धर्म संस्था (चर्च) , मत, संप्रदाय, पंथ क्या होते हैं धर्म संस्था (चर्च) मत वर्गीकरण | Church Mat Sampraday Panth Kya hote hain

धर्म संस्था (चर्च) , मत, संप्रदाय, पंथ क्या होते हैं 
धर्म संस्था (चर्च) मत वर्गीकरण (
The Church Sect Typology)

धर्म संस्था (चर्च) , मत, संप्रदाय, पंथ क्या होते हैं  धर्म संस्था (चर्च) मत वर्गीकरण | Church Mat Sampraday Panth Kya hote hain


 

धर्म संस्थामत व पंथ की प्रक्रिया

  • जब कोई धार्मिक समूह अपने विश्वास व नीतियां निर्धारित करता है तथा संगठित रूप में  इनको व्यवहार में लाता है तो वह निश्चित धार्मिक संगठन के रूप में सामने आता है। उसी समय धार्मिक समूह में आंतरिक मतभेदों के कारणविभिन्न शाखाएं भी उभरती हैं। इस अनुभाग में हम धर्म संस्थामत व पंथ की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करेंगे ।

 

1 धर्म संस्था (चर्च)

 

  • चर्च की स्थापना बाइबिल में वर्णित ईसा मसीह के धार्मिक अनुभव के आधार पर हुई। धर्म संस्था में ईसा मसीह को मानव व ईश्वर के पारलौकिक मध्यस्थ के रूप में स्वीकार करने के कारण उनका धार्मिक अनुभव सभी रहस्यों को खोलने वाला तथा भ्रांतियों से परे है। क्योंकि यह ज्ञान मानव जाति के उद्धार के लिए है अतः मानव को इसे अपनाना चाहिए । मनुष्यों द्वारा इसका अनुसरण किया जाना चाहिए तथा इसमें विश्वास न रखने वालों को दंडित अथवा बहिष्कृत किया जाना चाहिए।

 

  • सैद्धांतिक व हठी दृष्टिकोण ने धर्म संस्था को अत्यधिक धर्म प्रवर्तकों का धर्म बना दिया है। यहाँ तक की राजा राममोहन राय ने ईसा तथा ईसाई धर्म के उपदेशों तथा धर्मप्रचारकों के क्रियाकलापों में स्पष्ट भेद किया है। चूंकि इसे संगठित किया जा सकता था तथा इसमें विभिन्न लोगों को परिवर्तित किया जा सकता था अतः यह राष्ट्रीय प्रांतीय व स्थानीय विशिष्टताओं के साथ अन्तरराष्ट्रीय धर्म के रूप में विकसित हुआ।

 

  • जन सामान्य व पुरोहितों ( पादरी ) के बीच संगठनात्मक भेद के कारण धर्म संस्था शिष्यात्मक रूप लिए हुए है। पुरोहित वर्ग में ईसाई धर्म के संचालकों का समावेश है। उन्हें शिक्षा दी जाती हैउनका चुनाव होता है तथा उनकी नियुक्ति होती हैउन्हें प्रदत्त कार्यालयों के ढ़ांचे में जोड़ा जाता है। इनकी कार्यप्रणाली नौकरशाही का गुण लिए हुए है।
  •  पादरी बनना एक व्यवसाय या पेशा है। पुरोहित वर्ग का सदस्य अपने धार्मिक गुण उस गद्दी से प्राप्त करता है जिसे वह नियुक्ति तथा धार्मिक आदेश के रूप में प्राप्त होने के कारण ग्रहण करता है। निस्संदेह समूची व्यवस्था अपनी कार्यप्रणाली के नजरिए से श्रेणीबद्ध और नौकरशाही है।


  • पादरी व उसका पद धर्म संस्था के लिए महत्वपूर्ण केन्द्र है। अपने कार्यक्षेत्र में आने वाले जनसामान्य के लिए आध्यात्मिक धार्मिक व संरक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त होने के कारण पादरी स्वीकारोक्ति को सुनने तथा पापों से क्षमा देने का कार्य कर सकता है। वह विवाह सम्पन्न कराता है तथा चर्च के सदस्यों को धर्मेतर कार्यों में भी सलाह देता है। इसका मुख्य कार्य उपदेश देना तथा धर्म परिवर्तन कराना है।

 

  • ऐतिहासिक तौर पर चर्च में भी पादरी के सर्वस्व अधिकार को स्वीकार व अस्वीकार करने वालों के परस्पर संघर्ष की विशिष्टता है। 'सर्वस्व अधिकारका जन्म इस धारणा के कारण हुआ है कि ईश्वर को सामान्य मानवीय ज्ञान के द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता। इनका मूल पाप में विश्वास भी एक कारण है।


