लोक प्रबंधन की उभरती हुई अवधारणा | नव लोक प्रबंधन की सैद्धांतिक आधारशिलाएँ |Emerging Concept of Public Management

लोक प्रबंधन की उभरती हुई अवधारणा
नव लोक प्रबंधन की सैद्धांतिक आधारशिलाएँ 
लोक प्रबंधन की उभरती हुई अवधारणा | नव लोक प्रबंधन की सैद्धांतिक आधारशिलाएँ |Emerging Concept of Public Management


लोक प्रबंधन की उभरती हुई अवधारणा सामान्य परिचय 

 

  • संपूर्ण विश्व में प्रशासनिक सुधार हो रहे हैं, और नव लोक प्रबंधन इनमें एक नई कड़ी है। नव लोक प्रबंधन शब्द का प्रयोग हाल ही में उस प्रबंध संस्कृति का वर्णन करने के लिए हुआ है, जिसमें नागरिक या ग्राहक को केन्द्र में रखा जाता है, और साथ ही परिणामों के लिए उत्तरदायित्व पर बल दिया जाता है। नव लोक प्रबंधन का अन्य मुख्य पक्ष उस संगठनात्मक या संरचनात्मक चयन से जुड़ा है, जो विभिन्न वैकल्पिक सेवा प्रदान करने वाले व्यवस्थाओं के माध्यम से विकेन्द्रित नियंत्रण को बढ़ावा देते हैं। 


  • इन माध्यमों या व्यवस्थाओं में वे अर्धबाज़ारी व्यवस्थाएँ भी शामिल हैं, जिसमें सार्वजनिक व निजी सेवा प्रदान करने वाले संगठन नीति निर्माताओं और दाताओं (Donors) से संसाधनों के लिए लड़ते हैं। यह मानना उचित नहीं होगा कि नव लोक प्रबंधन यह दावा करता कि सरकार को कुछ कार्यों को करना छोड़ देना चाहिए। नव लोक प्रबंधन का केन्द्रीय विचार यह है कि कार्य बेहतर ढंग से सम्पन्न होना चाहिए।

 

  • अधिकार क्षेत्र की सार्वजनिक सुविधा मुहैया करने वाले क्षेत्र में बहुत सारे कर्ताओं के आ जाने से समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं। इस स्थिति में इन समस्याओं को सुलझाने के लिए बाज़ार एक मुख्य निर्धारक इकाई के रूप में उभरकर सामने आया है। नव लोक प्रबंधन एक ओर तो वैश्वीकरण के बीच संतुलन बनाने के लिए बना है, तथा दूसरी ओर सरकार व व्यापक समाज के बीच संतुलन बनाने के लिए एक वैचारिक यंत्र के रूप में उभरकर आया है।

 

  • प्रशासन व जनता के बीच संकुचित दायरे के संबंधों ने अब व्यापक आधार ले लिए हैं, और सामूहिक हितों की चिंता करने वाली सत्ता के विभिन्न क्षेत्रों से बहुआयामी जुड़ावों (Multifaceted Interlinking) तथा व्यापक आधार वाले हैं। नव लोक प्रबंधन ने परंपरागत लोक प्रशासन को एक शासन के रूप में बदल दिया है। जैसा कि जॉन पैयरे और बी. गॉय पीटर्स (Jon Pierre and B. Guy Peters, 2003) के अनुसार, शासन से तात्पर्य समाज में सरकार की बदलती भूमिका व कठिन आंतरिक व बाह्य बाधाओं के अंतर्गत उसकी सामूहिक हितों का अनुसरण करने की बदलती क्षमता है। वर्तमान समय में, नव लोक प्रबंधन को सुशासन के एक यंत्र के रूप में देखा जाता है। 

 

नव लोक प्रबंधन की सैद्धांतिक आधारशिलाएँ Theoretical Foundations of New Public Management

 

  • नव लोक प्रबंधन मैक्स वेबर के नौकरशाही मॉडल की आलोचना के रूप में उभरकर सामने आया है। संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के प्रथम दो विकास दशक बुरी तरह असफल व व्यर्थ सिद्ध हुए। इन विकास दशकों में तृतीय विश्व के देशों के विकासात्मक मुद्दों पर बल दिया गया। 
  • नौकरशाही की उदासीनता, लालफीताशाही, भाई भतीजावाद, लोगों से अलगाव और भ्रष्टाचार से पूर्ण प्रवृति ने प्रगति के मार्ग में रोड़े अटकाए। साथ ही, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार भी उभर नहीं पाये। बाज़ार में लगातार मंदी छाई रहने से वस्तुओं के दामों में भी भारी गिरावट आई। इन खतरनाक बाज़ार प्रवृत्तियों ने न केवल तृतीय विश्व के देशों के बाज़ारों को प्रभावित किया, क्योंकि उनकी वस्तुओं पर तुलनात्मक रूप से ऊँचे कर लगा दिए गए, बल्कि विकसित देशों को भी प्रभावित किया, क्योंकि ठहराव और संरक्षणवाद पद्धतियों ने बाजार व्यवस्था से जुड़े निगमयीकरण को रोका। 
  • वास्तव में इन देशों की बाज़ार पद्धति, जो मुक्त व्यापार के मूल्यों को दबा देती है; इसमें से निकलने का प्रयास अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय ऐजेन्सियों जैसे विश्व के बैंक और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programe, यू.एन.डी.पी.) द्वारा किया गया, और यह ही दाता संस्थाओं की वित्तीय सहायता रणनीतियों का एक मुख्य हिस्सा बन गया।
  • इस प्रकार से नव लोक प्रबंधन की सैद्धांतिक आधारशिलाओं को राजनैतिक व प्रशासनिक सिद्धांत की अपेक्षा अधिकांशतः आर्थिक सिद्धांत से लिया गया है। लागत प्रभावी शासन का अर्थ उस व्यवस्था से है, जोकि सार्वजनिक चुनाव के तत्त्व को न्यून करे, एजेंसी के रखरखाव की लागत को कम करे, और व्यापार को चलाने की लागत को भी कम करे।

