कटनी जिले के पर्यटन स्थलों का नाम और उनकी जानकारी | Katni Tourist Spot in Hindi
कटनी जिले के पर्यटन स्थल का नाम और उनकी जानकारी
कटनी जिले का इतिहास
- चूना पत्थर के शहर के नाम से लोकप्रिय उत्तरी मध्यप्रदेश का कटनी 4950 वर्ग कि.मी. के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यह जिला मुख्यालय भी है। ढीमरखेड़ा, बहोरीबंद, मुड़वाड़ा और करोन्दी यहां के लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं। मुड़वाड़ा, कटनी, छोटी महानदी और उमदर यहां से बहने वाली प्रमुख नदियां हैं। कटनी का स्लीमनाबाद गांव संगमरमर के पत्थरों के लिए प्रसिद्ध है।
- कटनी नगर का नामकरण कटनी नदी के नाम पर हुआ है । इस नदी पर नगर पश्चिम में 2 किमी दूर कटाए घाट है। वास्तव में यह 'कटाव घाट' है, उस कटाव पहाड़ी का जो बहोरीबंद में है। घाट का आशय चढ़ाव है।
- शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास नीला चाँद में इस कटाव घाट के रास्ते से होकर युद्ध के लिए जाने की सलाह काशी नरेश को दी जाती है।
कटनी को मध्यप्रदेश की बारडोली क्यों कहा जाता है ?
- कटनी को मध्यप्रदेश की बारडोली की गौरवशाली उपाधि इसलिए मिली, कि इस नगर एवं आस-पास के गांव के लोगों ने देश की आज़ादी की लड़ाई में बापू का साथ दिया था । स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रदेश में जेल जाने वाले सबसे ज्यादा लोग इसी क्षेत्र के थे। कस्तूरबा से मुलाकात करने यहाँ के रेलवे प्लेटफार्म पर उनके बड़े पुत्र आए थे। बघेली, बुंदेली और गोण्डी बोलियों की त्रिधारा कटनी को बोलियों का प्रयाग बनाती है ।
कटनी जिले के पर्यटन स्थलों का नाम और उनकी जानकारी
विजयराघवगढ़ का किला
- कटनी जिला मुख्यालय से 33 किमी दूर यह एक ऐतिहासिक महत्व का किला है। समुद्र सतह से 350 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह किला महाराज प्रयागदास ने बनवाया था। इनके बड़े भाई विष्णुसिंह को मैहर का इलाका मिला और छोटे भाई प्रयागदास को विजयराघवगढ़ क्षेत्र मिला। प्रयागदास ने झपावन नदी के किनारे एक शानदार दुर्ग बनवाया उनका पुत्र सरयूप्रसाद सिंह सन् 1857 की क्रांति में विद्रोही हो गया था। उसके प्रमुख सहायक सरदार बहादुर ख़ान ने मुड़वाड़ा, कटनी में अंग्रेजों से मुकाबला किया था। किशोर राजा को सुरक्षित कर बहादुर खान ने अपने प्राणों का बलिदान कर वफादारी की मिसाल कायम की। आज भी कटनी में महिला महाविद्यालय के पास शहीद की मज़ार है। इस विद्रोह के कारण अंग्रेजों ने यह किला और पूरी जागीर राजसात कर लिए थे।