  • 'मूलपापकी धारणा के कारण जिसने यौन क्रिया के प्रति भ्रम व चिंता को जन्म दिया। ईश्वर की सेवा के मार्ग पर स्वःत्याग एक प्राथमिक आवश्यकता है। चर्चपादरी तथा वैराग्य धार्मिक प्राधिकार का प्रतीक बनेतथापि चर्च पुरुषों और स्त्रियों दोनों के लिए खुला था ।

 

  • पादरी के सर्वाधिकार का विरोध करने वालों के अनुसार ईश्वर तथा संसार अलग हैं। संसार को वास्तविकता - मनुष्य द्वारा सांसारिक क्रियाओं और उपलब्धियों का कार्यक्षेत्र के रूप में स्वीकारा गया। परोपकारी सामाजिक कार्य व बड़े परोपकारी-धर्माथ संस्थानों का प्रबंध चर्च का ही कार्य माना गया तथा तब से यह चर्च की ही विशेषता बनी हुई है। इस तालमेल की प्रक्रिया के कारण तपस्वी पादरियों में तथा पादरी तपस्वियों में समाहित हो गए। दोनों ने मिलकर बजाए दो वर्ग अर्थात धार्मिक मनुष्य (पादरी) और जनसाधारण बनाने केमिलकर चर्च की सर्जना की। 

 

  • चुने हुए व नियुक्त पदों को मिला कर चर्च का एक स्व-नियंत्रित एक संघीय ढ़ांचे के रूप में विकास व विस्तार हुआ। इसका मुखिया पोपनियुक्त पदाधिकारियों के एक छोटे समूह के बीच से चुना जाता है। इस पदीय ढ़ांचे के अन्य अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। इनमें से भी पादरी का ही पद सही मायनों में धार्मिक है तथा अन्य सभी पद प्रबंधकीय हैं ।

 

  • चर्च अपने कर्मियों की शिक्षा तथा नियुक्ति का कार्य अपने धार्मिक शिक्षा संस्थानों द्वारा करता है। इसकी अधिक विशिष्ट परिभाषा हेतु यह अनुसंधान संस्थानशिक्षण केंद्रविचार गोष्ठी तथा कार्यशाला आदि का आयोजन भी करता है। यह पत्रों के प्रकाशनमुद्रण सुविधाओं व प्रकाशन गृहों के संचालन का कार्य भी करता है। यह धर्मेतर शिक्षा के लिए विद्यालय व महाविद्यालयों की स्थापना व प्रबंधन भी करता है। जहाँ धर्मेतर शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा को 'ईश्वरीय ज्ञान के प्रसार के लिए प्राथमिकता दी जाती है।

 

  • आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार के साथ चर्च संपत्ति व अन्य सांसारिक शक्तियों में भी अपनी अभिरुचि का विकास करता है। यह स्थापित सामाजिक तंत्र में भी रुचि लेता है। इसकी शक्तिसंपत्तिविशेषाधिकारों तथा प्राथमिकताओं को विधिगत मान्यता प्रदान करता है। धर्मेतर मामलों में चर्च की यह रुचि इसके धर्मेतर-राजनीतिक तंत्र के साथ संघर्ष का कारण बनती है तथा धर्मभेद को जन्म देती है जैसा इंगलैण्ड के चर्च के विकास के संदर्भ में हुआ।

 

  • चर्च का धर्मेतर रूझान पादरी वर्ग को अधिक रूढ़िवादी बनाता है। यह भी संघर्ष की स्थिति को जन्म दे सकता है। पर धर्मेनर संसार से संघर्ष चर्च की प्रमुख विशेषताओं में से नहीं है। अधिकांश चर्च धर्मेतर राजनीतिक संसार से सामंजस्य स्थापित कर अपने को धर्मेतर जीवन के अनुरूप ढ़ाल लेते हैं।


2 मत (Sect)

 

  • धार्मिक समूह के रूप में मत उन लोगों का संगठन है जो स्थापित धर्म संस्था द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत की व्याख्या से विरोध रख कर सुनिश्चित धारणा के साथ चलते हैं। इसका आदर्श रूप धर्म संस्था से बिल्कुल भिन्न होता है यद्यपि इसमें धर्म संस्था के कुछ गुण पाए जाते हैंधर्म संस्था की तरह इसकी सदस्यता अनिवार्य नहीं है। यह स्वैच्छिकविशिष्ट व बहुधा रीति अनुसार निर्धारित होती है। असल में मत की उत्पत्ति होती है जब सामाजिक स्थिति और धार्मिक सिद्धांतों से जुड़े कई मतभेदों के कारण लोग चर्च का विरोध करते हैं। ये मतभेद दर्शाते हैं कि स्पष्ट रूप से ऐसे मत के निजी धार्मिक सिद्धांत और मूल्य होते हैं।

