नवीन लोक प्रबंधन सुधारों का प्रभाव | Impact of New Public Management Reforms
नवीन लोक प्रबंधन सुधारों का प्रभाव
- एन. पी. एम. सार्वजनिक लोक संगठनों में एक नयी उद्यमशील तथा उपभोक्तापरक संस्कृति लाने या निर्माण करने का प्रयास करता है। जिसमें निष्पादन मापन तथा संगठनों व व्यक्तियों की स्वायत्ता पर बल होता है। यद्यपि ध्यान, सरकार की कार्यप्रणाली के सुधार पर केन्द्रित प्रतीत होता है, परन्तु सामाजिक मुद्दों के अनुसरण तथा बाजार अर्थव्यवस्था के हितों के बीच के संबन्ध में संदेह पैदा होता है।
नवीन लोक प्रबंधन राजनीतिक पक्ष या आयाम
एन. पी. एम. का एक बहुत ही राजनीतिक पक्ष या आयाम है जिसने कुछ निहितार्थों को जन्म दिया है, जैसे
- नवीन लोक प्रशासन तथा पारम्परिक या परम्परावादी लोक प्रशासन के बीच मूल्यों का टकराव
- विरोधाभाषी प्रकृति के कारक सरकार की पुनर्खोज का कार्य करते हैं।
- नीति सामर्थ्य के ऊपर प्रबंधात्मक अधिपत्य.
- राजनीति प्रशासन के बीच अंतर / भेद का सुदृढ़ीकरण |
- उत्तरदायित्व की सुस्पष्ट अवधारणाओं का अभाव.
- नागरिकों का ग्राहक के रूप में प्रस्तुतीकरण.
- सार्वजनिक क्षेत्र की समस्यायों का केवल प्रबंधात्मक समाधान देना,
- एन.पी.एम. ने सार्वजनिक क्षेत्र में प्रबंधात्मक विकल्पों को व्यापक बनाया है, क्योंकि इसका प्रयोग कॉमनवेल्थ देशों के बाहर व्यापक रूप से नहीं किया गया है। इसके प्रभाव का विशेषकर विकासशील देशों (Commonwealth of Nations) में पर्याप्त रूप में परीक्षण नहीं हुआ है।
- एन. पी. एम. जैसे सुधारों का सबसे अधिक विस्तृत पुनरावलोकन बेटले (Batley, 1999) के द्वारा हुआ है। उनकी टिप्पणी है कि ज्यादा से ज्यादा एन. पी. एम. सुधारों का प्रभाव मिला जुला है, जिसमें कुशलता में कुछ सुधार तथा समानता या समता पर भिन्न प्रभाव है। इसके विपरीत वह कहते हैं कि सेवा प्रदायनी एजेंसियों में आमूल- सुधारों की विनिमय लागत बंधक युक्त के कुशलता-उपलब्धियों को पीछे छोड़ने की ओर प्रवृत रही है तथा यह भी कि जो सुधार ग्राहकों तथा प्रदाताओं को अलग करते हैं कभी-कभी उत्तरदायित्व को कम कर देते हैं।
- सुधारों के मापन के सही संकेतकों (Inductors) के विकास में असफलता भी अन्य समस्या रही है। सामान्यतः किसी सुधार के कार्यान्वयन को सफलता का मुख्य संकेतक माना जाता है। किसी भी सुधार कार्यक्रम की कड़ी कसौटी या परीक्षा चाहे वह एन. पी. एम हो या अन्य कोई इसके द्वारा दिए वचन आधारित परिणामों (Promised Outcomes ) की प्राप्ति है । यह ज्ञान पूर्ण प्रक्रिया में एक बड़ी चूक रही है।
- एन.पी.एम के प्रभाव का पूर्णतः संरचात्मक तथा गुणत्मक संदर्भों में मूल्यांकन कठिन है कैसे मापने, विशेषतः सार्वजनिक सेवा निष्पादन से संबंधित विधायी समस्याएं हैं। क्या सुधार विकासशील देशों में वांछित परिणाम उत्पन्न करते हैं; इसका निश्चित उत्तर देना कठिन है। फिर भी हम कह सकते हैं कि इन सुधार रणनीतियों ने बाजारीकरण, व्यवसायीकरण, निगमीकरण, प्रबंधवाद, निजीकरण, कुशलता, धन का मूल्य उत्पादकता, तार्किकता आदि जैसी सुधार योजनाओं या कार्यनीति का नया शब्दकोष विकसित किया है। परन्तु इनकी व्यापक पहुँच के बावजूद भी सुधारों में असंगति तथा असम्बदृता प्रतीत होती है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र को जटिल बना दिया है, तथा अधिक द्विजातीय या मिश्रित संरचनाओ, बहु-संरचित सार्वजनिक प्रणाली को उत्पन्न किया है।
