भारतीय रेल के विकास के चरण | भारत मे रेल का विकास | Bharat Me Train Ke Vikas Ke Charan
भारतीय रेल के विकास के चरण
भारतीय रेल के विकास के चरण
भारतीय रेल के विकास को मुख्यतः पांच चरणों में बांटा जा सकता है (i) पुरानी गारंटी प्रणाली, 1849-69; (ii) राज्य द्वारा निर्माण एवं स्वामित्व, 1869-82;(iii) विकसित गारंटी प्रणाली, 1882-1924; (iv) राष्ट्रीयकरण, 1924 - 48; तथा (v) एकीकरण एवं वर्गीकरण, 1948-52।
भारतीय रेल के विकास का प्रथम चरण ( 1849-69 )
- प्रारम्भ में, 1845 में, तीन प्रायोगिक रेल लाइनें बिछाई गईं। पूर्वी रेल, कलकत्ता से रानीगंज (120 मील); विशाल भारतीय प्रायद्वीपीय रेल, बंबई से कल्याण (32 मील); तथा मद्रास रेल, मद्रास से अकोणम (30 मील) ।
- लेकिन भारतीय रेल का निर्माण सही अर्थों में इस विषय पर 1853 में लॉर्ड डलहौजी के मेमो के बाद हुआ। इस प्रक्रिया में तेजी 1857 के विद्रोह के बाद आई। जब ब्रिटिश सरकार को तीव्र यातायात एवं संचार के साधनों की आवश्यकता महसूस हुई।
- इस दिशा में बड़े स्तर पर निजी पूंजी का निवेश नहीं हो रहा था। अतः कंपनी ने इसमें अंग्रेज कंपनियों के पूंजी निवेश का फैसला किया जिनकी पूंजी पर सरकार द्वारा व्याज की गारंटी दी गई। 1859 के अंत तक 5000 मील रेल लाइन बिछाने के लिए इस प्रकार की आठ कंपनियों द्वारा अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए। इन परिस्थितियों में सरकार ने पूंजी की स्वीकृति दी तथा इस पर 5 प्रतिशत व्याज की गारंटी दी। इस कार्य के लिए मुफ्त भूमि उपलब्ध करवाई गई। इसके एवज में कंपनियों को आय का अधिशेष सरकार के साथ बांटने का अधिकार दिया गया। 25 साल के बाद शर्तों के मुताबिक ये रेल लाइनें सरकार को बेची जानी थीं।
- इस बीच इसके कार्यों एवं खर्चों पर सरकार का नियंत्रण रहना था। इस व्यवस्था के दो अत्यंत विवादास्पद पहलू थे। पहला प्राइवेट कंपनियों का इन रेल लाइनों पर स्वामित्व, तथा दूसरा इनकी पूंजी पर सरकार द्वारा एक न्यूनतम आय की गारंटी।
भारतीय रेल के विकास का द्वितीय चरण ( 1869-82)
- द्वितीय चरण में गृह एवं भारतीय सरकारों ने राज्य द्वारा निर्माण की योजना स्वीकार की। अपने 1869 के मेमो में जान लौरेंस ने राज्य द्वारा रेलों के निर्माण तथा स्वामित्व पर बल दिया। हालांकि इस दिशा में प्रगति तीव्र नहीं थी।
- इस प्रकार 1869-91 के बीच सरकारी एजेंसियों द्वारा कुल 3297 मील लाइन और जोड़ी गई। लेकिन निर्माण एवं प्रशासन में सरकारी एजेंसियां निजी कंपनियों से बेहतर सिद्ध हुई।
- पुरानी गारंटी प्रणाली रेलों में सबसे पहले 1879 में, पूर्वी रेल को खरीदा गया। जहां तक नई लाइनों का प्रश्न है, 1869 के वर्षों बाद तक वादे पूरे नहीं किए जा सके। 1879 के अंत तक कई कंपनियों द्वारा 6128 मील रेल लाइन बिछाई जा चुकी थी जबकि राज्य द्वारा मात्र 2175 मील लाइन बिछाई गई थी।
भारतीय रेल के विकास का तृतीय चरण (1882-1924)
- वर्तमान कंपनियों द्वारा आवश्यक रेलवे लाइन बिछाने के लिए आवश्यक पूंजी देने से इन्कार करने के बाद केंद्रीय सरकार को अन्य स्रोतों से धन इकठ्ठा करना पड़ा। इसके लिए छोटे-छोटे टुकड़ों में लाइनें विछानी पड़ीं जिसका नुकसान प्रांतीय सरकारों का उठाना पड़ा। अतः एक विकसित गारंटी प्रणाली 1882-1924 ई० के बीच चलाई गई।