 

  • मत स्वतंत्र सार्वभौमिक परिवर्तन का अनुमोदन नहीं करता। इसके अनुसार ईश्वर की कृपा सबके लिए नहीं है और न ही ये अपने आप प्राप्त हो जाती है। यह व्यक्ति विशेष द्वारा न व्यक्तिगत विश्वास तथा आदर्श द्वारा अर्जित की जाती है। अतः मत धार्मिक प्रवर्तकों के परिष्कृत मौखिक कथनों के प्रति अरुचि रखता है। 

 

  • बहुधा मत अन्य धार्मिक समूहों के प्रति असहिष्णु होता है। यह परिवर्तन को मान्यता दे भी सकता है नहीं भी। पादरी वर्ग तथा जन-सामान्य के बीच के भेद का नाश इसकी मुख्य विशेषता है। अपने संगठन मेंमत प्रायः प्रजातांत्रिक होता है। यह सांसारिक व पारलौकिक दोनों हो सकता है।

 

  • मत का जन्म विरोध व क्रांति के फलस्वरूप होता है। राजनीतिक तंत्र से इसका संबंध अच्छा बुरा हो सकता है। व्यवस्था के विपरीत होने के कारण इसे दंडित भी किया जा सकता है। जॉनसन के विचारानुसारमत का क्रांतिकारी रवैया बहुधा निराशा की स्थिति की ओर ले जाता है।

 

  • मतवाद की ईसाई धर्म में भर्त्सना की गई है ऐसा कहा गया है कि इसका उद्देश्य ईसाई परम्परा में ही निहित है। ईसाई धर्म का अपना विकास भी विरोध के परिणामस्वरूप हुआ जैसा मत के साथ होता है। ईसाई मतों का विकास मुख्यतः तीव्र व्यक्तिवाद के मूल्यप्रेम व बंधुत्व के आदर्श के समर्थन व गरीबों के प्रति विशेष चिंता के लिए हुआ। 

 

  • चर्च के इस विचार का विरोध कि धार्मिक प्राधिकार पद तथा रीतियों के अनुसरण में निहित है न कि मानव आत्मा मेंईसाई धर्म में मतवाद के विकास का एक अन्य कारण बना। एक तीसरा कारण उन सामाजिक संस्थाओं के प्रति विरोध है जिन्हें चर्च समर्थन देता है। मत सामाजिक न्याय की अभिव्यक्ति है। गरीबों के प्रति अनभिज्ञता तथा प्रवचनों की पवित्रता संबंधी प्रश्नों ने बहुधा अन्याय की भावनाअप्रसन्नता व असंतोष को जन्म दिया।

 

  • मत पूर्ण समाज नहीं वरन् इसके एक भाग को अपनि  pरिधि में लेता है। आसानी पहचान पा लेने के कारण यह अपने सदस्यों में अधिक आत्म सम्मान की भावना जागृत कर पाता हैअतः इसकी प्रासंगिकता पैदा होती है जितना इसका विरोध व आलोचना होती है उतना ही मत का मान सम्मान व आंतरिक एकता बढ़ती है। एक विद्रोही मत को दंडित करने से इसके आत्म सम्मान व आंतरिक एकता में वृद्धि होती है।

 

3 संप्रदाय (Denomination )

 

  • संप्रदाय मत में से विकसित होता हैजिस प्रकार मत धर्म संस्था में से विकसित होता है। जॉनसन के विचारानुसार धर्म संस्था व संप्रदाय के बीच का भेद सदैव स्पष्ट नहीं होता जिस प्रकार मत व पंथ के बीच का । 
  • जब एक मत मध्यवर्गीय समाज में सम्मानीय स्थान प्राप्त कर लेता है तथा इसकी धार्मिक प्रचंडता में कुछ कमी आ जाती है तब इसके परिणामस्वरूप संप्रदाय का आविर्भाव होता है। 
  • यह भी लक्षित होता है कि रूढ़िवादी इस प्रकार संप्रदाय मंत में से विकसित होता है तथा इसमें धर्म संस्था की अनेक समानताएं पाई जाती हैं। सामाजिक तौर पर यह एक मध्यवर्गीय घटना हैजो निश्चित रूप से मध्यवर्गीय स्थिति पहचान और सम्मान से जुड़ा हुआ है। इसकी सदस्यता स्वैच्छिक व अधिक खुली है जो एक मोटे तौर पर वर्ग व सामाजिक स्थिति के प्रति दृष्टिकोण से निर्धारित होती है। 
  • अतः संप्रदाय मत से बनता है जब मत के सदस्यों की संख्या बढ़ने लगती है और असल में मत की तुलना में चर्च में इसके संबंध अधिक गहरे होते हैं। इसका एक अन्य अर्थ संप्रदाय की संहिता और उसके विविध धार्मिक विश्वासों में होने वाला परिवर्तन भी है।