- इस प्रक्रिया में सार्वजनिक संगठनों की अलग विशेषताएं लुप्त होती जा रही है। एन. पी. एम. का ध्यान कुशलता पर है, यह हम सब जानते हैं, लेकिन फिर भी बहुत से लोग इसे सामाजिक न्याय तथा समता / समानता के मूल्यों को नकारात्मक मानते हैं। राज्य विरोधी विचारधारा जिसका एन. पी. एम अनुसरण करता है, कुछ लोग अनुभव करते हैं, मूल समाजिक सेवा प्रदायन कमी की ओर ले जा सकती है, जिससे अनेकों असमानताएं पैदा हो सकती है सुधारों की प्रचन्ड / प्रबल विषय मितन्ययता तथा कुशलता जैसे उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर लक्षित होता है। लेकिन किसी भी व्यवस्था के ध्यान देने योग्य सामन रूप से महत्वपूर्ण अन्य मुद्दे जैसे सामाजिक समानता या समता न्याय, जवाबदेयता तथा भागीदारी भी है। वे देश जिन्होंने 1980 के दशक में सार्वजनिक प्रबंध सुधारों को अपनाया उनके पास नैतिकता, प्रतिवद्धता, उत्तरदायित्व तथा तटस्था जैसे मूल्यों से स्थापित एक जीविकोपार्जन ( Career based) आधरित लोक प्रशासन था। कार्यकुशलता तथा मितव्ययता को प्रमुखता देने के प्रयास में प्रबंध को कुछ शासकीय मूल्यों क्रियाओं या प्रक्रियाओं तथा कार्य विधियों को संस्थागत रूप में प्रदान करने के एक रास्ते के रूप में देखा गया। कुछ सुधार बिना अपेक्षित आवश्यक प्रभाव के तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रतीत हुए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम, जो सामान्यताः नुकसान या घाटे में रहते हैं, निजी खरीदारों को आकर्षित नहीं कर पाये हैं, तथा श्रमिक संघो द्वारा भी कड़ा विरोध हुआ है। पहले से ही बेरोजगारी, आर्थिक असंमानताओं तथा एक विकसित पूँजी बाजार (जिसके द्वारा धन जुटाया जा सके) से जूझ रहे विकासशील देश, निजीकरण की पहल से कुछ खास अधिक प्राप्त नहीं कर पाये हैं तथा जीवन बीमा क्षेत्रों में श्रमिक संगठनों द्वारा की गई हड़तालें उनके संदेह डर तथा इस प्रक्रिया में सामने आई समस्याओं को प्रदर्शित करती है। वैकल्पिक रोजगार अवसरों की व्यवस्था करने की राजनीतिक इच्छा नहीं है।
- निजीकरण की विधियाँ भी, यह कहा जाता है, कम पारदर्शी रही हैं तथा वे आर्थिक शक्ति के पुनरवितरण में एक क्रिया के रूप में प्रतीत होती है। कुछ उद्यमो का निजीकरण राजनीतिक दबाव के कारण जल्दी में किया गया है। भारत में विनिवेश की प्रक्रिया समानवेशी या संपूर्णात्मक दृष्टिकोण का अभाव रहा है । यद्यपि इस प्रक्रिया की जाँच करने वाली विभिन्न समितियों ने सार्वजानिक उद्यमों की निष्पादकता को सुधारने की सिफारिश की है, कार्यविधियों के कार्यान्वयन में उत्साह एवं प्रतिबद्धता का अभाव रहा है। भारत में सार्वजनिक प्रबंध सुधारों ने, जिन्हें संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम (एस.ए.पी.-SAP) के भाग के रूप में लागू किया गया था, उदारीकरण अनियमितीकरण, निजीकरण तथा विनिवेश जैसे अनेक रूप धारण कर लिए हैं। ये एक बड़ी सीमा तक विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund) जैसी धन देने वाली ऐजेंसियों द्वारा लगाई सहायता शर्तों के कारण थी)। 1980 के दशक में घरेलू स्तर पर स्थिति ऐसी थी कि देश को एक अलग या भिन्न आर्थिक विकास मॉडल को अपनाना पड़ा। आर्थिक बैंकिंग तथा जीवन बीमा क्षेत्रों में परिवर्तन करने पड़े तथा अर्थव्यवस्था को बाजार शक्तियों के लिए खोलना पड़ा । फिर भी हम इन उदाहरणों के आधार पर सामान निष्कर्ष नहीं निकाल सकते | यह इसलिए कि प्रभाव को लेकर कोई विशेष शोध नहीं किया गया है, जिसने एन. पी.एम. सुधारों की सफलता तथा असफलताओं पर ध्यान केन्द्रित किया हो। पॉलेट के अनुसार अब तक अधिकता शोध सूक्ष्म स्तर में पर हुआ है, तथा बहुत अधिक निश्चित संदर्भ हुआ है।
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