहते हैं। ऐसी क्रियाविधि, जिससे ऐसे गरीब परिवारों को सस्ती दर पर खाद्य उपलब्ध कराया जाता है।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) है। PDS दो प्रकार के हैं, अर्थात् सर्वव्यापी PDS (UPDS) और लक्ष्यित PDS (TPDS)  सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सभी परिवारों को खाद्यान्न की एकसमान मात्रा दी जाती है।
  • UPDS की सार्वजनिक वितरण प्रणाली जिसमें सभी परिवारों को खाद्यान्न की एकसमान मात्रा दी जाती है। दूसरी ओर, लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली में परिवारों को दो श्रेणियों अर्थात् गरीब और गैर-गरीब में बांटा गया है। 
  • गैर-गरीब परिवारों को गरीब परिवारों की अपेक्षा राशन की अधिक मात्रा दी जाती है। इसलिए TPDS मूल रूप से गरीबों को बेहतर खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए है।

 

त्रुटियों पर लक्ष्य साधन : ई और एफ प्रकार की त्रुटियां

 

खाद्य असुरक्षाग्रस्त परिवारों को राशन कार्ड दिया जाता है जिससे वे सस्ती दर पर (अर्थात् उस दर पर जो बाजार मूल्य से कम है) सस्ती मूल्य की दुकानों से खाद्य खरीद सकते हैं। 


  • राशन कार्डों के वितरण की प्रक्रिया में दो प्रकार की त्रुटियां हो सकती हैं: अधिकारी परिवार (गरीब) राशन कार्ड के लाभ से वंचित रखा जा सकता है। इस प्रकार की त्रुटियां टाइप ई त्रुटि कहलाती है। 
  • दूसरी ओर, गैर-गरीब परिवार PDS से सस्ते खाद्यान्नों के लाभ में शामिल हो सकता है। ऐसी त्रुटि को टाइप एफ त्रुटि कहा जाता है। PDS की कार्य दक्षता दोनों प्रकार की त्रुटियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार की क्षमता पर निर्भर करता है। 
  • इसके अलावा यदि प्रणाली "चोरी" या "भ्रष्टाचार" (FPs से खुले बाजार में खाद्यान्नों का रिसाव) ग्रस्त हो तो PDS की दक्षता गंभीर रूप से बिगड़ जाती है। गरीब परिवारों को BPL परिवारों के रूप में वर्गीकृत किया गया है (अर्थात् गरीबी की रेखा से नीचे परिवार ) जबकि गैर-गरीब परिवारों को APL परिवारों के रूप में वर्गीकृत किया गया है (अर्थात् गरीबी की रेखा से ऊपर परिवार ।


  • संक्षेप में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से गरीबों को आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमतों के प्रभाव से बचाकर उन्हें खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की आशा की जाती है ताकि इससे न्यूनतम पोषणिक प्रस्थिति बनाई रखी जा सके FPS के माध्यम से वितरित आवश्यक वस्तुओं में मुख्य रूप से गेहूँ, चावल, मिट्टी तेल और चीनी चार मदें शामिल होती हैं। परंतु बढ़ती हुई कीमतों के प्रभाव से BPL परिवारों की रक्षा करने के लिए सरकार कभी-कभी " दुकानों" ( FPS के लिए प्रयुक्त वैकल्पिक नाम) के माध्यम से दालें और खाद्य तेल भी सस्ती दरों पर वितरित करती है। 


  • PDS सही अर्थों में तभी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है जब अन्न और गैर-अन्न दोनों मदें (जैसे दालें) PDS के माध्यम से वितरित हों। व्यवहार में केवल अन्न खाद्य वस्तुएं PDS के माध्यम से वितरित की जाती हैं।

 

खाद्यान्नों का प्रापण ( वसूली)

 