- सरकारी एवं गैर सरकारी दोनों एजेंसियों ने निर्माण का कार्यभार संभाला, सरकार ने केवल सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण लाइनों या सूखा राहत कार्यों तथा अन्य अत्यावश्यक कार्यों के लिए जरूरी लाइनों पर अपना ध्यान केंद्रित किया।
- इसके अतिरिक्त भारतीय राज्यों, जिला बोर्डों तथा अन्य स्थानीय प्राधिकारों को अपने क्षेत्रों में रेलवे लाइनें बिछाने तथा उसका संचालन करने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करने हेतु प्रोत्साहित किया गया।
- मार्च 1923 तक भारत में रेल लाइनों की लम्बाई 37,618 मील थी जिसके 66 प्रतिशत से अधिक पर सरकार, सरकारी एजेंसियों तथा भारतीय राज्यों का स्वामित्व था, हालांकि अधिकतर रेलवे लाइनों की व्यवस्था प्राइवेट कंपनियों के हाथ में थी। सिर्फ तीन मुख्य रेलवे उत्तर-पश्चिम, पूर्वी बंगाल तथा अवध एवं रूहेलखंड और दो छोटी लाइनें, जोरहाट तथा अदन रेलवे, सरकार के सीधे नियंत्रण तथा व्यवस्था के अंतर्गत थीं, बाकी कंपनियों के अधीन थीं।।
- सन् 1900 ई० में पहली बार रेलवे से कुछ मुनाफा हुआ। बाद के वर्षों में यह काफी तेजी से बढ़ा। सन् 1918-19 में रेलवे की कुल आमदनी 10 मिलियन पौंड थी। सन् 1924-25 में पहली बार रेलवे वित्त को सामान्य बजट से अलग कर दिया गया।
- रेलवे के संपूर्ण संगठन तथा कार्य की परीक्षा के लिए 1901 में थॉमस राबर्टसन विशेष आयुक्त बनाया गया। उसने 1903 में बड़े पैमाने पर परिवर्तन की सिफारिश की तथा एक रेलवे बोर्ड बनाए जाने का सुझाव दिया जिसका एक अध्यक्ष, दो सदस्य तथा एक सचिव होना था। औपचारिक तौर पर इस बोर्ड का गठन मार्च 1905 में किया गया तथा इसे सरकार के अधीनस्थ बनाया गया।
- सन् 1907 में राज्य सचिव जॉन मॉर्ले ने रेलवे के वित्तीय तथा प्रशासनिक ढांचे की जांच-पड़ताल के लिए सर जेम्स मैके के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया। इसने महसूस किया कि रेलवे बोर्ड का गठन जिस उद्देश्य से किया गया था, उसे यह ठीक से पूरा नहीं कर रहा है। बोर्ड तथा सरकार के बीच तनाव था; तथा बोर्ड के गठन में ही गड़बड़ी थी।
- रेलवे बोर्ड, जिसका गठन 1905 में हुआ, 1909 में इसमें सुधार किया गया तथा फिर 1914 में सुधार किया गया, यह ठीक तरह से काम नहीं कर रहा था। शुरू में इसके अध्यक्ष तथा सदस्य रेलवे क्षेत्र के अनुभव और ज्ञान वाले व्यक्ति थे। इसमें 1914 में पुनः सुधार किया गया जब वित्तीय एवं वाणिज्यीय अनुभव का एक व्यक्ति इसका सदस्य बनाया गया। यह स्थिति 1920 में बदल दी गई जब यह फैसला किया गया कि सभी तीनों सदस्यों को रेलवे क्षेत्र का अनुभव होना चाहिए। सन् 1921 के बाद, जब सरकार ने राज्यों के रेलवे पर प्रत्यक्ष नियंत्रण कर लिया, इसने सभी अधिकार रेलवे बोर्ड को सौंप दिए।
- रेलवे की नीतियों, वित्त तथा प्रशासन के सभी प्रश्नों पर गौर करने के लिए 1920 में राज्य सचिव ने सर विलियम आर्कवर्थ की अध्यक्षता में ईस्ट इंडिया रेलवे कमेटी की स्थापना की। इसे आर्कवर्थ कमेटी के नाम से भी जाना जाता है, जिसके 10 सदस्य थे तथा इनमें से तीन भारतीय थे-- बी०एस० श्रीनिवास शास्त्री (राज्य परिषद के सदस्य), सर राजेंद्र नाथ मुखर्जी (कलकत्ता के उद्योगपति) तथा पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास (बंबई के उद्योगपति)। समिति ने राज्य द्वारा व्यवस्था का सुझाव दिया तथा इस समिति के सुझाव बाद के रेलवे विकास के आधार बने।
