भारतीय पुनर्जागरण |भारत का सभी धर्म सुधार आंदोलन Indian Renaissance in Hindi

 भारतीय पुनर्जागरण Indian Renaissance in Hindi

भारत का सभी धर्म सुधार आंदोलन

भारतीय पुनर्जागरण |भारत का सभी धर्म सुधार आंदोलन Indian Renaissance in Hindi



भारतीय पुनर्जागरण प्रस्तावना

 

  • 18 वीं तथा 19 वीं शताब्दी में भारत के राजनीतिक पराभव का एक प्रमुख कारण भारतीय धार्मिक अवनति और धर्म के ठेकेदारों की विकृत मानसिकता का तत्कालीन समाज पर दूषित प्रभाव था। धर्म के नाम पर अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा था। कर्मकाण्ड की जटिलता से भी धर्म के विशुद्ध रूप के दर्शन हो पाना दुष्कर हो गया था। धर्म के नाम पर पुरोहित और मौलवी भोली जनता का आर्थिक शोषण तो कर ही रहे थे। अनाचार और छल-कपट से भरी उनकी चालें धर्म को विकृत रूप प्रदान कर रही थीं और आध्यात्मिक उन्नति के लक्ष्य को प्राप्त करने की बात लोग भूलते जा रहे थे। भारतीय पुनर्जागरण में धर्म सुधार का अत्यधिक महत्व है। इस काल के धर्म सुधारकों ने धार्मिक विकृतियों का विरोध किया। धर्म सुधार आन्दोलनों ने तत्कालीन अनेक सामाजिक, शैक्षिक तथा राजनीतिक आन्दोलनों को भी प्रभावित किया।

 

  • भारतीय पुनर्जागरण काल में समाज सुधार को शिक्षा प्रसार के साथ सबसे अधिक महत्व दिया गया। इस काल में मानवतावादी विचारधारा का विकास हुआ, सामाजिक असमानता की विभीषिका को कम करने के प्रयास हुए तथा स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए व्यापक स्तर पर कार्य किया गया। इस काल में पुरोहितों तथा मौलवियों के धार्मिक तथा सामाजिक प्रभुत्व में कमी आई। शिक्षा प्रसार तथा सामाजिक चेतना ने अंधविश्वासों के ऊपर विजय प्राप्त करने में तो सफलता नहीं पाई किन्तु शिक्षित समाज में अंधविश्वास में कमी का अनुभव अवश्य किया गया।

 

  • इस काल की दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां नारी उत्थान तथा दलितोद्धार हैं। पुनर्जागरणकालीन समाज सुधार ने आर्थिक तथा राजनीतिक चेतना की पृष्ठभूमि तैयार की।

 

  • 1857 के विद्रोह ने भारत में लगभग एक सदी से शक्तिशाली होते हुए और फैलते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया था। इस विद्रोह का न केवल भारतीय इतिहास में अपितु विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की शोषक एवं दमनकारी नीतियों के विरुद्ध यह भारतीयों का संगठित और व्यापक विद्रोह था। इस विद्रोह का महत्व यह है कि इसने अपमानित प्रताड़ित और सोए हुए भारत में स्वाभिमान, साहस और नवजीवन का संचार किया। एक विदेशी सत्ता के विरुद्ध भारतीयों के इस प्रथम संगठित प्रयास को कुछ इतिहासकार भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम मानते हैं।

 

  • इस प्रतिरोध में संगठन और सुनिश्चित योजना का सर्वथा अभाव था अतः इनका दमन करने में अंग्रेज़ों को सफलता मिली। विद्रोह की असफलता और उसके निर्मम दमन के बावजूद इसने ब्रिटिश सरकार को राजनीतिक और संवैधानिक सुधार करने के लिए बाध्य किया और इसके परिणामस्वरूप ही ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अत्याचारी शासन समाप्त हुआ। सरकार को साम्राज्य विस्तार का परित्याग करना पड़ा। किन्तु उसने फूट डालकर शासन करने की नीति को अपना लिया। इस विद्रोह ने भारतीयों में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। इतिहासकारों ने इस विद्रोह को अलग-अलग दृष्टि से देखा। अंग्रेज़ इहिासकारों ने इसे सिपाही विद्रोह तो राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने इसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की संज्ञा दी।

 

  • विश्व इतिहास में धर्मसुधार आन्दोलनों का अत्यधिक महत्व रहा है। हम सब जानते हैं कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व, एवं 15वीं, 16 वीं शताब्दी तथा 19 वीं शताब्दी में हुए धर्मसुधार आन्दोलनों ने विश्व में व्याप्त धार्मिक विकृतियों तथा कुरीतियों के उन्मूलन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया था। धर्म के नाम पर होने वाले अनाचारों के प्रति धर्म सुधारकों ने विद्रोह किया और धर्म के शुद्ध स्वरूप को प्रतिष्ठित किया। ज़ोरेस्टर, कन्फ्यूशियस, भगवान महावीर तथा बुद्ध ने प्राचीन काल में धर्मसुधार आन्दोलनों किया था। मध्यकाल में मार्टिन लूथर, कॉल्विन, ज्विंगली, कबीर, गुरुनानक चैतन्य आदि ने धर्म के विशुद्ध रूप को पुनर्प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया था।


  • आपने 19वीं शताब्दी के भारत में हुए धर्मसुधार आन्दोलनों के विषय में अवश्य सुना होगा। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती विवेकानन्द और श्रीमती एनीबीसेन्ट के नाम से हम सब परिचित हैं। इन सभी ने धार्मिक अनाचार के विरुद्ध आवाज उठाई और धर्म के विशुद्ध रूप को स्थापित करने का प्रयास किया। इन सभी धर्म सुधारकों ने पुरोहित वर्ग के धार्मिक प्रभुत्व के विरुद्ध अभियान छेड़ा तथा धर्म के मानवीय रूप को विकसित करने का प्रयास किया।

 