  • अच्छे कृषि वर्ष के दौरान कीमतें तेजी से घट सकती हैं। इससे किसानों को कम कीमत के कारण हानि उठानी पड़ सकती है। दूसरी ओर, खराब कृषि वर्ष के दौरान उपभोक्ता कीमतें बढ़ने के कारण पीड़ित होते हैं। ऐसी मूल्य वृद्धि का लाभ बिचौलियों और व्यापारियों द्वारा उठाने की संभावना होती है क्योंकि किसान अधिकांशतः निरक्षर और असंगठित होते हैं। इस प्रकार गरीब किसानों को अधिक लाभ नहीं हो सकता। उनके पास बेचने के लिए अधिशेष कम होता है। गरीब किसान भी खाद्यान्न कीमतों में दो फसलों की ऋतुओं के बीच की अवधि में बुरी तरह से प्रभावित होते हैं।


  • उदाहरण के लिए, यद्यपि फसल कटाई के तुरंत बाद जब कीमतें कम होती हैं, गरीब किसान की आर्थिक दशा उसे अपना उत्पाद बेचने के लिए बाध्य कर सकती है। ऋतु के बाद की अवधि के दौरान उसे काफी ऊँची दर पर खाद्यान्न खरीदना पड़ सकता है। कीमतों में इस प्रकार के चक्रीय उतार-चढ़ाव से किसानों को बचाने के लिए सरकार ने "प्रापण" की नीति अपनाई है।


  • इसमें फसल कटाई के समय सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य ( MSP) नाम की कीमत पर खाद्यान्न खरीदती है। ऐसे प्रापण प्रचालन सरकार को बफर स्टॉक बनाने में सहायक होते हैं जिसे PDS को अनाज आदि देने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

 

बफर स्टॉक (सुरक्षित भंडार)

 

  • खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए बफर स्टॉक महत्त्वपूर्ण पूर्वापेक्षा है। यह भली भांति ज्ञात है कि खाद्य की खपत पूरे वर्ष भर होती है जबकि खाद्यान्न का उत्पाद वर्ष की निश्चित अवधि में ही होता है। उत्पादन और खपत में ऋतुओं के बीच की अवधि का अंतर पाटने के लिए "बफर स्टॉक नाम का खाद्यान्न स्टॉक बनाए रखना आवश्यक है। कीमतें स्थिर रखने के लिए मंदी की अवधि में ऐसे बफर स्टॉक से खाद्यान्न लिया जाता है। 
  • खाद्यान्न का स्टॉक कृषि उत्पादन में चक्रीय विविधता के कारण कीमतों के उतार-चढ़ाव रोकने के लिए भी आवश्यक है। इन कारणों के अलावा, जैसाकि ऊपर कहा गया है, खाद्यान्नों का स्टॉक PDS चलाने के लिए भी आवश्यक है।


सारांश में सरकार को निम्नलिखित के लिए खाद्यान्न का बफर स्टॉक बनाए रखना आवश्यक है: 


(i) मंदी के समय मूल्यों के उतार-चढ़ाव के हानिकारक प्रभाव रोकने और 

(ii) सार्वजनिक वितरण प्रणाली चलाने। इन कारकों के अलावा बफर स्टॉक का अनुरक्षण 

उन निजी व्यापारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक युक्ति के रूप में भी कार्य करता है जो कृत्रिम कमी बनाने के लिए जमाखोरी करते हैं जिसके परिणामस्वरूप कीमतें बढ़ सकती हैं।

 

न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में जानकारी 

 

  • किसानों को कीमत जोखिम से दूर रखने के लिए सरकार प्रत्येक कृषि ऋतु के प्रारंभ में फसल के लिए अपनी खरीद कीमत की घोषणा करती है। इसे न्यूनतम समर्थन मूल्य या MSP कहा जाता है। फसल कटाई के समय पर यदि बाजार मूल्य MSP से कम है, तब सरकार पूर्व निर्धारित MSP पर किसानों द्वारा मार्केट में लाई गई समस्त फसल खरीदने के लिए तैयार रहती है। यह बहस का विषय है क्या सरकार द्वारा घोषित MSP किसान को पर्याप्त प्रतिलाभ सुनिशित करता है। MSP नीति का क्रियान्वयन फसल दर फसल भिन्न भिन्न होता है । 

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