- समिति के सुझावों में से एक था- रेलवे मुख्य आयुक्त की नियुक्ति। उसने रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष का स्थान लिया तथा वह रेलवे की नीतियों एवं तकनीकी पहलुओं के लिए अकेला जिम्मेदार था। रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष की तरह वह अपने सहयोगियों द्वारा किसी मसले पर अलग-थलग नहीं किया जा सकता था। इस पद पर पहली नियुक्ति 1923 में सी०डी० एम० हिंडले की हुई।
- आकवर्थ समिति ने रेल वित्त को सामान्य वित्त से अलग करने पर भी विचार किया। इसने सुझाव दिया कि पहले इसकी जांच रेलवे वित्त समिति तथा केंद्रीय विधायी सभा द्वारा की जानी चाहिए। बाद में दोनों ने इसे अलग किए जाने के पक्ष में फैसला लिया तथा 1924-25 से रेलवे बजट सामान्य बजट से अलग कर दिया गया।
भारतीय रेल के विकास का चौथा चरण (1924-48 )
- सन् 1932-33 में रेलवे संचालन के सभी पहलुओं को जांच के लिए पी.ए. पोप की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इंजनों का व्यापक प्रयोग, गैर-लाभकारी बोगियों को हटा देना, अलग अलग रेलवे के स्रोतों को एक साथ जोड़ना, बिना टिकट यात्रा, आय बढ़ाने के तरीके आदि से जुड़े सुझाव इस रिपोर्ट में थे। रेलवे की आय बढ़ाने तथा रेलवे वित्त को सुगठित करने के उद्देश्य से 1936 में सर रॉल्फ वेजवुड के अधीन इंडियन रेलवे इनक्वायरी कमेटी का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट जून 1937 में रेलवे बोर्ड को सौंपी गई जिसने इसके कुछ सुझावों को लागू करने का फैसला किया।
- अंततः सरकार ने 1947 में के०सी० नियोग की अध्यक्षता में एक रेलवे इन्क्वायरी कमेटी का गठन किया। देश की तत्कालीन अस्त-व्यस्त तथा अनिश्चित स्थिति के कारण यह कमेटी जल्द ही समाप्त कर दी गई।
भारतीय रेल के विकास का पांचवां चरण ( 1948-52)
- देश के विभाजन के कारण पश्चिम में उत्तर-पश्चिम रेलवे के भाग तथा पूर्व में बंगाल और असम रेलवे पाकिस्तान में चले गए। जोधपुर रेलवे के सिंध खंड के साथ पाकिस्तान को 6958 मील लंबी रेलवे लाइन सौंप दी गई। उत्तर-पश्चिम रेलवे का भारत में बचा हुआ भाग पूर्वी पंजाब रेलवे कहलाया। बंगाल - असम रेलवे की बड़ी लाइन पूर्वी भारतीय रेलवे के साथ जोड़ दी गई, जबकि इसकी छोटी लाइन अलग असम रेलवे कहलाई।
भारतीय रेल के विकास का निष्कर्ष -
- सन् 1944 से पूर्व मोटे तौर पर भारतीय रेलवे की निम्न श्रेणियां थीं: (i) राज्यों के सरकारी स्वामित्व तथा व्यवस्था वाली लाइनें; (ii) राज्यों के सरकारी स्वामित्व तथा निजी कंपनियों द्वारा व्यवस्थित लाइनें; (iii) कंपनी स्वामित्व तथा व्यवस्था वाली लाइनें; (iv) भारत सरकार की लाइनें; तथा (v) विविध लाइनें, कंपनी लाइनें तथा जिला बोर्डों की लाइनें। सन् 1944 तक दूसरी और तीसरी श्रेणी की लाइनों का पूर्णतया राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। लगभग 533 मील छोड़कर बाकी सभी लाइनें सरकार अथवा इसकी एजेंसियों के अधीन थीं।
- इस प्रकार 1944 तक व्यावहारिक तौर पर, सभी रेल लाइनों का राष्ट्रीयकरण हो चुका था। सन् 1946 में रेलवे लाइनों की स्थिति इस प्रकार थी : बड़ी लाइन 20,686.60 मील; मीटर लाइन 16,004.23 मील; तथा छोटी लाइन 3827.08 मील।
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