 

जैसा कि विश्व बैंक का लेख स्पष्ट करता है-

  • "नव लोक प्रबंधन को राजनैतिक नेताओं की कार्यकुशलता और उत्तरदायित्व के सुधार लाने के एक यंत्र के रूप में समझा गया था। इस प्रबंधन के उदय को सुदृढ़ कार्यपालिका शक्तियों सहित संसदीय प्रजातंत्र केन्द्रीकृत सरकारें, और प्रशासनिक कानून में ढूँढ़ा जा सकता है। इस प्रकार के मूल आदर्श रूप में ऐसा लगता है कि नव लोक प्रबंधन ने समझौते की अटूट श्रृंखला के विचार को समाहित किया। इस समझौते में केवल एक ही (आमतौर पर मंत्रिमण्डलीय) नेता होता है, जोकि एक क्षेत्र के पद के अधीन बेहतर परिणाम पाने के लिए इच्छुक रहता है। इस पद के अधीन उसके पास एक महत्त्वपूर्ण और आंशिक तौर पर सत्ता होती है, जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती है।

 

  • नव लोक प्रबंधन अकुशल एवं घाटे में डूबी सरकारों और खर्चीले शासन के विरुद्ध एक नई आशा प्रदान करता है। नागरिकों को राज्य सेवाओं पर बहुत सी छूट मिलती है, और सरकार अधिक उत्तरदायी और जन-उन्मुख बन जाती है। शासन के प्रति यह उद्देश्य प्रेरित दृष्टिकोण न केवल राज्य के कार्य की संरक्षणवादी सीमाओं के बारे में रूढ़िवादी धारणा है, बल्कि यह सहभागी या साझे कार्यों के लिए दरवाजे खोलती है, और उन बेहतर सुविधाओं को प्रदान करने के लिए कोशिश करती है, जिससे कि लागत कम हो सके और शासन अधिक कुशलता से काम कर सके। इस सुधार मंत्र का यद्यपि मुख्य पक्ष लागत को कम करना है, परंतु यही एकमात्र पक्ष नहीं है। 


  • यह कार्यकुशलता, उत्तदायित्व, जन भागीदारी और समाज में बढ़ते उद्यमशीलता द्वारा नौकरशाही-विहीनीकरण और सार्वजनिक निजी भागीदारी को प्रोत्साहन देता है। इस प्रकार से नव लोक प्रबंधन प्रारंभिक प्रबंधकीय अवधारणाओं जैसे वैज्ञानिक प्रबंधन, मानवीय संबंधों और आधुनिक कल्याणकारी सहभागी राज्य मॉडलों का एक मिश्रण है।

 

  • परंपरागत मॉडल की कई तरह से आलोचना की जाती है। इस मॉडल की कई विशेषताएँ भी हैं, जैसे बड़े समाधानों का अर्थ है राष्ट्रव्यापी और एक समान सामाजिक कार्यक्रम, बड़े पदसोपानीय संगठित सरकारी एजेन्सियों द्वारा केन्द्रीकृत ढंग से नियोजित व निष्पादित कार्य, और सर्व उद्देश्य कर कोष से वित्त जुटाना। इस प्रकार से नव लोक प्रबंधन का आधार बाज़ार प्रबंध के ढंग से आर्थिक प्रबंध में निहित हैं, और इस वजह से यह लोक चयन, एजेंसी लागत और निष्पादन लागत विश्लेषण के आर्थिक सिद्धांतों के बल पर टिका है। नव दक्षिणपंथी साहित्य का उदय इस बात का सूचक है कि राज्य की गतिविधि पर कड़े प्रहार हो रहे हैं, और राज्य को बाज़ार की तरह कार्य करने पर बल देकर उसकी गतिविधियों के बोझ को कम करने की लगातार कोशिश हो रही है।

 