- यहां दुर्ग और परकोटे को घेरती एक खाई बनी है। किले के बुर्जों से दूर-दूर तक बाह्यदृश्य बड़ा मनोहारी दिखता है। किले के अन्दर एक ओर कचहरी है। बीच में एक आँगन है, जिसमें बरम-बाबा का चबूतरा है। इसके बगल में एक सुन्दर इमारत है, जिसे रंगमहल कहते हैं। इस महल में एक राजपुरुष का चित्र बना है। इसके ऊपर की छत का भीतरी भाग पच्चीकारी से परिवेष्ठित हैं। आँगन के एक कोने में एक मंदिर है, लेकिन इसमें कोई मूर्ति नहीं है। शायद यही राघव मंदिर रहा होगा। आँगन के बाद मुड़िया महल हैं, जो संभवतः अंतःपुर रहा होगा। यहाँ कारीतलाई के गढ़े हुए पत्थर जगह-जगह लगे हैं। कचहरी और मुड़िया महल के बीच बरामदे में चौखट पर एक कलचुरीकालीन अभिलेख जसमें महाकुमार श्री मन्मथदेव का उल्लेख है।
- किला तो अब खण्डहर हो गया, परन्तु सन् 1857 की क्रांति के समय जो घटनाएँ यहाँ घटीं, उन्हें जनमानस आज भी अपने हृदय में सँजोये है। प्रसंगवश, यह बताना उचित होगा, कि ठाकुर जगमोहन सिंह इसी राजपरिवार के कवि थे। इनका लिखा काव्य उपन्यास 'श्यामा स्वप्न' भारतेंदुकाल की महत्वपूर्ण कृति है।
बिलेहरी के पर्यटन स्थल
- यह ऐतिहासिक स्थल जिला मुख्यालय से लगभग 16 किमी दूर स्थित है। यह स्थल राजा कर्ण की राजधानी के नाम से भी विख्यात है।
- यह प्राचीन नगर पूर्व काल में 24 मील के क्षेत्र में फैला हुआ था तथा इसका नाम पुष्पावती नगरी था। यहां से कलचुरी कालीन 10वीं शताब्दी का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो कलचुरी शासक युवराज द्वितीय (980-990ई) से संबंधित है। इस अभिलेख से कलचुरी वंश की उत्पत्ति एवं इस वंश के प्रारंभिक शासकों की जानकारी प्राप्त होती है, साथ ही युवराज प्रथम (915-945) के सैनिक अभियानों का भी पता चलता है।
बिलहरी कटनी पर्यटन स्थलों की जानकारी
गया कुंड
- बिलहेरी से देवगाँव मार्ग पर गया कुण्ड है। इसमें अद्भुत शिल्प-सौन्दर्य से मंडित शिव-पार्वती की कलचुरीकालीन कल्याण सुन्दर प्रतिमा स्थापित है, जिसमें एक बालक को पार्वती जी के चरण पकड़कर ऊपर चढ़ने प्रयास करते दर्शाया गया है। यहां एक ही स्थान पर छः कुण्ड बने हुए हैं। सभी कुण्डों में साल भर पानी भरा रहता है। चाहे अकाल और सूखे का ही समय क्यों न हो, इन कुण्डों के जलस्तर में कमी नहीं होती है। निकट ही विशाल शिव मंदिर स्थापित है।
तापसी मठ (कामकंदला दुर्ग)
- बिलेहरि के समीप चिखला क्षेत्र में प्रसिद्ध तापसी मठ स्थित है। यह ऐतिहाकिस इमारत बिना जोड़ के मसाले से निर्मित है । यद्यपि यह प्राचीन संरचना अब ध्वस्त हो चुकी है तथापि दीवारों तथा पत्थरों पर की गई नक्काशी तत्कालीन उत्कृष्ट वास्तुविन्यास का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। देखने में यह संरचना दुर्ग से अधिक मंदिर प्रतीत होता है, जो भगवान शिव को समर्पित है। यहां स्थापित जलहरी(योनिपीठ) को देखकर प्रतीत होता है, कि यहां कभी विशाल शिवलिंग स्थापित रहा होगा। इसकी छत पर अद्भुत चित्रकारी की गई है। इसमें कई प्राचीन अभिलेख पाए गए हैं।