  • 19 वीं शताब्दी में हुए धर्मसुधार आन्दोलनों का अध्ययन कर हम भारतीय पुनर्जागरण को भलीभांति समझने में सक्षम हो सकेंगे और भारत के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण चरण से अवगत हो सकेंगे।

 


13 वीं शताब्दी में धर्म सुधार से पूर्व भारत की धार्मिक स्थिति 

 

  • 18 वीं तथा 19 वीं शताब्दी में भारत के राजनीतिक पराभव का एक प्रमुख कारण भारतीय धार्मिक अवनति और धर्म के ठेकेदारों की विकृत मानसिकता का तत्कालीन समाज पर दूषित प्रभाव था। धर्म के नाम पर अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा था। कर्मकाण्ड की जटिलता से भी धर्म के विशुद्ध रूप के दर्शन हो पाना दुष्कर हो गया था।


  • धर्म के नाम पर पुरोहित और मौलवी भोली जनता का आर्थिक शोषण तो कर ही रहे थे, साथ ही उसे दिग्भ्रमित कर दलितों, निरीह कन्याओं और स्त्रियों का हर सम्भव शोषण भी कर रहे थे। धर्म के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति के लक्ष्य को प्राप्त करने की बात लोग भूलते जा रहे थे। भारत में यह सब कुछ तब घट रहा था जब पाश्चात्य जगत में वैचारिक क्रान्ति आ चुकी थी और हर बात को बुद्धि तथा विवेक की कसौटी पर परखा जा रहा था।

 

  • 19 वीं शताब्दी में भारत की धार्मिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। नियतिवाद में घोर आस्था ने आस्तिकों को कर्मठता से दूर कर दिया था। अब रामभरोसे बैठे रहकर ईश्वरीय कृपा की प्रतीक्षा करते रहने के सिवा भक्तों को कोई काम नहीं रह गया था। सती प्रथा, नर बलि, तन्त्र-मन्त्र में, जादू, टौना, गण्डा, ताबीज, मन्नत आदि में आस्था ने धर्म के मूल स्वरूप को धूमिल कर दिया था। जनता में अंधविश्वास बढ़ता जा रहा था। पुरी में जगन्नाथ रथ से खुद को कुचलवाकर अपने प्राण देकर भक्त मुक्ति प्राप्ति की लालसा करते थे। चरक पूजा में खुद को अपार कष्ट देते थे। मोहर्रम के दिनों में अनेक मुसलमान आत्मपीड़न की सभी सीमाएं पार कर जाते थे। नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करना अब धर्म का लक्ष्य नहीं रह गया था धार्मिक दुरूहता ने भक्त और भगवान के बीच दूरियां बढ़ा दी थीं। धर्म अब खर्चीले अनुष्ठानों का आयोजन मात्र रह गया था।

 

  • धर्मानुयायी असंख्य समुदायों और सम्प्रदायों में बंट गए थे। धार्मिक सहिष्णुता और समन्वयवाद की चर्चा करना भी अपराध सा माना जाने लगा था। वेद, कुरान और गुरुग्रंथ साहब की मूल शिक्षाओं के प्रति अब बहुत कम लोगों का रुझान था। तीर्थस्थल और सूफी सन्तों की मज़ारें प्रायः अनाचार के केन्द्र बन चुके थे। गण्डे, ताबीज़ के बदले में मोटी रकम हासिल करना मौलवियों का व्यवसाय बन गया था। तन्त्र मन्त्र और काले जादू को भी अब धर्म में स्थान मिल चुका था। ओझाओं तथा कलन्दरों और फ़कीरों का भी सामाजिक प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। अब समय आ चुका था कि धर्म के शाश्वत मूल्यों तथा उसके शुद्ध स्वरूप की पुनर्स्थापना हो।

 

भारतीय पुनर्जागरण के प्रमुख धर्मसुधार आन्दोलन


1 ब्रह्म समाज

राजा राम मोहन राय पर एक टिप्पणी लिखिये ?


  • राजा राममोहन राय का जन्म 1774 में बंगाल में बर्दवान जिले के राधानगर ग्राम के एक सम्भ्रान्त धनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के काल में ही उन्हें विभिन्न धर्मों के विषय में जानकारी प्राप्त करना अच्छा लगता था। वैदिक धर्म और इस्लाम की मूल शिक्षाओं से उनका तभी परिचय हो चुका था। उनका मूर्तिपूजा और बहुदेववाद से विश्वास उठ चुका था और वो ईश्वर के निर्गुण निराकार रूप की उपासना करते थे। वर्षों तक वैदिक तथा बौद्ध दर्शन का अध्ययन कर उन्होंने एकेश्वरवाद के प्रचार का निश्चय किया। मुर्शिदाबाद रहते हुए उन्होंने वैदिक धर्म, इस्लाम तथा ईसाई धर्म की एकेश्वरवाद विषयक विचारधारा से प्रभावित होकर तुहफुतुल मुजाहिदीन ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में मूर्तिपूजा का खण्डन किया गया था और अंधविश्वासों पर प्रहार किया गया था।

 

  • राजा राममोहन राय ने जॉन डिग्बी के सम्पर्क में आकर पाश्चात्य दर्शन साहित्य और धर्म का गहन अध्ययन किया। 1815 में उन्होंने आत्मीय सभा की स्थापना की। इस सभा का उद्देश्य हिन्दू शास्त्रों में एकेश्वरवाद के समर्थन का प्रचार-प्रसार करना था। 1820 में उन्होंने अपने ग्रंथ दि पर्सेप्ट्स ऑफ जीसस, दि गाइड टु पीस एण्ड हैप्पीनेस में चमत्कारों को नकारते हुए ईसा मसीह की मूलभूत शिक्षाओं पर प्रकाश डाला। एकेश्वरवाद के प्रचार हेतु उन्होंने अपने अनुयायी विलियम एडम के साथ कलकत्ते में यूनिटेरियन मिशन की स्थापना की। 1825 में उन्होंने वेदान्त कॉलेज की स्थापना की। इस विद्यालय में छात्रों को एकेश्वरवाद के शुद्ध और मौलिक स्वरूप की शिक्षा दी जाती थी। उपनिषदों के गहन अध्ययन से वह वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत में एकेश्वरवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं।