 

  • प्रेम व धार्मिक सेवा के अनुकरण का बंधन जो कि पंथ का विशिष्ट गुण है इसमें कमजोर पड़ जाता है अथवा बिल्कुल लुप्त हो जाता है। संप्रदाय के सदस्य के लिए धर्म उसकी अनेक रुचियों में से एक हैउसके अन्य सुख पहुंचाने वाले क्रियाकलापों में से एक। चर्च अथवा धर्म संस्था में जाना केवल एक कर्तव्य हैएक सामाजिक स्थिति का प्रतीक जिसे वह अपने लिए और अपनी पत्नी व बच्चों के लिए लाद लेता है।

 

  • पुरोहित वर्ग की नियुक्ति भी एक सामाजिक स्थिति का प्रतीक भर बन जाती है। पुरोहित पादरी वर्ग के सदस्यों को कभी कभी मानव व्यवहारविज्ञान अथवा आध्यात्मिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। पादरियों और सलाहकारों की हैसियत से काम करने के कारण तो उन्हें दैवीय शक्तियों के धारक के रूप में और न ही मानव जाति के उद्वार के लिए पद के रूप में स्वीकारा जाता है। चर्च की दुविधा संप्रदाय में अधिक तीव्र हो उठती है।

 

  • यह दुविधा हैधार्मिकता बनाम धर्म निरपेक्षताधनी बनाम निर्धनआध्यात्मिकता बनाम सांसारिक ज्ञान की । संप्रदाय इस दुविधा का निवारण केवल कुछ चुने हुए लोगों तथा चर्च को अपील कर तथा संसार से इसके धार्मिक संस्कारों की निष्पक्षता पर जोर देकर समझौता स्थापित करता है।

 

4 पंथ (Cult)

 

  • पंथ की सामाजिक सच्चाई 'पंथिक कृत्य में निहित है। यह कृत्य है पूजा-उपासना की पद्धति से जुड़ा कार्य है। यह भावनाओं व दृष्टिकोणप्रतीकों ( मुद्राएं. शब्दरीतियां व पद्वतियां) का जटिल मिश्रण है तथा प्राथमिक तौर पर पवित्र शक्ति तथा उससे भी परे पारलौकिक से संबंधित है। यह सह क्रिया तथा सामाजिक सीमा को लिए हुए है। इसके अन्तर्गत जनसामान्य व पुरोहित वर्ग का संबंध नगण्य तो नहीं है पर दूसरे स्थान पर अवश्य है। 
  • पंथ एक स्वैच्छिक संस्था है। यह उन सभी के लिए खुली है जो इसमें शामिल होने व भाग लेने की इच्छा रखते हैं। पर जहाँ यह गुप्त है वहाँ यह अति विशिष्ट हो जाता है। जॉनसन के अनुसार  सामान्यतः पंथ आर्थिक मामलों को छोड़ कर सख्त नहीं है। तथापि यह अपने सदस्यों को इसकी विचारधारा और सुपरिभाषित अनुष्ठानों की पद्धति के मुताबिक चलाने की ओर प्रवृत होता है। एक पंथ अन्य सभी बातों से ऊपर एक सिद्धांत पर जोर देता है अथवा एक देवता और देवी पर कुछ निश्चित विशेषताओं का दृष्टिकोण लिए केन्द्रित होता है। 
  • पंथों का विकास महानगरों में अधिक तेजी से होता है जहाँ सांस्कृतिक तौर पर अलग-अलग लोग एक साथ रहने के लिए बाध्य होते हैं तथा वे अत्यधिक तेजी से बढ़ते सामाजिक परिवर्तन को महसूस करते हैं। यह दृश्य अनिश्चितता व शक्तिहीनता की स्थितियां पैदा करता है तथा परिणामस्वरूपसामंजस्यता की समस्या उत्पन्न करता है। पंथ इन स्थितियों को सुलझाने में मदद करते हैं।
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