- जनश्रुति है, कि माधवानल यहाँ का एक गायक था। उसे इस प्रदेश के राजा गोविन्दराम ने देश निकाला दे दिया था। निर्वासित जीवन बिताते हुए वह कर्णावती के राजदरबार में पहुँचा, जहाँ कामकंदला नामक नृत्यांगना के मोहपाश में बँध गया। एक दिन अवसर पाकर माधवानल, कामकंदला के साथ भागकर पुष्पावती लौट आया। यहाँ उसने एक महल बनवाया जो वर्तमान में कामकंदला मंदिर या तापसी मठ के नाम से जाना जाता है। यह लंबे समय तक शिव मंदिर के रूप में चर्चित रहा। बाद में यह बौद्ध मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया तथा तापसी मठ के रूप में जाना जाने लगा।
लक्ष्मण सागर जलाशय
- यह तालाब युवराज देव प्रथम और उसकी राजमहिषी नोहला के पुत्र लक्ष्मणराज ने खुदवाया था। इसका जीर्णोद्धार सन् 2009 में नरेगा के तहत करवाया गया था। वर्तमान में यह लक्ष्मण सागर जलाशय के नाम से जाना जाता है। इसी लक्ष्मणसागर के किनारे एक कलचुरी कालीन शिलालेख प्राप्त हुआ था, जो नागपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।
विष्णु वराह मंदिर
- इस मंदिर में लक्ष्मीनारायण की एक सुन्दर गरुड़ासन प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के तोरणद्वार पर गंगा यमुना की अति सुन्दर, कलात्मक मूर्तियाँ बनी हैं। इनमें विचित्र बात यह है कि दोनों मूर्तियों की पादपीठ पर भगीरथ विराजे हैं।
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पुष्पावती बिलेहरी
- बिलहेरी आचार्य तारण तरण मंडलाचार्य की जन्मस्थली है। उनकी जन्मतिथि अगहन सुदी सप्तमी सं. 1505 है। उन्होंने पाँच भागों में 14 ग्रंथों की रचना की थी। उनके रचित ग्रन्थ / शास्त्र यहाँ उपलब्ध हैं। अपने ग्रंथों में आचार्य श्री ने भगवान महावीर की वाणी को ही प्रतिपादित किया है। यहां प्रतिवर्ष अगहन सुदी सप्तमी को तीन दिवसीय मेले का आयोजन होता है।
चित्रयुक्त शैलाश्रय, झिंझरी
- कटनी नगर के समीप जबलपुर मार्ग पर लगभग 3 कि. मी. पहले 14 रंगीन चित्रयुक्त शैलाश्रय हैं। ये सभी दुगाड़ी नाला क्षेत्र में मिलते हैं, जहाँ आदिमानव का निवास था। इन शैलाश्रयों में उसने उस काल में अपने आस-पास पाये जाने वाले पशुओं का सजीव चित्रण किया है। इनमें गाय, बैल, हिरण कुत्ता, बकरी, गैण्डा, वनभैंसा, सुअर और हाथी के चित्र प्रमुख हैं। गैण्डे के चित्र से यह बात सिद्ध होती है, कि उस काल में गैण्डे भी इस क्षेत्र में विचरण करते होंगे। हाथी तो रानी दुर्गावती के समय में भी पाये जाते थे। पशुओं के अतिरिक्त ढाल-तलवारधारी योद्धा और नृत्य करते नर-नारी, पेड़ फूल इत्यादि के भी चित्र बने हैं। इन गुहाचित्रों का समय मध्ययुग, 10 हजार वर्ष ई. पू. से लेकर 4 हजार वर्ष ई. पू. तक है । कुछ चित्र परिवर्ती मध्यकाल 7सौ से लेकर 2 सौ ईसा पूर्व तक के हैं। इन गुफाओं के अन्दर और बाहर टीलों पर उपरत्नों से बने औजार भी मिलते हैं, जिनका प्रयोग आदिमानव पाषाणयुग में करता था। इनमें एगेट या सुलेमानी तथा चालसी-डोनी के लघु पाषाण उपकरण बहुतायत से प्राप्त हुए हैं।
बहोरीबंद के पर्यटन स्थल