 

  • राजा राममोहन राय ने 20 अगस्त, 1828 को ब्रह्म समाज की स्थापना की राजा राममोहन राय ने अपने बंगला पत्र सम्बाद कौमुदी में इस नए समाज के सिद्धान्तों के विषय में विस्तार से चर्चा की। कट्टरपंथियों ने उनका घोर विरोध किया। ब्रह्म समाज के द्वार सभी के लिए खोल दिए गए धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण, लिंग और शिक्षा या आर्थिक स्थिति का कोई भी बन्धन आस्तिकों के लिए नहीं रखा गया। ईश्वर के निर्गुण-निराकार रूप की उपासना और आध्यात्मिक उन्नति के लक्ष्य को ही इसमें प्रधानता दी गई। इस समाज में भगवान और भक्त के बीच में किसी मध्यस्थ जैसे किसी पुजारी या किसी पुरोहित का कोई स्थान नहीं था प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और मानव सेवा को इसमें ईश्वर भक्ति का सर्वश्रेष्ठ रूप स्वीकार किया गया।

 

  • राजा राममोहन राय की 1833 में मृत्यु के बाद उनके अनुयायी देवेन्द्रनाथ टैगोर ने 1839 में तत्वबोधिनी सभा की स्थापना की। इसका मुख्य उद्देश्य उपनिषदों के ज्ञान का प्रसार करना भी था। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने इस सभा में ब्रह्म धर्म का संकलन किया। इसमें ब्रह्मोपासना की विधि पर भी प्रकाश डाला गया। इसके सदस्यों में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर राजेन्द्रलाल मित्र ताराचन्द्र चक्रवर्ती और प्यारेचन्द्र मित्र प्रमुख थे।

 

  • देवेन्द्रनाथ टैगोर ने एलेक्ज़ण्डर डफ प्रभृत ईसाई मिशनरियों द्वारा भारतीय संस्कृति और धर्मों पर किए गए प्रहारों का निर्भीकतापूर्वक सामना किया।

 

  • केशबचन्द्र सेन ने ब्रह्म समाज की लोकप्रियता में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने समाज के कार्यों में समाज सुधार कार्यक्रम को भी सम्मिलित किया गया। उनके द्वारा स्थापित संगत सभा का उद्देश्य आध्यात्मिक और सामाजिक समस्याओं का निराकरण करना था। संगत सभा में जाति के बन्धनों और यज्ञोपवीत धारण करने, जन्मोत्सव, नामकरण, अन्त्येष्टि जैसे संस्कारों के परित्याग पर बल दिया गया। उन्होंने मूर्तिपूजा का खण्डन किया। उनका अंग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित पत्र इण्डियन मिरर ब्रह्म समाज का मुख्य पत्र बन गया। उनकी प्रेरणा से बम्बई में प्रार्थना समाज और मद्रास में वेद समाज की स्थापना हुई। 


  • केशब ने धर्म में समानता और स्वतन्त्रता को अत्यधिक महत्व दिया। केशबचन्द्र धीरे-धीरे रहस्यवाद की ओर उन्मुख होने लगे। 1878 में उन्होंने स्वयं अपने प्रयासों से बनाए गए 1872 के ब्रह्म विवाह अधिनियम का उल्लंघन करके अपनी अल्पवयस्क बेटी का विवाह कूच बिहार के अल्पवयस्क महाराज से कर दिया। इस विवाह में मूर्तिपूजा भी की गई। समाज का एक बड़ा वर्ग केशबचन्द्र से अलग हो गया। 1878 में ब्रह्म समाज आदि और साधारण ब्रह्म समाज में विभाजित हो गया। साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना में आनन्दमोहन बोस और शिवनाथ शास्त्री की प्रमुख भूमिका रही।

 

  • ब्रह्म समाज ने मूलतः मानवधर्म को ही प्राथमिकता दी और परम्पराओं तथा मान्यताओं के स्थान पर बुद्धि और विवेक को महत्व दिया।

 

 

2 प्रार्थना समाज

 

  • केशब चन्द्र सेन की प्रेरणा से और उनके साधारण ब्रह्म समाज से प्रभावित होकर बम्बई में 1867 में आत्माराम पाण्डुरंग ने प्रार्थना समाज की स्थापना की। आर० जी० भण्डारकर और एम० जी० रानाडे ने इस समाज से जुड़कर इसको नई शक्ति प्रदान की। इस समाज में एकेश्वरवाद और समाज सुधार कार्यक्रम दोनों को ही समान महत्व दिया गया। 


  • ईश्वर के निर्गुण निराकार रूप की उपासना करना, मूर्तिपूजा का खण्डन करना और जाति व वर्ण पर आधारित सामाजिक असमानताओं को अस्वीकार करना, इसके अभियान में सम्मिलित था परन्तु यह समाज हिन्दू परम्पराओं से भी जुड़ा रहा और इसमें मूर्तिपूजकों का प्रवेश भी सर्वथा निषिद्ध नहीं था। 
  • प्रार्थना समाज में वेदों को ईश्वरीय रचना नहीं माना जाता था और न ही अवतारवाद में विश्वास रखा जाता था। रानाडे का विचार था कि समाज में विद्यमान अधिकांश कुरीतियां प्राचीन परम्पराओं के प्रतिकूल हैं। हिन्दू शास्त्रों और महाराष्ट्र के सन्तों की मराठी भाषा में रचित भक्ति रचनाओं का पाठ इस समाज के धार्मिक अनुष्ठानों में सम्मिलित था।

 

3 आर्य समाज

 आर्य समाज के विषय में चर्चा कीजिए ?