  • बूचानन (Buchanan, 1986) ने लिबर्टी, मार्किट एंड स्टेट (Liberty, Market and State) में लोक चयन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने सरकार के नौकरशाही मॉडल की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि यह फिजूलखर्ची को बढ़ावा देता है, क्योंकि राजनेताओं और सार्वजनिक नौकरशाहों में इस खर्च को रोकने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिखाई देता है। प्रथम, ये विशेष समूह की माँगों से प्रभावित होते हैं; द्वितीय, नौकरशाही अपने हितों के लिए उन्मुख होती है, और उन राजनीतिज्ञों से मिली भगत या साझेदारी करती है, जो स्वाहित के लिए काम करती है, और तृतीय, कार्यकुशलता चुनाव-वाद से प्रभावित होती है, न कि तार्किक गणित, पर आधारित होती है। निस्कानन (Niskanen, 1971) का कहना है कि नौकरशाहों में सार्वजनिक सेवाओं के उत्पादन को सामाजिक रूप से संभाव्य स्तर से ऊपर बढ़ाने या फैलाने का स्वरूप है।

 

एजेंसी लागत सिद्धांत (Agency Cost Theory)

  • एजेंसी लागत सिद्धांत (Agency Cost Theory) का वर्णन विलियमसन ने मार्किट एंड हाएरारकीज़ (Markets and Hierarchies, 1990) में किया है। उनका कहना है कि एक दल एजेंट के रूप में अपने मुखिया के लिए कार्य करता है। यह आवश्यक नहीं है कि इन दोनों के हित एक समान हों, और जब यह मुखिया द्वारा एजेंट के कार्यों पर निगरानी नहीं रख पाने से जुड़ जाता है, तब कार्य को अपेक्षा से कम करने की स्थिति जन्म लेती है। 


  • एजेंट समझौते या संविदा का निर्माण इस प्रकार से करते हैं, ताकि दायित्व ऐसे कारकों पर डाल दिया जाये, जो इन एजेंटों के नियंत्रण के बाहर प्रतीत हों। इस प्रकार से, विलियमसन के इस कथन की पुनः पुष्टि होती है कि बेहतर समझौता वह होता है, जो स्वयं लागू होता हो।

 

निष्पादन लागत विश्लेषण (Transaction Cost Analysis)

  • निष्पादन लागत विश्लेषण (Transaction Cost Analysis) की भी विलियमसन ने सही व्याख्या की है। उनका कहना है कि संस्थागत शासन का अत्यधिक कुशल रूप वह है जिसमें निष्पादित लागत नियंत्रित व न्यूनतम रहती हैं। एक निष्पादित लागत विनिमय की वह लागत हैं, जो कार्य निष्पादन में आती है। यह लागत अनिश्चितता, सीमित तार्किकता, जटिलता, अवसरवाद और पूँजी, वस्तु विशेष जैसे कारकों पर निर्भर करती है। चाहे पदसोपान हों या बाजार, क्या निष्पादित लागतों का बेहतर ढंग से प्रबंध उपरोक्त कारकों को नियंत्रित करने की संस्थागत क्षमता के आधार पर किया जा सकता है? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, जिस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

 

असफलता का सिद्धांत (Theory of Government Failure) 

  • इस प्रकार सरकार की असफलता का सिद्धांत (Theory of Government Failure) 1980 के दशक के अंतिम चरण में सामने लाया गया। वूल्फ (Wolf, 1988) ने सरकार की असफलता के सिद्धांत को बाज़ार की असफलता के सिद्धांतों की तरह ही विकसित करने का प्रयास यह सिद्ध करने के लिए किया कि इससे सार्वजनिक सेवाओं में अकार्यकुशलता और फिजूलखर्ची आयी है। वैश्वीकरण और नए "ज्ञान-आधारित समाज" (Knowledge Society) ने सार्वजनिक सेवाओं की माँग व सहगामी सार्वजनिक वस्तुओं की उत्पादन में वृद्धि की है। इसका परिणाम होगा सार्वजनिक सेवाओं की अति-पूर्ति, उनका अनियंत्रित विस्तार, निष्पादन का मूल्यांकन करने की व्यवस्था का अभाव और इनके परिणामस्वरूप नौकरशाही राज्य का पतन.  


  • बाज़ार-व्यवस्था के आधार पर सार्वजनिक सेवाओं के प्रबंध ने लोक प्रशासन में फिर से उस प्रबंधकीय परंपरा को ला खड़ा किया है। जिस के मुख्य विचारक एफ. डब्ल्यू. टेलर, लूथर गुलिक, एल. उर्विक, हर्बर्ट साइमन और जे. मार्च (F.W. Taylor, Luther Gulick, L Urwick, Herbert Simon and J. March) हैं। प्राचीन व नव प्रबंधवाद में केवल एक अंतर यह है कि नवीन प्रबंधवाद उन नव संस्थागत उपागमों या दृष्टिकोणों पर आधारित है, जिसमें संस्थाओं को आर्थिक आधार पर तर्कसंगत ठहराया जाता है, न कि जन-कल्याण को उपलब्ध कराने की उनकी क्षमता के आधार पर।

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