- बहोरीबंद सिहोरा नगर से 24 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस गाँव को प्रसिद्ध पुराविद् कनिंगघम ने टॉलमी की विश्व प्रसिद्ध भूगोल में वर्णित-थोलोबाना ही माना है। यहाँ पर भगवान शान्तिनाथ की 12 फीट ऊँची और 6फीट चौड़ी आकर्षक प्रतिमा है। मूर्ति के आसन पर अंकित कलचुरी कालीन अभिलेख में लिखा है, कि यह मंदिर महाराज गयाकर्ण देव के शासनकाल में निर्मित हुआ, जब राष्ट्रकूट महासामन्ताधिपति गोल्हणदेव यहाँ के स्थानीय शासक थे। इनका समय लगभग बारहवीं शताब्दी के मध्य का प्रतीत होता है। यहाँ पर एक बड़ा तालाब भी है, जिसके तट पर कई प्रतिमाएँ पड़ी हैं। इनमें से एक प्रतिमा में दशावतार अंकित है। एक औलिया, पीरान-ए-पीर का चबूतरा भी यहाँ है ।
बाकल के पर्यटन स्थल
- बहोरीबंद तहसील में स्थित ग्राम बाकल में सन् 1976 विक्रमी संवत में निर्मित प्राचीन बावड़ियां किसी को भी हैरत में डाल सकती हैं। इनमें से एक बावड़ी की मिल्कियत स्थानीय अग्रवाल परिवार के पास है। यद्यपि यह अज्ञात है कि इसका निर्माण किसने करवाया तथापि इसकी सुघड़ संरचना तथा कलात्मक वास्तुविन्यास अभी भी बरकरार है। यह बावड़ी खेतों के बीच स्थित है।
- इस ग्राम में एक अन्य खूबसूरत प्राचीन बावड़ी शासकीय विद्यालय के पास है। इस बावड़ी का स्वामित्व स्थानीय ब्राम्हण परिवार के पास है। इसमें पानी नहीं है। इस विद्यालय का निर्माण बाकल तथा उसके आस-पास के अस्सी गांवों के राजा सलैया ने करवाया था। बाकल ग्राम से 10 किमी की दूरी पर बहोरीबंद- मिर्जापुर राजमार्ग पर राजा सलैया का महल देखा जा सकता है। लंबे-चौड़े क्षेत्र में फैली हुई यह कोठीनुमा महल संभवतः 20वीं सदी के प्रारंभिक काल में निर्मित है।
- इसमें उजियार सिंह लोधी निवास करते थे। इन्होंने पहाड़ियों की गोद में नदी तट पर निर्मित तथा चारों ओर जंगल से घिरे इस खूबसूरत महल के रख-रखाव पर विशेष ध्यान नहीं दिया। यहां स्थित खेरमाई मंदिर के एक कोने में अनेक खण्डित प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं।
- खेरमाई की मूल प्रतिमा भी खण्डित ही है, जिसे हटाकर दूसरी प्रतिमा स्थापित कर दी गई है। इस स्थान से 1 किमी पहले कृषि भूमि के मध्य एक और प्राचीन बावड़ी है। इसे देखकर प्रतीत होता है, कि पहले यहां मंदिर रहा होगा क्योंकि बावड़ी के चबूतरे पर कुछ प्राचीन देव प्रतिमाएं पड़ी हुई हैं। इस बावड़ी में पानी भरा हुआ है, परंतु रख-रखाव के अभाव में पीने योग्य नहीं है।
- कोठी से 2सौ मीटर की दूरी पर बुरी दशा में एक और प्राचीन बावड़ी है। इस बावड़ी से सौ मीटर की दूरी पर पीर मुहम्मद जलालुद्दीन की मज़ार है। यहां से 2सौ मीटर की दूरी से महल का परिसर प्रारंभ हो जाता है। इस परिसर में अनेक मंदिरों के भग्नावशेष देखे जा सकते हैं। इनमें से दो मंदिरों की स्थिति अभी भी बहुत अच्छी है। ऐसा लगता है, ये मंदिर 18वीं सदी के पूर्वाद्ध में बने होंगे।