  • 1875 में बम्बई में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने भारत वैदिक मूल्यों और आदर्शों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा- वेदों की ओर लौटो मूर्तिपूजा बहुदेववाद व कर्मकाण्ड और धर्म के नाम पर व्याप्त अंधविश्वास का आर्यसमाज ने विरोध किया और यज्ञों को उपयोगी माना। बचपन से ही मूर्तिपूजा में उनका विश्वास जाता रहा था। वेदों की प्रामाणिकता में दयानन्द का अगाध विश्वास था ब्रह्म समाज के प्रमुख नेता केशबचन्द्र सेन के सुझाव पर उन्होंने अपने विचारों के व्यापक प्रसार प्रचार के लिए हिन्दी को अपनाया। अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश की रचना भी उन्होंने हिन्दी में ही की। 1875 में बम्बई में उन्होंने आर्यसमाज की स्वामी दयानन्द सरस्वती स्थापना की।

 

  • आर्य समाज ने केवल वेदों को ही ज्ञान का सच्चा और एकमात्र आधार माना। शास्त्रों और पुराणों को आर्य समाज ने कपोल कल्पनाओं से ग्रस्त माना। वैदिक साहित्य में भी ऋग्वेद संहिता को ही समाज ने सर्वाधिक महत्ता प्रदान की। शास्त्रों और पुराणों में प्रतिपादित बहुदेववाद और ईश्वर के साकार रूप की परिकल्पना को पूर्णरूपेण अस्वीकार किया गया और ईश्वर के निर्गुण-निराकार रूप में अपनी आस्था व्यक्त की गई। 


  • आर्य समाज का यज्ञों की महत्ता में अगाध विश्वास था परन्तु उत्तर वैदिक काल में विकसित अनेक कर्मकाण्डों को इसने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। उत्तर वैदिक काल में अनेक धार्मिक कुरीतियां समाज में प्रवेश कर गई थीं और धर्म का मूल स्वरूप विकृत हो गया था। आर्य समाज ने अंधविश्वासों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। गुण और कर्म के स्थान पर वंश पर आधारित वर्ण-व्यवस्था को इसने वेद विरुद्ध बताया तथा शूद्रों में शिक्षा प्रसार का समर्थन किया।

 

  • आर्य समाज ने वैदिक धर्म पर प्रहार करने वालों के प्रति आक्रामक रूप धारण किया। वैदिक धर्म की रक्षा करते हुए उन्होंने मुस्लिम और ईसाई धर्म प्रचारकों की आक्रामकता का उनकी ही शैली में उत्तर दिया। आर्य समाज के शुद्धि आन्दोलन तथा गो रक्षा आन्दोलन विवादास्पद रहे। जिन हिन्दुओं ने अपना धर्म परिवर्तित कर लिया था, उनके लिए अपने धर्म में वापस लौटने के सभी मार्ग हिन्दू समाज ने अवरुद्ध कर दिए थे परन्तु दयानन्द सरस्वती ने अपने शुद्धि आन्दोलन के द्वारा ऐसे लोगों के लिए अपनी शुद्धि करा के फिर से हिन्दू बनने का रास्ता साफ कर दिया।


  • आर्य समाज द्वारा अपनाई गई इस धार्मिक आक्रामकता का परिणाम साम्प्रदायिक कटुता में वृद्धि के रूप में दिखाई दिया। परन्तु आर्य समाज को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि इसने हिन्दुओं में व्याप्त हीनभावना का उन्मूलन करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। आर्य समाज द्वारा स्थापित विद्यालयों और पाठशालाओं में वैदिक मूल्यों के संरक्षण का समुचित प्रबन्ध किया गया और संस्कृत भाषा को विशेष महत्व दिया गया। अपने समकालीन धार्मिक-सामाजिक आन्दोलनों में आर्य समाज सबसे अधिक लोकप्रिय आन्दोलन था। पश्चिमोत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग और पंजाब में आर्य समाज के अनुयायियों की संख्या लाखों में पहुंच गई।


 

4. रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और रामकृष्ण मिशन

 

  • कलकत्ते के दक्षिणेश्वर में स्थित काली माता के मन्दिर के पुजारी गदाधर चट्टोपाध्याय अर्थात् स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने ईश्वर भक्ति के नए आयाम स्थापित किए। अल्पशिक्षित रामकृष्ण ने इस विषय में ज्ञान से अधिक महत्ता भावना को प्रदान की। उन्होंने ईश्वर तक पहुंचने के लिए अनेक परम्परागत विधियों का प्रयोग किया। सन्यासिनी भैरवी से उन्होंने साधना की तान्त्रिक विधि सीखी। इसके बाद उन्हें वैष्णव साधना पद्धति से भगवान कृष्ण के दर्शन की अनुभूति हुई। 
  • परमात्मा से आत्मा के साक्षात्कार हेतु उन्होंने सूफी साधना पद्धति का अभ्यास किया। इसके पश्चात उन्होंने ईसाई साधना पद्धति का प्रयोग किया। अपने दिव्य अनुभवों से उन्होंने भक्तजनों को अवगत कराया। धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ने लगी। एक से एक प्रतिष्ठित विद्वान और प्रभावशाली लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे। रामकृष्ण ने अपने सरल सम्भाषण के माध्यम से श्रोताओं को परम सत्य और आध्यात्मिक उन्नति की अनुभूति कराने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मुक्ति की प्राप्ति का मार्ग प्राणिमात्र की सेवा से होकर गुजरता है। 
  • परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने सन्यास को महत्व नहीं दिया। एक गृहस्थ का धर्म निभाते हुए भी भक्त अपने धर्म का पालन कर सकता था। उन्होंने स्त्री को आध्यात्मिक उन्नति में बाधक नहीं माना अपितु उसे अखिल ब्रह्माण्ड की जननी की प्रतिनिधि के रूप में महत्ता दी। 

 

  • रामकृष्ण ने अपनी पत्नी शारदामणि को अपनी पत्नी के रूप में नहीं अपितु माता काली के रूप में देखा। उन्होंने शारदामणि को आजीवन सम्मान और आदर दिया परन्तु उन्हें वो एक पति का प्यार कभी नहीं दे सके। 
  • रामकृष्ण परमहंस ने चारित्रिक विकास को बौद्धिक विकास की तुलना में अधिक महत्व दिया। रामकृष्ण अपने साधना विषयक प्रयोगों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि किसी भी धर्म का सत्य और निष्ठा से अनुपालन कर भक्त भगवान तक पहुंच सकता है। रामकृष्ण का विचार था कि ईश्वर एक ही है परन्तु विभिन्न भक्त उसे भिन्न-भिन्न रूप में देखते हैं।

