ब्रिटिश शासन में कृषि का वाणिज्यीकरण |ग्रामीण ऋणभार तथा भूमिहीन मजदूरों का उदय | Agriculture in Birish Era
ब्रिटिश शासन में कृषि का वाणिज्यीकरण
कृषि का वाणिज्यीकरण के कारण
- अपनी खपत के स्थान पर बिक्री के लिए फसलों का उत्पादन करने के कई कारणों के फलस्वरूप वाणिज्यिक कृषि विकसित हुई। इसका एक प्राथमिक कारण राज्यों द्वारा कृषकों पर लगाए गए करों को भरने के लिए कृषकों द्वारा रास्ता खोजना था।
- कृषकों ने केवल एक विशेष फसल उगानी शुरू की। कई गांवों की सामूहिक भूमि एक साथ उपयोग की जाती थी, क्योंकि यह भूमि एक कृषीय फसल जैसे कि कपास, पटसन, गेहूं, गन्ना और तिलहन इत्यादि की खेती के लिए विशेष उपयुक्त होती थी। नकदी फसलों की खेती में तीव्र वृद्धि का कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा इसे प्रोत्साहित करना था। इंग्लैंड में आधुनिक उद्योगों की वृद्धि के साथ इन उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता बढ़ी।
- ब्रिटिश सरकार ने भारत में ब्रिटिश उद्योगों के लिए आवश्यक कच्चे माल के अधिक उत्पादन हेतु उसके अनुरूप आर्थिक नीतियां अपनाईं।
- सरकार द्वारा परिवहन की सुविधा में किए गए सुधारों से कृषि उत्पादित वस्तुओं का व्यापार व्यापक हो गया। अतः सरकार ने भारतीय कृषि के विशिष्टीकरण एवं वाणिज्यीकरण को बढ़ावा दिया।
कृषि का वाणिज्यीकरण परिणाम-
- कृषि के विशिष्टीकरण एवं वाणिज्यीकरण के कारण पारंपरिक भारतीय गांव में कृषि एवं उद्योग की एकता का विघटन हुआ। अतः भारत का पुराना ग्रामीण ढांचा जो कि नई भूमि व्यवस्था से कमजोर हो चुका था व्यापारिक कृषि के फैलाव से नष्ट हो गया वाणिज्यीकरण से कृषकों की आर्थिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव बढ़ा। वह अब भारतीय एवं विश्व दोनों बाजारों के लिए उत्पादन करता था और सभी प्रकार के फेरबदल एवं बाजार की अनिश्चितता का जिम्मेदार था।
- उसे अमेरिका, यूरोप एवं आस्ट्रेलिया के बड़े-बड़े कृषकों के साथ, जो आधुनिक कृषि मशीनों का प्रयोग करते थे, अपने उत्पादन से बराबरी करनी थी जबकि वह अपने छोटे से भूमि के टुकड़े पर बैलों एवं प्राचीन हल से खेती करता था। बाद में कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण वह अपनी उपज की बिक्री के लिए मध्यस्थ व्यापारियों पर आश्रित हो गया।
- व्यापारी वर्ग जिनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी, कृषकों की गरीबी का पूरा लाभ उठाते थे। गरीब कृषकों को अपनी उपज, राजकीय कर एवं महाजन का कर्ज चुकाने के लिए बिचौलिये को बेच देनी पड़ती थी। इससे कृषकों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की बहुत कम मात्रा प्राप्त होती थी, जबकि बिचौलियों को लाभ का एक बड़ा भाग मिल जाता था।
ग्रामीण ऋणभार तथा भूमिहीन मजदूरों का उदय
कृषकों की गरीबी के निम्न कारण थे
- जमींदारी क्षेत्र में कृषकों की गरीबी का कारण जमींदारों द्वारा उनका शोषण था।
- रैयतवाड़ी क्षेत्र में उनकी गरीबी का कारण सरकार द्वारा अत्यधिक कर लागू करना था।
- सरकार द्वारा कृषि के प्रोत्साहन के लिए बहुत कम निवेश करना ।
- गरीब किसान महाजनों से कर्ज लेते थे जिसकी ब्याज दर बहुत अधिक थी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो जाती थी। और अंततः वे अपनी जमीन से हाथ धो बैठते थे।
महाजनों के उदय एवं भूमि स्थानांतरण के निम्न कारण
- कर वसुली की नई नीति ।
- नई कानून व्यवस्था ।
- सूखा पड़ने से खाद्यान्नों में कमी होने लगी।
- कृषि के वाणिज्यीकरण का बढ़ना।
- बड़ी संख्या में भूस्वामियों की गरीबी के कारण कृषि श्रमिकों की संख्या में वृद्धि हुई। भूमि के मालिक गरीब किसानों की स्थिति इतनी खराब थी कि उनमें एवं कृषि श्रमिकों की स्थिति में कोई खास अंतर नहीं था। कृषि श्रमिक एवं गरीब किसान मिलकर कृषि जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग बनाते थे। बड़े किसानों में गरीबी बढ़ने एवं उनकी भूमि के छीन लिए जाने के कारण इनकी संख्या में काफी वृद्धि हुई।
- एक तरफ असंरक्षित भूस्वामियों की भूमि महाजनों के हाथों में एकत्र होने लगी तो दूसरी तरफ बड़ी संख्या में कृषक पहले पट्टेधारी और बाद में कृषि श्रमिक होने लगे। इस प्रक्रिया में ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक प्रभाव एवं अधिकारों ने महाजनों के समर्थकों के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- कृषि जनसंख्या के अनुपात में कृषि श्रमिकों की संख्या सबसे ज्यादा रैयतवाड़ी क्षेत्रों में तथा सबसे कम महलवारी क्षेत्रों में थी। इसका मुख्य कारण रैयतवाड़ी क्षेत्र में भूमि के हस्तांतरण में आसानी होने के कारण महाजनों द्वारा कृषकों की भूमि हड़प ली जाती थी और उन्हें कृषि श्रमिक बनने पर मजबूर कर दिया जाता था, लेकिन यह महलवारी में अधिक कठिन था क्योंकि 'संयुक्त गांव पूरी संपत्ति का स्वामी था तथा भागीदार अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते थे जो कि स्वामित्व की शर्त थी।
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