- सभी मंदिर रिक्त है तथा इनमें पूजा नहीं होती है। एकमात्र राधाकृष्ण मंदिर को संध्या काल में किसी पुजारी द्वारा खोला जाता है, तथा पूजा के बाद पुन: बंद कर दिया जाता है। अन्य सभी मंदिर रिक्त हैं, जो वर्तमान में चमगादड़ों का बसेरा बन गया है। महल से लगभग सौ मीटर की दूरी पर एक सुसज्जित प्राचीन बावड़ी निर्मित है, जिसकी सीढ़ियों की दीवारों पर देव-गंधर्वो की विलक्षण प्रतिमाएं लगी हैं । इन बावड़ियों को किसने और कब बनवाया यह अज्ञात हैं। वास्तव में यह प्राचीन स्थल विस्तृत शोध तथा रखरखाव की मांग करता है। निश्चय ही ऐसा होने पर अतीत के कई अनजाने पन्ने खुलेंगे।
झांझरागढ़
- कटनी जिले का यह छोटा सा गांव प्रारंभ में झांझरागढ़ के नाम से जाना जाता था। बहोरीबंद तहसील में स्थित इस गांव में पूर्व गुप्तकालीन सपाट छत वाला पुराना विष्णु मंदिर देखा जा सकता है। इसके मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर गंगा और यमुना नदी देवियों का चित्रण है, जो कि गुप्त निर्माण शैली की विशेषता है।
- मंदिर पांचवी शताब्दी या उसके पूर्व का है। इस मंदिर को वर्तमान में कंकाली देवी का मंदिर कहा जाता है, क्योंकि मंदिर के मुख्य द्वार पर बाई ओर एक शिलापट के ऊपरी भाग पर कंकाली देवी की मूर्ति है।
- दाहिने शिला पट पर एक काली की मूर्ति है, कंकाली देवी के नीचे अनन्त नामक सर्प पर लेटे हुए विष्णु की प्रतिमा है, जिनकी नाभि से निकले हुये कमल पर ब्रह्मा जी विराजते है। वर्तमान में यह मंदिर मूलस्वरूप में नहीं है। इसमें समय-समय पर परिवर्तन किया गया है। दूसरी ओर की दीवार में जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की पत्थर की मूर्ति स्थित है। मंदिर के अंदर सामने दीवार पर विष्णु के नृसिंह अवतार की मूर्ति गड़ी है।
- मंदिर के एक स्तम्भ पर कानकुब्ज के उमादेव नामक तीर्थयात्री का लेख है, जिसने सेतभद्र के मंदिर में उपासना की थी। इसकी लिपि आंठवी शताब्दी की है।
- इसके निकट एक दूसरा मंदिर है, जो दुर्गा मंदिर कहलाता है। इसका निर्माण पुराने मंदिरों के भग्नावशेषों से किया गया है। इसमें अष्टभुजी दुर्गा की मूर्ति है । स्थानीय लोग इसे शारदा माता मंदिर भी कहते हैं।
- मंदिर परिसर में पुराने मंदिरों के खण्डित भग्नावशेष और मूर्तियां भी हैं। इस मंदिर के उत्तर में एक अलकृंत पाषाणों का द्वार है, जो गुप्त शैली के एक अन्य मंदिर का एक मात्र अवशिष्ट भाग है। वर्तमान में मंदिर परिसर को पत्थरों की दीवार से घेरकर संरक्षित किया गया है। परिसर के भीतर अनेक खण्डित मंदिरों के अवशेष पड़े हुए हैं । यह स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित किया गया है।
रूपनाथ धाम
- यह तीर्थस्थल बहोरीबंद से 3 किमी. दूर पड़रिया ग्राम में स्थित है। खूबसूरत कैमूर की पहाड़ियों के मध्य स्थापित यह मंदिर यद्यपि आधुनिक शैली में निर्मित है तथापि गर्भगृह में स्थापित भगवान शिव की पंचलिंग प्रतिमा दर्शनीय है। यह प्रतिमा ढाई सौ ईसा पूर्व की हैं। इस तिमंजिले मंदिर का भू तल भाग भगवान शिव तथा पार्वती को समर्पित है। पहली मंजिल पर राम-जानकी स्थापित हैं तथा दूसरे मंजिल पर राधा-कृष्ण विराजित हैं। रूपनाथ धाम को बांदकपुर धाम में स्थित जोगेश्वरनाथ से भी जोड़ा जाता है ।