 

  • नरेन्द्रनाथ दत्त नामक नवयुवक प्रारम्भ में ब्रह्म समाज की विचारधारा और पाश्चात्य दार्शनिकों जॉन स्टुअर्ट मिल, ह्यूम और हर्बर्ट स्पेन्सर के दर्शन से प्रभावित था परन्तु उसके मन मस्तिष्क को शांति नहीं मिली थी। उसने 1881 में दक्षिणेश्वर में स्वामी रामकृष्ण से भेंट की। इस प्रथम भेंट बाद ही दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक बन गए। स्वामीजी ने नरेन्द्रनाथ को नारायण के रूप में देखा और उसे प्राणिमात्र के दुखों का निवारण करने का दायित्व सौंपना चाहा। नरेन्द्रनाथ को ज्ञात हो गया कि भक्ति की पराकाष्ठा परोपकार में और प्राणिमात्र की सेवा में है। 
  • नरेन्द्रनाथ ने संकल्प लिया कि वह विश्व के समक्ष इस परम सत्य का उद्घाटन करेगा। अपने गुरु की मृत्यु के बाद नरेन्द्रनाथ ने अपनी ही भांति शिक्षित नवयुवकों के साथ सन् 1887 में काशीपुर के निकट बारानगर में एक मठ की स्थापना की। अब नरेन्द्रनाथ का नाम विवेकानन्द हो गया और वो अब रामकृष्णमिशन के प्रमुख संचालक बन गए। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ देश भ्रमण किया। 
  • प्राचीन काल के गौरवशाली भारत का ऐसा अधःपतन देखकर उन्हें अपार कष्ट हुआ दरिद्रता अज्ञान, निराशा, विघटन और कट्टरता ने भारतीयों की उन्नति के सभी द्वार बन्द कर दिए थे। दरिद्र भारतीयों की दशा सुधारने के लिए उन्हें धनधान्य से परिपूर्ण पाश्चात्य जगत की सहायता की आवश्यकता थी पर इस धन को वो भीख में नहीं लेना चाहते थे, इसके बदले में वो पश्चिम को भारतीय आध्यात्म से अवगत करा वहां के निवासियों की आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करना चाहते थे।

 

विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित होने वाली विश्वधर्म सम्मेलन के बारे में सुना। इसमें सभी धर्मों के प्रतिनिधि सम्मिलित होने वाले थे। बिना आर्थिक संसाधन के और बिना किसी प्रतिष्ठित धार्मिक संस्था का विधिवत प्रतिनिधि हुए विवेकानन्द ने इस विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन में उनके पाँच भाषण हुए। अपने प्रारम्भिक भाषण में विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म की महानता के विषय में बताया और यह कहा कि हिन्दू धर्म के शब्दकोश में 'असहिष्णुता' शब्द है ही नहीं। 

  • 19 सितम्बर, 1893 को हिन्दू धर्म पर दिए गए अपने भाषण में उन्होंने पाश्चात्य देशों की समृद्धि का आधार उनके द्वारा अन्य जातियों पर किए गए अत्याचार और लूट को बताया। उन्होंने यह दर्शाया कि हिन्दू धर्म में ऐसे साधनों से समृद्धि प्राप्त करने की अनुमति नहीं है। उन्होंने अन्य धर्मावलम्बियों की असहिष्णुता और उनके द्वारा किए गए संहार की भर्त्सना करते हुए यह दर्शाया कि हिन्दू धर्म का आधार करुणा और प्रेम है। शिकागो में दिए गए अपने भाषणों के बाद विवेकानन्द एक विश्वविख्यात सन्त और विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। विवेकानन्द ने अमेरिका लौटते हुए पेरिस और लन्दन में भी अपने भाषणों से श्रोताओं को अभिभूत कर दिया। पाश्चात्य देशों में वेदान्त के अध्ययन के लिए अनेक केन्द्रों की स्थापना की पृष्ठभूमि उन्हीं के भाषणों के कारण तैयार हुई ।

 

  • भारत लौटने पर कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक विवेकानन्द का हार्दिक स्वागत किया गया। पर स्वामीजी को भारतीयों को उनकी दरिद्रता और अज्ञान से मुक्ति दिलानी थी। उन्होंने पश्चिम से समानता तथा स्वतन्त्रता की भावना और कार्य करने की ऊर्जा ग्रहण कर उसे भारतीयों के उत्थान हेतु प्रयुक्त किया परन्तु उन्होंने आत्मनिर्भरता को उन्नति और मुक्ति की आवश्यक शर्त माना। 1899 में बेलूर में उनका मठ स्थापित हुआ। उनके अंग्रेजी पत्र प्रबुद्ध भारत और बंगला पत्र उद्बोधन में उनके विचारों का नियमित रूप से प्रकाशन किया गया। रामकृष्ण परम हंस, ज्ञानयोग, राजयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग पर उनके ग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ।

 

  • 1899 में अमेरिका की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान विवेकानन्द ने न्यूयॉर्क, लॉस एन्जेलिस तथा सैनफ्रान्सिसको में वेदान्त केन्द्रों और कैलिफोर्निया में शांति आश्रम की स्थापना की। स्वामीजी ईश्वर को सभी आत्माओं का समुच्चय मानते थे। वो मानते थे कि उनका भगवान दरिद्रों, पीड़ितों और निर्बलों का रक्षक और उद्धारक है, इसीलिए उन्होंने भगवान को दरिद्र नारायण कहा।

 

