समुदाय आधारित संगठन (सीबीओज़) की शक्तियां और सीमाबद्धताएं |Strengths and Limitations of Community Based Organizations (CBOs)

समुदाय आधारित संगठन (सीबीओज़) की शक्तियां और सीमाबद्धताएं

समुदाय आधारित संगठन (सीबीओज़) की शक्तियां और सीमाबद्धताएं |Strengths and Limitations of Community Based Organizations (CBOs)



समुदाय आधारित संगठन (सीबीओज़) की शक्तियां और सीमाबद्धताएं

 

  • सीबीओज़ द्वारा नियोजित क्रियान्वित और अनुरक्षित योजनाओं और परियोजनाओं से लाभ वितरण के संबंध में अधिक कार्यकुशलअधिक न्यायसंगत होने की अपेक्षा की जाती हैऔर उनके वृहत्तर स्थायित्व की भी अपेक्षा की जाती है।


  • सीबीओज़ से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे समुदायों को सशक्त बनाएं और इस तरह लोकतंत्र को सुदृढ़ करें। यह सुनिश्चित करने के लिए कि क्या इन उद्देश्यों को व्यवहारतः साकार रूप दिया जा रहा है या नहींसीबीओ आधारित परियोजनाओं का एक संपूर्ण मूल्यांकन कराया जाता है। इसके बादकिसी विश्वसनीय और वैध निष्कर्ष पर पहुंचने के लिएसीबीओ आधारित परियोजनाओं की तुलना समरूपी गैर-सीबीओ आधारित परियोजनाओं से की जानी होगी अर्थात सरकारी विभागों अथवा पंचायती राज संस्थाओं द्वारा अभिकल्पितक्रियान्वित और अनुरक्षित परियोजनाएं।
  • तीन महाद्वीपों - अफ्रीकालैटिन अमेरिका और एशिया में विस्तीर्ण परियोजनाओं के साथ किए गए अनेक ऐसे अध्ययन कार्य उपलब्ध हैं जिनमें विशिष्ट परिणामों के प्रसंग में परियोजनाओं का मूल्यांकन किया गया है।


किसी भी सीबीओ की शक्ति और प्रभाव का मूल्यांकन निम्न मानदंडों पर किया जा सकता है:

 

• विकास परियोजनाओं का स्थायित्व; 

• सार्वजनिक प्रदाय व्यवस्था का अभिवर्धन; 

सामूहिक क्रिया के लिए समुदाय का क्षमता निर्माण; 

• उपान्तिक और अलाभान्वित वर्गों का सशक्तीकरण; 

• लाभार्थियों अथवा लक्ष्य समुदायों के चयन की कार्यविधि और पद्धतितथा 

• जवाबदेही और पारदर्शिता की प्रकृति

 

  • किसी भी सीबीओ दृष्टिकोण में कुछ सीमाबद्धताएं देखी जाती हैं। कोई भी गांव सामाजिक अथवा आर्थिक दृष्टि से समरूपी इकाई नहीं होता। प्रत्येक गांव में प्रायः ऐसे समूह विद्यमान होते हैं जो राजनीतिकसामाजिक और आर्थिक रूप से शक्तिशाली होते हैंऔर इसी कारण वे निर्णय निर्धारण की प्रक्रिया में हावी रहते हैं। निम्न जातियोंउपान्तिक और छोटे किसानमहिलाओं आदि को पूर्णतया निर्णय निर्धारण की प्रक्रिया से बाहर रखा जा सकता है। हो सकता है कि निर्णय लिए जाते समय उनके हितों पर बिल्कुल भी ध्यान न दिया जाए। गांव में असमानताओं को मात्र इसलिए ही दूर नहीं किया जा सकता हो क्योंकि योजना को एक सीबीओ द्वारा चलाया जा रहा है। 


वस्तुतः सीबीओ की विद्यमानता के कारण प्रायः असमानताएं बढ़ती ही देखी गई हैं। ऐसा मुख्यतः दो कारकों से हो सकता हैप्रथमतः,

 

  • भागीदारी एक समय लगने वाली प्रक्रिया है अर्थात इसके लिए काफी समय देना पड़ता है। गांव में सम्पन्न वर्ग के पास देने के लिए अधिक समय होता है और इसलिए वे अधिक प्रभावी और सक्रिय रूप से भागीदारी निभा सकते हैं विशेषकर यदि वह कार्यक्रम उनके हितों के अनुकूल हो । अतः बैठकें ऐसे समय पर आयोजित किया जाना आवश्यक होता है जो सभी के लिए सुविधाजनक हो। दूसरेमहिलाओं और निम्न जाति-समूहों को एक सीबीओ के ऐसे लोकमंच पर भागीदारी के लिए निषेधों अथवा अवरोधों और बाधाओं पर काबू कर पाना मुश्किल हो सकता है। ये समूह संभवतः बैठकों में उपस्थित ही न होते होंयदि हों भी तो शायद बोलें न और यदि वे बोलेंगे नहीं तो उनकी बात भी नहीं सुनी जा सकेंगी उनके सरोकारों अथवा दृष्टिकोणों पर ध्यान भी नहीं दिया जा सकेगा।

 

  • हर गांव में पहले से ही एक निर्वाचित पंचायत होती है। 73वें और 74वें संविधान संशोधनों द्वारा पंचायतों के अधिकार और भूमिका में बढ़ोतरी की जा चुकी है जो कभी-कभी सीबीओज़ के अस्तित्व और कार्यप्रणाली के साथ एक विवाद का स्रोत बन जाती है।

 

  • इसके अलावासीबीओज़ की पुनरावृत्ति अथवा सीबीओ-साधक कार्यक्रमों के मॉडल का आकार-वर्धन करना जरूरी नहीं कि आसान काम हो। किसी विशिष्ट सीबीओ की सफलता कई कारकों पर निर्भर करती हैजैसे ग्राम-नेतृत्व का स्वरूप और गांव में सामाजिक संघटन। हर सफल सीबीओ के पीछे एक बहुत ही योग्य और विवेकशील और ईमानदार नेता और एक समर्पित एनजीओ अथवा कुछ अन्य ऐसी अनुकूल परिस्थितियों का हाथ होता है जिनकी पुनरावृत्ति कठिन हो। इस प्रकार समुदाय आधारित विकास कार्यक्रमों का आकार-वर्धन आज भी ग्राम विकास के क्षेत्र में एक प्रमुख चुनौती बना हुआ है।

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