- जनश्रुतियों के अनुसार रूपनाथ में वनवास काल में राम, लक्ष्मण तथा जानकी ने अल्प प्रवास किया था। एक अन्य कथा के अनुसर बांदकपुर में विराजमान जोगेश्वरनाथ 232 वर्ष पूर्व रूपनाथ में विराजित थे। कठोर तपस्या के बाद भस्मासुर शिव से वरदान प्राप्त करते ही पार्वती की ओर झपटा। अचानक हुए हमले का सामना शिव नहीं कर पाए और पार्वती को लेकर रूपनाथ की गुफा के रास्ते भागे और बांदकपुर में प्रगट हुए।
- रूपनाथ में सीता कुण्ड के पास एक दरार है, जिसके बारे में कहा जाता है, कि इसी स्थान से शिव लुप्त हो गए थे । यहां पहाड़ियों के बीच 7 कुण्ड निर्मित था, जिसमें से 4 कुण्ड समाप्त हो चुके है। 3 कुण्डों को अभी भी देखा जा सकता है। एक के ऊपर एक बने कुण्डों में सबसे निचले कुण्ड को सीताकुण्ड, बीच के कुण्ड को लक्ष्मण कुण्ड और सबसे ऊपर वाले को राम कुण्ड के नाम से जाना जाता है।
- लगभग सौ मीटर की ऊंचाई पर बने ये कुण्ड अपार जल संपदा के स्त्रोत हैं। कुण्ड से आगे पहाड़ी चोटी पर एक विशाल जलाशय है, जो लगभग 14 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है। वर्तमान में इस जलाशय को पर्यटन विभाग द्वारा सजाने संवारने का प्रयास किया जा रहा है। मकर संक्रांति के अवसर पर यहां विशाल मेला लगता है, जो एक पखवाड़े तक चलता रहता है। इसके अतिरिक्त शिवरात्रि के अवसर पर भी यहां मेला लगता है।
अशोक का शिलालेख
- रूपनाथ धाम में सम्राट अशोक का धमोपदेश उत्कीर्ण लघुशिलालेख भी स्थापित है। जिस गोलाकार प्रस्तर खंड पर यह लेख उत्कीर्ण है वह गहरे लाल रंग का है, जो निचले जलाशय के पश्चिमी सीमांत पर स्थित है। यह शिलालेख ब्राम्ही लिपि में लिखा गया है।
जोगिनी का स्थान, सिन्दुरसी
- रूपनाथ से लगभग एक किलोमीटर पर स्थित सिन्दुरसी ग्राम की पर्वत-शिलाओं पर चार प्रतिमाएं उकेरी - गई हैं। इस स्थल को कुछ लोग जोगिनी का स्थान तो कुछ लोग जोगिया बाबा का स्थान कहते है। अनुमान है कि इन प्रतिमाओं को उच्चकल्प के परिव्राजक महाराज जयनाथ या सर्वनाथ के शासनकाल में पूर्ण किया गया होगा। ये परिव्राजक गुप्त नरेशों के समकालीन थे, जिनका समय छठवीं शताब्दी माना जाता है ।
- इनमें पहली प्रतिमा द्विभुजीय नरसिंह की बैठी हुई अवस्था में है। दूसरी शेषशायी विष्णु और चतुर्भुजी विष्णु की स्थानक प्रतिमा है। चौथी महिषासुर मर्दिनी, भगवती दुर्गा की प्रतिमा अपने आयुधों से सज्जित है। उन्हें त्रिशूल, खड्ग और ढाल लिए दानवराज महिषासुर का वध करते दर्शाया गया है। विन्ध्या अटवी की शैलमाला में तराशे गये मूर्ति शिल्पों में इसका प्रमुख स्थान है।
कारीतलाई