  • स्वामीजी पश्चिम की भौतिक उन्नति व वैज्ञानिक प्रगति के प्रशंसक थे किन्तु उसकी आध्यात्मिक अवनति से वो चिन्तित भी थे। भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नति के बीच संतुलन स्थापित करने के विषय में भारत, पाश्चात्य देशों की सहायता कर सकता था। इसी प्रकार अपने भौतिक संसाधनों को उपलब्ध करा पाश्चात्य देश भारतीयों की निर्धनता को दूर करने में अपना योगदान दे सकते थे। स्वामीजी धर्म के नाम पर कटुता फैलाने वालों के विरोधी थे। उन्होंने इस्लाम की मुस्लिम विश्व बन्धुत्व की अवधारणा की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। स्वामीजी धार्मिक कर्मकाण्डों और ब्राह्मणों के धार्मिक व सामाजिक प्रभुत्व के विरुद्ध थे। हिन्दू धर्म के विकृत रूप को वो स्वीकार नहीं करते थे। विवेकानन्द ने मानवतावाद को सर्वाधिक महत्व दिया ।

 

5 थियोसोफिकल सोसायटी

 

थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना अमेरिका में, 1875 में मैडम ब्लैवेट्सकी तथा कर्नल ऑलकॉट द्वारा की गई। इसके तीन प्रमुख लक्ष्य थे -

 

1. विश्वबन्धुत्व की भावना का विकास करना। 

2. प्राच्य धर्म, प्राच्य दर्शन और विज्ञान के अध्ययन को प्रोत्साहित करना । 

3. प्रकृति के नियमों का ज्ञान प्राप्त करना तथा मनुष्य में निहित दैविक शक्ति का विकास करना। 


  • थियोसोफिकल सोसायटी की विचारधारा वेदों, उपनिषदों तथा बौद्ध साहित्य से विशेष रूप से प्रभावित थी। वसुधैव कुटुम्बकम् तथा सर्वेश्वरवाद की अवधारणा इसने भारतीय दर्शन से ही ग्रहण की थी थियोसोफिकल सोसायटी सभी धर्मों में एक ही परम सत्य के दर्शन करती थी और उनकी भिन्नता को एक ही भगवान को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत करने में देखती थी। थियोसोफिकल सोसायटी के मूलभूत सिद्धान्त कर्म और निर्वाण भारतीय दर्शन की देन थे। 


  • थियोसोफिकल सोसायटी ने हिन्दू धर्म की प्रचलित मान्यताओं को अंगीकार किया। विश्वबन्धुत्व की भावना को महत्ता देते हुए भी इसने वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार किया और एकेश्वरवाद और निराकार ब्रह्म में अपनी आस्था रखते हुए भी इसने बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का खण्डन नहीं किया। 


  • 1891 में जब मैडम ब्लैवेट्सकी की लन्दन में 8 मई. सन् 1891 में मृत्यु हुई तब तक इस सोसायटी के सदस्यों की संख्या लगभग 1 लाख तक पहुंच चुकी थी और इसके केन्द्र लन्दन, पेरिस, न्यूयॉर्क तथा मद्रास में स्थापित हो चुके थे।

 

  • श्रीमती एनीबीसेन्ट ने 1893 में थियोसोफिकल सोसायटी के अड्यार (मद्रास) केन्द्र की कमान सम्भाली। उन्होंने भारत में इस सोसायटी की लोकप्रियता बढ़ाने में अभूतपूर्व योगदान दिया अनेक प्रभावशाली भारतीय इसके सदस्य बने।


  • प्राचीन हिन्दू धर्म, ब्रह्म विद्या और गुह्य विद्या का उन्होंने प्रचार-प्रसार करने हेतु भारत भ्रमण कर अनेक स्थानों पर भाषण दिए । थियोसोफिकल सोसायटी ने हिन्दुओं को अपने धर्म और अपनी संस्कृति पर गर्व करने का संदेश दिया। श्रीमती एनीबीसेन्ट ने भगवद् गीता का अनुवाद किया और रामायण तथा महाभारत पर संक्षिप्त भाष्य लिखे थियोसोफिकल सोसायटी ने पाश्चात्य देशों में वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत का प्रचार किया। श्रीमती बीसेन्ट ने भारतीय दर्शन नीतिशास्त्र, हिन्दू पूजा-अर्चन विधि, योगशास्त्र, अवतारवाद तथा बहुदेववाद की सार्थकता को स्वीकार किया। हिन्दुओं की सहिष्णुता की नीति को उन्होंने समस्त मानवजाति के लिए उपयोगी एवं कल्याणकारी बताया। इस पुनरुत्थानवादी आन्दोलन ने आर्य समाज की भांति भारतीयों को अपने गौरवशाली अतीत पर और अपनी समृद्ध धार्मिक व दार्शनिक धरोहर पर गर्व करना सिखाया।

 

भारत के अन्य धर्म सुधार आन्दोलन
 

1. वेद समाज

 

  • ब्रह्म समाज के अग्रणी नेता केशबचन्द्र सेन की प्रेरणा से सन् 1864 में मद्रास में श्रीधरालु नायडू ने वेद समाज की स्थापना की। वेद समाज में धार्मिक कर्मकाण्डों यथा नामकरण संस्कार, यज्ञोपवीत संस्कार अन्त्येष्टि संस्कार में समय तथा धन बरबाद किए जाने का विरोध किया। श्री धरालु नायडू के सहयोगी दोरायस्वामी आयंगार ने खुलेआम अपने यज्ञोपवीत का परित्याग किया। श्री नायडू तथा श्री आयंगार की मृत्यु के बाद इस आन्दोलन का प्रभाव मन्द पड़ गया।

 

2 देव समाज

 

  • प्रारम्भ में ब्रह्म समाजी और आर्य समाज के विरोधी शिवनरायण अग्निहोत्री शंकराचार्य के वेदांत दर्शन से परिचित हुए। उन्होंने 1877 में देव समाज की स्थापना की और वह स्वयं इसके गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इस समाज में गुरु की उपासना की जाती थी।

 

3 राधास्वामी सत्संग

 