- यह ग्राम कटनी से 48 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इसका प्राचीन नाम करणपुरा था। अनुमान है कि यहाँ पर कई मंदिर रहे होंगे, जिनके भग्नावशेष आज भी एक विस्तृत क्षेत्र में फैले हैं। इन खण्डहरों के बीच भगवान विष्णु के वराह अवतार की एक मूर्ति अपने चारों चरणों पर खड़ी है। यह वराह मूर्ति 8 फीट लम्बी, 7 फीट ऊँची और 3 फीट चौड़ी है। यह प्रतिमा कलचुरी-शिल्प का अद्वितीय उदाहरण है। इसी स्थान पर पायी गई कच्छ-मच्छ की एक मूर्ति स्थानीय पाठशाला के द्वार पर लगी है। इसी ग्राम से लक्ष्मणराज द्वितीय का एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ था, जो अब नागपुर संग्रहालय में है।
करौंदीकला
- जिले के ढीमरखेड़ा विकासखण्ड क्षेत्र में स्थित भारत का केन्द्र बिन्दु करौंदीकला गांव में स्थित है। माना जाता है, कि यहां से भूमध्य रेखा गुजरती है। केन्द्र बिन्दु को चिन्हित करने के लिए यहां एक चबूतरे पर सारनाथ स्तंभ की प्रतिकृति स्थापित की गई है। कटनी मुख्यालय से लगभग 60 कि.मी. की दूरी पर उमरिया और ढीमरखेड़ा के बीच मुख्य मार्ग से जंगल में 10 कि.मी. की दूरी पर बसे इस ग्राम का वातावरण आनंदित करने वाला है।
विश्वनाथ मंदिर, बड़गवां
- यह मंदिर दमोह-कटनी सड़क मार्ग पर बडगंवा कस्बे के मध्य में भगवान विश्वनाथ का विशाल मंदिर स्थित है। इस लाल प्रस्तर खण्डी चौकोर मंदिर के मध्य में शिवलिंग प्रतिष्ठित है, गुलाबी प्रस्तर से निर्मित है एवं लगभग 4 फीट मोटा एवं 6 फीट ऊंचा है। मंदिर की भित्तियों पर गुप्तकालीन लाल पॉलिश आज भी यथावत है। शिलाखण्डों पर अंकित मूर्तियों एवं चित्रों को देखकर अनुमान लगाया जाता है, कि यह वैष्णवी विष्णु मंदिर रहे होंगे।
मोहर सिंह भवन
- देश की आजादी में बड़गवां के निवासियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यहां कुछ ऐसे सिपाही हुए जिनकी स्मृति एक भवन में आज भी सुरक्षित है। मोहर सिंह जगत प्रसाद द्वारा सन् 1950 में स्वतंत्रता के सिपाहियों की स्मृति में बरगवां मार्ग पर निर्मित भवन आज भी मानो अतीत की गाथा सुना रहा है। उन्होंने भवन के ऊपरी हिस्से पर तिरंगा महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की मूर्तियां स्थापित करवा दीं। राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-7 पर स्थित यह भवन आज भी आकर्षण का प्रमुख केंद्र है।
दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर
- कटनी स्टेशन मार्ग पर स्थित दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर वर्षों से श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। यहां स्थानीय श्रद्धालुओं के अलावा दूर-दराज क्षेत्रों से भी भक्तगण अपनी मनोकामनाएं लेकर आते हैं। कहा जाता है, कि लगभग सौ वर्ष पूर्व एक वृक्ष के नीचे हनुमान जी की उत्पत्ति हुई थी, जिनकी पूजा अर्चना डाकघर में पदस्थ सरयू प्रसाद तिवारी द्वारा प्रारंभ की गई । हनुमान जी के प्रति अटूट श्रद्धा के कारण वे नौकरी छोड़ कर पूजा-अर्चना करने लगे थे। अंग्रेजों के समय से ही सिद्धपीठ दक्षिणमुखी हनुमान जी का मंदिर शहर कोतवाल के नाम से माना जाता रहा है और राजस्व रिकार्ड में भी शहर कोतवाल के नाम से ही दर्ज है।
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