  • राधास्वामी सत्संग आन्दोलन के प्रवर्तक विश्वदयालजी महाराज थे। इसकी स्थापना 1861 में आगरा में हुई इन्होंने भक्ति की महत्ता ज्ञान की तुलना में अधिक बताई और भक्तियोग पर बल दिया। राधास्वामी सम्प्रदाय में ईश्वर की सर्वोच्चता और सत्संग को महत्ता दी जाती है। इस विचारधारा में आध्यात्मिक उन्नति के लिए संसार त्याग अर्थात् वैराग्य की आवश्यकता को अस्वीकार किया गया है। ईश्वर भक्ति, प्रार्थना और आध्यात्मिक उन्नति के लिए सबसे आवश्यक सत्संग है जो कहीं भी और कभी भी किया जा सकता है।

 

4 स्वामी नारायण सम्प्रदाय

 

  • गुजरात में 19 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में स्वामी सहजानन्द ने स्वामी नारायण सम्प्रदाय की स्थापना की। एकेश्वरवादी यह सम्प्रदाय विश्वास और व्यवहार दोनों में ही पवित्रता पर बल देता है और कर्मकाण्ड में विश्वास नहीं करता। मादक पदार्थों के सेवन के निषेध पर इसमें विशेष जोर दिया जाता है।

 

5 परमहंस मण्डली

 

  • 1849 में पश्चिमी भारत में दादोबा पाण्डुरंग और जाम्भेकर शास्त्री द्वारा परमहंस मण्डली की स्थापना हुई । दादोबा पाण्डुरंग ने अपने धर्मग्रंथ धर्म विवेचन में परमहंस मण्डली के सात सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला। इसमें एकेश्वरवाद में आस्था व्यक्त की गई और धर्म में प्रेम तथा नैतिक आचरण को विशेष महत्व दिया गया। व्यक्ति स्वातन्त्र्य तथा वैचारिक स्वातन्त्र्य को इसमें महत्ता प्रदान की गई। इस बौद्धिक आन्दोलन में ज्ञान और विवेक को अपने कार्यों और विचारों का आधार बनाए जाने पर बल दिया गया। इस सम्प्रदाय ने ब्राह्मणों के धार्मिक, शैक्षिक तथा सामाजिक प्रभुत्व को चुनौती दी और सामाजिक समता की स्थापना की आवश्यकता पर बल दिया। रूढ़िवादी हिन्दुओं का खुलेआम विरोध करना परमहंस मण्डली ने आवश्यक नहीं समझा।


6 नामधारी आन्दोलन

 

  • पंजाब में 1857 में बाबा रामसिंह ने नामधारी आन्दोलन की स्थापना की। इस आन्दोलन में ईश्वर की आराधना हेतु उसका जाप करने और पवित्र एवं शुद्धाचरणपूर्ण जीवनपद्धति अपनाने पर बल दिया गया। इस विचारधारा में कर्मकाण्ड की कोई महत्ता नहीं थी और मूर्तिपूजा, वृक्षपूजा तथा दरगाहों पर मन्नत मांगने का भी इसमें निषेध था। बाबा रामसिंह और उनके शिष्य बालक सिंह पशुधन को अत्यधिक मूल्यवान मानते थे। अहिंसा, सत्य, अस्तेय को अपनी जीवन पद्धति का अंग बनाने और उसमें मद्यपान पर निन्दा तथा जालसाजी व छल के परित्याग को उन्होंने आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक बताया।

 

7 निरंकारी आन्दोलन

 

  • 19 वीं शताब्दी में बाबा दयालदास ने सिख धर्म की मूल शिक्षाओं पर आधारित इस आन्दोलन की स्थापना की निरंकार अर्थात निराकार ब्रह्म का ध्यान करने पर इस आन्दोलन में विशेष बल दिया गया और कर्मकाण्ड की निरर्थकता पर प्रकाश डाला गया। इस आन्दोलन में धार्मिक तथा सामाजिक जीवन में व्याप्त अंधविश्वासों पर प्रहार किए गए जीवन के सोलह संस्कारों पर अपव्यय का निषेध किया गया और इन संस्कारों को अधिक से अधिक सादगी से मनाने का उपदेश दिया गया। इस आन्दोलन में मांस भक्षण मद्यपान ठगी और धोखेबाज़ी को मनुष्य की अवनति और दुर्गति का कारण बताया गया। इस आन्दोलन ने अपने द्वार सभी सम्प्रदायों के लिए खोल दिए ।

 

8 सिंह सभा

 

  • सिख धर्म को उसके मौलिक रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करने तथा सिक्खों को सच्चे सिख धर्म से परिचित करने के उद्देश्य से ठाकुर सन्धावालिया और ज्ञानी ज्ञान सिंह ने 1873 में, अमृतसर में सिंह सभा की स्थापना की। इसने दसम् ग्रंथ के संपादन के उद्देश्य से गुरुमत ग्रंथ प्रचारक सभा का गठन किया। सिख समुदाय में प्रचलित हिन्दू संस्कारों तथा कर्मकाण्डों का इसने विरोध किया। सिंह सभा ने सिख धर्म को हिन्दू धर्म से हटकर एक अलग और स्वतन्त्र पहचान दिलाने के लिए सफल प्रयास किए।

 

9 स्मारत सम्प्रदाय

 

  • दक्षिण भारत का स्मारत सम्प्रदाय हिन्दू पुनरुत्थान का पोषक था। शंकराचार्य के अनुयायियों ने 1895 में स्मारतों को सशक्त बनाने तथा उनकी रक्षार्थ कुम्बकोनम की अद्वैत सभा का गठन किया। उन्होंने शंकराचार्य द्वारा येदान्त की व्याख्या को अंगीकार करते हुए हिन्दुओं के बहुदेववाद को स्वीकार किया। इस सभा ने स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित नियमों के अनुपालन में अपनी आस्था व्यक्त की। इसके प्रमुख स्तम्भ प्रोफेसर सुन्दररमन हिन्दू धर्म के रीति-रिवाजों को दैविक मानते थे और उनका यह विश्वास था कि इनका निष्ठापूर्वक पालन करने से हिन्दुओं को स्वास्थ्य लाभ होगा तथा उनकी शक्ति और समृद्धि में वृद्धि होगी। प्राचीन हिन्दू धर्म को उसके मूल रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना इस सम्प्रदाय का उद्देश्य था।

 

10 रहनुमाई मजदेआसन सभा

 

  • 1851 में आंग्ल शिक्षा प्राप्त पारसियों ने रहनुमाई मजदेआसन सभा (धार्मिक सुधार संघ) की स्थापना की। इसका उद्देश्य पारसियों की सामाजिक स्थिति में सुधार लाना तथा पारसी धर्म को उसके शुद्ध रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करना था। इस सभा के मुख्य स्तम्भ दादा भाई नौरोजी थे जोरेस्टर की शिक्षा, पारसी कर्मकाण्ड, रीति-रिवाज आदि की पुनर्स्थापना हेतु सुधारकों ने पारसी पुरोहितों और धर्म प्रचारकों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया। 
  • पारसियों को अन्य धर्मों व सम्प्रदायों के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त कर उन्हें पारसी धर्म की मूल की शिक्षाओं और उसकी संस्कृति से जोड़ना इस सभा का लक्ष्य था।

 

11 फ़ौज़ी अथवा फ्रदी आन्दोलन

 

  • 19 वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में पूर्वी बंगाल में हाजी शरियतुल्लाह ने फौजी अथवा फरैदी आन्दोलन की स्थापना की। इस आन्दोलन में इस्लाम के रूढ़िवादी मूल्यों की पुनर्स्थापना का प्रयास किया गया।

 

12 वहाबी आन्दोलन

 

  • अठारहवीं शताब्दी में शाह वली उल्लाह ने इस्लाम को उसके शुद्ध रूप में पुनर्प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से वहाबी आन्दोलन की नींव रखी थी। 19 वीं शताब्दी में सैयद अहमद बरेलवी और उनके अनुयायियों शाह मुहम्मद इस्माइल और मौलाना अब्दुल हई ने राजनीतिक रूप से पराजित तथा धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से पतित मुस्लिम जाति के पुनरुत्थान के उद्देश्य से कट्टरपंथी वहाबी आन्दोलन का नेतृत्व किया था। पंजाब, बंगाल व बिहार में इनका प्रभाव था। इस आन्दोलन में धार्मिक पवित्रता और धार्मिक एकता पर बल दिया गया और मुसलमानों पर पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते हुए प्रभाव पर प्रहार किया गया। वहाबियों को उनके मुख्यालय सितना से सन् 1858 में खदेड़ दिया गया और 1863 में सर नेवाइल चेम्बरलेन ने उनके केन्द्र मल्का पर अधिकार करके उनकी शक्ति को कुचल दिया।

 

13 अलीगढ़ आन्दोलन

 

  • व्यावहारिक बुद्धि के धनी सैयद अहमद खान एक प्रगतिशील मुसलमान थे। प्रगति में बाधक परम्पराओं और धर्म के नाम पर पतन की ओर ढकेलने वाली मानसिकता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। अपने पत्र तहज़ीब-उल-अखलाक में प्रकाशित अपने लेखों में उन्होंने बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखे बिना किसी कार्य को अपना धर्म समझ कर करने की मनोवृत्ति की आलोचना की। 


  • सैयद अहमद खान के सहयोगी अल्ताफ हुसेन हाली ने अपने महाकाव्य मुसद्दसे हाली में हिन्दुस्तान में मुस्लिम जाति तथा इस्लाम के पुनरुत्थान हेतु सृजनात्मक सुझाव दिए थे। कट्टरपंथियों ने सैयद अहमद खान की नीतियों का घोर विरोध किया। अलीगढ़ आन्दोलन की धर्म सुधार आन्दोलन में भूमिका नगण्य है, वास्तव में इसका इसका योगदान सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में अधिक है।

 

14 अहमदिया आन्दोलन

 

  • मुस्लिम धर्मविज्ञान तथा अरबी व फारसी भाषा के विद्वान मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादिनी अपनी वक्तृता और बौद्धिक दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्ध थे। मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादिनी भारत में प्रचलित इस्लाम की परम्पराओं तथा मान्यताओं को व्यावहारिकता का जामा पहनाना चाहते थे। ब्रह्म समाज के समान अहमदिया आन्दोलन में सभी धर्मों में मान्य विचारों को प्रमुख स्थान दिया गया था। मिर्ज़ा गुलाम अहमद की विचारधारा समन्वयवादी थी। धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक अहमदियों अर्थात् कादियानियों को मुसलमानों से अलग कर दिया गया किन्तु उनकी विचारधारा मूलरूप से इस्लाम की मूल शिक्षाओं के अनुरूप ही रही। अहमदिया आन्दोलन ने भारत तथा अन्य देशों में अपना प्रभाव स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

 

15 देवबन्द आन्दोलन

 

  • मुहम्मद कासिम ननौतवी तथा रशीद अहमद गंगोही ने 1867 में देवबन्द में इस्लाम की शिक्षाओं पर आधारित पाठ्यक्रम का पोषण करने वाले तथा मुस्लिम धर्म व ज्ञान का प्रसार-प्रचार करने वाले इस्लामी मदरसे की स्थापना की । देवबन्द आन्दोलन का योगदान मुख्यतः भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन तथा शिक्षा प्रसार तक सीमित रहा किन्तु इसमें धार्मिक शिक्षा के प्रसार प्रचार को पर्याप्त महत्व दिया गया।


 विषय सूची 


पुनर्जागरण का अर्थ, पुनर्जागरण की विशेषताएं

पुनर्जागरण के कारण 

इटली में ही पुनर्जागरण की शुरूआत क्यों 

पुनर्जागरण का कला,साहित्य, विज्ञान,चित्रकला, मूर्तिकला के क्षेत्र में प्रभाव

भारतीय पुनर्जागरण - भारत का सभी धर्म सुधार आंदोलन


पुनर्जागरण आन्दोलन प्रभाव और परिणाम 

No comments:

Post a Comment

Powered by Blogger.